Download App

शर्मिंदगी -भाग 3: जब उस औरत ने मुझे शर्मिंदा कर दिया

उस समय मेरे साथ पत्नी नहीं थी, इसलिए मैं ने औरत को गौर से देखा. सचमुच वह बहुत सुंदर थी. मैं कुछ कहता, उस के पहले ही उस ने झुक कर मेरे पैर पकड़ लिए.

‘‘क्या बात है भई, तुम बताती क्यों नहीं?’’ मैं ने उसे बांहों से पकड़ कर खड़ा करने की कोशिश करते हुए कहा. उस की बांहें बहुत कोमल थीं. मुझे सिहरन सी हुई. मैं ने कहा, ‘‘मैं औफिस जा रहा हूं, जो कुछ भी कहना है, जल्दी कहो.’’

‘‘साहब, हम कई दिनों से आप के औफिस के चक्कर लगा रहे हैं.’’ औरत के बजाए उस के साथ खड़े लड़के ने कहा, ‘‘लेकिन आप का चपरासी…’’

‘‘बात क्या है, बताओ. चपरासी की छोड़ो.’’ मैं ने लड़के की बात काटते हुए कहा. लेकिन मेरी नजरें औरत के चेहरे पर ही जमी थीं.

‘‘इन के पति…’’ लड़के ने कहा, ‘‘जो रिश्ते में मेरे मामा लगते हैं.’’

‘‘तुम रिश्ते की बात छोड़ो, काम की बात करो.’’ मैं ने डांटने वाले अंदाज में कहा.

‘‘जी, इन के पति यानी मेरे मामा को पुलिस ने बिना किसी अपराध के पकड़ लिया है. उन्हीं को छुड़ाने के लिए यह कई दिनों से आप के पास आ रही हैं.’’ लड़के ने जल्दी से कहा, ‘‘आप इन के पति को छुड़वा दीजिए साहब, इन का और कोई नहीं है. मेरा मामा बहुत ही सीधासादा आदमी है. आज तक उस ने कोई गलत काम नहीं किया. जहां हंगामा हुआ था, वहां वह शरबत का ठेला लगाता था. हंगामा करने वाले तो भाग गए, पुलिस मेरे मामा को पकड़ ले गई. अब वे मामा को छोड़ने के लिए 5 हजार रुपए मांग रहे हैं. हमारे पास इतने रुपए नहीं हैं.’’

‘‘लेकिन इस में मैं क्या कर सकता हूं? पुलिस का मामला है, जो कुछ करना होगा, वही करेगी.’’

‘‘आप बहुत कुछ कर सकते हैं साहब.’’ लड़के ने गिड़गिड़ाते हुए कहा.

औरत आगे बढ़ी और मेरे पैरों की ओर झुकी, तभी मैं पीछे हट कर बोला, ‘‘इस तरह बारबार मेरे पैरों को मत पकड़ो. यह ठीक नहीं है. रही बात तुम्हारे पति की तो वह निर्दोष होगा तो अदालत से छूट जाएगा.’’

‘‘साहब, पता नहीं अदालत कब छोड़ेगी. अगर आप चाहें तो 5 मिनट में छुड़वा सकते हैं.’’ लड़के ने धीमी आवाज में कहा, ‘‘हमारे ऊपर दया करें साहब, हमारा और कोई नहीं है.’’

वह औरत इस लायक थी कि उसे औफिस बुलाया जा सकता था, वहां उस से इत्मीनान से बात भी की जा सकती थी. मैं ने अपना विजिटिंग कार्ड लड़के को देते हुए कहा, ‘‘यह मेरा कार्ड है. तुम इन्हें ले कर मेरे औफिस आ जाओ. शायद मैं तुम्हारा काम करा सकूं.’’

इस के बाद मैं औफिस चला गया. लेकिन उस दिन मेरा मन काम में नहीं लग रह था. फाइलों को देखते हुए मुझे बारबार उस औरत की याद आ रही थी. मुझे लग रहा था कि वह आती ही होगी. लेकिन उस दिन वह नहीं आई. घर आते हुए मैं उसी के ख्यालों में डूबा रहा. यही सोचता रहा कि पता नहीं वह क्यों नहीं आई.

अगले दिन मैं औफिस पहुंचा तो वह औरत और लड़का मुझे औफिस के गेट के सामने खड़े दिखाई दे गए. मैं जैसे ही कार से उतरा, दोनों मेरे पास आ गए. मैं ने उन्हें सवालिया नजरों से घूरते हुए कहा, ‘‘तुम्हें तो कल ही आना चाहिए था?’’

‘‘हम कल आए तो थे साहब, लेकिन आप के चपरासी ने कहा कि साहब बहुत व्यस्त हैं, इसलिए वह किसी से नहीं मिल सकते.’’ लड़के ने कहा.

‘‘तुम ने उसे मेरा कार्ड नहीं दिखाया?’’

‘‘दिखाया था साहब,’’ लड़के ने कहा, ‘‘चपरासी ने कार्ड देखा ही नहीं. कहा कि इसे जेब में रखो, फिर कभी आ जाना.’’

‘‘ठीक है, 10 मिनट बाद मेरी केबिन के सामने आओ, मैं तुम्हें बुलवाता हूं.’’ मैं ने औरत को नजर भर कर देखते हुए कहा.

10 मिनट बाद दोनों मेरे सामने बैठे थे. लड़के ने फिर वही कहानी दोहराई. मैं ने उस की बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. जो हंगामा हुआ था, उस का मुझे पता था. यह भी पता था कि उस मामले में कोई असली अपराधी नहीं पकड़ा गया था.

मैं ने हंगामा होने वाले इलाके के थानाप्रभारी को फोन किया. जब उस ने बताया कि अभी महिला के पति के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज नहीं है तो मैं ने कहा, ‘‘जब तक मैं दोबारा फोन न करूं, उस के खिलाफ कोई काररवाई मत करना.’’

इतना कह कर मैं ने फोन काट दिया. वह औरत और लड़का मेरी तरफ ताक रहे थे. मेरे फोन रखते ही लड़के ने कहा, ‘‘साहब, उस ने कुछ नहीं किया.’’

‘‘तुम ने बाहर स्टेशनरी वाली दुकान देखी है?’’ मैं ने लड़के से पूछा.

‘‘जी, वह किताबों वाली दुकान.’’ लड़के ने कहा.

‘‘हां, तुम ऐसा करो,’’ मैं ने उसे 10 रुपए का नोट देते हुए कहा, ‘‘उस दुकान से एक दस्ता कागज ले आओ. उस के बाद बताऊंगा कि तुम्हें क्या करना है.’’

लड़का 10 रुपए का नोट लेने के बजाए बोला, ‘‘मेरे पास पैसे हैं साहब. मैं ले आता हूं कागज.’’

लड़का चला गया तो मैं ने औरत को चाहतभरी नजरों से देखते हुए कहा, ‘‘तुम्हारा काम तो हो जाएगा, लेकिन तुम्हें भी मेरा एक काम करना होगा.’’

मेरी इस बात का मतलब वह तुरंत समझ गई. मैं ने उस के चेहरे के बदलते रंग से इस बात का अंदाजा लगा लिया था. फिर औरतें तो नजरों से ही अंदाजा लगा लेती हैं कि मर्द क्या चाहता है. मैं ने अपनी इच्छा को शब्दों का रूप दे दिया. मैं ने कहा, ‘‘अगर तुम ने मेरी बात नहीं मानी तो तुम्हारा पति कम से कम 3 सालों के लिए जेल चला जाएगा. पुलिस ने उसे हंगामे के मुकदमे में नामजद किया है.’’

यह कहते हुए मेरी नजरें औरत के चेहरे पर जमी रहीं और मैं उसे पढ़ने की कोशिश कर रहा था. मैं ने आगे कहा, ‘‘अगर तुम चाहती हो कि तुम्हारा पति घर आ जाए तो तुम आज 4 बजे अमर कालोनी के स्टौप पर मुझे मिल जाना. स्टौप से थोड़ा हट कर खड़ी होना, जिस से मैं तुम्हें आसानी से पहचान सकूं. अगर तुम नहीं आईं तो मैं यही समझूंगा कि तुम अपने शौहर की रिहाई नहीं कराना चाहती.’’

औरत सिर झुकाए बैठी रही. उस के होंठ कांप रहे थे. लेकिन शब्द नहीं निकल रहे थे. मैं उस के जवाब की प्रतीक्षा करता रहा. जब उस ने कोई जवाब नहीं दिया तो मैं समझ गया कि चुप का मतलब रजामंदी है. मैं ने कहा, ‘‘तुम वहां अकेली ही आना. अगर कोई साथ होगा तो फिर तुम्हारा काम नहीं होगा.’’

उस ने सहमति में सिर हिला कर गर्दन झुका ली. लड़के के आने तक मैं उसे तसल्ली देता हुआ उस की खूबसूरती की तारीफें करता रहा. लेकिन उस ने मेरी तरफ देख कर जरा भी खुशी प्रकट नहीं की. वह मूर्ति की तरह बैठी मेरी बातें सुनती रही. लड़के के आने के बाद मैं ने उसे विदा करते हुए कहा, ‘‘मैं कोशिश करूंगा कि तुम्हारा पति कल तक छूट जाए.’’

दोनों के जाने के बाद मैं औफिस के कामों को निपटाने लगा, लेकिन मन में जो लड्डू फूट रहे थे, वे मुझे उलझाए हुए थे. ठीक 4 बजे मैं अपनी कार से अमर कालोनी के बसस्टौप पर पहुंच गया. दरवाजा खोल कर मैं बाहर निकलने ही वाला था कि उस औरत को अपनी ओर आते देखा. जालिम की चाल दिल में उतर जाने वाली थी.

थोड़ी देर में उस सुंदर चीज को पहलू में लिए मैं उस फ्लैट की ओर जा रहा था, जो मैं ने अपनी अय्याशियों के लिए ले रखा था. मेरी कार हवा से बातें कर रही थी. पूरे रास्ते न तो उस औरत ने होंठ खोले और न ही मैं ने कुछ कहा.

फ्लैट में पहुंच कर पहले मैं ने अपना हलक गीला किया, जिस से मजा दोगुना हो सके. जब अंदर का शैतान पूरी तरह से जाग उठा तो मैं ने उस की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘मुझे कतई विश्वास नहीं था कि तुम इतनी आसानी से मान जाओगी, मेरा ख्याल है कि तुम्हें अपने पति से बहुत ज्यादा प्यार है. तुम अपने प्यार को जेल जाते नहीं देख सकती थी.’’

