सपने कांच के गिलासों की तरह

रोज टूटते हैं

कभी मन की अलमारी से निकालते

हाथ से छूट जाते

कभी धोने, पोंछने, संवारने में

फिसल कर टूट जाते

कोई दुख की गरम चाय

सह नहीं पाते हैं

कोई समय के हाथ के दबाव से

चटक जाते हैं

कोई वास्तविकता के फर्श पर

गिर चूर हो जाते

कोई कड़वी आलोचना के भार तले

दब जाते

कभी किसी का क्रोध

सपनों को पटक देता है

दोष किसी का हो

टूटते तो सपने ही हैं

नए, पुराने, छोटे, बड़े, सहेजे, संभाले

अपने ही हैं

बेबस मैं हाथों से

उन के टुकड़े बटोर लाती हूं

और विस्मृति के डब्बों में

फेंक आती हूं

सोचती हूं, सब भूलभाल

नए सपने लाने को

मन के रीते शैल्फ पर

फिर से सजाने को

पर कभीकभी टूटे सपने की किरिचें

दिल में चुभ जाती हैं

और उन की कसक देर तक

दुखाती, रुला जाती है.

- जसबीर कौर

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