विश्व के सब से बड़े लोकतंत्र भारत में आम चुनाव होने जा रहे हैं. देशवासी देश व दुनिया को अपना संदेश देंगे. मौजूदा केंद्रीय सरकार ने चुनावों से पहले देशवासियों को जो सपने दिखाए थे, उन्हें वह पूरा कर पाई या नहीं, मतदाता इस पर अपना फैसला मतदान कर बताएंगे. हालांकि सत्ता में आने से पहले और फिर सत्ता में आ कर भारतीय जनता पार्टी की कथनी व करनी कैसी रही, इस का आकलन करना मुश्किल नहीं है. भाजपा नेता नरेंद्र मोदी की लीडरशिप में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार अपने कामकाज के दौरान किसानों, दलितों, अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलिमों के लिए कैसी रही, इस पर डालते हैं एक नजर.

2015 के बजट सत्र में नरेंद्र मोदी ने किसानों की आमदनी को दोगुना करने का लक्ष्य रखा था, तो देशभर के अर्थशास्त्री चौंके थे कि यह कैसे संभव होगा. अर्थशास्त्रियों का शक सही निकला क्योंकि अब तक सरकार ने इस दिशा में कुछ खास नहीं किया सिवा इस के कि इस बात को हर बजट में दोहे की तरह दोहराया गया था.

किसानों की हालत

कृषिप्रधान देश में किसानों की बदहाली आखिरकार क्यों लगातार बढ़ रही है. वर्ष 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने के लिए केंद्र सरकार ने एक समिति का गठन किया था, जिस समिति ने 2 साल बाद एक रिपोर्ट सरकार को सौंपी. यह रिपोर्ट बताती है कि किसानों का ध्यान बंटाने और उन्हें लुभाने के लिए नरेंद्र मोदी एक ऐसा वादा कर बैठे हैं जिस का पूरा होना किसी चमत्कार से भी मुमकिन नहीं.

द्य वर्ष 2022 तक आमदनी दोगुनी करने के लिए जरूरी है कि किसानों की आमदनी में सालाना 12 फीसदी की बढ़ोतरी हो जबकि हकीकत में किसानों की आमदनी 2 फीसदी भी नहीं बढ़ रही.

द्य सरकार की नीतियों से किसान खुश नहीं थे. सो नवंबरदिसंबर में हुए 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में किसानों का गुस्सा फट पड़ा जिस के चलते भाजपा औंधेमुंह लुढ़की.

द्य मौजूदा हकीकत यह है कि किसान नरेंद्र मोदी सरकार से मायूस हो गया है. हद तो तब हो गई जब 19 जुलाई, 2017 को कृषि मंत्री राधामोहन सिंह लोकसभा में इस बात से यह कहते मुकर गए कि प्रधानमंत्री ने ऐसी कोई बात नहीं की थी और न ही ऐसा कोई आश्वासन दिया था. तब देश के किसानों को समझ आ गया था कि मोदी सरकार किसान हितैषी तो कहीं से नहीं है जो अपने ही घोषणापत्र से मुकर रही है.

द्य अब जब लोकसभा चुनाव सिर पर हैं और किसान का मूड किसी भी कीमत पर बदलता नहीं दिख रहा तो सरकार के माथे पर पसीना है कि वह अब क्या करे. कर्जमाफी की सुगबुगाहट हुई लेकिन जल्दी ही नरेंद्र मोदी यह कहते पलटी मार गए कि यह कोई कारगर रास्ता नहीं है. अब बजट में किसानों को 6,000 रुपए सालाना देने की घोषणा की है जो नाममात्र है.

द्य नोटबंदी के वक्त नकदी की किल्लत ने किसानों को सालों पीछे ढकेल दिया है. वह पैसों की जरूरत के लिए अपनी पैदावार को औनेपौने भाव में बेचने को मजबूर हुआ था. नोटबंदी के झटके से किसान पूरी तरह उबर भी नहीं पाया था कि जीएसटी ने उस की रहीसही हिम्मत तोड़ दी, जिस के चलते कृषियंत्रों सहित तमाम उपकरण और खाद व बीज महंगे हो गए.

द्य डीजल के बढ़े दामों की मार ने तो उस की कमर तोड़ दी क्योंकि ट्रैक्टर का इस्तेमाल करना लगातार महंगा होता गया. सिंचाई की लागत भी बढ़ी. लेकिन उपज के दाम नहीं बढ़े. फिर स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के वादे पर तो सोचना भी बेकार है.