मैं अपनी बातें कह रहा था और वह किसी पत्थर की मूर्ति की भांति निश्चल बैठी फर्श को ताके जा रही थी. मैं ने उस के कंधे पर हाथ रख कर अपनी ओर खींचा तो वह एकदम से बिस्तर पर गिर गई. गिरते ही उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं. मुझे उस का यह अंदाज काफी पसंद आया.

अगले दिन शाम को 7 बजे के करीब जब मैं घर पहुंचा तो यह देख कर दंग रह गया कि वह औरत, एक आदमी और मेरी पत्नी लौन में बैठे चाय पी रहे थे. मुझे देखते ही वह आदमी उठ खड़ा हुआ और मेरे पास आ कर मेरे पैर छू लिए. मैं ने एक नजर औरत पर डाली. वह नजरें झुकाए खामोश बैठी थी.

मैं ने उस आदमी की ओर देखा तो उस की आंखों में मेरे प्रति आभार के भाव थे. वह मुझे बारबार धन्यवाद दे रहा था. वह कह रहा था, ‘‘साहब, आप बहुत बड़े आदमी हैं. यह एहसान मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा.’’

अब मेरे अंदर उस का सामना करने का साहस नहीं रह गया था. मैं उस से पीछा छुड़ा कर घर में जाना चाहता था. लेकिन पत्नी ने पीछे से कहा, ‘‘कहां जा रहे हैं, जरा इधर तो आइए. यह बेचारी कितनी देर से आप का इंतजार कर रही है. आप ने इस का काम करा कर बडे़ पुण्य का काम किया है. आप की वजह से मेरा सिर गर्व से ऊंचा हो गया है. मैं बहुत खुश हूं.’’

मैं ने पलट कर एक नजर पत्नी की ओर देखा. वह सचमुच बहुत खुश दिख रही थी. मैं ने कहा, ‘‘मेरी तबीयत ठीक नहीं है. मैं थोड़ा आराम करना चाहता हूं.’’ कह कर मैं तेजी से दरवाजे में घुस गया.

बैडरूम में पहुंच कर मैं बिस्तर पर ढेर हो गया. कुछ देर बाद पत्नी मेरे कमरे में आई और बैड पर बैठ कर मेरे बालों में अंगुलियां फेरते हुए बोली, ‘‘तुम्हें कुछ पता है, वह बेचारी गूंगी थी, इसीलिए वह हमें नहीं बता पा रही थी कि उस पर क्या जुल्म हुआ था. इसीलिए आभार व्यक्त करने के लिए वह पति को साथ लाई थी. वह कह रहा था कि अगर उसे जेल हो जाती तो यह बेचारी कहीं की नहीं रह जाती. कोई उसे सहारा देने वाला नहीं था.’’

अब मुझ में इस से अधिक सुनने की ताकत नहीं रह गई थी. मैं अपनी शर्मिंदगी छिपाने के लिए तेजी से उठा और बाथरूम में घुस गया.

दुनियादारी- भाग 2: किसके दोगलेपन से परेशान थी सुधा

‘चाहे कुछ भी हो मुझे जाना ही चाहिए. वे मेरे पिता जैसे हैं, मेरा भी कुछ दायित्व है. स्कूल के प्रति कोईर् फर्ज नहीं? बच्चों के भविष्य के प्रति कोई दायित्व नहीं? बीमार व्यक्ति के प्रति दायित्व अधिक होता है और यदि वह ससुर हो तो और भी. वरना लोग कहेंगे कि पराया खून तो पराया ही होता है,’ सुधा का विवेक आखिरकार सुधा के सामाजिकदायित्व के आगे नतमस्तक हो गया.

अगले दिन सुधा सीधे अस्पताल पहुंची, ‘‘नमस्ते जीजी,’’ सुधा ने जीजी के पैर छूते हुए कहा.

‘‘खुश रहो, अच्छा किया आ गईं, बीमार आदमी का क्या भरोसा, कब हालत बिगड़ जाए. कुछ हो जाता तो मन में अफसोस ही रह जाता.’’

‘‘अच्छाअच्छा बोलो जीजी, ऐसे क्यों कह रही हो,’’ जीजी की बात सुन कर सुधा अंदर तक कांप उठी. उस का भावुक मन इस सचाई को स्वीकार नहीं कर पाता था कि इंसान का अंत निश्चित है और जीजी जितने सहज भाव से यह कह रही थीं, उस की तो वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी.

‘‘थक गई होगी, थोड़ा आराम कर लो. फिर कुछ खापी लेना.’’

‘‘पहले एक नजर बाबूजी को देख लेती.’’

‘‘देख लेना. वे कुछ बोल तो सकते नहीं. वैंटिलेटर पर हैं. तुम पहले नहाधो लो,’’ फिर समीर को आवाज लगा कर बोली, ‘‘जा, कुछ नाश्ता ले आ हमारे लिए. आज कचौड़ी खाने का मन हो रहा है, पास में ही गरमागरम कचौडि़यां उतर रही हैं.

5-7 कचौडि़यां और मसाले वाली चाय मंगा ले, बड़ी जोरों की भूख लगी है,’’ कह कर जीजी वहीं पालथी मार कर बैठ गईं.

सुधा हतप्रभ हो कर जीजी को देखने लगी. उसे अस्पताल में ऐसे वातावरण की उम्मीद न थी. जिस तरह जीजी फोन पर उसे नसीहत दे रही थीं उस से तो यह प्रतीत हो रहा था कि मामला बड़ा गंभीर है और वातावरण बोझिल होगा. यहां तो उलटी गंगा बह रही थी. खैर, भूख तो उसे भी लग रही थी और कचौडि़यां उसे भी पसंद थीं.

‘‘सुधा अब जरा पल्लू सिर पर डाल कर रखना. सब मिलनेजुलने वाले आएंगे. यही समय होता है अपने घर की इज्जत रखने का.’’ नाश्ता करते ही जीजी ने सुधा को सचेत कर दिया जिस से सुधा को वातावरण की गंभीरता का एहसास फिर से होने लगा.

अस्पातल में मिलनेजुलने वालों का सिलसिला चल पड़ा. मौसीमौसाजी, छोटे दादाजी, मामाजी, उन के साले, बेटेबहू और न जाने कौनकौन मिलने आते रहे और जीजी सिसकसिसक कर उन से बतियाती रहीं. सुधा का काम था सब के पैर छूना और चायकौफी के लिए पूछना. वैसे भी, उस की कम बोलने की आदत ऐसे वातावरण में कारगर सिद्ध हो रही थी.

3-4 दिनों बाद बाबूजी की अचानक हालत बिगड़ने लगी. डाक्टर ने सलाह दी, ‘‘अब आप लोग इन्हें घर ले जाइए और सेवा कीजिए. इन की जितनी सांसें बची हैं, वे ये घर पर ही लें तो अच्छा है.’’

डाक्टर की बात सुनते ही सुधा बिलखबिलख कर रोने लगी पर जीजी सब बड़े शांतमन से सुनती रहीं और फिर शुरू हो गए निर्देशों के सिलसिले.

‘‘समीर, भाभी से कहना गंगाजल, तुलसीपत्र, आदि का इंतजाम कर लें. जाते समय रास्ते से धोती जोड़ा, गमछा, नारियल लेने हैं,’’ आदि जाने कितनी बातें जीजी को मुंहजबानी याद थीं. वे कहती जा रही थीं और सब सुनते जा रहे थे.

 

घर लाने के 3-4 घंटे बाद ही बाबूजी इस संसार से विदा हो गए. सुधा को समझ नहीं आ रहा था कि वह इस समय बाबूजी के मृत्युशोक में निशब्द हो जाए या जीजी की तरह आगे होने वाले आडंबरों के लिए कमर कस ले.

सब काम जीजी के निर्देशानुसार होने लगे. आनेजाने वालों का तांता सा बंध गया. सुबह होते ही घर के सभी पुरुष नहाधो कर सफेदझक कुरता पायजामा पहन कर बैठक में बैठ जाते. बहू होने के नाते सुधा व उस की जेठानी भी बारीबारी स्त्रियों की बैठक में उपस्थित रहती थीं.

‘‘सुधा देख तो इस साड़ी के साथ कौन सी शौल मैच करेगी,’’ रोज सुबह जीजी का यही प्रश्न होता था और इसी प्रश्न के साथ वे अपना सूटकेस खोल कर बैठ जाती थीं.

सूटकेस है या साडि़यों व शौलों का शोरूम और वह भी ऐसे समय. सुधा अभी यह विचार कर ही रही थी कि जीजी बोलीं, ‘‘ऐसे समय में अपनेपरायों सब का आनाजाना लगा रहता है, ढंग से ही रहना चाहिए. यही मौका होता है अपनी हैसियत दिखाने का.’’

जीजी ने सुधा को समझाते हुए कहा तो उस का भावुक मन असमंजस में पड़ गया. वह तो बाबूजी की बीमारी की बात सुन कर 2-4 घरेलू साडि़यां व 1-2 शौल ही ले कर आई थी. उस ने सोचा था, ऐसे समय में किसे सजधज दिखानी है, माहौल गमगीन रहेगा. पर यहां तो मामला अलग ही था. जीजी तो थीं ही सेठानी, घर की अन्य स्त्रियों के भी यही ठाट थे. नहाधो कर बढि़या साडि़यां पहन कर बतियाने में ही सारा दिन बीतता था. घरेलू काम के लिए गंगाबाई और खाना बनाने के लिए सीताबाई जो थीं.

‘‘जीजी, आज खाने में क्या बनेगा?’ सीताबाई ने पूछा तो जीजी ने सोचने की मुद्रा बनाई और बोलीं, ‘‘बाबूजी को गुलाबजामुन बहुत पसंद थे, गट्टे की सब्जी और मिस्सी रोटी भी बना लो. दही, सब्जी, चावल तो रहेंगे ही. सलाद भी काट लेना. हां, जरा ढंग से ही बनाना. जाने वाला तो चला गया पर ये जीभ निगोड़ी न माने. ऐसीवैसी चीज न भाएगी किसी को.’’

मिसफिट पर्सन-भाग 1: जब एक नवयौवना ने थामा नरोत्तम का हाथ

‘‘आप के सामान में ड्यूटी योग्य घोषित करने का कुछ है?’’ कस्टम अधिकारी नरोत्तम शर्मा ने अपने आव्रजन काउंटर के सामने वाली चुस्त जींस व स्कीवी पहने खड़ी खूबसूरत बौबकट बालों वाली नवयौवना से पूछा.

