उत्तर प्रदेश की 9 विधानसभा सीटों के उपचुनाव में कांग्रेस ने किसी सीट पर चुनाव नहीं लड़ा. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन है. जिस को ‘इंडिया ब्लौक’ के नाम से जाना जाता है. 2024 के लोकसभा चुनाव में सपा कांग्रेस गठबंधन ने 43 सीटें जीती थी. जिस में से सपा के खाते में 37 और कांग्रेस को 6 सीटें मिली थीं.

9 विधानसभा सीटों के उपचुनाव अलीगढ़ जिले की खैर, अंबेडकर नगर की कटेहरी, मुजफ्फरनगर की मीरापुर, कानपुर नगर की सीसामऊ, प्रयागराज की फूलपुर, गाजियाबाद की गाजियाबाद, मिर्जापुर की मझवां, मुरादाबाद की कुंदरकी और मैनपुरी की करहल विधानसभा सीट शामिल है.

उत्तर प्रदेश के 9 सीटों पर चुनाव में 2022 के विधानसभा में इन में से समाजवादी पार्टी ने सब से अधिक 4 सीटें जीती थीं. भाजपा ने इन में से 3 सीटें जीतीं थीं. राष्ट्रीय लोक दल और निषाद पार्टी के एकएक उम्मीदवार इन सीटों पर विजयी हुए थे. कानपुर नगर की सीसामऊ सीट 2022 में यहां से जीते सपा के इरफान सोलंकी को अयोग्य करार दिए जाने से खाली हुई है.

समाजवादी पार्टी ने सभी 9 सीट पर उम्मीदवार उतारे हैं. कांग्रेस पहले इस चुनाव में 5 सीटों को अपने लिए मांग रही थी. समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस के लिए 2 सीटें छोड़ी थी. कांग्रेस ने मनमुताबिक सीट नहीं मिलने के चलते उपचुनाव ना लड़ने का फैसला लिया. यूपी कांग्रेस प्रभारी अविनाश पांडेय ने साफ कहा कि कांग्रेस पार्टी चुनाव नहीं लड़ेगी.’ अविनाश पांडेय ने कहा कि आज सब दलों को मिल कर संविधान को बचाना है. अगर भाजपा को नहीं रोका गया तो आने वाले समय में संविधान, भाईचारा और आपसी सौहार्द्रता और भी कमजोर हो जाएगी.

हरियाणा की हार से कांग्रेस में निराशा का महौल है. राहुल गांधी के नेतृत्व पर सवाल उठने लगे हैं. उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में कांग्रेस हार जाती तो उन के लिए एक और मुश्किल हो जाती. नरेंद्र मोदी और भाजपा से लड़ने के लिए कांग्रेस अपनी जमीन छोड़ती जा रही है. जिस का प्रभाव आने वाले समय पर पड़ेगा. खासकर हिंदी बोली वाले क्षेत्रों में जहां पर कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला है वहां कांग्रेस को कोई चुनाव छोटा समझ कर छोड़ना नहीं चाहिए. केवल विधानसभा और लोकसभा चुनाव लड़ने से ही काम नहीं चलने वाला. कांग्रेस को अगर अपने को मजबूत करना है तो उसे पंचायत चुनाव और शहरी निकाय चुनाव भी लड़ने पड़ेंगे. तभी उस का संगठन मजबूत होगा. बूथ लेवल तक कार्यकर्ता तैयार हो सकेंगे.

पार्टी को बूथ लेवल तक मजबूत करते है छोटे चुनाव:

पंचायत और निकाय चुनाव के चुनाव हर 5 साल में पचायती राज कानून के तहत होते हैं. इन में जातीय आरक्षण और महिला आरक्षण दोनो शामिल हैं. इन चुनाव में 33 फीसदी महिलाओं को आरक्षण है. पंचायती राज कानून प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय 1984 में लागू हुआ था. पंचायत और निकाय चुनाव विधानसभा और लोकसभा चुनाव की नर्सरी जैसे हैं. राजनीति में नेताओं की पौध पहले छात्रसंघ चुनावों से तैयार होती थी. आज के नेताओं में तमाम नेता ऐसे हैं जो छात्रसंघ चुनाव से बढ़ कर नेता बने. इन में वामदल और कांग्रेस दोनो शामिल हैं. छात्रसंघ चुनावों पर रोक लगने के बाद से पंचायत और निकाय चुनाव राजनीति की नर्सरी बन गए हैं.