किसान आत्महत्याएं

नरेंद्र मोदी सरकार का कार्यकाल इसलिए भी याद किया जाएगा कि इस में सब से ज्यादा किसान आंदोलन हुए. कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक किसानों ने सड़कों पर आ कर धरनेप्रदर्शन किए. मध्य प्रदेश के मंदसौर में तो हालात इतने बेकाबू हो गए थे कि वहां प्रदर्शन कर रहे किसानों पर जून 2017 में पुलिस ने गोलियां तक चला दीं थीं जिस से आधा दर्जन किसान मारे गए थे.

यह किसान आंदोलन महाराष्ट्र के नासिक से शुरू हुआ था जिस में किसान सही दाम का अपना हक मांगते अपनी पैदावार सड़कों पर फेंक कर विरोध जता रहे थे. बदले में गोलियां और लाठियां मिलीं तो देशभर के किसान गुस्सा हो गए.

मोदी राज में किसानों की आत्महत्या की दर भी बढ़ी है. एक अंदाजे के मुताबिक, देश में हर दिन 35 किसान आत्महत्या कर रहे हैं. अंदाजा इसलिए कि मोदी सरकार किसानों की आत्महत्याओं को ले कर आंकड़े पेश ही नहीं कर रही.

पर यह सच छिपाने से छिप जाएगा, ऐसा कहने की भी कोई वजह नहीं. कृषि राज्यमंत्री पुरुषोत्तम रूपाला ने राज्यसभा में एक लिखित उत्तर में बताया था कि साल 2015 तक के आंकड़े वैबसाइट पर उपलब्ध हैं, उस के बाद के नहीं हैं. सदन में पेश किए गए आंकड़ों के मुताबिक, 2015 में 3,097 किसानों ने आत्महत्या की थी और साल 2014 में कुल 1,163 किसानों ने खुदकुशी की थी.

अब यह न कोई पूछने वाला न कोई बताने वाला कि इस संवेदनशील मुद्दे पर रिकौर्ड रखना बंद क्यों कर दिया गया. गृह मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) को किस ने इस पर आंकड़े इकट्ठा न करने के निर्देश दिए और दिए तो क्यों दिए.

हैरानी और दिलचस्पी की बात यह भी है कि मई 2017 में नरेंद्र मोदी सरकार ने ही सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि किसानों की आमदनी और सामाजिक सुरक्षा बढ़ाने की तमाम कोशिशों के बाद भी साल 2013 से हर साल 12 हजार से भी ज्यादा किसान आत्महत्या कर रहे हैं. गौरतलब है कि किसानों की हालत को ले कर एक एनजीओ सिटीजन रिसोर्स ऐंड ऐक्शन इनीशिएटिव की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में दाखिल एक याचिका के संबंध में केंद्र सरकार ने ये आंकड़े पेश किए थे.

अलगअलग एजेंसियों के आंकड़ों में थोड़ाबहुत अंतर होना स्वभाविक है लेकिन 2016 के बाद किसानों की खुदकुशी का कोई सरकारी आंकड़ा न होना बताता है कि सरकार अपनी नाकामी और निकम्मापन ढंकने के लिए किस हद तक किसानों के प्रति क्रूर हो सकती है.

दलितों का हाल

मोदी राज में किसानों के बाद सब से ज्यादा बदहाल दलित समुदाय के लोग हुए. उन्होंने भी किसानों की तरह जगहजगह उग्र प्रदर्शन किए. सवर्णों की गुंडई का दौर शुरू हो गया. जिस ने सनातनी वर्णव्यवस्था की याद दिला दी कि दलित यानी शूद्र आदमी नहीं जानवर हैं और हिंदू राज का मतलब यही है कि दलित दबंगों के हाथों पिटें.

यह एक नपीतुली साजिश पौराणिक वादियों की थी कि उन्होंने दलितों पर जीभर कर जुल्म ढाए और हर बार सरकार उन के हक में खड़ी दिखाई दी. दलित और सवर्णों की खाई बजाय पटने के, इतनी बढ़ी कि सदियों से वंचित और शोषित यह वर्ग त्राहित्राहि कर उठा. ‘सब का साथ सब का विकास’, दरअसल, सवर्णों का विकास और दलितों का विनाश साबित हुआ.