नवयौवना, जिस का नाम ज्योत्सना था, ने मुसकरा कर इनकार की मुद्रा में सिर हिलाया. नरोत्तम ने कन्वेयर बैल्ट से उतार कर रखे सामान पर नजर डाली.

3 बड़ेबड़े सूटकेस थे जिन की साइडों में पहिए लगे थे. एक कीमती एअरबैग था. युवती संभ्रांत नजर आती थी.

इतना सारा सामान ले कर वह दुबई से अकेली आई थी. नरोत्तम ने उस के पासपोर्ट पर नजर डाली. पन्नों पर अनेक ऐंट्रियां थीं. इस का मतलब था वह फ्रीक्वैंट ट्रैवलर थी.

एक बार तो उस ने चाहा कि सामान पर ‘ओके’ मार्क लगा कर जाने दे. फिर उसे थोड़ा शक हुआ. उस ने समीप खड़े अटैंडैंट को इशारा किया. एक्सरे मशीन के नीचे वाली लाल बत्तियां जलने लगीं. इस का मतलब था सूटकेसों में धातु से बना कोई सामान था.

‘‘सभी अटैचियों के ताले खोलिए,’’ नरोत्तम ने अधिकारपूर्ण स्वर में कहा.

‘‘इस में ऐसा कुछ नहीं है,’’ प्रतिवाद भरे स्वर में युवती ने कहा.

‘‘मैडम, यह रुटीन चैकिंग है. अगर इस में कुछ नहीं है तब कोई बात नहीं है. आप जल्दी कीजिए. आप के पीछे और भी लोग खड़े हैं,’’ कस्टम अधिकारी ने पीछे खड़े यात्रियों की तरफ इशारा करते हुए कहा.

विवश हो युवती ने बारीबारी से सभी ताले खोल दिए. सभी सूटकेसों में ऊपर तक तरहतरह के परिधान भरे थे. उन को हटाया गया तो नीचे इलैक्ट्रौनिक वस्तुओं के पुरजे भरे थे.

सामान प्रतिबंधित नहीं था मगर आयात कर यानी ड्युटीएबल था.

नरोत्तम ने अपने सहायक को इशारा किया. सारा सामान फर्श पर पलट दिया गया. सूची बनाई गई. कस्टम ड्यूटी का हिसाब लगाया गया.

‘‘मैडम, इस सामान पर डेढ़ लाख रुपए का आयात कर बनता है. आयात कर जमा करवाइए.’’

‘‘मेरे पास इस वक्त पैसे नहीं हैं,’’ युवती ने कहा.

‘‘ठीक है, सामान मालखाने में जमा कर देते हैं. ड्यूटी अदा कर सामान ले जाइएगा,’’ नरोत्तम के इशारे पर सहायकों ने सारे सामान को सूटकेसों में बंद कर सील कर दिया. बाकी सामान नवयुवती के हवाले कर दिया.

ज्योत्सना ने अपने वैनिटी पर्स से एक च्युंगम का पैकेट निकाला. एक च्युंगम मुंह में डाला, एअरबैग कंधे पर लटकाया और एक सूटकेस को पहियों पर लुढ़काती बड़ी अदा से एअरपोर्ट के बाहर चल दी, जैसे कुछ भी नहीं हुआ था.

सभी यात्री और अन्य स्टाफ उस की अदा से प्रभावित हुए बिना न रह सके. नरोत्तम पहले थोड़ा सकपकाया फिर वह चुपचाप अन्य यात्रियों को हैंडल करने लगा.

नरोत्तम शर्मा चंद माह पहले ही कस्टम विभाग में भरती हुआ था. वह वाणिज्य में स्नातक यानी बीकौम था. कुछ महीने प्रशिक्षण केंद्र में रहा था. फिर बतौर अंडरट्रेनी कस्टम विभाग के अन्य विभागों में रहा था.

उस के अधिकांश उच्चाधिकारी उस को सनकी या मिसफिट पर्सन बताते थे. वह स्वयं को हरिश्चंद्र का आधुनिक अवतार समझता था, न रिश्वत खाता था न खाने देता था.

 

अच्छे लोग -भाग 4 :कुछ पल के लिए सभी लोग क्यों डर गए थें

‘‘कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा. वकील का कहना है कि अखिला के बयान से यह स्पष्ट नहीं है कि हमारा उस के साथ मारपीट करने का क्या कारण है. केस की यही कमजोर कड़ी हमारे पक्ष में जाएगी.’’

‘‘परंतु बेटा, मुकदमा तो न जाने कितना लंबा चले. इतनी जल्दी फैसला कहां आएगा? तुम तो प्रियांशु की जमानत के लिए कुछ करो.’’

‘‘मम्मी, आप इन जैसी शातिर लड़कियों को नहीं जानतीं,’’ अभिनव ने हंस कर कहा, ‘‘जब मांबाप पर इन का जोर नहीं चलता, तो ये ससुराल के लोगों को परेशान करती हैं. घरेलू हिंसा और दहेज का मुकदमा दर्ज करवा कर ये पति से अलग हो जाती हैं. फिर मांबाप भी अपनी मरजी इन पर नहीं चला पाते और तब ये अपने प्रेमी के साथ शादी कर लेती हैं.’’

‘‘अखिला को उलटी पट्टी पढ़ाने में अवश्य उस के प्रेमी का हाथ होगा,’’ रिचा ने कहा, ‘‘हमें अखिला का प्रेमी का पता चल जाए, तो हमारा केस मजबूत हो जाएगा.’’

‘‘हां, अवश्य.’’

‘‘परंतु पता कैसे चलेगा, अखिला के मांबाप तो बताएंगे नहीं. तुम पता करो, कैसे भी?’’ शारदा ने उत्साह से कहा, जैसे अभी सबकुछ सुलझ जाएगा.

‘‘मैं तो पता नहीं कर पाऊंगा. किसी प्राइवेट जासूस की सेवा लेनी पड़ेगी.’’

‘‘तो जल्दी करो बेटो,’’

प्राइवेट जासूस बहुत कुशल था. एक सप्ताह के अंदर ही उस ने एक चौंकाने वाली रिपोर्ट ला कर दी. केवल रिपोर्ट ही नहीं दी, साथ में सुबूत भी दिए. अखिला की कौल डिटेल्स और उस की बातचीत की रिकौर्डिंग के साथसाथ अखिला के साथ उस के प्रेमी की तसवीरें भी प्रस्तुत कीं. रिपोर्ट देख कर सब के हृदय को भारी धक्का लगा कि एक लडक़ी अपने प्रेम के लिए किस तरह मांबाप की इज्जत और अपना दांपत्य जीवन चौपट कर सकती है. अखिला इस की बहुत अच्छी मिसाल थी.

रिपोर्ट से यह साबित हो गया था कि अखिला किसी लडक़े को प्यार करती थी, परंतु जाति अलग होने के कारण उस के पिता उस के साथ अखिला की शादी के लिए तैयार नहीं हुए थे. अखिला का प्रेमी कोई अच्छा काम भी नहीं करता था. वह किसी कैटरिंग वाले के यहां काम करता था और किसी शादीब्याह में अखिला से उस की जानपहचान हुई थी. समझ में नहीं आता, लड़कियां किस प्रकार प्रेम में अंधी हो जाती हैं कि उन्हें अपनी पारिवारिक मर्यादा और स्वयं के भविष्य का खयाल नहीं रहता.

प्रियांशु की जमानत के लिए रास्ता आसान हो गया था. अभिनव ने सारे सुबूत अपने वकील के माध्यम से कोर्ट में जमा करवा दिए थे. कोर्ट ने सुनवाई के लिए एक सप्ताह की तारीख दी थी.

शारदा और रमाकांत बहुत हैरान थे. कितने अरमानों से उन्होंने बेटे की शादी की थी. अपने व्यवहार और चरित्र से एक सुखी परिवार की स्थापना की थी. अपने बच्चों को ऐसे संस्कार दिए थे कि गलती से भी किसी को कष्ट न पहुंचे. परंतु फिर भी उन्हें ऐसी बहू मिली थी जिस के लिए एक घटिया लडक़े का प्यार महत्त्वपूर्ण था और उस का प्यार पाने के लिए वह अपने सुखी दांपत्य जीवन को भी आग में झोंकने पर आमादा थी.

उन्हें जेल की यातना परेशान नहीं कर रही थी. उन्हें तो अखिला का व्यवहार परेशान कर रहा था. क्या इस के बाद वे किसी लडक़ी पर भरोसा कर सकेंगे. उसे बहू बना कर अपने घर में ला सकेंगे.

एक सप्ताह बाद जब कोर्ट में सुनवार्ई हुई, तो शारदा, रमाकांत, अभिनव और रिचा कोर्ट में मौजूद थे. अखिला भी अपने वकील और मांबाप के साथ आई थी. उस के वकील को प्रतिवादी पक्ष का नोटिस मिल चुका था.

प्रियांशु के वकील ने एकएक सुबूत जब अपने तर्कों के साथ न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किए तो सब की आंखें आश्चर्य और अविश्वास से चौड़ी हो गईं. स्वयं न्यायाधीश हैरान थे. अखिला और उस के मांबाप सिर झुकाए एकतरफ खड़े थे. उन के वकील की बोलती बंद थी. भले ही उस ने सारे सुबूतों को झूठ और गढ़ा हुआ बताया था, परंतु सच को चीखने की आवश्यकता नहीं होती. अखिला और उस की आवाज की रिकौर्डिंग ने सारी साजिश से परदा उठा दिया था. अखिला ने अपने प्रेमी की सलाह पर ससुराल वालों पर मारपीट का झूठा मुकदमा दर्ज करवाया था.

 

प्रैस वाला : उलझन बाप बेटे की

जवानी दीवानी होती है ससुरी… पढ़लिख गया है इसलिए मानेगा नहीं. और मैं भी तो तुझे यहां रखने का नहीं. चला जा बचवा अपनी मेम को ले कर. और मैं भी तो तुझे यहां रखने का नहीं. चला जा बचवा अपनी मेम को ले कर… मैं भी एक कानी कौड़ी नहीं देने का तुझे… घर का काम नहीं करेगा, नौकरी करेगा… हूं…’’

धर्मवीर बुत की तरह खड़ा रहा, बोला कुछ नहीं. सोचता रहा कि क्या घर छोड़ देना चाहिए? लेकिन घर छोड़ कर रहेगा कहां? अभी तो नौकरी लगी ही है. बापू को क्या हर्ज है, यदि मैं यहीं रहूं? कुछ काम नहीं करूंगा तो कुछ लूंगा भी नहीं इन से. क्या यह जरूरी है कि यहां रह कर मुझे कपड़े धोने ही पड़ें?