कांग्रेस ने पिछले कुछ सालों से पंचायत और निकाय चुनाव मे गंभीरता से लड़ना बंद कर दिया है. जिस के कारण उन का संगठन बूथ स्तर तक नहीं पहुंच रहा और नए नेताओं की पौध भी वहां तैयार नहीं हो पा रही है. पंचायत चुनाव और शहरी निकाय चुनाव का माहौल विधानसभा और लोकसभा चुनाव जैसा होने लगा है. पंचायत चुनावों में राजनीतिक दल अपनी पार्टी के चिन्ह पर चुनाव भले ही नहीं लड़ते हैं लेकिन पार्टी का समर्थन होता है. शहरी निकाय चुनाव पार्टी चिन्ह पर लड़े जाते हैं.

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने पंचायत चुनाव के महत्व को समझा और 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को जो सफलता मिली उसे रोकने के लिए पूरे दमखम से पंचायत और विधानसभा चुनाव लड़ कर 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को रोकने के सफलता हासिल कर ली. पश्चिम बंगाल की 63,229 ग्राम पंचायत सीटों में टीएमसी ने 35,359 सीटें जीतीं. दसरे नम्बर पर रही भाजपा 9,545 सीटों पर जीत की थी.

ममता बनर्जी ने पंचायत चुनाव के जरीए ही 16 साल पहले राज्य में अपनी पार्टी को मजबूत किया और विधानसभा चुनाव जीते थे. वहां से ही लोकसभा चुनाव में सफलता हासिल कर के पश्चिम बंगाल से कांग्रेस और वामदलों को राज्य से बेदखल कर दिया.

दूसरे राज्यों को देखें तो जिन दलों ने पंचायत और निकाय चुनाव लड़ा वह राज्य की राजनीति में प्रभावी हुए. उत्तर प्रदेश और बिहार में समाजवादी पार्टी और राजद दोनों ही पंचायत चुनावों में सब से प्रभावी ढंग से हिस्सा लेती है. जिस की वजह से विधानसभा और लोकसभा चुनाव में भी सब से प्रमुख दल के रूप में चुनाव मैदान में होते हैं. उत्तर प्रदेश के 75 जिलों में जिला पंचायत सदस्य की 3050 सीटें हैं. 3047 सीटों पर हुए चुनाव में मुख्य मुकाबला भाजपा और सपा के बीच था. भाजपा 768 ने और सपा ने 759 सीटे जीती थी.

2021 में उत्तर प्रदेश में हुए ग्राम पंचायत चुनाव में 58,176 ग्राम प्रधानों सहित 7 लाख 31 हजार 813 ग्राम पंचायत सदस्यों ने जीत हासिल की थी. वैसे तो यह चुनाव पार्टी सिंबल पर नहीं लड़े गए थे लेकिन ब्लौक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में क्षेत्र विकास समिति और जिला पंचायत सदस्य के साथ ग्राम प्रधान और पंचायत सदस्य वोट देते हैं. ऐसे में हर पार्टी ज्यादा से ज्यादा अपने लोगों को यह चुनाव जितवाना चाहती है. पंचायत चुनाव की ही तरह से शहरी निकाय चुनाव होते हैं. इस चुनाव में पार्टी अपने प्रत्याशी खड़ा करती है. इस में पार्षद, नगर पालिका, नगर पंचायत और मेयर का चुनाव होता है.

उत्तर प्रदेश के 75 जिलों में कुल 17 नगर निगम यानी महापालिका, 199 नगर पालिका परिषद और 544 नगर पंचायत हैं. इन सभी के चुनाव स्थानीय निकाय चुनाव होते हैं. नगर निगम सब से बड़ी स्थानीय निकाय होती है, उस के बाद नगर पालिका और फिर नगर पंचायत का नम्बर आता है. पंचायत चुनाव और निकाय चुनाव खास इसलिए होते हैं क्योंकि यह कार्यकर्ताओं का चुनाव होता है जो पार्टियों को लोकसभा और विधानसभा जिताने में अहम भूमिका अदा करते हैं. यहां कार्यकर्ता और प्रत्याशी दोनों को अपने वोटरों का पता होता है. देखा यह गया है कि पंचायत और निकाय चुनावों में जिस पार्टी का दबदबा होता है, लोकसभा या विधानसभा चुनावों में उस के अच्छे प्रदर्शन की संभावना भी बढ़ जाती है.