पिछले 5 सालों की कुछ प्रमुख घटनाओं पर नजर डालें तो तसवीर यों सामने आती है कि सत्ता सवर्णों की बांदी है :

– 11 जुलाई, 2016 को नरेंद्र मोदी के गृहराज्य गुजरात के ऊना में कुछ दलित युवकों को हिंदूवादियों ने जम कर, सरेआम धुना. वजह थी दलित युवकों द्वारा मरी गायों की चमड़ी निकालने से मना करना. दहशत फैलाने की गरज से ऊना में दलितों की पिटाई का वीडियो भी वायरल किया गया. इस अत्याचार के विरोध में युवा दलित नेता जिग्नेश मेवाणी ने आंदोलन किया तो उन्हें दलितों के साथसाथ मुसलमानों का भी साथ मिला क्योंकि वे भी गाय की चमड़ी और कथित तस्करी को ले कर कट्टरवादियों की ज्यादतियों का शिकार देशभर में हो रहे थे. जिग्नेश मेवाणी अब विधायक हैं.

– योगी आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के एक महीने बाद ही सहारनपुर के शब्बीरपुर में मई 2017 में ठाकुरों ने दलितों की जम कर धुनाई की. दबंग ठाकुरों का एतराज अंबेडकर की शोभायात्रा को निकाले जाने पर था. दोनों गुटों के बीच हिंसक संघर्ष हुआ. दलितों को और दबाने के लिए ठाकुरों ने 5 मई को महाराणा प्रताप जयंती पर शोभायात्रा निकाली तो दलितों ने भी उन का जुलूस नहीं निकलने दिया. दलित नेता चंद्रशेखर रावण को मुख्य आरोपी बना कर जेल में ठूंस दिया गया.

– रोहित वेमुला की आत्महत्या साल 2015 की एक प्रमुख घटना थी. इस मामले में हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे दलित छात्र रोहित वेमुला ने 17 जनवरी, 2016 को आत्महत्या कर ली थी. इस विश्वविद्यालय की कार्यकारी परिषद ने नवंबर 2015 में दलित छात्रों को छात्रावास से निलंबित कर दिया था. रोहित की आत्महत्या पर देशभर में बवंडर मचा था पर इस मामले से यह साबित तो हुआ था कि दलित छात्रों को एकलव्य की तरह प्रताडि़त किया जाता है ताकि वे उच्चशिक्षा ले कर मुख्यधारा से न जुड़ सकें.

– दिसंबर 2015 में हरियाणा के फरीदाबाद के गांव सुनपेड़ में सवर्णों ने दलित युवक जितेंद्र के घर में पैट्रोल छिड़क कर आग लगा दी. इस वीभत्स नरसंहार में 2 दलित बच्चे झुलस कर मर गए थे और बाकी सदस्य झुलस कर अपाहिज हो गए थे.

– महाराष्ट्र के पुणे में भीमा कोरेगांव की 200वीं सालगिरह पर बीते साल 1 जनवरी को हिंदूवादी संगठनों ने दलितों द्वारा आयोजित एक जलसे में उन पर हिंसक हमले किए थे. दलितों को तबीयत से धुना गया और उन की गाडि़यां जला दी गई थीं. जुल्म की इंतहा हो गई तो दलित भी सड़कोें पर आ गए और उन्होंने मुंबई पूरी तरह ठप कर दी. फिर देखते ही देखते पूरा महाराष्ट्र जातीय हिंसा की आग में जल उठा था.

ये कुछ चर्चित हादसे थे. मोदी राज में दलितसवर्ण बैर बेवजह नहीं बढ़ा था. जगहजगह सवर्णों ने दलितों पर तरहतरह के अत्याचार ढाए. आंकड़ों के आईने में देखें तो मोदी राज में दलित अत्याचार बेतहाशा बढ़े. नैशनल क्राइम रिकौर्ड्स ब्यूरो द्वारा जारी आंकड़ों पर गौर करें तो साल 2014 में अनुसूचित जाति के प्रति अपराधों के 40,401 मामले दर्ज किए गए थे, 2015 में 38,670 और फिर 2016 में 40,801 मामले दर्ज हुए.

