लेखक-रोहित
सरकार हर प्रकार से जनता को जंजीरों में जकड़ना चाहती है. वह इस के लिए उन माध्यमों को तहसनहस कर देना चाहती है जो लोकतंत्र में उन की पहली आवाज बन कर उठते हैं चाहे वे पत्रकार हों, विपक्षी पार्टियां हों या फिर न्यायालय हों. ‘पैगासस प्रोजैक्ट’ रिपोर्ट के सनसनीखेज खुलासे से यह खुल कर सामने आ गया है.

साल था 1972. जगह थी वाशिंगटन डीसी. उस समय अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के रिचर्ड निक्सन राष्ट्रपति थे, जो 1969 में चुने गए थे. 2 वर्ष बाद देश में फिर से राष्ट्रपति का चुनाव होना था. राजनीति में माहौल गरमाने लगा था. निक्सन फिर से राष्ट्रपति बनने को उतावले थे. उसी दौरान 17 जून को तड़के सुबह 2.30 बजे होटल वाटरगेट बिल्ंिडग की 6ठी मंजिल पर मुख्य विपक्षी पार्टी, डैमोक्रेटिक नैशनल कमेटी के कार्यालय में 5 संदिग्ध लोग चोरीछिपे घुसते पकड़े गए.

शुरुआती अंदेशा चोरी का था क्योंकि उन के पास नकदी, कुछ लौक पिक्स और डोर जिम्मीज (ताले व दरवाजे खोलने वाले उपकरण) बरामद हुए. घटना के अगले दिन अमेरिका के चर्चित अखबार ‘वाशिंगटन पोस्ट’ में चोरी की खबर भी छपी. जांच चली, जांच में पता चला उन के पास एक डायरी भी थी जिस में वाइट हाउस और री-इलैक्शन कमेटी के नंबर लिखे हुए थे. यह तय था कि वे वाइट हाउस से जुड़े अंदरूनी लोगों के कौन्टैक्ट में थे. लेकिन कौन थे, इस पर संशय था. इसी के साथ उन के पास से रेडियो स्कैनर, वाकीटौकी, कैमरे और कई रीलें भी पाई गईं. दरअसल, वे लोग डैमोक्रेटिक कार्यालय पर प्लांट किए गए जासूसी उपकरणों को ठीक करने गए थे, जहां वे धरे गए.

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इस मसले पर वाशिंगटन पोस्ट के 2 पत्रकार बौब वुडवर्ड और कार्ल बर्नस्टीन छानबीन कर रहे थे. इस खबर पर काम करते हुए उन्हें एक बड़ा सोर्स हाथ लगा. उस सोर्स का नाम उन्होंने ‘डीप थ्रोट’ रखा. वह सोर्स इस मामले को भीतर तक जानता था. जाहिर है, मामले की सारी गुत्थी सत्तापक्ष द्वारा विपक्षी नेताओं के ऊपर जासूसी कराने पर अटक रही थी. जासूसी कराने का मकसद विपक्ष की सारी रणनीति जाननासम झना था. साल 1973 में उन पांचों कैदियों को कोर्ट द्वारा सजा सुनाई गई, जिस से एक कैदी खासा नाखुश था. उस ने सजा सुनाए जाने के बाद जज को एक चिट्ठी लिख डाली. चिट्ठी में उस ने साफसाफ बताया कि जासूसी के इस स्कैंडल में रिपब्लिकन पार्टी के नेताओं का हाथ है.

मामला आगे बड़ा तो एकएक कर के निक्सन के करीबी लोगों के इस्तीफे होने लगे. ऐसे में जब निक्सन को लगा कि वे इस मामले में खुद फंस जाएंगे तो जांच में जुटे प्रो. काक्स को हटाने का प्रयत्न करने लगे. जुलाई 1974 में हाउस औफ जुडिशियरी कमेटी ने निक्सन पर महाभियोग (इम्पीचमैंट) लगाया. न्यायिक मामलों में दखल देने, अपनी शक्तियों का गलत इस्तेमाल करने और गवाही देने न आने को ले कर उन पर 3 मुकदमे दायर किए गए. निक्सन असहाय थे, वे तकरीबन फंस चुके थे, उन के आगे इस्तीफा देने के अलावा और कोई रास्ता न बचा. उन्होंने टीवी पर सब के सामने 8 अगस्त, 1974 को रिजाइन दे दिया.
इस घटना को पूरे विश्व में ‘वाटरगेट स्कैंडल’ के नाम से जाना गया. मसला सिर्फ जासूसी कराने का नहीं था, बल्कि जासूसी की गलत ‘मंशा’ को ले कर था. सरकारी संस्थाओं का गलत इस्तेमाल कर खुद को सत्ता में बनाए रखने का था. जिस को ले कर दुनिया के सब से शक्तिशाली देश अमेरिका के राष्ट्रपति को अपना पद छोड़ना पड़ गया.

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इस घटना के 33 वर्षों बाद आज फिर से दुनिया में ‘वाटरगेट स्कैंडल’ चर्चा में बन गया है, यह पहले से ज्यादा घातक और मारक भी है. हालत यह है कि एक नहीं, बल्कि एकसाथ कई ‘वाटरगेट स्कैंडल’ सामने आए हैं जिन्हें ‘स्नूपगेट स्कैंडल’ या ‘पैगासस स्कैंडल’ कहा जा रहा है. वजह, ‘पैगासस प्रोजैक्ट’ का खुलासा.
पैगासस प्रोजैक्ट में खुलासा
दुनिया की बहुत सी सरकारों द्वारा पैगासस स्पाईवेयर के माध्यम से जासूसी कराने का लीक्ड पिटारा खुला है. पिटारे से रोज होने वाले नए खुलासे विश्वभर को हैरान कर रहे हैं, लोगों पर जासूसी करने और उस के तरीके पर बहस छिड़ गई है. कारण, यह जासूसी पहले जैसी नहीं है, इस में हद पार कर देने वाली निगरानी है. ऐसी निगरानी जिस में टारगेट के एकएक पल की खबर जासूसी कराने वाले के पास मौजूद रहती है.

