एक पुरानी मिसाल है कि जब अपनी गलती या आलोचना का तार्किक जवाब न सूझे तो प्रश्नकर्ता के सवाल में व्याकरण की अशुद्धियां ढूंढ़ना शुरू कर दो. इस शातिर तरीके से बात गोलमोल हो जाएगी और आप जवाब देने से भी बच जाएंगे.

कुछ इसी आशय के साथ केंद्र सरकार भी 5 राज्यों के हालिया विधानसभा चुनावों के नतीजों से भले ही हताश होती नजर आई, लेकिन हार की जिम्मेदारी लेने के बजाय आरोपप्रत्यारोप का खेल खेलने लगी. किसी भी भाजपाई ने खुल कर हार नहीं स्वीकारी. जब भाजपा केंद्र में आई थी और सालों बाद उत्तर प्रदेश सरीखे राज्य जीत रही थी तब जीत का सारा श्रेय नरेंद्र मोदी ले रहे थे, पर अब हार का ठीकरा सीएम कैंडिडेट्स पर फोड़ा जा रहा है.

अपनी नाकामी छिपाने के लिए राहुल को पप्पू बताने वाली भाजपा को शायद अब राहुल गांधी के बढ़ते कद का अंदाजा हो गया है, लेकिन बात वहीं की वहीं है कि इन चुनावों में मिली हार राहुल की जीत है तो मोदी ब्रैंड की हार भी है. लेकिन केंद्र सरकार को जब उस के चुनाव से पहले किए गए वादों की याद दिलाई जाती है तो वह विपक्ष के बिखराव, राहुल गांधी का मजाक, उन की जाति, धर्म व देश पर सवाल, हिंदुत्व कार्ड और कोरी योजनाओं का ढोल पीट कर असली मुद्दे और जवाब से मुंह चुराने लगती है.

लेकिन ‘पब्लिक सब जानती है’ की तर्ज पर 5 राज्यों में हुए चुनावों में जनता ने साफ संकेत दे दिया है कि वह मंदिरमसजिद व चायपकौड़े जैसी बातों में नहीं आएगी, बल्कि अपने वोटों के जरिए जवाब देगी. सो, उस ने दिया भी. अब बारी लोकसभा चुनाव की है.

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