इन आंकड़ों से जाहिर हुआ कि देश में हर 15 मिनट में कोई न कोई दलित अत्याचार का शिकार होता है. हालात बिगड़ते देख प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक सभा में कहा था कि दलितों के बजाय मुझे मार लो. यह और बात है कि सवर्णों ने उन की इस दिखावटी भावुकता पर ध्यान ही नहीं दिया.

दलितों को मौब लिंचिंग की आड़ में मारा गया. कहीं दलित दूल्हों को घोड़ी पर नहीं बैठने दिया गया तो कहीं उन के जींस पहनने व मूंछें रखने तक पर उन की पिटाई की गई. ज्यादातर दलित अत्याचार भाजपा शासित प्रदेशों में हुए. मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, छत्तीसगढ़ और गुजरात इन में अव्वल थे. साल 2016 में देश के सब से बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सब से ज्यादा 10,426 मामले इस तरह के दर्ज हुए जिन में से 1,065 दलित औरतों के बलात्कार के थे.

यह तो थी रूटीनी अत्याचारों की बात जिस के निर्देश धर्मग्रंथों में इफरात से हैं, लेकिन एट्रोसिटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने दलितों को इतना असुरक्षा से भर दिया कि उन्हें सड़कों पर आ कर इस फैसले का विरोध करना पड़ा जो उम्मीद के मुताबिक हिंसक ही रहा, क्योंकि जगहजगह सवर्णों ने उन्हें रोकने की कोशिश की थी. 2 अप्रैल की हिंसा में दर्जनभर दलित मारे गए थे. दलित हिंसा का इस बार केंद्र मध्य प्रदेश रहा था.

दलित प्रेम महज ड्रामा

सोशल मीडिया पर दलित विरोधी पोस्टें वायरल होती रहीं. कट्टरवादी जातिगत आरक्षण खत्म करने की मांग करते दलितों की योग्यता पर ताने कसने लगे तो एक बार फिर नरेंद्र मोदी को कहना पड़ा था कि देश से आरक्षण कोई खत्म नहीं कर सकता.

यह कोई दलितप्रेम या सहानुभूति नहीं थी. उत्तर प्रदेश में दलित अत्याचार बढ़ते देख भाजपा के कई दलित सांसदों ने अपनी ही सरकार के खिलाफ मोरचा खोल दिया था. इन में सावित्री फुले, छोटेलाल खरवार, यशवंत सिंह और अशोक दोहरे प्रमुख हैं. इन में से सावित्री फुले ने तो भाजपा से इस्तीफा ही दे दिया. मोदी और शाह की जोड़ी दलितों का भरोसा खो चुकी है. दलितों को ले कर उन के तमाम दावे खोखले साबित हुए हैं.

शुरू में भाजपा ने समरसता का ड्रामा किया था जिस के तहत दिग्गज भाजपा नेताओं ने दलितों के घरों में जा कर उन के साथ भोजन किया था और उज्जैन सिंहस्थ कुंभ के दौरान अमित शाह ने दलित संतों के साथ क्षिप्रा में डुबकी लगाई थी. इन ड्रामों की हकीकत सामने है कि भाजपा आखिरकार है तो ब्राह्मणों व बनियों की पार्टी, जिस के मुंह में राम और बगल में छुरी रहती है. मोदी राज में उस ने दलितों को गले लगाने के बहाने उन का गला काटने की साजिश रची.

अल्पसंख्यक और मुसलिम

गोधरा कांड के नायक रहे नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद सभी की उत्सुकता इस बात में भी थी कि उन का रुख अल्पसंख्यकों और उन में भी खासतौर से मुसलमानों के प्रति क्या रहेगा. 2014 के चुनाव प्रचार में और उस के बाद भी नरेंद्र मोदी आरक्षण के मसले पर खामोश रहे थे. यह तटस्थता नहीं, बल्कि उपेक्षा थी जिस का सीधा सा मतलब यह निकला कि यूपीए सरकार ने जो कोशिशें अल्पसंख्यकों और मुसलमानों को आरक्षण देने के लिए की थीं उन फाइलों पर धूल की परत और जमने दी जाएगी. पर दबाव का नतीजा था कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद का सितंबर 2016 में दिया यह बयान कि करदाताओं के पैसे का इस्तेमाल कर रहे किसी शैक्षणिक संस्थान को धर्म के आधार पर आरक्षण देने की अनुमति नहीं है.