भारत समेत कई देशों की सरकारों पर आरोप है कि वे खतरनाक जासूसी सौफ्टवेयर के जरिए अपने देश के लोगों, खासकर वे जो सरकार की नीतियों पर सवाल खड़ा करते हैं, पर सूक्ष्म निगरानी रख रही हैं.
खोजी मीडिया संस्थाओं के अंतर्राष्ट्रीय ग्रुप से जुड़े तकरीबन 17 मीडिया संस्थानों ने 18 जुलाई को सनसनी खबर ब्रेक कर दावा किया कि इसराईली कंपनी एनएसओ के पैगासस स्पाईवेयर से 10 देशों में तकरीबन 50 हजार लोगों की जासूसी की जा रही है और इस जासूसी को गैरकानूनी तरीके से अंजाम दिया जा रहा है.

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सम झा जा सकता है कि जासूसी के मामले में अब तक का यह सब से बड़ा खुलासा है. इन में कई नाम ऐसे हैं जो हैरान करते हैं. इस खबर के आते ही दुनियाभर में खलबली मचनी शुरू हो गई है. तमाम सरकारें निशाने और संदेह के घेरों पर आने लगी हैं. यह लीक्ड हुआ डाटाबेस सब से पहले फ्रांस की नौन-प्रौफिट मीडिया संस्था ‘फोर्बिडन स्टोरीज’ और मानवाधिकार संस्था ‘एमनैस्टी इंटरनैशनल’ को मिली. इन दोनों संस्थाओं ने यह डाटा दुनिया के 17 मीडिया संस्थानों के साथ शेयर किया. उन में ‘द गार्जियन’, ‘वाशिंगटन पोस्ट’, ‘द मोंद’ और भारत की औनलाइन मीडिया संस्था ‘द वायर’ के साथ अन्य मीडिया संस्थाएं शामिल थीं.

इस पूरे डाटा के इन्वैस्टिगेशन को ‘पैगासस प्रोजैक्ट’ का नाम दिया गया. इस के खुलासे में बताया जा रहा है कि दुनिया के कई देशों की विभिन्न सरकारों ने पत्रकारों, कानूनविदों, महिलाओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, नेताओं, संवैधानिक पद पर बैठे अधिकारियों और यहां तक कि उन के रिश्तेदारों की भी जासूसी करवाई है. उजागर हुए नामों से यह सम झा जा रहा है कि भारत के संदर्भ में इस जासूसी खेल का सीधा जुड़ाव मोदी सरकार से है.

इस लिस्ट में पहचान किए गए नंबरों का अधिकांश हिस्सा भौगोलिक तौर पर 10 देशों के समूह भारत, अजरबैजान, बहरीन, कजाकिस्तान, मैक्सिको, मोरक्को, रवांडा, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात में केंद्रित है. भारत देश के साथ यह पहली बार हुआ है कि वह लिस्ंिटग में ऐसे देशों के साथ जुड़ा है जहां या तो लोकतंत्र वजूद में नहीं है या खत्म होने की कगार पर है. अभी तक अंतर्राष्ट्रीय जगत में कई राष्ट्राध्यक्षों, 3 प्रधानमंत्रियों, 7 पूर्व प्रधानमंत्रियों, 65 से अधिक बिजनैसमैनों, 185 से अधिक पत्रकारों और 600 से अधिक राजनेताओं व कैबिनैट मंत्रियों के नंबर इस लिस्ट में बताए जा रहे हैं.

‘द गार्जियन’ में छपी खबर के मुताबिक, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों, इराक के बरहम सलीह, पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान और साउथ अफ्रीका के रामाफोसा, मोरक्को के किंग मोहम्मद, डब्ल्यूएचओ डायरैक्टर जनरल टेड्रोस आदि 14 अंतर्राष्ट्रीय हस्तियां लिस्ट में शामिल हैं जिन के नंबर हैक कर जासूसी करने की कोशिश की गई. बताया जा रहा है कि इस खोजबीन में दुनियाभर से करीब 70 पत्रकारों की टीम लगी हुई थी. वह कई महीनों से इन नंबरों की पहचान में जुटी हुई थी. यह पूरी इन्वैस्टिगेशन उस ने बेहद गुप्त तरीके से की थी.

‘पैगासस प्रोजैक्ट’ के मुताबिक, इस पूरी लिस्ट में 300 भारतीय नागरिकों की पहचान की गई है जिन की जासूसी की जा रही थी. भारत में इस खबर को ब्रेक करने वाले ‘द वायर’ मीडिया संस्था के अनुसार, लिस्ट में अभी तक 40 से अधिक पत्रकार, 3 प्रमुख विपक्षी नेता, मौजूदा 2 सिटिंग मिनिस्टर और एक जज के नाम सामने आए हैं. यह लेख लिखे जाने तक इस प्रोजैक्ट के तहत 22 लोगों के फोन की फौरेंसिक जांच की गई थी जिस में 10 लोगों के फोन में पैगासस के अंश पाए गए. फौरेंसिक जांच में पता चला कि भारत के मामले में 2017 के मध्य से ले कर 2019 के मध्य तक यह जासूसी की गई. वहीं, पत्रकारों पर 2018 के मध्य से 2019 के मध्य तक जासूसी की गई. ध्यान रहे, यह वही पीक समय भी था जब देश में आम चुनाव होने थे और राष्ट्रीय राजनीति में काफी उथलपुथल चल रही थी.

पैगासस तकनीक क्या है
पैगासस स्पाईवेयर इसराईली साइबर इंटैलिजैंस फर्म एनएसओ ग्रुप द्वारा 2016 में बनाया गया था. इसराईल की यह संस्था पूरी दुनिया में जासूसी के लिए मशहूर है. दावा है कि इस फर्म का काम इसी तरह के जासूसी सौफ्टवेयर बनाना है और इन्हें अपराध व आतंकवादी गतिविधियों को रोकने, लोगों के जीवन को बचाने के एकमात्र उद्देश्य के लिए विभिन्न देशों की सरकारों की खुफिया एजेंसियों को बेचा जाता है. पैगासस एक ऐसा सौफ्टवेयर है जो बिना सहमति के आप के फोन तक पहुंच हासिल करने और व्यक्तिगत और संवेदनशील जानकारी इकट्ठा कर जासूसी करने वाले यूजर को देता है.