वह हिम्मत कर के बोला, ‘‘मैं तुम से कुछ मांगूंगा नहीं बापू, जो किराया बाहर खर्च करूंगा, वही तुम्हें दे दिया करूंगा.’’

‘‘तू तो मुझे हजारों दे दिया करेगा, लेकिन मुझे कुछ नहीं चाहिए. मुझे मेरा बेटा चाहिए, जो मेरा काम संभाल सके. मैं ने तुझे इसलिए नहीं पढ़ाया कि पढ़लिख कर कहीं बाबूगीरी करेगा. मैं ने इसलिए पढ़ाया था कि तू अपने ही धंधे को ज्यादा अक्ल से कर सकेगा. अब पढ़लिख कर तुझे अपने ही काम से नफरत होने लगी है, तो निकल जा मेरे घर से.’’

धर्मवीर समझ गया कि अब उस की एक नहीं चलेगी. बापू पूरी तरह जिद पर अड़ गए हैं. उन की जिद से हर कोई परेशान है. अम्मां तो हर वक्त यही कहती रहती हैं कि इन में यह ‘जिद’ की ऐब नहीं होती, तो आज घर का हुलिया ही कुछ और होता.

यहां यह हाल है कि एक बार कोई कपड़े धुलवाने आता है, तो वह दोबारा नहीं आता. किसी को भी समय पर कपड़े नहीं मिलते, कभीकभी कपड़ों पर दाग भी लग जाते हैं. ऊपर से बापू का दिमाग हमेशा गरम ही रहता है. वह तो इस्तिरी करने से जिंदगी बचा दी, वरना कभी के सड़क पर होते. आजकल लोग वाशिंग मशीन में धोए कपड़े इस्तिरी करने देने लगे हैं. उस धंधे में ज्यादा कमाई है. पर छोगा सोचने लगा, अब इस धंधे में रखा ही क्या है. और फिर बापू के पास भी कौन लाखों की पूंजी है. लेदे कर यह मकान और 5,000 रुपए के अम्मां के जेवर ही तो हैं. सब छोटे को दे देंगे तो मैं कौन सा डूब जाऊंगा. फिर अभी तो मनीषा की शादी भी करनी है. कितनी बड़ी हो गई है. बड़ीबड़ी आंखों से ग्राहकों को देखती है. दिनभर कालोनियों के नौकर कपड़े लिए आते रहते हैं और खड़ेखड़े इस्तिरी करवा कर ले जाते हैं.

जब तक मनीषा इस्तिरी करती रहती है, तब तक नौकर लोग गपबाजी में लगे रहते हैं. कितनी बार बापू को मना किया है कि मनीषा को इस्तिरी पर मत लगाया करो. लेकिन मुझे बेवकूफ समझ कर अनसुनी कर देते हैं. उन्हें भी जैसे यह सब अच्छा लगता है. इसी बहाने दो पैसे की कमाई अधिक होती है. लेकिन अब मेरी जगह मेरी बीवी मिनी इस्तिरी करे और ग्राहक उसे घूरघूर कर देखते रहें, यही यह चाहते हैं न. लेकिन मैं ऐसा नहीं होने दूंगा. मुझे यह घर छोड़ ही देना चाहिए.

उसी दिन धर्मवीर एक कमरा तय कर आया. शाम को अपनी जरूरत का सामान बांध कर मिनी के साथ जाने लगा, तो अम्मां बापू से बोली, ‘‘वह जा रहा है. तुम्हारी तो अक्ल पर पत्थर पड़े हैं. जवान, पढ़ालिखा लड़का आज बाबू बना है तो तुम्हारी आंखों में चुभ रहा है. लोगों के गंदे कपड़े घाट पर… करता तो तुम्हारी छाती फूलती. तुम्हारी इसी जिद ने सारा घर चौपट कर दिया.’’

लेकिन बापू कुछ नहीं बोले. बेटे की तरफ देखते रहे, जैसे कह रहे हों, ‘‘मेरा कहा नहीं मानेगा न…? तो जा, मुझे ही यहां तेरी कौन जरूरत पड़ी है.”

धर्मवीर और मिनी घर से बाहर निकले तो मनीषा और छोटा भाई भी रो पड़े. धर्मवीर ने पीछे मुड़ कर देखा, मां उन्हें पुचकारते हुए घर में ले गई. बापू जेब से बीड़ी निकाल कर जलाने से पहले तीखी आंखों से उसे जाता हुआ देखते रहे.

नए घर में आ कर मिनी बहुत खुश हुई. वह धर्मवीर पर सात जान से न्योछावर हो रही थी. अपनेआप पर इतरा रही थी कि उसे ऐसा लायक घरवाला मिला. वह धर्मवीर के साथ घूमनेफिरने जाती. कभीकभी उस के साथ दूसरे बाबुओं के घर जाती. दूसरे बाबू भी अपनी औरतों को ले कर उन के घर आते.

मिनी भूल गई कि वह भी धोबिन की बेटी है. कभी वह भी सवेरेसवेरे स्कूटी पर कपड़े लाद कर बस्ती में बने घाट पर जाया करती थी. कभी वह भी घरों में कपड़े मांगने और देने जाया करती थी. ये सब बातें अब एक याद बन कर रह गई थीं. उसे लगता कि अब उस का पति बिलकुल बदल गया है. कौन कह सकता है कि वह धोबी के घर से है.

धर्मवीर ने बाबू की नौकरी तो कर ली, पर जल्दी ही उसे एहसास हो गया कि इस नौकरी में थोड़ी शान है, पर पैसा नहीं है. ऊपर से जो लोग उस से दोस्ती करते भी हैं, जाति जानते ही कन्नी काट लेते.

उसे लगने लगा कि इस से अच्छा तो वह घर पर ही रह कर कमा सकता है, पर अब क्या करे. अब तो मिनी ने भी एक गारमैंट फैक्टरी में काम करना शुरू कर दिया है. दिया तो उसे क्लर्क का काम था, पर जल्दी ही उस की फोल्डिंग कला को पहचानते हुए मैनेजर ने उसे प्रैसिंग यूनिट का सुपरवाइजर बना दिया. वह 20-25 लड़कियों का काम देखता और खुद भी प्रैस करने या फोल्ड करने में उसे हिचक नहीं होती. उस को भरपूर ओवरटाइम का पैसा मिलने लगा था.

मिनी बचपन से ही लड़कों को पटाना जानती थी. उस ने मैनेजर ही नहीं, बल्कि मालिक के बेटे को भी पटा लिया. अब वह कईकई रात घर नहीं आती. घर में पैसा आ गया था. फ्रिज था, कूलर था, टीवी था, सैकंड हैंड सोफा भी था. पर धर्मवीर को यह सब नहीं सुहाता. वह अब न अपने बापू का रह गया था, न मिनी का. मिनी उस को कुछ न कहती.

जब धर्मवीर रात को हाथ बढ़ाता तो वह बढ़चढ़ कर सैक्स का आनंद लेती, पर धर्मवीर को लगता रहता कि वह न जाने किनकिन के साथ सोती होगी. उस के पास वह गर्भनिरोधक पिल्स देख चुका था, पर पूछने की हिम्मत नहीं थी, क्योंकि मिनी ज्यादा कमा रही थी.

अब धर्मवीर के दिमाग में कुछ और कीड़ा कुलबुलाने लगा था. एक दिन वह अपने पुराने घर गया. बापू कुछ ही दिनों में बहुत अधिक कमजोर हो गए थे. वह अम्मां से मिल कर घर का सारा हाल जान लेने को बेचैन हो उठा.

धर्मवीर को देखते ही अम्मां का रोमरोम खिल उठा. पास आते ही उस का मुंह चूम लिया, ‘‘बड़े दिनों के बाद याद आई है.’’

‘‘याद तो रोज ही आती है अम्मां, लेकिन बापू से डर लगता है.’’

मनीषा को इस्तिरी पर न देख कर वह पूछ बैठा, ‘‘मनीषा कहां है अम्मां?’’

‘‘वह भी अभीअभी घाट पर गई है, मसाले का थैला ले कर. अब उस का इस्तिरी पर रहना ठीक नहीं. परसों कालोनी के प्रेजीडैंट का नौकर शराब पी कर कितनी ही देर यहां खड़ा रहा और मनीषा से जाने कैसीकैसी बातें करता रहा.

मनीषा ने बापू से कहा, तो वे आगबबूला हो उठे. नौकर को ऐसा फटकारा कि सारा महल्ला जमा हो गया. अब उन्होंने मनीषा से कह दिया है कि वह घाट पर चली जाया करे, उन के साथ. अब तो इन गरमियों में उस के हाथ पीले करने ही पड़ेंगे.’’

‘‘फिर इस्तिरी तुम करती होगी, अम्मां.’’

‘‘और नहीं तो क्या, तेरी बीवी करती है.’’

धर्मवीर को लगा कि मजाक में अम्मां के मुंह से फिर एक तीखा ताना निकल गया है. वह धीरे से बोला, ‘‘पढ़नेलिखने से मन ऐसा हो जाएगा, यह मुझे मालूम नहीं था, वरना मैं पढ़ता ही नहीं.’’

‘‘पढ़नेलिखने से मन थोड़े ही बदलता है बेटा, मन तो घमंड से बदलता है बेटा. और पढ़नेलिखने से घमंड आ ही जाता है. फिर हम छोटी जात हैं न. इसलिए हमें जरा ज्यादा ही घमंड आ जाता है.’’

धर्मवीर ने कहा कि कल से वह इस्तिरी करने आएगा.

‘‘नहीं बेटा, जल्दबाजी ठीक नहीं होती. फिर अब तुझ से यह सब होगा नहीं, तू अपनी जिंदगी सुधार. हमारा तो जमाना निकल ही गया है.’’

‘‘अम्मां मेरी… मैं जिंदगी ही सुधारने आना चाहता हूं. जिंदगी बाबूगिरी में नहीं है, हाथ के काम में है.’’