नाम भले ही न लिया हो पर हर कोई गलत नहीं समझा कि कानून मंत्री का इशारा अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक दर्जा देने के विवाद पर है और इस पर सरकार का नजरिया बेहद साफ है कि वह ऐसा नहीं होने देगी. रविशंकर प्रसाद ने चतुराई दिखाते यह भी कहा था कि मामला अभी न्यायालय में विचाराधीन है और सुप्रीम कोर्ट का फैसला विरोधाभासी आया तो उस पर आगे चर्चा की जाएगी.

उत्तर प्रदेश में मदरसों पर लगाम कसते उन पर तरहतरह के नियम थोपे गए. 2017-18 में माहौल ऐसा रहा मानो मदरसों में आतंकवाद का पाठ पढ़ाया जाता हो.

2018 आतेआते मुसलमानों ने मोदी सरकार से आस छोड़ दी तो एक चौंका देने वाला कदम सरकार ने बीती 7 जनवरी को यह एलान करते उठाया कि गरीब सामान्य वर्ग को जो 10 फीसदी आरक्षण दिया जाएगा, उस के दायरे में मुसलमान भी होंगे.

यह मुसलमानों को कोई सुकून देने वाली बात नहीं है क्योंकि आरक्षण के पैमानों पर खरा उतरने के बाद भी मुसलिम नौजवानों को इक्कादुक्का नौकरियां ही मिलेंगी. वजह अशिक्षा है और गरीब सवर्णों की तादाद उस की शिक्षित आबादी से हजार गुना ज्यादा है. सपा नेता आजम खान की यह मांग भी नक्कारखाने में तूती सरीखी साबित हुई कि सवर्णों के आरक्षण में से 5 फीसदी हिस्सा मुसलमानों को मिले.

तकनीकी तौर पर इस मुद्दे पर काफी बहस की गुंजाइशें हैं कि इस से मुसलमानों को क्या, बल्कि किसी को भी कुछ नहीं मिलने वाला. मुसलमानों के प्रति उदारता दिखाने वाले इन्हीं नरेंद्र मोदी ने तेलंगाना विधानसभा के चुनाव के वक्त टीआरएस पर आरोप लगाते कहा था कि वह दलितों के अधिकार छीन कर और मुसलमानों से 12 फीसदी आरक्षण का वादा कर देश के साथ गद्दारी और संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर का अपमान कर रही है.

1 जनवरी को एक पत्रकार से बातचीत में नरेंद्र मोदी ने बड़ी मासूमियत से कहा था कि तीन तलाक का मसला सामाजिक है, धार्मिक नहीं. इस के पहले इस फैसले पर देशव्यापी बवाल मच चुका था जो संसद में भी जारी रहा.

बिलाशक तीन तलाक का कायदा हर औरत के लिए तकलीफदेह है, लेकिन ऐसी कुरीतियों को व्यापक नजरिए से देखने की हिम्मत नरेंद्र मोदी नहीं जुटा पाए. समाज सुधार और कुरीतियों के नाम पर दूसरे के धर्म में तो दखल देने से नहीं चूक रहे लेकिन हिंदू धर्म में क्या कुछ नहीं हो रहा, इस पर वे ध्यान नहीं दे रहे. हिंदुओं में कई कानूनों के वजूद में होने के बाद भी दहेज का चलन और प्रताड़ना ज्यों की त्यों क्यों है, इस पर भी सामाजिक तौर पर विचार वे करते तो वाकई उन के ज्ञानचक्षु खुल जाते.

चिंता बरकरार

तीन तलाक का कानूनी पहलू और भी ज्यादा चिंतनीय है जिस के तहत अब मुसलिम महिलाएं भी हिंदू महिलाओं की तरह तलाक के बाबत अदालत की चौखट पर एडि़यां रगड़ती नजर आएंगी. उन्हें गुजारा भत्ता मिलेगा या नहीं, यह भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा है और यह भी कि तलाक देने वाले को अपराधी बता जेल क्यों भेजा जाए.

तीन तलाक का कानून वजूद में आने के सालों बाद पता चलेगा कि इस से किसे, क्या फायदा हुआ लेकिन फौरीतौर पर नरेंद्र मोदी कुछ मुसलिम औरतों से हमदर्दी दिखाते यह भी साबित कर गए हैं कि किसी भी धर्म में दखल लोकतांत्रिक तरीके से भी दिया जा सकता है.

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