केस्परस्काई के अनुसार, पैगासस स्पाईवेयर यूजर के एसएमएस मैसेज और ईमेल को पढ़ने, कौल सुनने, स्क्रीनशौट लेने, कीस्ट्रोक्स रिकौर्ड करने और कौन्टैक्ट्स व ब्राउजर हिस्ट्री तक पहुंचने में सक्षम है. एक रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि इस स्पाईवेयर के जरिए एक हैकर फोन के माइक्रो फोन और कैमरे को हाईजैक कर सकता है, उसे रीयल-टाइम सर्विलांस डिवाइस में बदल सकता है. यह इतना आधुनिक है कि एक बार अगर यह फोन में घुस गया खुद ही सारी चीजें औपरेट करने लगता है, यहां तक कि इस से किसी के भी फोन का कैमरा और रिकौर्डिंग औन कर लाइव चीजों को देखासुना जा सकता है. यह भी जान लें कि पैगासस एक जटिल और महंगा मैलवेयर है, जिसे विशेष खासतौर से जासूसी करने के लिए डिजाइन किया गया है. किसी एक टारगेट की जासूसी करने के लिए इस में औसतन एक करोड़ रुपए की लागत आती है.

पैगासस स्पाईवेयर को पहली बार 2016 में आईओएस डिवाइस में खोजा गया था और फिर एंड्रौयड पर थोड़ा अलग वर्जन पाया गया. केस्परस्काई का कहना है कि शुरुआती दिनों में इस का अटैक एक एसएमएस के जरिए होता था. पीडि़त को एक लिंक के साथ एक संदेश मिलता था. यदि वह उस लिंक पर क्लिक करता तो उस का डिवाइस स्पाईवेयर से संक्रमित हो जाता था. हालांकि, पिछले 5 सालों में पैगासस काफी हद तक विकसित किया गया है, जिस में यूजर के लिंक पर क्लिक किए बिना ही यह फोन का एक्सैस ले सकता है. इस के लिए जरूरी नहीं कि किसी संदेश पर टारगेट क्लिक करे या फोन उठाए. साइबर वर्ल्ड की भाषा में कहें, तो यह जीरो-क्लिक एक्सप्लौइट करने में सक्षम है. यानी बिना आप के कुछ किए भी यह फोन में दाखिल हो सकता है.

साइबर सुरक्षा कंपनी की रिपोर्ट के मुताबिक, पैगासस एंड टू एंड एनक्रिप्टेड औडियो सुनने और एनक्रिप्टेड मैसेज पढ़ने की सुविधा देता है. यानी वे संदेश जिन्हें सिर्फ फोन का मालिक ही पढ़सुन सकता है उसे भी यह स्पाईवेयर कलैक्ट कर लेता है. यह फोन के भीतर जितनी भी जानकारियां हैं उन्हें डिटैक्ट कर सकता है यहां तक कि कुछ का आरोप है कि इस तरह के सौफ्टवेयर से कोई फाइल प्लांट भी की जा सकती है.
एनएसओ के अनुसार, उस के 40 देशों में 60 ग्राहक हैं. मैक्सिको और पनामा की सरकारें ही खुल कर पैगासस का इस्तेमाल करती हैं. बाकी ने खुल कर कभी इस की पुष्टि नहीं की. कंपनी के 51 फीसदी यूजर इंटैलिजैंस एजेंसियों, 38 फीसदी कानून प्रवर्तन एजेंसियों और 11 फीसदी सेना से संबंधित हैं.

‘द इकोनौमिक टाइम्स’ ने 2019 में दावा किया था कि एनएसओ पैगासस के लाइसैंस के लिए 7-8 मिलियन डौलर यानी 52 करोड़ से ले कर 59 करोड़ रुपए सालाना खर्च वसूलता है. एक लाइसैंस से 50 फोन का सर्विलांस हो सकता है. यानी पैगासस लिस्ट में 300 फोन की निगरानी करने की बात आई है तो 6 लाइसैंस के साथ 313 करोड़ से ले कर 358 करोड़ रुपए सालाना खर्च रहा होगा. यह गौर करने वाली बात है कि एनएसओ ने भले इन आरोपों को नाकारा हो लेकिन हाल ही में स्पाईवेयर के दुरुप्रयोग की बात कुबूली भी है.

रेंज औफ टारगेट्स
भारत के संदर्भ में सामने आई पैगासस की टारगेट लिस्ट से सम झा जा सकता है कि अब तक की इस लिस्ट में वे नाम शामिल हैं जो मौजूदा सरकार के राजनीतिक विरोधी रहे हैं या वे पत्रकार हैं जो सरकार के कामों पर सवाल खड़ा करते रहे हैं या वे अधिकारी या नेतागण हैं जिन के साथ कभी न कभी मोदीशाह के साथ प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष कोई विवाद जरूर रहा है.

एनएसओ ने बारबार कहा है कि वे अपनी सेवा को सिर्फ ‘सरकारों’ को ही बेचते हैं, भले भाजपा सरकार ने इस खुलासे के आरोपों का खंडन किया हो लेकिन बात स्पष्टता से नहीं की, तो यह तय है कि बात कहीं इधर ही रुकती दिखाई देती है. ऐसे में कई सवाल हैं जो सीधे सरकार की तरफ इशारा कर रहे हैं. लिस्ट में शामिल अधिकतर पत्रकार दिल्ली बेस्ड हैं जो बड़े मीडिया समूह में काम कर रहे हैं. पैगासस प्रोजैक्ट की रिपोर्ट के अनुसार, लिस्ट में ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के 4 वर्तमान और एक पूर्व पत्रकार हैं. वहीं ‘द मिंट’ से एक रिपोर्टर शामिल है. इसी लिस्ट में ‘इंडियन एक्सप्रैस’, ‘इंडिया टुडे’, ‘टीवी 18’, ‘द हिंदू’ का एकएक पत्रकार शामिल है. इन सभी के फोन में पैगासस डालने की कोशिशों के प्रमाण मिले हैं.

