यह राष्ट्रपति बराक ओबामा की एशिया की 11वीं आधिकारिक यात्रा थी, जिसका अंतिम पड़ाव लाओस था. ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने लाओस में कदम रखा. असल में, यह वियतनाम युद्ध की तबाही की जिम्मेदारी लेने के जैसा था. इस यात्रा के संपन्न होने साथ ओबामा के कार्यकाल के आखिरी एशियाई दौरे का भी समापन हो गया. हालांकि ओबामा की एशिया-नीति में कई काम अधूरे रह गए हैं. इनमें 12 देशों के साथ ट्रांस-एशिया पार्टनरशिप ट्रेड डील भी शामिल है.
वह उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम को रोकने में भी सफल नहीं हो सके. मगर ओबामा एशियाई देशों को यह आश्वस्त करने में जरूर कामयाब रहे कि अमेरिका चीन की बढ़ती ताकत के खिलाफ, खासकर दक्षिण एशिया की मजबूत आवाज बना रहेगा. ओबामा ने म्यांमार से भी रिश्ते सुधारे, जहां फौजी तानाशाहों ने लोकतंत्र की ओर कदम बढ़ाए हैं. ओबामा भारत-अमेरिका संबंधों को भी द्विपक्षीय सहयोग की एक नई ऊंचाई पर ले जाने में सफल रहे, जिसे कभी बिल क्लिंटन और बुश के प्रशासन ने सींचा था. उन्होंने भारत के साथ रक्षा समझौते को अंजाम तक पहुंचाया, जो दशक भर से फाइलों में उलझा था.
अमेरिका ने इन तमाम देशों के साथ अपने सैन्य अभ्यासों का विस्तार तो किया ही, अधिकतर एशियाई देशों से हथियारों के सौदे भी किए. इनमें दक्षिण कोरिया को बेचा गया मिसाइल डिफेंस सिस्टम उल्लेखनीय है. बेशक संबंधों की मजबूती के लिए राजनयिकों ने खूब पसीना बहाया, लेकिन चीन की बढ़ती आकांक्षाओं की भी भूमिका इन देशों को अमेरिका के करीब लाने में रही.
जब ओबामा ने पदभार संभाला था, तब उम्मीद जताई थी कि वैश्विक समस्याओं से लड़ने में चीन साथ देगा. मगर चीन की भड़काने वाली कार्रवाई जारी रही. हालांकि ईरान परमाणु करार व पेरिस जलवायु समझौता जैसे उदाहरण भी हैं, जब दोनों देश एक साथ आए. अब तक का वक्त जैसा भी गुजरा हो, दक्षिण चीन सागर पर चीन का आक्रामक रुख बताता है कि वह भविष्य में भी वहां अपना दबदबा बढ़ाएगा. ऐसे में, ओबामा के उत्तराधिकारी के लिए वहां से जटिल चुनौतियां पैदा होंगी.