मां की गोद में सिर छिपा कर छोगा फूटफूट कर रोने लगा. अम्मां ने उसे छाती से लगा लिया, माथा चूम लिया. फिर आंचल से आंसू पोंछ दिए.

खाना खा कर वह वापस चला गया.

अगले दिन वह एक नई आटोमैटिक प्रैस लाया. भारी पर 6 तरह के कपड़े के लायक बनी प्रैस से कपड़े जल्दी प्रैस होने लगे थे. महीनेभर में उन के पास 3 ऐसी प्रैसें हो गई थीं और मनीषा और मां मिल कर करतीं.

धर्मवीर ने मिनी को इन प्रैसों को ठीक करने की जगह भी बतार्ई थी और धर्मवीर खुद अब अपनी खराब प्रैसें भी ठीक करता और ऐक्सपोर्ट हाउसों की भी. रात को वह मिनी की बांहों में होता, पर अब मिनी की बांहों का खिंचाव बढ़ गया था. अब उस का पति निकम्मा बाबू नहीं था, वह मेहनतकश छोटा कारीगर था. घर जो बनाया था, अब पक्का होने लगा.

उस दिन मिनी ने कहा कि वह भी बापू के घर चलेगी. ‘‘ऐक्सपोर्ट हाउस में न जाने कौनकौन से मुंह लगने लगते हैं और फिर चबा कर पान मसालों की तरह पिर्च कर के निकाल देते हैं.’’ मिनी को बाइक पर बैठते हुए न जाने किसे कहां पर उसे इस का मतलब मालूम था.

विशेष विश्वकर्मा

एक मुकाम दो रास्ते : भाग 1

मेरा आज पढ़ने में मन नहीं लग रहा था. सवेरे से 3 लैक्चर अटेंड कर चुका था. आज हमारे सत्र का आखिरी दिन था.

सोमवार से तो परीक्षाएं चालू ही हो जाएंगी. बीच में बस, शनिवार और इतवार ही था.

परीक्षा के दिनों में लाइब्रेरी रात के 12 बजे तक खुली रहती है. आज मैं ने और सिसिल ने जल्दी ही घर जाने की तैयारी कर ली.

हम दोनों ही वेस्ट आईलैंड में रहते हैं. मेरा और उस का साथ मैट्रो में रहता है. मैट्रो के बाद हम दोनों अपनीअपनी बसें पकड़ कर अपने घर को चले जाते हैं. जब से हम ने मोबाइल फोन लिए हैं, सुबह से ही हम एकदूसरे से बातें करते रहते हैं और चाहे हमारी बसें मैट्रो स्टेशन पर कभी भी पहुंचेें, हम सवेरे एकसाथ ही मैट्रो से कालेज जाते हैं.

मांट्रीयल की मैट्रो हम दोनों को वह मौका देती है, जोकि हमें कहीं और नहीं मिलता. हम एकदूसरे के प्रति अपने प्रेम का इजहार मांट्रीयल की मैट्रो में ही कर पाते हैं. सारी दुनिया से बेखबर एकदूसरे के आलिंगन में बंधे और अधरों पर अधर रखे, शायद दुनिया को अजीब लगे, परंतु हमें उस की कोई परवाह नहीं.

वैसे तो मांट्रीयल में युवा जोड़ियों को खुलेआम प्रेम प्रदर्शन करते किसी को कोई एतराज क्या हो सकता है, परंतु एक भारतीय प्रोफैसर, जोकि शायद हमारे यहां की इंजीनियरिंग फैकल्टी में पढ़ाता है, लगातार मुझे घूरता रहता है.

मैट्रो में पहुंच कर मैं और सिसिल हमेशा की तरह चालू हो गए. कब एक के बाद एक स्टेशन आए, पता ही नहीं चला. मैं सिसिल को उस के बस स्टाप की लाइन पर छोड़ने गया.

‘‘आज शाम को फोन करूंगी,’’ सिसिल बोली, ‘‘9 बजे के आसपास.’’

‘‘भूल गई तुम, आज तो मुझे निशा आंटी के पास जाना है, आपरेशन मैनेजमेंट पढ़ने. आज के बाद तो बस, परीक्षा वाला दिन ही मिलेगा अपनी मुश्किलें सुलझाने के लिए,’’ मैं बोला.

‘‘रमन, तुम्हारी निशा आंटी हैं बहुत ही भली औरत. आजकल के जमाने में कौन किसी को फ्री ट्यूशन देता है. फिर कल कब आओगे लाइब्रेरी में.’’

‘‘निशा आंटी के यहां से आने में तकरीबन 11 तो बज ही जाएंगे. मैं सवेरे 8-9 बजे फोन करूंगा तुम्हें.’’

सिसिल की बस आ गर्ई थी. उसे उस दिन मैं ने आखिरी बार अपनी बांहों में जकड़ कर जी भर कर चूमा और वह चली गई.

मेरी बस भी बस स्टाप की ओर बढ़ती चली आ रही थी. मैं बस की ओर लपका. अभी बैठा ही था कि मेरे मोबाइल की घंटी बज उठी. फोन निशा आंटी का था. पता नहीं, उन्हें मेरे मोबाइल का नंबर किस ने दिया था. शायद मम्मी ने दिया होगा.

निशा आंटी काफी घबराई हुई थीं. मैं उन्हें समझाने की कोशिश करता, उस से पहले ही उन्होंने फोन रख दिया. मैं ने उन्हें अपने मोबाइल से कई बार फोन करने की कोशिश भी की, परंतु उन्होंने फोन नहीं उठाया.

बर्फ पड़नी शुरू हो गई थी. सड़कें कुछ फिसलनी हो गई थीं, इसलिए ट्रैफिक काफी धीरेधीरे चल रहा था. फिर अचानक बस रुक गई. मैं ने बस की खिड़की के शीशों से देखने की कोशिश की, परंतु कुछ दिखाई नहीं दिया. कुछ देर बाद बस चलने लगी थी.

मैं ने निशा आंटी को फिर फोन करने की कोशिश की. घंटी बजी, परंतु रिसीवर उठाने के बाद मेरी आवाज सुन कर उन्होंने फोन रख दिया. मैं सोचने लगा कि आखिर उन्हें किस तरह फोन पर बातें करने को प्रेरित करूं.

 

नया अध्याय : अडिग फैसला साक्षी का

वे 20 दिन-भाग 1: क्या राजेश से शादी करना चाहती थी रश्मि?

नेहरू प्लेस से राजीव चौक का करीब आधे घंटे का मैट्रो का सफर कुछ ज्यादा रुहानी हो गया है. अब यह मैट्रो स्टेशन रात को भी सपने में नजर आता है. क्यों नहीं आएगा? यहीं मैं ने उसे पहली बार देखा था. देखा क्या? पहली नजर में उस से प्यार करने लगा. पता नहीं कि यह मेरा प्यार है या महज आकर्षण. पहला दिन, दूसरा दिन और फिर शुरू हो गया आनेजाने का सिलसिला.

स्टेशन पर जब वह नजर आती तो मेरा दिल उछलने लगता. अगर नहीं दिखती तो एकदम उदास हो जाता. पूरे 24 घंटे उस की तसवीर मेरी आंखों के इर्दगिर्द घूमती रहती. एक सवाल मुझे परेशान करता रहता कि क्या उस की किसी और से दोस्ती है? रोजाना यही सोच कर जाता कि आज तो दिल की बात उस से कह ही दूंगा, लेकिन उस के सामने आते ही मेरी घिग्घी बंध जाती. मुझे उस से कभी एकांत में मिलने का मौका ही नहीं मिला.

देखने में तो वह मुझ से बस 2-3 साल ही छोटी लगती. उस पर नीली जींस और लाल टौप खूब फबता. कभीकभी तो वह सलवारकुरते में भी बेहद खूबसूरत नजर आती. उस के बौब कट बाल और कानों में बड़ेबड़े झुमके, काला चश्मा, हलका मेकअप उस की सादगी को बयान करते. मैं उस की इसी सादगी का कायल

हो गया था. मैट्रो में पूरे सफर के दौरान मेरी नजरें उसी के चेहरे पर टिकी रहतीं.

मैं सोचता, ‘कैसी लड़की है? मेरी तरफ देखती तक नहीं,‘ फिर दिल को किसी तरह तसल्ली दे देता. फिर सोचता कि कभी तो उसे तरस आएगा.

दोस्त कहते हैं, ‘लड़कियां तो पहली नजर में ही अपने मजनू को ताड़ जाती हैं.’ मैं भी तो उस का मजनू हूं, फिर क्यों… मैट्रो में मोबाइल की लीड लगा कर उस का गाना सुनना मुझे अखरता रहता. कभीकभी तो वह गाने सुनने के साथसाथ अंगरेजी उपन्यास

भी पढ़ना शुरू कर देती. मैट्रो में राजीव चौक स्टेशन की घोषणा होते ही वह सीट से उठ जाती और तेजी से चल पड़ती. मैं भी भीड़ के साथसाथ उस के पीछे हो लेता. रीगल सिनेमाहौल के आसपास कहीं उस का कार्यालय था.

जब तक वह मेरी आंखों से ओझल नहीं हो जाती, तब तक मैं खड़ा एकटक उसे देखता रहता. बाद में धीरेधीरे मैं भी अपने कार्यालय की ओर चल पड़ता. कार्यालय में काम करने का मन ही नहीं करता. मेरा पूरा ध्यान तो घड़ी की सूई पर टिका रहता. कब 1 बजे और मैं लंच का बहाना बना कर नीचे उतरूं. क्या पता, मार्केट में मुझे कहीं उस के दर्शन हो जाएं. एकाध बार तो वह नजर आई थी, लेकिन तब उस के साथ कार्यालय के कई सहयोगी थे. हफ्ता बीत गया. मेरी बेचैनी दिनोदिन बढ़ती जा रही थी. कितना दब्बू हूं मैं…  लड़का हूं, मुझे तो पहले पहल करनी चाहिए थी. डरता हूं कि कहीं कोई तमाशा खड़ा न हो जाए.

कुछ दिन से तो खानासोना पूरी तरह से हराम हो गया था. जब टिफिन का खाना वापस घर लौटने लगा तो भाभी नाराज होने लगीं. शिकायत मां तक पहुंची. सुबह भी मेरा नाश्ता ढंग से नहीं होता. वजह एक ही थी कि कहीं मैट्रो न छूट जाए.

‘‘छोटू, क्या बात है?’’ बड़े भाई ने पूछा.