इसी प्रकार ‘द वायर’ के संस्थापक सिद्धार्थ वरदराजन समेत अन्य पत्रकारों की स्पष्ट पुष्टि हुई है. इस में एक दिलचस्प बात यह देखी गई है कि इन में से अधिकतर पत्रकार सरकार से जुड़े सीधे मसलों पर रिपोर्टिंग करते रहे हैं. अधिकतर रक्षा, गृह, डिप्लोमैसी, राष्ट्रीय सुरक्षा कवर करने वाले पत्रकार हैं. हालाकि सभी पत्रकार दिल्ली के नहीं हैं, कुछ ऐसे भी हैं जो राज्य स्तर पर पत्रकारिता करते हैं और सरकार से नीतिगत सवाल करते हैं. यह नोट करने वाली बात है कि अंतर्राष्ट्रीय संस्था आरएसएफ ने बीते दिनों उन नेताओं के नाम घोषित किए जो मीडिया के लिए खतरनाक हैं. इस लिस्ट में 37 देशों के नेताओं को रखा गया था जिन में सीधे तौर पर नरेंद्र मोदी शामिल हैं.

ऐसा इसलिए कहा गया क्योंकि यह देखने में आया है कि निडर और निष्पक्ष पत्रकारों पर लगातार हमले बढ़ रहे हैं. उन्हें देशद्रोह जैसे गंभीर कानूनों की धाराओं में फंसाया जा रहा है. इस का ताजा उदाहरण किसान आंदोलन के दौरान दिल्ली प्रैस ग्रुप के संपादक परेश नाथ समेत कई पत्रकारों पर देशद्रोह के फर्जी मुकदमे दर्ज किए जाने से लगाया जा सकता है. ऐसे लोगों में उन सामाजिक कार्यकर्ताओं के नाम भी शामिल हैं जो पिछले सालों गंभीर धाराओं में गिरफ्तार किए गए. एल्गार परिषद और भीमा कोरेगांव मामले में सीधेतौर पर आरोपियों के अलावा गिरफ्तार किए गए लोगों के एक दर्जन से अधिक करीबी रिश्तेदार, दोस्त, वकील और सहयोगी इस निगरानी के दायरे में आए हैं. यह देखने में आया कि एल्गार परिषद के मामले में पहले से ही पैगासस का जाल बिछाया जा चुका था.

‘द वायर’ की रिपोर्ट के अनुसार, लीक हुए रिकौर्ड में तेलुगू कवि और लेखक वरवरा राव की बेटी पवना, वकील सुरेंद्र गाडलिंग की पत्नी मीनल गाडलिंग, उन के सहयोगी वकील निहालसिंह राठौड़ और जगदीश मेश्राम, उन के पूर्व क्लाइंट मारुति कुरवाटकर (यूएपीए के तहत कई मामलों में आरोपी बनाया था और वे 4 साल से अधिक समय तक जेल में रहे थे तथा बाद में जमानत पर रिहा हुए), भारद्वाज की वकील शालिनी गेरा, तेलतुम्बडे के दोस्त जैसन कूपर, केरल के एक मानवाधिकार कार्यकर्ता, बस्तर की वकील बेला भाटिया, सांस्कृतिक अधिकार और जातिविरोधी कार्यकर्ता सागर गोरखे की पार्टनर रूपाली जाधव, आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता महेश राउत के करीबी सहयोगी और वकील लालसू नागोटी के नंबर भी शामिल हैं.

इसी एल्गार परिषद से जुड़े होने के आरोप में पिछले वर्ष अक्तूबर में 83 वर्षीय स्टेन स्वामी को गिरफ्तार किया गया था जिन का बीती 5 जुलाई को मुंबई के एक अस्पताल में निधन हो गया था. फादर स्वामी की मौत के अगले ही दिन अमेरिका की फौरेंसिक एजेंसी आर्सनल कंसंल्ंिटग ने अपनी जांच में दावा किया कि इसी मामले से जुड़े अन्य गिरफ्तार आरोपी सुरेंद्र गाडलिंग के लैपटौप में सुबूत प्लांट किए गए थे.
पैगासस कांड के सामने आने के बाद यह कयास लगाए जा रहे हैं कि कहीं आर्सनल की बात सच है तो पैगासस स्पाईवेयर के साथ उन सुबूतों का मामला जुड़ा हो सकता है. ऐसे ही जेएनयू से जुड़े कुछ छात्रों और कश्मीर नेताओं के नंबर भी पैगासस की लिस्ट में हैक करने के लिए मिलते है. यह प्रकरण सीधा दिखाता है कि सरकार ने पिछले कुछ सालों में जिन लोगों को कथित राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के तहत गिरफ्तार किया है उन में से अधिकतर परिवार और करीबियों समेत पैगासस की लिस्ट में पाए गए.

गैर तो गैर, अपने भी लपेटे में
इसी लिस्ट में वे नाम भी शामिल हैं जिन के चलते इस मामले को भारत में ‘वाटरगेट स्कैंडल’ से जोड़ा जा रहा है. दरअसल, लिस्ट में सामने आए नामों में सब से अधिक सनसनी नाम 3 मुख्य विपक्षी नेताओं का होना है, जिन में एक नाम कांग्रेस के नेता राहुल गांधी का है और बाकी 2 रणनीतिकार प्रशांत किशोर और तृणमूल कांग्रेस के नेता अभिषेक बनर्जी के हैं. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, राहुल गांधी पर जासूसी लोकसभा चुनाओं को मद्देनजर रख कर की जा रही थी. इस की सनक इतनी थी कि राहुल गांधी के करीबी अन्य 5 लोगों को भी टारगेट में रखा गया था. यह जासूसी 2018 के मध्य से 2019 के मध्य में की गई थी. संभव है कि विपक्षी नेता पर यह सारी जासूसी चुनाव के दौरान चुनावी रणनीति पता लगाए जाने के लिए की जा रही थी.

ऐसे ही पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव के बीच ममता बनर्जी के रणनीतिकार प्रशांत किशोर के फोन को पैगासस के जरिए हैक किया गया था. इस मसले पर राहुल गांधी ने कहा, ‘‘पैगासस एक ऐसा हथियार है जिसे इसराईल की ओर से आतंकवादी गतिविधियों के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए तैयार किया गया है. प्रधानमंत्री और गृहमंत्री अमित शाह ने इसे हमारे खिलाफ राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है. इस की जांच होनी चाहिए और गृहमंत्री को इस्तीफा देना चाहिए.’’ ‘द वायर’ के दावे के अनुसार, पैगासस स्पाईवेयर की लिस्ट में खुलासा हुआ कि साल 2019 में कर्नाटक की जनता दल यूनाइटेड (सैकुलर) और कांग्रेस सरकार से जुड़े फोन नंबर संभावित टारगेट में थे. राज्य के जिन प्रमुख नेताओं या उन के करीबी लोगों के नंबर पैगासस की लिस्ट में शामिल होने का दावा इस रिपोर्ट में किया गया है, उन में राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री एच डी कुमारस्वामी, पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और तत्कालीन उपमुख्यमंत्री जी परमेश्वर जैसे बड़े नेता शामिल हैं.