बात केवल उत्तर प्रदेश की ही नहीं है बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ और दिल्ली का भी यही हाल है. जिस प्रदेश में जो पार्टी पंचायत और निकाय चुनाव में मजबूत होती है वह विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में भी अच्छा प्रदर्शन दिखाती है. उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल इस का सब से बड़ा उदाहरण हैं. यहां भाजपा और टीएमसी ने पंचायत चुनाव में सब से अच्छा प्रदर्शन किया था तो विधानसभा और लोकसभा में भी उन का अच्छा प्रदर्शन रहा है. बिहार में 8053 ग्राम पंचायतें हैं. जबकि यहां गांवों की संख्या 45,103 हैं. मध्य प्रदेश के 52 जिलों में 55 हजार से अधिक गांव हैं. 23066 ग्राम पंचायतें हैं.

राजस्थान में 11 हजार 341 ग्राम पंचायतों के चुनाव है. वहां इन चुनाव का बड़ा राजनीतिक महत्व है. विधानसभा चुनाव के बाद जनता की सब से अधिक दिलचस्पी इन चुनावों में होती है. राजस्थान और हरियाणा में सरपंच यानि मुखिया की बात का महत्व उत्तर प्रदेश और बिहार से अधिक है. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि राजस्थान और हरियाणा में खाप पंचायतों का प्रभाव रहा है. पंचायती राज कानून लागू होने के बाद खाप पंचायतों का प्रभाव खत्म हुआ और वहां चुने हुए मुखिया यानि सरपंच का प्रभाव होने लगा.

छोटे चुनावों का बड़ा आधार

पंचायत चुनावों में महिलाओं के लिए आरक्षण होने के कारण अब महिलाएं यहां मुखिया बनने लगी. बहुत सारे पुरूष समाज को यह पंसद नहीं था लेकिन मजबूरी में सहन करना पड़ता है. एक ग्राम पंचायत में 7 से 17 सदस्य होते हैं. इन को गांव का वार्ड कहा जाता है. इस के चुने सदस्य को पंच कहा जाता है. पंचायत चुनाव में जनता 4 लोगों का चुनाव करती है. इन में प्रधान या सरपंच या मुखिया के नाम से जाना जाता है. इस के बाद पंच के लिए वोट पड़ता है. तीसरा वोट क्षेत्र पंचायत समिति और चौथा जिला पंचायत सदस्य के लिए होता है.

छोटे चुनाव का बड़ा आधार होता है. इस की दो बड़ी वजहे हैं. पहली कि यहां चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी और वोटर के बीच जानपहचान सी होती है. फर्जी वोट और वोट में होने वाली गड़बड़ी को पकड़ना सरल होता है. इन चुनावों में आरक्षण होने के कारण हर जाति के वोट लेने पड़ते हैं. ऐसे में सभी को बराबर का हक देना पड़ता है. यहां पार्टी की नीतियां नहीं चलती हैं. ऐसे में जो अच्छा प्रत्याशी होता है चुनाव जीत लेता है. यह प्रत्याशी अगर विधानसभा और लोकसभा चुनाव तक जाएगा तो चुनावी राजनीति की दिशा में बदलाव होगा.

‘ड्राइंग रूम पोलिटिक्स’ से चुनाव को जीतना सरल नहीं होता है. पंचायत और निकाय चुनाव लड़ने वाले नेता को मेहनत करने की आदत होती है. वह पार्टी के लिए मेहनत करेगा. कांग्रेस के लिए जरूरी है कि वह छोटे चुनावों के बड़े महत्व को समझे. अधिक से अधिक संख्या में ज्यादा से ज्यादा चुनाव लड़ना कांग्रेस की सेहत को ठीक करने का काम करेगा. इस से गांवगांव शहरशहर बूथ लेवल पर उस के पास कार्यकर्ताओं का संगठन तैयार होगा जो विधानसभा और लोकसभा चुनाव को जीतने लायक आधारभूत ढांचा तैयार कर सकेंगे.