मां बोलीं, ‘‘शायद इस की तबीयत खराब होगी. जवान लड़का है. बाजार में खट्टीमीठी चीजें खा लेता होगा.’’

‘‘नहींनहीं सासूजी, राजू बाहर कुछ खाता नहीं है, समझ में नहीं आ रहा है कि इस लड़के को किस बात की जल्दबाजी रहती है. मैं समय पर नाश्ता बना लेती हूं. कल थोड़ी देर क्या हो गई, बरस पड़ा था. पहले तो इस की कभी बोलने की भी हिम्मत नहीं होती थी. देवरानी आ जाएगी तो दिमाग ठिकाने लगा देगी,’’ भाभी बोलीं.

‘‘हां, मेरी नजर में मास्टर देवधरजी की बेटी नीता है. इसी साल उस ने 12वीं की परीक्षा अच्छे अंकों से पास की है. देखने में गोरीचिट्टी, सुंदर और सुशील है,’’ भैया बोले, ‘‘राजेश से बात तो चलाओ. मुझ से तो वह शरमाता है. मां, तुम ही उस से बात कर के देख लो.’’

रविवार को छुट्टी का दिन था. मैं अपने कमरे में बैठा उन सब लोगों की बातें सुन रहा था. मुझे लगा कि अब तो मां मेरे कमरे में आ ही जाएंगी.

मैं फौरन उठा और अपने 8 साल के भतीजे को आवाज लगाई, ‘‘सोनू, चल, छत पर पतंग उड़ाते हैं.’’

‘‘अच्छा चाचू, आया, लेकिन चाचू मम्मी ने पढ़ने को कहा है.’’

‘‘चल तो सही, मैं भाभी से कह दूंगा.’’

‘‘राजेश सुन,’’ मां ने आवाज दी पर मैं ने मां की आवाज को अनसुना कर दिया. भतीजे को कंधे पर बैठाया और तेज कदमों से छत पर चला गया. पीछे से भाभी की आवाज सुनाई दी, ‘‘राजू, सुन नाश्ता तो कर ले.’’

लेखक-किशोर

बुद्धू कहीं का- भाग 3 : कुणाल ने पैसे कमाने के लिए क्या किया?

पिछले महीने तो वह कोचिंग की फीस और बुक्स के बहाने से पापा से रुपये ले आया था … वह भी निया का कैसा दीवाना बन गया है… अम्मा बेचारी के चेहरे पर कितनी मायूसी छा गई थी , वह आंखों में आंसू भर  कर बोलीं थीं …’मुन्ना तुम पढ लिख कर कलक्टर बन जाओ तो हम सबन की जिन्दगी संवर जाये. तुम्हारे पापा का सपना भी पूरा होय जाये.‘

उसके चेहरे पर पश्चाताप था …वह इतना नालायक है कि जनाब ,एक लड़की के साथ इश्क फरमा रहे है…

लानत है ,कुणाल तुझ पर…उन क्षणों में उसने मन ही मन निश्चय कर लिया था कि वह अब निया से दूरी बना लेगा.

परंतु ‘My Vallentine’ देखते ही सब कुछ भूल कर अमेजन की साइट पर गिफ्ट ढ़ूढने में मशगूल हो गया.

वह निया के सपने में खोया  हुआ, कल पैसे की जुगाड़ कैसे करेगा , इस उधेड़बुन में लगा रहा… अंत में निश्चय किया कि असलम से 1000 रु लूंगा तब काम चलेगा. लॆकिन उसकी आंखों से नींद उड़ी हुई थी. एक एक करके क्लास के कई लड़कों से वह रुपया मांग चुका है , जब भी लौटाने के लिये सोचता है , उसी समय निया का कोई ऐसा जरूरी काम सामने आ जाता है कि उसको खुश करने के चक्कर में पहले से ज्यादा खर्च हो जाता है. सोचते सोचते वह जाने कब नींद के आगोश में चला गया था.

पूरा क्लास जब उसका नाम निया के साथ जोड़ता है तो। वह गर्व से अपनी कॉलर ऊंची कर लेता है. निया जैसी सुंदर स्मार्ट लड़की उसकी गर्ल फ्रेन्ड है , सोचकर उसके चेहरे पर मुस्कुराहट छा जाती है.

“चल न कुणाल , कैण्टीन में पिज्जा खाते हैं ..मुझे बहुत भूख लगी है.‘’

“कुणाल प्लीज ये मेरा एसाइनमेंट पूरा कर दो. “

‘आज पिक्चर अंधाधुन का रिव्यू बहुत अच्छा आया है , उसकी रेटिंग 5 दी है. चलो न कुणाल …. ‘बस वह उसके फैलाये जाल में फंस जाता और वह फिर यहां वहां पैसे मांगता …यहां तक कि कई लड़कों से तो वह मुंह छिपाने के लिये उनके सामने ही नहीं पड़ता.

वह असलम से रुपये मांगने में बहुत शर्म महसूस कर रहा था लेकिन इश्क जो न करवाये वह थोड़ा….

उसका वैलेन्टाइन गिफ्ट पाकर वह बहुत खुश हुई थी. वह मंहगा सा पेन्डेन्ट सेट लाया था. वह गिफ्ट पाकर इतनी खुश हुई कि उसने प्यार से उसे सबके सामने किस कर लिया था. वह  खुशी के मारे खिल उठा था. लेकिन मन ही मन वह पैसे को लेकर चिंतित था. अब जब वह सबसॆ बार बार पैसे उधार ले चुका था , यहां तक कि वह सबसे मुंह छिपाता फिर रहा था , अखिल तो  उससे अपना पैसा मांगने का तगादा भी करता रहता था। अक्षत तो एक दिन गाली गलौज पर उतर आया था.

वह पैसे के लिये बहुत परेशान था इसलिये उसने पापा से पैसा मांगने के लिये बहाना बनाया ,’ अम्मा , मुझे टायफायड हो गया था , यहां तक कि मुझे हॉस्पिटल में एडमिट होना पड़ा , इसी वजह से दोस्तों से रुपये उधार लेना पड़ा , कह कर वह रो पड़ा था. उसने सोचा कि पापा अब रुपये तुरंत भेज देंगें.

लेकिन पापा तो अम्मा को साथ लेकर अपने  बचवा का हाल जानने के लिये आ पहुंचे. वह उन लोगों को देख कर मन ही मन पछताया भी था कि वह कितना गिरा हुआ इंसान है ,  जो अपनी गर्ल फ्रेंड के लिये सफेद झूठ बोल रहा था. पापा जाते समय उसकी मुट्ठी मे नोट बंद कर बाहर चले गये तो अम्मा ने भी चुपके से अपनी ब्लाउज की अंदर से मुड़े तुड़े नोट निकाल कर उसके हाथ पर रखने चाहे तो शर्म के मारे उसकेहाथ कांप उठे थे.

उस समय अम्मा पापा के मायूस चेहरा और उनकी  बेचारगी  देख उसका सर्वांग कंपकंपा उठा था. परंतु निया का चेहरा देखते ही वह उसके प्यार के नशे में सब भूल जाता.

प्यार या रोमांस कितना आकर्षक है कि लड़का हो या लड़की उसे मदहोश कर देता है . .. उन दिनों में उसके ज्ञान तंतु तंद्रावस्था में पहुंचकर सुषुप्त से हो जाते हैं.

उसकी मुट्ठी में पापा के दिये हुये 500 के और 2000 के नोट थे वह अपनी प्रियतमा निया को खुश करने के लिये उसे आज डिस्को लेकर जाने के लिये उतावला हो उठा था …वहां पर उसकी बाहों मे उसकी निया होगी , हाथों में जाम होगा और जाम के सुरूर में वह निया को अपने आलिंगन में समेट लेगा  परंतु तुरंत ही उसकी अम्मा का चेहरा आंखों के सामने आ गया. वह बोलीं थीं , ‘’कुणाल ये पैसे तेरे पापा की खून पसीने की कमाई के हैं …संभाल कर खर्च करना. तुमसे हम लोगों को बहुत सारी उम्मीदें हैं …आशायें हैं …..’’ अम्मा की आंखों के आंसू याद कर उसके कदम ठिठक गये थे फिर अपने मन को समझाने की हजारों कोशिशें कर डालींथीं

लेकिन निया के मेसेज को देखते ही वह सब कुछ भूल गया ….

“l am missing you Kunal … come … l am waiting ….. “उसने अपने दिल को कड़ा कर के लिखा ….

“No, dear I am busy for tomorrow test . Sorry ‘’उसने बड़ी सी रोने वाली स्माइली डाल कर गहरी सांस ली

“Please help me … मेरे थोड़े से डाउट्स हैं , तुम क्लीयर कर दो … माई डियर मैं तुम्हारा उसी जगह इंतजार कर रही हूं ..अपनी वही कोने वाली जगह पर… जहां हम सबको देख सकते हैं परंतु हम लोगों को कोई नहीं ….’’ अब तो उसे जाना ही होगा क्योंकि उसका दिल हर समय धुक धुक करता था कि निया कहीं किसी दूसरे को अपना ब्वाय फ्रेण्ड न बना ले …. इसी उधेड़बुन में वह उसको मंहगे गिफ्ट देता , वह यहां वहां से पैसे लेकर उस पर खर्च करता ताकि वह उसकी मुट्ठी में बनी रहे. उसके सारे एसाइनमेंट पूरे करता …. वह तेजी से उठ कर  चल दिया था. निया मोबाइल पर किसी से चैटिंग में बिजी थी. उसे उससे कुछ नोट्स चाहिये  थे. फिर आओ एक कोल्ड कॉफी हो जाये … और वह बिल पे कर ही देगा …

उसका रूम मेट अम्बर था , वह उससे सीनियर था और छोटे शहर के साधारण परिवार से भी था . धीरे धीरे उससे दोस्ती हो गई थी.

“कुणाल , कितनी टफ और नीरस लाइफ है … कॉलेज, कोचिंग फिर नोट्स प्रिपेयर करना,देर रात तक टेस्ट की तैयारी.. बुक्स , पेपर सॉल्विंग… लाइफ एकदम डल …अपना छोटा सा शहर और अम्मा पापा बहुत याद आते हैं …

“रिलैक्स यार’’

“तू तो बड़े ग्रुप में दादा लोगों के साथ मौज मस्ती कर रहा है … तेरी तो गर्ल फ्रेंड भी है… तेरा क्या ..मस्ती कर…’’

‘मैं तो चला कोचिंग में …क्या नाम बताया ….निया वही फर्स्ट ईयर p.c.m. वाली …’

‘हां ..हां.. लेकिन तू उसे कैसे जानता है… ‘

“वह तो बड़ी फेमस है , उसके कई ब्वाय फ्रेंड रह चुके हैं अच्छा इस साल तुझे शिकार बनाया है …’’

“नो, यार she loves me .’’