हैरानी की बात यह कि इस लिस्ट में विपक्षी नेताओं को टारगेट तो किया ही गया, साथ ही पदासीन मंत्रियों और अपने राजनीतिक सहयोगियों को भी सर्विलांस में रखा गया था. इस में जिन 2 मंत्रियों के नाम सामने आ रहे हैं उन में एक अश्विनी वैष्णव हैं जिन्हें हालिया फेरबदल के बाद आईटी का मंत्री बनाया गया, वहीं, दूसरे जल मंत्रालय के राज्य मंत्री प्रहलाद सिंह पटेल हैं. लिस्ट में भाजपा की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के निजी सचिव और स्मृति ईरानी के नीचे बतौर ओएसडी काम करने वाले संजय कचरू भी शामिल हैं. साथ ही, विश्व हिंदू परिषद के नेता और मोदी के पुराने विरोधी प्रवीण तोगडि़या का नाम भी इस डेटाबेस में शामिल है. ये वे लोग हैं जिन के साथ बीते सालों में मोदी या भाजपा से आंतरिक विवाद गरमाया है.
जज, महिला, अधिकारी और बिजनैसमैन किसी को नहीं छोड़ा खुलासों के अनुसार, अप्रैल 2019 में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और वर्तमान सांसद रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली सुप्रीम कोर्ट की महिला कर्मचारी से संबंधित 3 फोन नंबर भी इसी हैक के दायरे में थे.

महिला ने आरोप लगाया था कि साल 2018 में सीजेआई रंजन गोगोई ने उन का यौन उत्पीड़न किया था. उन्होंने एक हलफनामे में अपना बयान दर्ज कर सर्वोच्च अदालत के 22 जजों को भेजा था. इस घटना के कुछ दिनों बाद ही उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया. लीक्ड रिकौर्ड के अनुसार, जिस हफ्ते सीजेआई पर लगाए गए आरोपों की खबर आई थी उसी सप्ताह उन के पति और देवरों से जुड़े 8 नंबरों को टारगेट के तौर पर चुना गया था. डाटा के अनुसार, कुल 11 नंबर उन के और उन के परिवार से संबंधित थे. जाहिर है, महिला का इस सूची में चुने जाने का सीधा संकेत सीजेआई पर लगाए गए यौन उत्पीड़न से जुड़ा था. वही सीजेआई जिन्हें राज्यसभा में स्पैशल गिफ्ट के तौर पर मनोनीत किया गया. खुलासे वाली रिपोर्ट के मुताबिक 60 से अधिक भारतीय महिलाओं के टैलीफोन नंबरों, जिन में गृहिणी, वकील और स्कूल शिक्षक, पत्रकार, वैज्ञानिक, सिविल सेवक और यहां तक कि राजनेताओं के दोस्तों को पैगासस स्पाईवेयर जांच की निगरानी में रखा गया था.

इस में एक बात ध्यान देने वाली है कि महिलाओं का जासूसी कांड में चुना जाना न तो राष्ट्रीय सुरक्षा की पैरवी करता है न ही इमरजैंसी के बहाने में आता है. ऐसे में उन के नंबर पैगासस लिस्ट में होना गंभीर मसला है. यह तो सीधासीधा एक महिला की निजता पर हमला करता है जिस का वचन भारतीय संविधान देता है. पैगासस की लीक्ड लिस्ट डाटा के अनुसार, साल 2018 में सीबीआई बनाम सीबीआई विवाद का हिस्सा रहे पूर्व निदेशक अलोक वर्मा, ए के शर्मा और राकेश अस्थाना व उन के परिजनों के नंबर भी पैगासस लिस्ट में हैं. यह सब तब हुआ जब 23 अक्तूबर को मोदी सरकार ने सीबीआई निदेशक अलोक वर्मा को छुट्टी पर भेजा था. वर्मा ही नहीं, उन के परिवार में उन की पत्नी, बेटी और दामाद समेत परिवार के 8 लोगों के नंबरों को निगरानी सूची में रखा गया था.

रिपोर्ट के अनुसार, राकेश अस्थाना का नंबर भी उसी समय लिस्ट में शामिल किया गया था. अक्तूबर 2018 में सीबीआई के भीतर हुई उठापटक को कौन भूल सकता है, सारे कलह बाहर खुल कर आने लगे थे और यह तब और बढ़ गया जब निदेशक अलोक वर्मा ने राकेश अस्थाना पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए केस दर्ज करने का आदेश दे दिया था. वर्मा के खिलाफ केंद्र की तरफ से की गई कार्यवाही की बड़ी वजह उन के द्वारा विवादित राफेल मामले की जांच को खारिज न करना था. उस दौरान नरेंद्र मोदी सरकार राफेल मामले के कथित भ्रष्टाचार के मामले में घिर रही थी. ऐसे में जांच केंद्र सरकार के गले की हड्डी बनी हुई थी और अलोक वर्मा जांच करने देना चाहते थे. सत्यापन प्रक्रिया चलने लगी थी और जल्द फैसला लिया जाना था. लेकिन जांच हो, उस से पहले विवाद गरमा गया. कयास लगाए जा रहे हैं कि ऐसे कई हाई प्रोफाइल मामले थे जो अलोक वर्मा के अधीन थे. राफेल मामले के अलावा एक मामला प्रधानमंत्री के मुख्य सचिव पर लगे आरोप का था.