युवाओं में बढ़ रहा चुनावों का आकर्षण

जिस तरह से छात्रसंघ चुनाव लड़ने के लिए कालेज में पढ़ने वाले युवा पहले ललायित रहते थे अब वह पंचायत और निकाय चुनाव लड़ने के लिए तैयार रहते हैं. पिछले 10 सालों को देखें तो हर राज्य में औसतन 60 प्रतिशत पंचायत चुनाव लड़ने वालों की उम्र 40 साल से कम रही है. इन में से कई ने अपने कैरियर छोड़ कर चुनाव लड़ा और जीते. कांग्रेस इन युवाओं के जरीए राजनीति में बड़ी इबादत लिख सकती है. यह युवा जाति और धर्म से अलग हट कर राजनीति करते हैं.

प्रयागराज के फूलपुर विकासखंड के मुस्तफाबाद गांव निवासी आदित्य ने एमबीए जैसी प्रोफैशनल डिग्री लेने के बाद नौकरी नहीं की वरन अपने गांव की दुर्दशा को सुधारने की ठानी. अपने अंदर एक जिद पाली कि गांव में ही बेहतर करेंगे. यहां की दशा सुधार कर ही दम लूंगा.

गांव में बिजली नहीं थी तो खुद के पैसे से विद्युतीकरण करा दिया. गांव में बिजली आई तो सभी आदित्य के मुरीद हो गए. उसे अपना मुखिया चुनने का मन बनाया. आदित्य ने चुनाव जीत कर प्रयागराज के सब से कम उम्र के ग्राम प्रधान बनने में सफलता हासिल की.

हरियाणा पंचायत चुनाव में 21 साल की अंजू तंवर सरपंच बनीं. अंजू खुडाना गांव की रहने वाली हैं. खुडाना गांव के सरपंच की सीट महिला के लिए आरक्षित थी. गांव के ही बेटी अंजू तंवर को चुनाव लड़ाने का फैसला किया गया. खुडाना गांव की आबादी दस हजार है. कुछ 3,600 वोट चुनाव के दौरान डाले गए थे. जिस में से सब से ज्यादा 1,300 वोट अंजू तंवर को मिले थे. अंजू के परिवार से कोई भी राजनीति में नही है. वह अपने परिवार से राजनीति में प्रवेश करने वाली पहली सदस्य हैं.

मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले में निर्मला वल्के सब से कम उम्र की सरपंच बनी हैं. स्नातक की पढ़ाई करने के दौरान उन्होने परसवाड़ा विकासखंड की आदिवासी ग्राम पंचायत खलोंडी से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. आदिवासी समाज से एक छात्रा को पढ़ाई की उम्र में गांव की सरपंच बनना समाज व गांव की जागरूकता का ही हिस्सा कहा जा सकता है.

पूरे देश में ऐसे बहुत सारे उदाहरण हैं. जहां युवाओं ने पंचायत और निकाय चुनाव में जीत हासिल की है. ऐसे में युवा चेहरों को आगे लाने में कांग्रेस अहम भूमिका अदा कर सकती है. कांग्रेस जाति और धर्म की राजनीति में फिट नहीं हो पाती है. पंचायत और निकाय चुनाव में जाति और धर्म का प्रभाव कम होता है. ऐसे में अगर इन चुनाव में कांग्रेस लड़े और युवाओं को आगे बढ़ाए तो देश की राजनीति से जाति और धर्म को खत्म करने मे मदद मिल सकेगी.

कांग्रेस का अपना चुनावी ढांचा मजबूत होगा. छोटे चुनावों को कमतर आंकना ठीक नहीं होता है. जब कांग्रेस ताकतवर थी तब वह इन चुनावों को लड़ती और जीतती थी. पूरे देश में कांग्रेस अकेली पार्टी है जो भाजपा को रोक सकती है. इस के लिए उसे अपने अंदर बदलाव और आत्मविश्वास को बढ़ाना होगा. इस के लिए छोटे चुनाव बड़े काम के होते हैं.

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