वह जोर से ठहाके लगा कर हंसा था.

“ऐसे क्यों हंस रहे हो?’’

“तुम छोटे शहर के सीधे सादे से लड़के , इस महानगर में आधुनिकता के भंवर जाल में  फंस गये हो. तुम्हारी निया का मेरे सेक्शन के अभिनव के साथ बहुत दिनों से चक्कर चल रहा है. “

“ऐसा नहीं हो सकता?’’

तभी उसका मोबाइल के मेसेन्जर पर नोटिफिकेशन आया और वह तेजी से चला गया था. बात अधूरी छूट गई थी लेकिन उसकी आंखों की नींद उड़ गई थी. कुछ दिनों से वह महसूस कर रहा था कि जब निया का अपना मतलब होता तभी वह उसके मेसेज का जवाब देती और कुछ न कुछ खर्च करवा ही लेती … पैसे देने का ड्रामा तो करती लेकिन कभी देती नहीं… हमेशा उससे पैसे खर्च करवाती और कभी पिक्चर तो कभी थियेटर तो कभी बर्गर तो कभी कॉफी …. क्या सच में वह उसे चीट कर रही है … फिर भी उसे विश्वास नहीं हो रहा था… क्यों कि वह तो निया को जी जान से प्यार करता था. उसने तो भविष्य के अनगिनत सपने संजो रखे थे …. उसकी आंखों से आंसू बह निकले  थे.

बार बार उसे ख्याल आ रहा था कि अम्बर उससे झूठ क्यों बोलेगा भला….उसका क्या स्वार्थ हो सकता है… वह तो हर समय उसकी मदद ही करता रहा है. उसके मन में शर्मिंदगी सी महसूस हो रही थी , उससे भी तो उसने 1000 रुपये ले रखे हैं , जो आज तक नहीं दे पाया …आज उसे अपनी दीवानगी पर रोना आ रह़ा था कि ऐसा कोई सगा नहीं , जिसे उसने ठगा नहीं …

मां बाप कितने अरमानों से अपने खून पसीने की कमाई उस खर्च कर रहे है कि वह लायक बन कर परिवार का खेवनहार बने …वह आधुनिकता के आडम्बर की आंधी में अपनी जड़ों को ही भूल बैठा और इश्क के चक्कर में मामा , मौसी , बुआ, चाचा , दोस्त किसी को  हीं छोड़ा…. सबके सामने हाथ पसार कर , झूठ बोल कर , बहाने रच कर सबसे पैसा ऐंठता रहा … लानत है उस पर…

अभी भी वह मन ही मन सोच रहा था कि अम्बर की बात झूठ निकले … जबकि उसे याद आ रहा था कि अक्सर ऩिया उसके मेसेज का जवाब नहीं देती थी …मैं बिजी थी इसलिये देखा नहीं…. उसने मेसेन्जर , व्हाट्सऐप, इंस्ट्रा पर कई बार मेसेज किया , लेकिन इसने किसी का उत्तर नहीं दिया था. उससे मुलाकात हुये काफी दिन हो चुके थे. वह निराशा के झूले में हिचकोले लेने लगा था क्योंकि उसपर क्रोध या नाराजगी का हक तो कभी उसके पास था ही नहीं ….

दिन भर वह उखड़ा उखड़ा सा रहा . अपने रूम में ही अवसाद में लेटा रहा … नवह कॉलेज गया न ही कोचिंग में जाने का मन हुआ…. निया से मिले हुये दो महीने बीत चुके थे …शाम को अम्बर घबराया हुआ सा आया , देखो कुणाल , जो मैं कह रहा था , वह सही निकला …लो निया और गूंज की चैटिंग पढो … गूंज ने मेरे प्रामिस करने के बाद ही शेयर की है  …वह तुम्हें चीट कर रही थी ….

निया , आजकल तेरे और कुणाल के बीच बहुत खिचड़ी पक रही है …. इश्क हो गया क्या….इश्क माय फुट …

गूंज तू भी कुछ समझती नहीं … वह पढने में तेज है और बुद्धू की तरह मेरे एसाइनमेंट पूरे कर देता है…….. बेवकूफ की तरह जरा सा प्यार का नाटक कर दो ….बस फ्री में पिक्चर ,बर्गर ,कॉफी, थियेटर  सब फ्री में ….

हा…हा….हा..की ढेरों स्माइली

वह गांव का गंवई सचमुच का इश्क समझ बैठा … मेसेज पर मेसेज करता जा रहा है ….

बुद्धू कहीं का …..

कुणाल के चेहरे की रंगत उड़ गई थी …

वह अपनी आंखों के झिलमिलाते आंसुओं को नहीं छिपा पा रहा था.

अंधविश्वास से आत्मविश्वास तक-भाग 3: रवीना पति से क्यों परेशान थी

जमीन पर सोएं, साधारण खाना खाएं, गरीबों की मदद करें, यहां क्या कर रहे हैं. उन्हें गाडि़यां, आलीशान घर, सुखसाधन संपन्न भक्त की भक्ति ही क्यों प्रभावित करती है. स्वामीजी हैं तो सांसारिक मोहमाया का त्याग क्यों नहीं कर देते. लेकिन मन मसोस कर रह जाती. दूसरे दिन वह घर के काम से निबट, नहाधो कर निकली ही थी कि उस की 18 साला भतीजी पावनी का फोन आया कि उस की 2-3 दिन की छुट्टी है और वह उस के पास रहने आ रही है. एक घंटे बाद पावनी पहुंच गई. वह तो दोनों बच्चों के साथ मिल कर घर का कोनाकोना हिला देती थी. चंचल हिरनी जैसी बेहद खूबसूरत पावनी बरसाती नदी जैसी हर वक्त उफनतीबहती रहती थी. आज भी उस के आने से घर में एकदम शोरशराबे का बवंडर उठ गया, ‘‘अरे, जरा धीरे पावनी,’’ रवीना उस के होंठों पर हाथ रखती हुई बोली.

‘‘पर, क्यों बूआ, कर्फ्यू लगा है क्या?’’ ‘‘हां दी,’’ स्वामीजी आए हैं, रवीना के बेटे शमिक ने अपनी तरफ से बहुत धीरे से जानकारी दी पर शायद पड़ोसियों ने भी सुन ली हो. ‘‘अरे वाह, स्वामीजी,’’ पावनी खुशी से चीखी, ‘‘कहां हैं वे बूआ, मैं ने कभी सचमुच के स्वामीजी नहीं देखे. टीवी पर ही देखे हैं.’’ यह सुन कर रवीना की हंसी छूट गई. ‘‘मैं देख कर आती हूं. ऊपर हैं न?’’ रवीना जब तक कुछ कहती, तब तक चीखतेचिल्लाते तीनों बच्चे ऊपर भाग गए. रवीना सिर पकड़ कर बैठ गई. ‘अब हो गई स्वामीजी के स्वामित्व की छुट्टी…’ पर तीनों बच्चे जिस तेजी से गए, उसी तेजी से दनदनाते हुए वापस आ गए. ‘‘बूआ, वहां तो आम से 2 नंगधड़ंग आदमी, भगवा तहमत लपेटे बिस्तर पर लेटे हैं. उन में स्वामीजी जैसा तो कुछ भी नहीं लग रहा?’’ ‘‘आम आदमी के दाढ़ी नहीं होती, दी. उन की दाड़ी है,’’ शमिक ने अपना ज्ञान बघारा. ‘‘हां, दाढ़ी तो थी,’’ पावनी कुछ सोचती हुई बोली, ‘‘स्वामीजी क्या ऐसे ही होते हैं?’’

पावनी ने बात अधूरी छोड़ दी. रवीना सम?ा गई, ‘‘तु?ो कहा किस ने था इस तरह ऊपर जाने को. आखिर पुरुष तो पुरुष ही होता है न और स्वामी लोग भी पुरुष ही होते हैं.’’ ‘‘तो फिर वे स्वामी क्यों कहलाते हैं?’’ इस बात पर रवीना चुप हो गई. तभी उस की नजर ऊपर उठी. स्वामीजी का चेला ऊपर खड़ा नीचे उन्हीं लोगों को घूर रहा था, कपड़े पहन कर. ‘‘चल पावनी, अंदर चल कर बात करते हैं,’’ रवीना को सम?ा नहीं आ रहा था क्या करे. घर में बच्चे, जवान लड़की, तथाकथित स्वामी लोग हैं. उन की नजरें, भावभंगिमाएं एक स्त्री की तीसरी आंख ही सम?ा सकती है पर नरेन को वह यह नहीं सम?ा सकती. ऐसा कुछ कहते ही नरेन तो घर की छत उखाड़ कर रख देगा. स्वामीजी का चेला अब हर बात के लिए नीचे मंडराने लगा था. रवीना को अब बहुत उकताहट हो रही थी. उस से अब यहां स्वामीजी का रहना किसी भी तरह से बरदाश्त नहीं हो पा रहा था. दूसरे दिन वह रात को किचन में खाना बना रही थी.

नरेन औफिस से आ कर वाशरूम में फ्रैश होने चला गया था. इसी बीच रवीना बाहर लौबी में आई तो उस की नजर डाइनिंग टेबल पर रखे चैक पर पड़ी. उस ने चैक उठा कर देखा. स्वामीजी के आश्रम के नाम 10,000 रुपए का था. यह देख रवीना के तनबदन में आग लग गई. घर के खर्चों व बच्चों के लिए नरेन हमेशा कंजूसी करता रहता है. लेकिन स्वामीजी को देने के लिए 10,000 रुपए निकल गए. ऊपर से इतने दिन से जो खर्चा हो रहा है वह अलग. तभी नरेन बाहर आ गया. ‘‘यह क्या है, नरेन?’’ ‘‘क्या है, मतलब?’’ ‘‘यह चैक…?’’ ‘‘कौन सा चैक?’’ नरेन उस के पास आ गया. लेकिन चैक देख कर चौंक गया, ‘‘यह चैक… तुम्हारे पास कहां से आ गया? यह तो मैं ने स्वामीजी को दिया था.’’ ‘‘नरेन, बहुत रुपए हैं न तुम्हारे पास. अपने खर्चों में हम कितनी कटौती करते हैं और तुम?’’ वह गुस्से में बोली. लेकिन नरेन तो किसी और ही उधेड़बुन में था, ‘‘यह चैक तो मैं ने सुबह स्वामीजी को ऊपर जा कर दिया था.

