नक्सली कब कहां क्या कर गुजरें, इस की भनक सरकार और उस की एजेंसियों को नहीं रहती. लेकिन नक्सलियों को पुलिस और अर्धसैनिक बलों के खाने का भी मैन्यू तक मालूम रहता है. बीते दिनों ?ारखंड पुलिस ने 83 साल के नामी व एक करोड़ रुपए के इनामी नक्सली नेता प्रशांत बोस को पत्नी शीला मरांडी सहित जमशेदपुर से गिरफ्तार किया, जिन पर 5 राज्यों में 200 से भी ज्यादा मामले दर्ज हैं.
नक्सलियों के ईस्टर्न रीजनल ब्यूरो का यह मैंबर पुलिस को 4 दशकों से छका रहा था. बूढ़े हो चुके प्रशांत की प्रायोजित गिरफ्तारी से कुछ हासिल होगा, ऐसा लगता नहीं. इतना जरूर है कि जमींदारों और साहूकार टाइप के शोषकों ने चैन की सांस ली होगी क्योंकि प्रशात इन्हीं के खिलाफ शोषितों को इकट्ठा किया करते थे. आदिवासी इलाकों में उन्हें भगवान की तरह पूजा जाता था. अब कोई नया प्रशांत पैदा न हो, इस के लिए सामाजिक व सरकारी कोशिशें हों तो समस्या हल होती दिखे. समलैंगिक जज से परहेज क्यों सुप्रीम कोर्ट कौलेजियम ने तो पूरी निष्ठा व ईमानदारी से सीनियर एडवोकेट सौरभ कृपाल के नाम की सिफारिश हाईकोर्ट के जज के लिए कर दी है लेकिन सरकार उन के नाम पर कब और क्या फैसला लेती है,
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यह देखना दिलचस्प होगा क्योंकि सौरभ घोषित तौर पर समलैंगिक हैं. भगवा सरकार शूद्रों और औरतों की तरह समलैंगिकों को भी मानव मात्र ही नहीं मानती है, इसलिए काबिल होने के बाद भी उन्हें वह एक अहम न्यायिक पद देने में हिचकिचा रही है. रिटायर्ड जस्टिस बी एन कृपाल के बेटे सौरभ ने लंबी कानूनी लड़ाई आर्टिकल 377 के खिलाफ लड़ी और समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर निकलवाया. सरकार 4 वर्षों से एक खोखली दलील का सहारा ले रही है कि चूंकि कभी सौरभ का एक पार्टनर विदेशी हुआ करता था, इसलिए उन्हें जज नहीं बनाया जा सकता. यह, दरअसल, दलील नहीं बल्कि समलैंगिकों से नफरत की नुमाइश है जिस का विरोध अधिवक्ता समुदाय को करना चाहिए. बूआ-भतीजी बसपा सुप्रीमो मायावती की मां रामरती के निधन पर प्रियंका गांधी ने दूसरे नेताओं की तरह केवल मुंहजबानी संवेदना व्यक्त नहीं की बल्कि अपनी राजनीतिक बूआ से मिलने दिल्ली स्थित उन के निवास- 3, त्यागराज मार्ग भी पहुंचीं.