इस लिस्ट में एक जज के नंबर का भी जिक्र है लेकिन नाम का खुलासा अभी तक नहीं हो पाया है. वहीं मशहूर बिजनैसमैन अनिल अंबानी और एडीए समूह के अधिकारी टोनी जेसुडान द्वारा इस्तेमाल नंबर की पुष्टि भी रिपोर्ट में की गई है. यह सर्विलांस उस दौरान अंजाम दिया गया जब मोदी सरकार द्वारा
36 विमानों के सौदे के 2 वर्षों बाद 2018 में उस पर कथित भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे थे.
भारत के टैलीग्राफ एक्ट को सम झना जरूरी साल 2019, महीना अक्तूबर. जासूसी का मामला तब भी भारत समेत पूरी दुनिया में तूल पकड़ा था. अमेरिका की कंपनी व्हाट्सऐप ने इसराईल की कंपनी एनएसओ पर उस के सौफ्टवेयर पैगासस के जरिए तकरीबन 1400 नंबरों की जासूसी करने का आरोप लगाया था. उन में में कई नंबर भारतीयों के भी थे. मामले ने उस साल शीतकालीन सत्र में जोर पकड़ा. विपक्ष ने तत्कालीन आईटी मंत्री रवि शंकर प्रसाद को घेर लिया और जवाब के लिए तलब किया.

उस समय सवाल था कि क्या भारत में पैगासस का उपयोग किया जा रहा है? क्या फोन गैरकानूनी तरीके से टेप किया जा रहा है? उस दौरान भी आईटी मंत्री की तरफ से यही जवाब आया कि ‘जहां तक मेरी जानकारी है कुछ भी अनाधिकृत तरीके से नहीं हो रहा है.’ इस बयान से यही सम झ आया कि भारत में सर्विलांस का जो भी काम हो रहा है वह सब कानून के दायरे में हो रहा है. लेकिन पैगासस से निकले इन लीक्ड नंबर से यह सम झ आ रहा है कि भारत में गैरकानूनी तरीके से लंबे समय से सर्विलांस चल रही है, जिसे या तो सरकार खुद करवा रही है या उस की देखरेख में किसी के द्वारा करवाया जा रहा है.

भारत में टैलीफोन आने के बाद निजता पर खतरे का मसला पैदा हुआ. जाहिर है, इस के आने के बाद नियमकानून बने यह सुनिश्चित करने के लिए कि टैलीफोन पर बातचीत करते हुए किसी की निजता भंग न हो. लेकिन ऐसे मामलों में कुछ विशेष प्रावधान किए गए जो देशविरोधी ताकतों व दुश्मन देशों से बचाव से जुड़े थे. भारत में यह सब टैलीग्राफ एक्ट (1985) के तहत आता है. जैसेजैसे तकनीक बढ़ी टैलीफोन की जगह मोबाइल ने ले ली. इंटरनैट की सुविधा आई, बातचीत करने के माध्यम डैवलप हुए. ऐसे में आईटी एक्ट (2000) बनाया गया. इस में जरूरत के हिसाब से कुछ बदलाव किए गए.

भारतीय कानून के अनुसार, केंद्र और राज्य सरकारों को भारतीय टैलीग्राफ अधिनियम (1985) के तहत इंटरसैप्ट करने का अधिकार दिया जाता है. फोन टेपिंग का यह अधिकार 60 दिन के लिए दिया जा सकता है जिसे जरूरत पड़ने पर 180 दिनों के लिए बढ़ाया जा सकता है. अब यह तो बात पूरी सरकार के पक्ष में जाती दिख रही है. असल पेंच इसी के आगे फंसा हुआ है. किसी डिवाइस को टैप करने के लिए एक्ट में विभिन्न परिस्थितयां जोड़ी गई हैं. किसी पब्लिक इमरजैंसी के मौके पर,
-आम जनता की सुरक्षा के लिए,
-देश की अखंडता व संप्रभुता बनाए रखने के लिए,
– विदेशी राज्यों के साथ सार्वजनिक व्यवस्था बनाए जाने, जैसे संज्ञेय अपराध को रोकने के लिए आदि.
वहीं, आईटी एक्ट 2000 में 19 नवंबर 2019 को केंद्र सरकार द्वारा लोकसभा में दी गई जानकारी के अनुसार, 10 ऐसी एजेंसियां हैं जो फोन टैप कर सकती हैं. बाकी प्रावधान इस टैलीग्राफ एक्ट के इर्दगिर्द ही हैं.

अब सम झने वाला मसला यह है कि सर्विलांस और हैकिंग 2 अलगअलग चीजें होती हैं. आईटी एक्ट 2000 के विशेष प्रावधान सैक्शन 69 के तहत सरकार सर्विलांस करवा सकती है और करवाती भी हैं लेकिन अभी पैगासस के माध्यम से जो फोन के साथ किया जा रहा है उसे हैकिंग कहेंगे. क्योंकि इस पूरे प्रकरण में रिमोट पूरी तरह से हैकर के हाथों में रहता है, वह जैसे चाहे अपने अनुसार उपकरण का इस्तेमाल कर सकता है.

आईटी एक्ट के तहत किसी भी तरह की हैकिंग होने पर साइबर सैल या पुलिस में केस दर्ज कराया जा सकता है. यह एक आपराधिक कृत्य है. कोई भी इस के लिए जिम्मेदार शख्स या संस्था पर केस कर सकता है चाहे पैगासस बनाने वाली एनएसओ ही क्यों न हो. हालांकि, हैकिंग में सजा का कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है.

सरकार पर उठते सवाल
‘द गार्जियन’ अखबार के अनुसार, ‘‘भारतीय नंबरों का चयन मोटेतौर पर मोदी की 2017 की इसराईल यात्रा के समय शुरू हुआ जब भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहली इसराईल यात्रा की और भारत व इसराईल के बीच अरबों की डिफैंस डील की गई.’’ ऊपर रिपोर्ट में दिए नंबरों से जुड़े नामों में अधिकतर लोगों का मकसद टैलीग्राफ व आईटी एक्ट के तहत राष्ट्रीय सुरक्षा में सेंध मारने, आतंकवादी गतिविधि में हिस्सा लेने या अखंडता तोड़ने का हो, यह बात न तो गले के नीचे उतर रही है न जम रही है. क्योंकि इस लिस्ट में सवैधानिक पद पर बैठे जज, अधिकारी, विपक्षी नेताओं, महिलाओं व उन के परिवारों से जुड़े नंबर हैं. यही कारण है कि सरकार इस पूरे मसले पर अपना पक्ष रख नहीं पा रही.

सीधी सी बात है, पैगासस की लिस्ट में निगरानी के लिए दिए अधिकतर लोगों के नंबरों में एक समानता दिखाई देती है और वह यह कि इस लिस्ट में अधिकतर उन लोगों को शामिल किया गया है जिन का भाजपा सरकार से किसी न किसी प्रकार का विवाद जुड़ा रहा है या वे भाजपा के टारगेट में पहले से ही रहे हैं. सीधा सा मतलब है कि यह किसी पार्टी के व्यक्तिगत फायदों को ध्यान में रख कर की गई हैकिंग है.
न्यूज एजेंसी एएनआई के जरिए सरकार ने भले 18 जुलाई को हुए इस सनसनीखेज खुलासे पर चिट्ठी के माध्यम से अपनी सफाई दी हो लेकिन सरकार के तर्क गले नहीं उतरते. इस चिट्ठी का मूल यही था कि ‘सरकार खुद पर लगे इन आरोपों को नकारती है और यह रिपोर्ट भारतीय लोकतंत्र व उस के संस्थानों को बदनाम करने के अनुमानों और आरोपों पर आधारित है.’

वहीं गृहमंत्री अमित शाह भी अपने स्टेटमैंट में कहते हैं, ‘‘आप क्रोनोलोजी सम िझए, ये वे लोग हैं जो भारत के विकास को पसंद नहीं करते.’’ इसी प्रकार से केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव, जिन पर खुद जासूसी करवाई गई, सदन में इस जासूसी कांड पर जांच करने से मना करते हुए इसे ‘अतिरंजित और लोकतंत्र को बदनाम करने वाला’ बताते हैं. जबकि देखा जाए तो दुनियाभर में इस जासूसी के खिलाफ जांच कराने की मांग की जा रही है. फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों का नंबर जासूसी लिस्ट में मौजूद होने की जानकारी सामने आने के 24 घंटों के अंदर ही फ्रांस ने मामले की जांच के आदेश दिए. उन के औफिस से कहा गया, ‘‘अगर तथ्य सही हैं तो वे साफतौर पर बहुत गंभीर हैं. मीडिया के इन खुलासों का पूरा पता लगाया जाएगा. कुछ फ्रांसीसी पीडि़तों ने पहले ही शिकायत दर्ज कराने की घोषणा कर दी है और इसलिए कानूनी जांच शुरू की जाएगी.’’ वहीं माना जा रहा है कि इसराईल के वरिष्ठ मंत्रियों की एक टीम इस मामले की जांच के लिए गठित करने जा रहा है.

किंतु हमारे देश के लिए शर्मनाक यह है कि सरकार इस पर जांच तो दूर, स्पष्ट जवाब भी नहीं दे रही है. सरकार खुल कर नहीं कह पा रही कि वह इस तरह की सेवाएं एनएसओ से ले रही है या नहीं, और यदि सरकार हैकिंग करवा रही है तो क्यों और यदि नहीं करवा रही तो कौन करवा रहा है? मसला यह कि इसे कोई दूसरे देश की सरकार करवा रही है तो यह देश की राष्ट्रीय सुरक्षा में सेंध लगने जैसा नहीं है क्या? इसे जानना क्या सरकार का फर्ज नहीं, खासकर तब, जब उन्हीं की सरकार में उन के ही मंत्रियों, देश के जज और अधिकारियों की जासूसी चल रही हो. और यदि यह विदेशी षड्यंत्र का हिस्सा है तो तथाकथित राष्ट्रवादी पार्टी होने का ढोल पीटने वाली सरकार जांच न करवा कर अपने देश के नागरिकों पर इस तरह की जासूसी होने देना चाहती है? चलो विपक्ष और सामाजिक कर्ताओं को छोड़ भी दें तो क्या सरकार यह जानने की इच्छुक नहीं कि उन की पार्टी के मंत्री, नेताओं के सचिव और प्रवीण तोगडि़या जैसे आरएसएस के बड़े नेताओं की जासूसी करवा कौन रहा है? या यह जानने की इच्छुक नहीं कि इतना बड़ा बजट लगा कर कौन देश के लोगों की सूक्ष्म निगरानी करना चाहता है?

अव्वल, क्या यह शर्म की बात नहीं कि जिस एनएसओ कंपनी पर पूरी दुनिया निशाना साधे बैठी है और उस के पैगासस सौफ्टवेयर को लोकतंत्र के लिए घातक बता रही है, वह तक उस पर लगाए आरोपों की जांच की बात कह रही है और कार्रवाई का भरोसा दिला रही है, भले ही उस की इस बात में खास दम न भी हो, क्योंकि यह वही सौफ्टवेयर है जिस की 2018 में सऊदी के पत्रकार जमाल खगोशी की हत्या में भूमिका बताई जाती है, पर भारत सरकार का जांच से मुकरने की वजह पल्ले नहीं पड़ती. सीधी सी बात है, चोर की दाढ़ी में तिनका अटका हुआ है जो साफ दिखाई दे रहा है. खुलासे में निकली ये इतनी संवेदनशील जानकारियां हैं कि निष्पक्ष जांच होने पर आए तो सरकार में बैठे कई उच्च पदासीनों के इस्तीफों की झड़ी लग जाए.

जनता को जंजीरों में जकड़ने की साजिश किसी भी लोकतंत्र में जासूसी स्वीकार्य नहीं हो सकती है. आज तकनीक के जरिए सरकार का सत्ता में बने रहने के लिए अपने विपक्ष और विरोधियों, यहां तक कि अपने करीबियों पर जासूसी कराना उस की कमजोरी और अक्षमता दिखाता है. असल में यह राष्ट्रद्रोह और निजता पर हमला है. ‘पैगासस प्रोजैक्ट’ रिपोर्ट के सनसनीखेज खुलासे से यह खुल कर सामने आ गया है कि मौजूदा सरकार सरकारी तंत्र का अपने राजनीतिक लाभ के लिए दुरुप्रयोग कर रही है.

कई सरकार समर्थक लोगों का कहना है कि अगर इस प्रकार की हैकिंग की भी गई तो इस में दिक्कत क्या है, जरूर उन के पास छिपाने लायक कुछ होगा, वरना एतराज क्यों होता? यह कुतर्क है, क्या कोई भी अपना जीमेल, बैंक अकाउंट का पासवर्ड सब को बता सकता है? क्या आप किसी को भी अपने बाथरूम और बैडरूम में तांका झांकी करने दे सकते हैं? नहीं न. इस का अर्थ यह तो नहीं कि फलां व्यक्ति संदिग्ध कृत छिपाने लायक काम करता है. मूल बात यह है कि किसे क्या बताना है, कितना बताना है, यह खुद व्यक्ति के नियंत्रण में होना चाहिए. सार्वजनिक जीवन बिताने वाले कोई भी नेता या अधिकारी पारदर्शिता से बंधे होने चाहिए न कि हैकिंग से.

फर्ज करें, सरकारें अगर आज फोन में अपने मुख्य टारगेट की जासूसी के लिए घुस कर इस तरह से हैकिंग कर रही हैं, कल को अगर यह उपक्रम सस्ता होता है तो सरकार के लिए कितना मुश्किल रह जाएगा उन सभी लोगों के बैडरूमबाथरूम तक पहुंच जाना जो उस की बातों से सहमत नहीं हो रहे, जो आटेदाल, पैट्रोलडीजल के बढ़ते दामों से तंग आ चुके हैं और सरकार को बदलना चाहते हैं. आज नेताओं को इस जासूसी के लिए चुना गया, पत्रकारों को टारगेट किया गया क्योंकि विरोध की पहली आवाज यहीं से आती है. इन चीजों को रोका नहीं गया, जांच नहीं हुई तो बहुत दूर नहीं कि आम लोगों को भी इस के रडार में लाया जाए. क्या यह लोकतंत्र का गला दबाने का मुख्य हथियार के रूप में नहीं उभरेगा? इस की कोई गारंटी है, खासकर उस सरकार की जो ठीक से जवाब तक नहीं दे रही है.

यह न भूलें कि जो इसराईली सरकार ऐसा सौफ्टवेयर बनवा सकती है वह किसी भी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के फोन की भी हैकिंग कर सकती है. हर सरकार आज ब्लैकमेल की शिकार हो सकती है.
मोदी सरकार के आने के बाद से देश का हर प्रकार से नुकसान ही हुआ है. सरकार हर क्षेत्र में विफल रही है, अर्थव्यवस्था बेपटरी हो चुकी है, बेरोजगारी को ले कर युवा दरदर भटक रहे हैं, सरकारी योजनाएं धूल खा रही हैं, गरीब भुखमरी की कगार पर हैं, मध्यवर्ग गरीबी की तरफ बढ़ रहा है और उच्चवर्ग का धंधा चौपट हुआ पड़ा है.

सरकार जानती है कि उस ने जनता के लिए कुछ भी नहीं किया है, कहीं कोई छोटी सी भी हलचल उसे सत्ता से बेदखल कर सकती है. यही कारण है कि हर प्रकार से सरकार, गैरकानूनी तरीके से भी, हर छोटी हलचल को भांप उसे अपने रास्ते से हटा देना चाहती है. यह सरासर जनता के ओपिनियन का गला दबाने जैसा है. लोगों की सोच पर नियंत्रण करने जैसा है. सरकार जनता के गले में गुलामी की जंजीर बांध देना चाहती है. वह इस के लिए जनता को धार्मिक धंधेबाजी में उल झाती है ताकि वह इन मसलों पर सोचनासम झना ही बंद कर दे.

जासूसी के विवादित मामले

देश में जासूसी कराने का यह पहला मामला नहीं है. भारत में ऐसे पहले भी कई बार मामले सामने आए हैं, जहां विरोधियों के फोन टेप हुए और खासे विवाद खड़े हुए. एक मामले में तो सरकार ही गिर गई और एक मामला ऐसा कि भारतीय राजनीति में भूचाल ला दिया. लेकिन ध्यान रहे, पैगासस वाले मामले को इन सब से अलग आंका जा रहा है, यहां विवाद सिर्फ फोन टेपिंग जासूसी का नहीं, बल्कि फोन हैकिंग से जुड़ा है. आइए जानते हैं क्या थे वे मुख्य मामले-

रामकृष्ण कांड : साल था 1988, प्रधानमंत्री राजीव गांधी बोफोर्स मामले में बुरी तरह घिर चुके थे. इस बीच मीडिया में कर्नाटक के मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े द्वारा फोन टेपिंग का मामला उछलने लगा. राजीव गांधी ने मौका पा कर इस मामले को हवा देने के लिए जांच के आदेश दे दिए. जांच में पता चला कि मुख्यमंत्री के इशारे पर विपक्ष के नेताओं की जासूसी की गई. चौतरफा दबाव के चलते रामकृष्ण हेगड़े को इस्तीफा देना पड़ गया.

चंद्रशेखर कांड : साल 1991, प्रधानमंत्री थे चंद्रशेखर. दरअसल, हरियाणा के 2 मुख्यमंत्री राजीव गांधी के घर की निगरानी करते पकड़े गए. जिस के बाद राजीव और चंद्रशेखर की तल्खियां बढ़ गईं. कांग्रेस ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और चंद्रशेखर की सरकार गिर गई. नीरा राडिया : भारतीय आयकर विभाग ने 2008-9 के बीच नीरा राडिया की पत्रकार, राजनेताओं और व्यापारियों के साथ बातचीत रिकौर्ड की. इस बात में भ्रष्टाचार के लेनदेन के आरोप सामने आए. 300 से अधिक फोन टेप किए गए. जिन में नेता और बिजनैसमैन के नामों का खुलासा हुआ. इसी मामले के बाद संचार मंत्री ए राजा को इस्तीफा देना पड़ गया.

मोदी, शाह और महिला विवाद 2013: यह विवाद मोदीशाह के लिए सब से शर्मनाक विवाद माना जाता है. आरोप था कि मोदी के इशारे पर अमित शाह एक आयुक्त से एक महिला की जासूसी करवा रहे थे. अमित शाह की टेप रिकौर्डिंग से इस का खुलासा हुआ था. इस प्रकरण में महिला की बेहद निजी जासूसी, जैसे महिला के हवाई अड्डे, होटल, शौपिंग मौल, जिम हर जगह आनेजाने, किस से मिलती है इत्यादि गतिविधियों का पता लगाया गया, यहां तक कि मोबाइल डाटा खंगाला गया.

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