यहां कैसे आ गया?’’ ‘‘ऊपर जा कर दिया था?’’ रवीना कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘शायद, स्वामीजी का चेला रख गया होगा.’’ ‘‘लेकिन क्यों?’’ ‘‘क्योंकि, लगता है स्वामीजी को तुम्हारा चढ़ाया हुआ प्रसाद कुछ कम लग रहा है,’’ वह व्यंग्य से बोली. ‘‘बेकार की बातें मत करो, रवीना. स्वामीजी को रुपएपैसे का लोभ नहीं है. वे तो सारा धन परमार्थ में लगाते हैं. यह उन की कोई युक्ति होगी, जो तुम जैसे मूढ़ मनुष्य की सम?ा में नहीं आ सकती.’’ ‘‘मैं मूढ़ हूं तो तुम तो स्वामीजी के सान्निध्य में रह कर बहुत ज्ञानवान हो गए हो न,’’ रवीना तैश में बोली, ‘‘तो जाओ, हाथ जोड़ कर पूछ लो कि स्वामीजी मु?ा से कोई अपराध हुआ है क्या. सच पता चल जाएगा.’’ कुछ सोच कर नरेन ऊपर चला गया और रवीना अपने कमरे में चली गई. थोड़ी देर बाद नरेन नीचे आ गया. ‘‘क्या कहा स्वामीजी ने?’’ रवीना ने पूछा.

नरेन ने कोई जवाब नहीं दिया. उस का चेहरा उतरा हुआ था. ‘‘बोलो नरेन, क्या जवाब दिया स्वामीजी ने?’’ ‘‘स्वामीजी ने कहा है कि मेरा देय मेरे स्तर के अनुरूप नहीं है,’’ रवीना का दिल किया कि ठहाका मार कर हंसे पर नरेन की मायूसी व मोहभंग जैसी स्थिति देख कर वह चुप रह गई. ‘‘हां, इस बार घर आ कर तुम्हारे स्तर का अनुमान लगा लिया होगा. यह तो नहीं पता होगा कि इस घर को बनाने में हम कितने खाली हो गए हैं,’’ रवीना चिढे़ स्वर में बोली. ‘‘अब क्या करूं?’’ नरेन के स्वर में मायूसी थी. ‘‘क्या करोगे? चुप बैठ जाओ. हमारे पास नहीं है फालतू पैसा. हम अपनी गाढ़ी कमाई लुटाएं और स्वामीजी परमार्थ में लगाएं तो जब हमारे पास होगा तो हम ही लगा लेंगे परमार्थ में. स्वामीजी को माघ्यम क्यों बनाएं,’’ रवीना ?ाल्ला कर बोली. ‘‘दूसरा चैक न काटूं?’’ नरेन दुविधा में बोला. ‘‘चाहते क्या हो नरेन? बीवी घर में रहे या स्वामीजी? क्योंकि अब मैं चुप रहने वाली नहीं हूं.’’ नरेन ने कोई जवाब नहीं दिया. वह बहुत ही मायूसी से घिर गया था. ‘‘अच्छा, अभी भूल जाओ सबकुछ,’’ र

वीना कुछ सोचती हुई बोली, ‘‘स्वामीजी रात में ही तो कहीं नहीं जा रहे हैं न. अभी मैं खाना लगा रही हूं, खाना ले जाओ.’’ वह कमरे से बाहर निकल गई, ‘‘और हां,’’ एकाएक वह वापस पलटी, ‘‘आज खाना जल्दी निबटा कर हम सपरिवार स्वामीजी के प्रवचन सुनेंगे. पावनी व बच्चे भी. कल छुट्टी है, थोड़ी देर भी हो जाएगी तो कोई बात नहीं.’’ लेकिन नरेन के चेहरे पर कुछ खास उत्साह न था. वह नरेन की उदासीनता का कारण सम?ा रही थी. खाना निबटा कर वह तीनों बच्चों सहित ऊपर जाने के लिए तैयार हो गई. ‘‘चलो नरेन.’’ लेकिन नरेन बिलकुल भी उत्साहित न था पर रवीना उसे जबरदस्ती ठेलठाल कर ऊपर ले गई. उन सब को देख कर, खासकर पावनी को देख कर तो उन दोनों के चेहरे गुलाब की तरह खिल गए. ‘‘आज आप से कुछ ज्ञान प्राप्त करने आए हैं, स्वामीजी. इसलिए इन तीनों को भी आज सोने नहीं दिया,’’ रवीना मीठे स्वर में बोली. ‘‘ज्ञान मनुष्य को विवेक देता है. विवेक मोक्ष तक पहुंचाता है. विराजिए आप लोग,’’ स्वामीजी बात रवीना से कर रहे थे, लेकिन नजरें पावनी के चेहरे पर जमी थीं.

सब बैठ गए. स्वामीजी अपना अमूल्य ज्ञान उन मूढ़ जनों पर उड़ेलने लगे. उन की बातें तीनों बच्चों के सिर के ऊपर से गुजर रही थीं, इसलिए वे आंखों की इशारेबाजी से एकदूसरे के साथ चुहलबाजी करने में व्यस्त थे. ‘‘क्या बात है बालिके, ज्ञान की बातों में चित्त नहीं लग रहा तुम्हारा?’’ स्वामीजी अतिरिक्त चाशनी उड़ेल कर पावनी से बोले, तो वह हड़बड़ा गई. ‘‘नहीं… नहीं, ऐसी बात नहीं,’’ वह सीधी बैठती हुई बोली. रवीना का ध्यान स्वामीजी की बातों में बिलकुल भी न था. वह तो बहुत ध्यान से स्वामीजी व उन के चेले की पावनी पर पड़ने वाली चोर गिद्ध दृष्टि पर अपनी समग्र चेतना गड़ाए हुए थी और चाह रही थी कि नरेन यह सब अपनी आंखों से महसूस करे. इसीलिए वह सब को ऊपर ले कर आई थी. उस ने निगाहें नरेन की तरफ घुमाईं. नरेन के चेहरे पर उस की आशा के अनुरूप हैरानी, परेशानी, गुस्सा, क्षोभ साफ ?ालक रहा था. वह मतिभ्रम जैसी स्थिति में बैठा था. जैसे बच्चे के हाथ से उस का सब से प्रिय व कीमती खिलौना छीन लिया गया हो. एकाएक वह बोला, ‘‘बच्चो, जाओ तुम लोग, सो जाओ अब. पावनी, तुम भी जाओ.’’ बच्चे तो कब से भागने को बेचैन हो रहे थे. सुनते ही तीनों तीर की तरह नीचे भागे. पावनी के चले जाने से स्वामीजी का चेहरा हताश हो गया. ‘‘अब आप लोग भी सो जाइए. बाकी के प्रवचन कल होंगे.’’ वे दोनों भी उठ गए. लेकिन नरेन के चेहरे को देख कर रवीना आने वाले तूफान का अंदाजा लगा चुकी थी और वह उस तूफान का इंतजार करने लगी. रात में सब सो गए.

अगले दिन शनिवार था. छुट्टी के दिन वह थोड़ी देर से उठती थी. लेकिन नरेन की आवाज से नींद खुल गई. वह किसी टैक्सी एजेंसी को फोन कर टैक्सी बुक करवा रहा था. ‘‘टैक्सी, किस के लिए नरेन?’’ ‘‘स्वामीजी के लिए, बहुत दिन हो गए हैं. अब उन्हें अपने आश्रम चले जाना चाहिए.’’ ‘‘लेकिन आज शनिवार है. स्वामीजी को शनिवार के दिन कैसे भेज सकते हो, तुम?’’ रवीना ?ाठमूठ की गंभीरता ओढ़ कर बोली. ‘‘कोई फर्क नहीं पड़ता शनिवाररविवार से…’’ बोलतेबोलते नरेन के स्वर में उस के दिल की कड़वाहट आखिर घुल ही गई थी. ‘‘मैं माफी चाहता हूं तुम से, रवीना. बिना सोचेसम?ो, बिना किसी औचित्य के मैं इन निरर्थक आडंबरों के अधीन हो गया था,’’ उस का स्वर पश्चात्ताप से भरा था. रवीना ने चैन की एक लंबी सांस ली, ‘‘यही मैं कहना चाहती हूं, नरेन. संन्यासी बनने के लिए किसी आडंबर की जरूरत नहीं होती. संन्यासी, स्वामी तो मनुष्य अपने उच्च आचरण से बनता है. एक गृहस्थ भी संन्यासी हो सकता है यदि आचरण, चरित्र और विचारों से वह परिष्कृत व उच्च है और एक स्वामी या संन्यासी भी निकृष्ट और नीच हो सकता है अगर उस का आचरण उचित नहीं है. ‘‘आएदिन तथाकथित बाबाओं, स्वामियों की काली करतूतों का भंडाफोड़ होता रहता है. फिर भी तुम इतने शिक्षित हो कर इन के चंगुल में फंसे रहते हो जिन की लार एक औरत, एक लड़की को देख कर, आम कुत्सित मानसिकता वाले इंसान की तरह टपक पड़ती है. पावनी तो कल आई है पर मैं कितने दिनों से इन की निगाहें और चिकनीचुपड़ी बातों को ?ोल रही हूं. तुम से कहती तो तुम बवंडर खड़ा कर देते,

इसलिए आज प्रवचन सुनने का नाटक करना पड़ा.’’ नरेन ने कोई जवाब नहीं दिया. वह उठा और ऊपर चला गया. रवीना भी उठ कर बाहर लौबी में आ गई. ऊपर से नरेन की आवाज आ रही थी, ‘‘स्वामीजी, आप के लिए टैक्सी मंगवा दी है. काफी दिन हो गए हैं आप को अपने आश्रम से निकले, इसलिए प्रस्थान की तैयारी कीजिए. 10 मिनट में टैक्सी पहुंचने वाली है.’’ यह कह कर बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए वह नीचे आ गया. तब तक बाहर टैक्सी का हौर्न बज गया. रवीना के सिर से आज मनों बो?ा उतर गया था. आज नरेन ने पूर्णरूप से अपने अंधविश्वास पर विजय पा ली थी और बिना वजहों के डर व भय से निकल कर आत्मविश्वास से भर गया था.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें