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चारु असोपा और राजीव सेन हमेशा के लिए होंगे अलग, कोर्ट में डाली अर्जी

‘रिश्ता क्या कहलाता है’ एक्ट्रेस चारु असोपो और राजीव सेन की जिंदगी में काफी ज्यादा उथल-पुथल मची हुई है, दोनों एक -दूसरे से काफी समय से अलग रह रहे हैं. उनकी एक बेटी है जिसका नाम जियाना है. जियाना इन दिनों अपनी मां के साथ हैं.

हालांकि राजीव सेन अपनी बेटी से मिलने आते रहते हैं, बता दें कि अब दोनों को लेकर खबर आ रही है कि चारुल और राजीव दोनों तलाक लेने वाले हैं. खबर है कि दोनों ने कोर्ट में अर्जी डाल दी है, इस महीने दोनों अग हो सकते हैं.

 

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बता दें कि राजीव और चारुल की आखिरी सुनवाई 8 जून को हो सकती है, रिपोर्ट के मुताबिक चारुल और राजीव की सुनवाई इस साल जनवरी से हो रही है, इस आखिरी सुनवाई के बाद से दोनों की राहें अलग -अलग हो जाएंगी. इस खबर पर राजीव और चारू ने कमेंट नहीं किया है.

बता दें कि शादी के तुरंत बाद से चारू और राजीव के रिश्ते में उथल-पुथल मची हुई है, दोनों एक-दूसरे के साथ रहना पसंद नहीं करते हैं.

बता दें कि साल 2019 में इन दोनों कि शादी हुई थी, जिसके बाद से दोनों कि अब एक बेटी भी है.

मलाइका अरोड़ा की प्रेग्नेंसी पर अर्जुन कपूर ने किया रिएक्ट, सोशल मीडिया पर दिया ये जवाब

अर्जुन कपूर और मलाइका अरोड़ा पिछले कई सालों से एक-दूसरे को डेट कर रहे हैं, दोनों साथ में कई जगह डेट करते नजर आते हैं, हाल ही में मलाइका अरोड़ा अर्जुन कपूर को लेकर कई सारी खबरें आ रही हैं, खबर  थी कि मलाइका प्रेग्नेंट हैं.

जिसके बाद कई सारी रिपोर्ट में यह खबर छप गई कि मलाइका अरोड़ा प्रेग्नेंट हैं, हालांकि अब जाकर अर्जुन कपूर ने इस बारे में खुलासा किया है कि मलाइका अरोड़ा की प्रेग्नेंसी की खबर झूठी थी, वह प्रेग्नेंट नहीं थीं, उन्होंने बताया कि मलाइका को लेकर जो खबर फैलाई जा रही थी, वह बिल्कुल गलत थी, लोग किसी भी खबर को छापने से पहले सोचते नहीं है.

 

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आगे अर्जुन ने कहा कि मलाइका कि प्रेग्नेंसी को लेकर जो लोग अफवाह उड़ाएं थें, उसके पीछे कि वजह थी, सिर्फ पब्लिसिटी को लेना हालांकि ऐसा बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए, लोग अपने फायदे के लिए कुछ भी करते है, उन्हें यह नहीं पता होता है कि इसका असर हमारे पर्सनल लाइफ पर कितना ज्यादा पड़ता है.

मीडिया वाले ही हमें आगे बढ़ाते हैं और यहीं लोग हमें परेशान भी करते हैं, इसलिए हमें इन लोगों से बच कर रहना चाहिए और रिक्वेस्ट है कि ऐसी अफवाह खबरें ना फैलाएं.

त्याग की गाथा- भाग 5: पापा को अनोखा सबक

स्वार्थवश प्रेमा इतना नहीं सोच पाई कि वह राजेश के योग्य है भी या नहीं. वैसे, वह डाक्टर शर्मा के साथ एक लंबे अरसे से घूमतीफिरती रही है, लेकिन अभी तक उस ने आत्मिक झुकाव के अतिरिक्त उन से कोई संपर्क नहीं रखा था. डाक्टर शर्मा हमेशा एक दूरी सी बनाए रखते थे. हंसतेबोलते, समझाते थे, पर उस की पहल पर भी कभी उन्होंने उस के प्रति प्रेम का इजहार नहीं किया. वह एकदम रहस्यमयी व्यक्तित्व थे. वह पढ़ीलिखी थी, उस में सोचनेसमझने की शक्ति भी और सुंदर भी, लेकिन आज के युग में एक लड़की के लिए अच्छा पति प्राप्त करना ही तो काफी नहीं होता. मांबाप मजबूर हैं, और ऐसे वक्त डाक्टर शर्मा का स्थायी सहारा पाना, उस के लिए सौभाग्य के अतिरिक्त हो भी क्या सकता था?

बैरा आया, तो रज्जू ने ढेर सारी खाने की चीजों का और्डर दिया.

खानापीना चलता रहा और वहीं तय होता रहा भविष्य का कार्यक्रम.

डाक्टर शर्मा उद्विग्न में बैठे थे. रज्जू बैडरूम में था. उन की हालत इस वक्त बहुत दयनीय हो रही थी. प्रेमा के प्रति उन के मन में एक कमजोरी सी आ चुकी थी और इसीलिए उन्होंने कई बार उस से शादी करने की सोची भी, पर फिर सुषमा और सादिया यानी साधना का त्याग सामने आ गया. वैसे, प्रेमा से उन का भी आत्मिक झुकाव ही था, लेकिन अब वह उस को सहारा दे कर छोड़ना नहीं चाहते थे.

सहसा कमरे में प्रेमा ने प्रवेश किया. उस का चेहरा अन्य दिनों की अपेक्षा गंभीर था. डाक्टर शर्मा कुछ बोलते, इस के पूर्व ही वह बोली, ‘‘डाक्टर साहब, मैं आज के बाद आप से नहीं मिल सकूंगी.’’

डाक्टर शर्मा हतप्रभ हुए और बोले, ‘‘क्यों…? अच्छा तो रज्जू ने आखिर तुम्हें मेरी किसी स्थिति से अवगत करवा कर, बहका ही दिया? प्रेमा, मैं ने तो तुम्हें सबकुछ पहले ही बता दिया था कि मेरे 3 बच्चे हैं.’’

‘‘मुझे किसी ने नहीं बहकाया, डाक्टर साहब,’’ प्रेमा ने दृढ़ता से कहा, ‘‘दरअसल, मैं शादी कर रही हूं.’’

‘‘किस से?’’

‘‘अरे, श्रीमानजी, इतनी बढ़िया लड़की को लड़कों की क्या कमी है?’’

राजेश ने बीच में आ कर कहा, ‘‘कहो, प्रेमा, कैसी हो?’’

प्रेमा ने निगाहें झुका लीं, तो डाक्टर शर्मा हताश स्वर में बोले, ‘‘लेकिन, प्रेमा, हमतुम तो…’’

‘‘श्रीमानजी,’’ बात काट कर रज्जू बोला, ‘‘कोई भी युवती अपने मन से किसी अधेड़ के साथ बंधना नहीं चाहती. वह तो उन की मजबूरियां होती हैं, जो उस को नारकीय जीवन बिताने पर बाध्य करती हैं. प्रेमा शादी कर रही है, मुझ से.’’

‘‘रज्जू,’’ खुश से हो कर बोले डाक्टर शर्मा.

‘‘यह सच है, डाक्टर साहब,’’ प्रेमा ने भी धीरे से कहा, पर वह भौचक्की थी कि डाक्टर शर्मा खुश क्यों हैं?

डाक्टर शर्मा ने प्रेमा के सिर पर हाथ रख दिया.

प्रेमा ने चौंक कर क्रमश: डाक्टर शर्मा और रज्जू को देखा, तो रज्जू ने स्वीकृति में सिर हिलाते हुए गंभीरता से कहा, ‘‘पापा, आप भी तो इस से… पापा, नारी अपनी मरजी से कभी भी घाटघाट का पानी नहीं पीना चाहती है, लेकिन हम पुरुष ही उसे ऐसा करने को बाध्य करते हैं. प्रेमा ने और न आप ने कभी अगर कोई गलती की है तो पापा, आप इतने विद्वान, सुलझे हुए होने के बावजूद जब किसी दलदल में फंस सकते हैं, यह तो मैं सोच ही नहीं सकता. एक अनुभवहीन युवती के लिए आप गुमराह हों, यह बहुत बड़ी बात है. पापा, आप ने मेरी मां के साथ जो किया है, इस का मुआवजा मैं दूंगा प्रेमा से विवाह कर के.’’

डाक्टर शर्मा हंसते हुए बैठ गए. अपनी सोच का अहसास तो उन्हें था, पर यह गनीमत थी कि कभी पानी सिर पर से ऊपर नहीं गया. रज्जू ही बोला, ‘‘प्रेमा, अपने पापा को दलदल से निकालने के लिए मैं ने तुम से झूठ बोला था कि मैं कनाडा जा रहा हूं. ऐसा कुछ भी नहीं है. लेकिन, हां, मैं शीघ्र ही अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊंगा.’’

‘‘राजेश…’’ अनायास ही प्रेमा के मुंह से निकला.

‘‘लेकिन, यह सच है, प्रेमा, मैं तुम से विवाह करना चाहता हूं, बशर्ते तुम को स्वीकार हो और तुम कुछ दिनों प्रतीक्षा कर सको.’’

प्रेमा की सिसकियां बंध गई थीं, अत: राजेश ही बोलता गया, ‘‘पापा, एक तरह से तुम्हें पसंद कर ही चुके हैं, मां को तुम भा ही जाओगी, क्यों पापा?’’

बेटे की होशियारी देख कर डाक्टर शर्मा की आंखों में भी आंसू आ गए थे. भरे गले से वह बोले, ‘‘हम सब जल्दी ही भोपाल चलेंगे, रज्जू.’’

हंस कर रज्जू बोला, ‘‘अवश्य, पापा. लेकिन यहां से जाने से पूर्व आप को प्रेमा को वचन देना होगा कि आप इस को पुत्रवधू के रूप में स्वीकारने को तैयार हैं?’’

डाक्टर शर्मा की निगाहें खुशी से फैल गईं, किंतु तभी दृढ़ता लिए हुए उठीं. ‘‘लेकिन एक शर्त है, रज्जू, साधना से क्षमा करवा दोगे.’’

‘‘मेरी मां भी बहुत महान हैं, और आप भी वास्तव में महान हैं पापा.’’

‘‘प्रेमा,’’ डाक्टर शर्मा बोले, ‘‘हम तुम्हारे मातापिता से मिलना चाहते हैं. अभी, इसी वक्त बुलाओ, ताकि वे भी तो रज्जू को देख लें.’’

‘‘मैं किसी कीमत पर प्रेमा जैसी हंसनेबोलने वाली चिड़िया को अपने फंदे से निकलने नहीं देना चाहता. अब तक यह मेरी स्टूडैंट थी, अब मैं इस का ससुर होऊंगा, रोब जमाने वाला…’’ प्रसन्नता की अतिशयता में तीनों के पांव जमीन पर ठीक से नहीं पड़ रहे थे.

प्रेमा बोली, ‘‘अब मुझे समझ आया कि 2 वर्ष से साथ रहने पर भी आप ने मुझे हाथ तक क्यों नहीं लगाया.’’

रज्जू बोला, ‘‘प्रेमा, पापा और साधना मां का क्या संबंध है, यह मैं फिर कभी बताऊंगा. शायद, पापा को भी नहीं मालूम कि साधना मां ने 3 साल पहले ही सारी बात मुझे बता दी. तभी तो जब कालेज में सब पापा और तुम्हें ले कर बातें बना रहे थे, मैं गुस्से में तप रहा था, क्योंकि मैं पापा को जानता हूं. वे महान त्याग करना जानते हैं.’’

एक प्यार पड़ोस में- भाग 1

‘‘मैं ने अपने जीवन में आप के अलावा किसी और पुरुष का स्मरण तक नहीं किया है, कमिल. आप चाहें तो मेरी अग्निपरीक्षा ले लें.’’

‘‘नहीं, नहीं… राम बोलो सुधा, यहां मैं राम बन कर तुम्हारे सामने खड़ा हूं.’’

ऐसा सुन कर कमिल झल्ला गया था. सुधा के चेहरे पर भी क्षमा के भाव थे. दरअसल, रामलीला का मंचन महल्ले की कमेटी द्वारा किया जा रहा था.

इस रामलीला में कमिल राम का अभिनय कर रहा था और सुधा सीता का. पहले तो सुधा ने रामलीला में भाग लेने से ही मना कर दिया था. कमेटी की मुश्किल यह थी कि सीता के पात्र के लिए न केवल खूबसूरत लड़की चाहिए थी, वरन पढ़ीलिखी भी, ताकि वो पात्रों के डायलौग याद रख सके. कमेटी ने तो कमिल को भी राम का अभिनय करने को कहा था, पर कमिल ने निर्देशन करने का निश्चय कर लिया था.

जब सुधा ने साफ मना कर दिया, यहां तक कि अपने पिताजी को भी बोल दिया कि उसे परीक्षा की तैयारी करनी है और उस के पास इतना समय नहीं है कि वह अभिनय करे, तब कमिल को ही बीच में आना पड़ा था.

कमिल ने सुधा को समझाया था. सुधा ने भी साफसाफ कह दिया था,

‘‘अगर आप राम का अभिनय कर रहे हो, तो मैं सीता का अभिनय करने को तैयार हूं. मैं हर किसी के साथ अभिनय नहीं कर सकती.’’

सुधा की जिद के चलते कमिल को राम का किरदार निभाना पड़ा था और सुधा को सीता का. पर, पूरी रामलीला के मंचन में जाने कितनी बार सुधा ने राम के स्थान पर कमिल का ही नाम लिया था.

‘‘सुधा, तुम ठीक से डायलौग याद किया करो. रामलीला में कमिल नहीं, मैं राम हूं. और तुम को केवल राम का संबोधन ही करना है.’’

सुधा अपनेआप को इस के लिए तैयार भी करती, पर जाने कैसे राम की जगह बारबार कमिल का ही नाम उस की जबान पर आ जाता. सीता स्वयंवर के दृश्य में तो उस ने सीधेसीधे कमिल को ही संबोधित कर दिया था, ‘‘आप मुझ से ही शादी करेंगे न कमिल.’’

यह सुन कर कमिल चौंक सा गया था. कमिल ही क्या, वे सारे लोग जो इस मंचन को देख रहे थे, अचंभित से हो गए थे. सुधा के चेहरे पर तब पछतावे के भाव नहीं याचना के भाव थे, मानो चाह रही हो कि कमिल कहे, ‘‘हां सुधा, मैं सिर्फ और सिर्फ तुम से ही शादी करूंगा.’’

पर, कमिल नाराज हो गया था. वह नाराज होते हुए बोला, ‘‘सब के सामने तुम को इस तरह की बात नहीं करनी चाहिए थी सुधा.’’

सुधा कमिल के चेहरे पर नाराजगी के भाव साफसाफ पढ़ रही थी.

“अब मैं कोई जानबूझ कर थोड़े न ऐसा करती हूं. वह तो आप को सामने देखती हूं तो आप का ही नाम जबान पर आ जाता है,’’ सुधा मुसकराती हुई कहती.

रामलीला को निर्देशित कर रहे रामबाबू के चेहरे पर हर बार गुस्से के भाव उभर कर रह जाते. कमिल सुधा के बदले में उन से क्षमा मांग लेता.

कमिल कुछ ही दिन पहले सुधा के पड़ोस में एक कमरे में किराएदार बन कर आया था. कमिल पत्रकार था और कहानियां भी लिखता था. अकसर उस की कहानियां अखबारों में छपती भी थीं. वह अकसर सुधा को कालेज जाते और आते देखा करता था. सुधा का ध्यान कभी उस की ओर नहीं गया था. सुधा अपनी आदत के अनुसार नजर झुका कर कालेज जातीआती और बाकी समय अपने कमरे में ही रहती थी. फालतू घूमना और बातें करना उस को बिलकुल भी पसंद नहीं था. लेकिन उस को यह जरूर मालूम था कि कमिल उस के पड़ोस में रहने आए हैं और पत्रकार हैं. उस ने उन से मिलने की कोई उत्सुकता नहीं दिखाई थी.

यह एक संयोग ही था कि कालेज में कमिल सांस्कृतिक कार्यक्रमों की रिपोर्टिंग के लिए पहुंचा था और उस की सुधा से मुलाकात हो गई थी.

‘‘आप बहुत अच्छा बोलती हैं,’’ कमिल ने कहा था.

‘‘थैंक्यू…’’ कह कर सुधा कमिल के सामने से हट गई थी.

कार्यक्रम के बाद एक टीचर ने कमिल से मिलवाया था. वे बोले, ‘‘सुधा, ये कमिल हैं. अभी तुम जो भाषण बोल रही थीं न, उस का बहुत सा भाग तुम ने इन के लिखे लेख से ही लिया है.’’

‘‘जी…’’ सुधा घबरा सी गई थी. हालांकि उस ने जानतेबूझते ऐसा नहीं किया था. उस ने तो सुबह का अखबार उठाया, उस में विवेकानंद के बारे में लेख छपा था. उस ने उस में से पौइंट लिए और बोल दिया. उस ने पहली बार सिर उठा कर कमिल को देखा था.

‘‘सौरी.’’

‘‘नहीं… नहीं, लेख होते ही इस के लिए हैं, इस में सौरी बोलने की कोई जरूरत नहीं है,’’ कमिल ने उस का घबराना देख लिया था.

कमिल ने भले ही कुछ न बोला हो, पर सुधा के मन में आए अपराध भाव उस का पीछा नहीं छोड़ रहे थे.

शाम को कालेज से लौटने के बाद सुधा अपनी मम्मी को ले कर कमिल के कमरे में गई थी.

‘‘सुधा आप से मिलना चाह रही थी…’’ उस की मम्मी ने आने का कारण बताया.

‘‘जी, बैठिए…’’ कमिल ने एक कुरसी और एक स्टूल उन की ओर खिसका दिए थे.

सुधा ने भरपूर निगाहों से कमिल के कमरे का मुआयना किया. कमरा छोटा था और अस्तव्यस्त भी, पर आकर्षक लग रहा था. कमिल शायद उस समय विवेकानंद की ही कोई किताब पढ़ रहा था.

‘‘सुधा यहीं कालेज में पढ़ती है. एमए की पढ़ाई कर रही है. आखिरी साल है इस का,’’ मम्मी ने बातों का सिलसिला शुरू किया.

‘‘जी, आज ही मालूम हुआ… मैं कालेज में मिला हूं इन से.’’

‘‘अच्छा, आप भी कालेज में पढ़ते हैं…’’

‘‘नहीं… नहीं, मैं तो कालेज के एक कार्यक्रम के सिलसिले में गया था. वहां सुधाजी से मुलाकात हो गई थी.’’

गवाही : आखिर कौन था उस दंगे का गवाह

चकवाड़ा गांव में कल दोपहर को हुआ दंगा आज सुबह अखबारों की सुर्खियां बन गया. 6 घर जल गए. 3 बच्चों, 4 औरतों व 2 मर्दों की मौत के अलावा कुल 12 लोग घायल हो गए. कुछ लोगों को हलकीफुलकी चोटें आईं. इत्तिफाक से पुलिस का गश्ती दल वहां पहुंच गया और दंगे पर काबू पा लिया गया. पुलिस ने 30 लोगों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया.

गिरफ्तार हुए लोगों में नारायण भी एक था. उस ने जिंदगी में पहली बार जेल में रात काटी थी. जेल की उस बैरक में नारायण अकेला एक कोने में सहमा सा लेटा रहा. वह उन भेडि़यों के बीच चुपचाप आंखें बंद किए सोने का बहाना करता रहा. बाकी सभी जेल में मटरगश्ती कर रहे थे. सुबह होते ही सब के साथ नारायण को भी कचहरी लाया गया. भीड़ से अलग, उदासी की चादर ओढ़े वह एक कोने में बैठ गया.

पुरानी, मटमैली सफेद धोती, आधी फटी बांहों वाली बदरंग सी बंडी, दोनों पैरों में अलगअलग रंग के जूते, बस यही उस की पोशाक थी. कचहरी के बरामदे में फैली चिलचिलाती धूप सब को परेशान कर रही थी, पर नारायण धूप से ज्यादा अपने मन में छाए डर से परेशान था.

नारायण को इस बात का भी डर था कि अगर आज का सारा दिन कचहरी में ही लग गया तो दिनभर के कामधाम का क्या होगा. शायद आज घर वालों को भूखा ही सोना पड़ेगा. नारायण को मालूम था कि कचहरी में एक मजिस्ट्रेट होता?है, वकील होते हैं और तरहतरह के गवाह होते हैं. जेल से छूटने के लिए जमानत भी देनी पड़ती है.

‘पर आज कौन देगा उस की जमानत? कैसे बताएगा वह अपनी पहचान? कैसे वह अपनेआप को इस कचहरी के चक्कर से बचा पाएगा?’ ये सारे सवाल उस का डर बढ़ाए जा रहे थे. ‘‘नारायण हाजिर हो,’’ कचहरी के गलियारे में एक आवाज गूंजी.

लोगों की भीड़ से नारायण उठा और मजिस्ट्रेट के कमरे की तरफ बढ़ा. कमरे के दरवाजे पर खड़े चपरासी ने उसे टोका, ‘‘हूं, तुम हो नारायण,’’ उस चपरासी की रूखी आवाज में हिकारत भी मिली

हुई थी. ‘‘हां हुजूर, मैं ही हूं नारायण.’’

‘‘यहीं खड़े रहो. अभी तुम्हारा नंबर आने वाला है.’’ थोड़ी देर खड़े रहने के बाद चपरासी की दूसरी आवाज पर वह मजिस्ट्रेट के कमरे में घुस गया. उस ने उन मवालियों की तरफ देखा तक नहीं, जो रातभर जेल में उस के साथ बंद थे.

कमरे में घुसते ही नारायण को एक जोरदार छींक आ गई. सभी उस की तरफ देखने लगे, जैसे उस का छींकना भी जुर्म हो गया हो. नारायण की नजर जब एक आदमी पर पड़ी तो वह चौंक पड़ा और सोचने लगा, ‘अरे, यह आदमी तो अपने गांव का गुंडा है. यही तो गांव में दंगेफसाद कराता है.’

‘‘हां, तो आप दे रहे हैं इस की जमानत?’’ मजिस्टे्रट ने उस आदमी से पूछा. सफेद कुरतापाजामा में वह पूरा नेता लग रहा था. मजिस्ट्रेट ने कागज देखा, फिर वकील से पूछा, ‘‘जगन नाम है न इस का? क्या करता है यह? ऐसा कोई कागज दिखाइए, जिस से इस की कोई पहचान हो सके. भई, अब तो सरकार ने सब को मतदाताकार्ड दे दिए हैं. कोई राशनकार्ड हो तो वह दिखा दो.’’

वकील ने कहा, ‘‘हुजूर, ये मगेंद्रजी इस की जमानत देने आए हैं. अपने मंत्रीजी की बहन के बेटे हें. मैं भी इस को पहचानता हूं. इस का दंगे में कोई हाथ नहीं. यह तो बड़े शरीफ इज्जतदार लोगों के बीच उठताबैठता है.’’ नारायण हैरानी से कभी वकील को तो कभी जगन को देख रहा था. वह सोचने लगा, ‘कितना मीठा बोल रहा है वकील. इस का बस चले तो मजिस्ट्रेट को धरती पर लेट कर प्रणाम कर ले.

‘…और यह जगन तो हमेशा नशे में धुत्त रहता है. बड़ीबड़ी गाडि़यां इसे गांव तक छोड़ने आती हैं. लोग इसे गांव के सरपंच और इस इलाके के मंत्री का खास आदमी बताते हैं तभी तो मंत्री का भांजा इस की जमानत देने आया है. ‘कल भी दंगा इसी ने कराया होगा. पर इस की तो ऊंची पहुंच है, यह पक्का मुजरिम तो जमानत पर छूट जाएगा, पर मेरा क्या होगा?’ सोचतेसोचते नारायण ने अपनेआप से सवाल किया.

नारायण के पास न कोई वकील है, न राशनकार्ड, न मतदाताकार्ड यानी उस के पास पहचान का कोई सुबूत नहीं है. राशनकार्ड बना तो था, जिस से कभीकभार उस की बीवी कैरोसिन लाती थी तो कभी मटमैली सी शक्कर भी मिल जाती थी. थोड़े दिन पहले उस की बीवी ने उसे बताया था कि दुकानदार ने राशनकार्ड रख लिया है.

‘दुकानदार ने, पर क्यों?’ नारायण ने झुंझला कर अपनी बीवी से पूछा था. वह बोली थी, ‘दुकानदार कह रहा था कि सरकार का हुक्म आया है कि राशन की चीजें उसे मिलेंगी, जो इनकाम टकस (इनकम टैक्स) नहीं देता है.

‘यह बात तेरे मर्द को कागज पर लिख कर देनी पड़ेगी. अपने मर्द से इस कागज पर दस्तखत करवा कर लाना. तब मिलेगा राशनकार्ड. यह परची दी है दुकानदार ने.’ नारायण चौथी जमात तक पढ़ा था, पर ये ‘इनकम टैक्स’ क्या होता है, उस की समझ में नहीं आया था. पड़ोसियों की देखादेखी उस ने भी कागज पर दस्तखत कर दिए थे.

नारायण की बीवी उस परची को ले कर राशन की दुकान पर 5-6 बार चक्कर लगा आई थी, पर राशनकार्ड नहीं मिला था. दुकान खुले तभी तो राशनकार्ड मिले.

किसी खास समय में ही खुलती थी राशन की दुकान. फिर अगर नारायण को राशनकार्ड मिल भी जाता तो क्या होता. कौन उसे जेब में रख कर घूमता है. नारायण को याद आया कि मतदाताकार्ड भी बना था. पूरे एक दिन का काम खोटा हो गया था. गांव के सरपंच, प्रधान व पंच जैसे लोग आए थे और सब को जीप में बैठा कर ले गए थे.

पंचायतघर के अहाते में फोटो खिंचवाने वालों की लाइन लग गई थी. मतदाताकार्ड पर फोटो तो नारायण का ही था, पर खुद नारायण भी उसे पहचान नहीं पाया. अजीब सी डरावनी शक्ल हो गई थी उस की. प्रधानी के चुनाव हो गए, तो फिर पंच आए और सब के मतदाताकार्ड छीन कर ले गए. पूछने पर वे बोले, ‘आप लोग क्या करेंगे कार्ड का. कहीं गुम हो जाएगा तो बेवजह पुलिस में एफआईआर दर्ज करानी पड़ेगी. हमें दे दो, संभाल कर रखेंगे. चुनाव आएंगे तो फिर से दे दिए जाएंगे.’

गांव के अनपढ़ लोगों को तो जैसे उल्लू बनाएं, बन जाते हैं बेचारे. कार्ड बटोरने के बाद पंचसरपंच भी कन्नी काटने लगे. नारायण अपने खयालों में खोया हुआ था कि तभी जगन की मोटी भद्दी सी आवाज आई, ‘‘अच्छा हुजूर, बड़ी मेहरबानी हुई.’’

फिर सब एकएक कर कमरे से बाहर निकल गए थे. कमरे में नारायण, मजिस्टे्रट व चपरासी वगैरह रह गए थे. ‘‘आगे चलो,’’ चपरासी ने नारायण को आगे की ओर धकेला. धक्का इतना जोरदार था कि अगर वह मजबूती से खड़ा न होता तो सीधा मजिस्ट्रेट के सामने जा कर गिरता.

मजिस्ट्रेट ने नारायण को ऊपर से नीचे तक देखा. इस के बाद उस ने नारायण की फाइल देखते हुए पूछा, ‘‘नाम क्या है तुम्हारा?’’ ‘‘जी हुजूर, ना… ना… नारायण.’’

वह ‘हुजूर’ तो आसानी से कह गया, पर ‘नारायण’ शब्द उस की जबान पर ठीक से नहीं आ सका. आवाज हलक में ही अटक गई. मजिस्ट्रेट ने अपनी नजरें ऊपर उठाईं और नारायण की आंखों में झांका. नारायण ने आंखें झुका लीं. इधर मजिस्ट्रेट ने अपने तजरबे के तराजू में नारायण को तौल लिया था.

मजिस्टे्रट बोला, ‘‘अब क्यों डर रहे हो? दंगा करते समय डर नहीं लगा था क्या? शराब पीना और दंगा करना, बस यही काम जानते हो तुम गंवार लोग. ‘‘अच्छा सचसच बताओ, फावड़े से किस को मारा था तुम ने?’’ मजिस्ट्रेट की आवाज में कड़कपन था.

नारायण से यह झूठ बरदाश्त नहीं हुआ, बल्कि उस की ताकत बन गया. इस बार उस की आवाज में बिलकुल भी घबराहट नहीं थी. नारायण बोला, ‘‘नहीं हुजूर, मैं कभी शराब नहीं पीता. मैं तो दिनभर दूसरों के खेत में मेहनतमजदूरी करता हूं. अगर नशा करूं तो मेरे बीवीबच्चे भूखे मर जाएं…’’

नारायण में आया यह बदलाव मजिस्ट्रेट को अच्छा नहीं लगा. वह नारायण की बात को बीच में ही काटते हुए बोला, ‘‘अपनी रामकहानी मत सुनाओ मुझे. मेरी बात का जवाब दो. ‘‘मैं ने तुम से पूछा था कि तुम ने फावड़े से किसे मारा था? पुलिस की रिपोर्ट में साफ लिखा है कि पुलिस ने जब तुम्हें पकड़ा तो तुम्हारे हाथ में फावड़ा था.’’

मजिस्ट्रेट की डांट से नारायण फिर घबरा गया. हाथ जोड़ कर वह मजिस्ट्रेट से बोला, ‘‘हुजूर, फावड़े से तो मैं खेत में निराईगुड़ाई कर के आया था. जब दंगा हो रहा था तब मैं खेत से सीधा घर लौट रहा था. मुझे पता नहीं था कि गांव में दंगा हो रहा है. जब फावड़ा मेरे हाथ में था, तभी पुलिस ने मुझे पकड़ लिया.’’ मजिस्ट्रेट का गुस्सा अभी कम

नहीं हुआ था. वह बोला, ‘‘बड़ी अच्छी कहानी बनाई है. अच्छा चलो, पहले अपना पहचानपत्र दो. तुम्हारा न तो कोई वकील है, न जमानत देने वाला और न तुम्हारी पहचान साबित करने वाला कोई गवाह है. ‘‘मुझे तो तुम्हारी बात पर बिलकुल भी यकीन नहीं है. मैं जानता हूं, तुम सब झूठ बोलने में माहिर हो. कोई सुबूत हो तो जल्दी पेश करो, नहीं तो जेल की हवा खानी पड़ेगी.’’

‘‘हुजूर, मेरे पास तो कोई पहचानपत्र नहीं है. गरीबी की क्या पहचान, हुजूर. मेरी पहचान का सुबूत तो यह मेरा शरीर और ये 2 हाथ हैं,’’ नारायण ने गिड़गिड़ाते हुए कहा और अपने दोनों हाथ की बंद मुट्ठियां मजिस्ट्रेट के सामने खोल दीं. उस की दोनों हथेलियां छालों से भरी हुई थीं. उस के हाथों के छाले उस की पहचान के पक्के सुबूत थे, जिन्हें किसी वकील की मदद के बिना सबकुछ कहना आता था.

ऐसी ठोस ‘गवाही’ उस मजिस्ट्रेट ने अपनी जिंदगी में पहली बार देखी थी. यह देख कर मजिस्ट्रेट की आंखें भर आईं. मजिस्ट्रेट ने अपनेआप को संभाला और फिर हुक्म दिया, ‘‘इसे बाइज्जत बरी किया जाता है.’’

परनारी के मोह में : फरीदा के मोह में कैसे फंसा इदरीस

मुरादाबाद से करीब 30 किलोमीटर दूर स्थित कस्बा कांठ के मोहल्ला पट्टीवाला के रहने वाले कारोबारी इदरीस 11 जनवरी, 2018 को गायब हो गए. दरअसल, इदरीस की कांठ में ही कपड़ों की सिलाई की फैक्ट्री है. उन की फैक्ट्री में सिले कपड़े कई शहरों के कारोबारियों को थोक में सप्लाई होते हैं.

11 जनवरी को वह प्रतापगढ़ और सुलतानपुर के कारोबारियों से पेमेंट लेने के लिए घर से निकले थे. जब भी वह पेमेंट के टूर पर जाते तो फोन द्वारा अपने परिवार वालों के संपर्क में रहते थे. घर से निकलने के 2 दिन बाद भी जब उन का कोई फोन नहीं आया तो उन की पत्नी कनीजा ने बड़े बेटे शहनाज से पति को फोन कराया तो इदरीस का फोन स्विच्ड औफ मिला. शहनाज ने अब्बू को कई बार फोन मिलाया, लेकिन हर बार फोन बंद ही मिला. इस पर कनीजा भी परेशान हो गई.

इदरीस की फैक्ट्री के रिकौर्ड में उन सारे कारोबारियों के नामपते व फोन नंबर दर्ज थे, जिन के यहां फैक्ट्री से तैयार माल जाता था. चूंकि इदरीस प्रतापगढ़ और सुलतानपुर के लिए निकले थे, इसलिए शहनाज ने प्रतापगढ़ और सुलतानपुर के कारोबारियों को फोन कर के अपने अब्बू के बारे में पूछा.

कारोबारियों ने शहनाज को बता दिया कि इदरीस उन के पास आए तो थे लेकिन वह 11 जनवरी को ही पेमेंट ले कर चले गए थे. पता चला कि दोनों कारोबारियों ने इदरीस को 5 लाख रुपए दिए थे. यह जानकारी मिलने के बाद इदरीस के घर वाले परेशान हो गए. सभी को चिंता होने लगी.

इदरीस ने जानपहचान वाले सभी लोगों को फोन कर के अपने अब्बू के बारे में पूछा लेकिन उसे उन के बारे में कोई जानकारी नहीं मिली. तभी कनीजा शहनाज के साथ प्रतापगढ़ पहुंच गईं. वहां के एसपी से मुलाकात कर उन्होंने पति के गायब होने की बात बताई.

एसपी ने इदरीस का फोन सर्विलांस पर लगवा दिया. इस से उस की अंतिम लोकेशन अमरोहा जिले के गांव रायपुर कलां की पाई गई. यह गांव अमरोहा देहात थाने के अंतर्गत आता है. प्रतापगढ़ पुलिस ने उन्हें अमरोहा देहात थाने में संपर्क करने की सलाह दी.

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30 जनवरी, 2018 को शहजाद और कनीजा थाना अमरोहा देहात पहुंचे. उन्होंने इदरीस के गुम होने की जानकारी थानाप्रभारी धर्मेंद्र सिंह को दी. थानाप्रभारी ने शहनाज की तरफ से उस के पिता की गुमशुदगी दर्ज कर ली. शहनाज ने शक जताया कि उस के घर के सामने रहने वाली फरीदा और उस के पति आरिफ ने ही उस के पिता को कहीं गायब किया होगा.

रहस्य से उठा परदा

मामला एक कारोबारी के गायब होने का था, इसलिए थानाप्रभारी ने सूचना एसपी सुधीर यादव को दे दी. एसपी सुधीर यादव ने सीओ मोनिका यादव के नेतृत्व में एक जांच टीम गठित की. टीम में थानाप्रभारी धर्मेंद्र सिंह, एसआई सुनील मलिक, डी.पी. सिंह, महिला एसआई संदीपा चौधरी, कांस्टेबल सुखविंदर, ब्रजपाल सिंह आदि को शामिल किया गया.

पुलिस ने सब से पहले इदरीस के मोबाइल फोन की काल डिटेल्स निकाली तो पता चला कि इदरीस के घर के सामने रहने वाली फरीदा ने 13 जनवरी को इदरीस के मोबाइल पर 50 बार काल की थी. शहनाज ने भी फरीदा और उस के पति पर शक जताया था, इसलिए पुलिस को भी फरीदा पर शक हो गया.

पुलिस ने फरीदा और उस के पति आरिफ को पूछताछ के लिए उठा लिया. उन दोनों से पुलिस ने इदरीस के बारे में सख्ती से पूछताछ की. पुलिस की सख्ती के आगे फरीदा और उस के पति ने स्वीकार कर लिया कि उन्होंने शहजाद की हत्या कर उस की लाश बशीरा के आम के बाग में दफन कर दी है.

थानाप्रभारी धर्मेंद्र सिंह ने इदरीस का कत्ल हो जाने वाली बात एसपी को बता दी. यह जानकारी पा कर एसपी सुधीर कुमार थाना अमरोहा देहात पहुंच गए. उन की मौजूदगी में थानाप्रभारी ने अभियुक्तों को रायपुर कलां निवासी बशीरा के आम के बाग में ले जा कर खुदाई कराई तो इदरीस की लाश करीब 5 फीट नीचे दबी मिली.

पुलिस ने वह लाश अपने कब्जे में ले ली. जरूरी काररवाई कर के पुलिस ने इदरीस की लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज दी. फरीदा और आरिफ ने पूछताछ के दौरान इदरीस की हत्या की जो कहानी बताई, वह अवैध संबंधों पर आधारित निकली—

इदरीस की कांठ में ही कपड़ों की सिलाई करने की फैक्ट्री थी. उस की फैक्ट्री में फरीदा नाम की महिला भी सिलाई करती थी. वह इदरीस के घर के सामने ही रहती थी. उस का पति साइकिल मरम्मत करता था. अन्य कारीगरों के मुकाबले इदरीस फातिमा का बहुत खयाल रखता था.

इतना ही नहीं, वह अन्य कारीगरों से उसे ज्यादा पेमेंट करता था. इस मेहरबानी की वजह यह थी कि इदरीस फरीदा को चाहने लगा था. इदरीस की कोशिश रंग लाई और उस के फरीदा से प्रेम संबंध बन गए.

इदरीस और फरीदा दोनों ही बालबच्चेदार थे, जहां इदरीस के 5 बच्चे थे, वहीं फरीदा भी 2 बच्चों की मां थी. करीब डेढ़ साल से दोनों के नाजायज संबंध चले आ रहे थे. इसी दौरान फरीदा एक और बेटे की मां बन गई. इदरीस फरीदा के छोटे बेटे को अपना बेटा बताता था, इसलिए वह उस का कुछ खास ही खयाल रखता था. इदरीस फरीदा को बहुत चाहता था. वह चाहता था कि फरीदा जिंदगी भर के लिए उस के साथ रहे, इसलिए वह फरीदा पर निकाह करने का दबाव बना रहा था.

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समझाने पर भी नहीं माने फरीदा और इदरीस

उधर इदरीस और फरीदा के प्रेमसंबंधों की जानकारी पूरे मोहल्ले को थी. फरीदा के पति आरिफ ने भी फरीदा को बहुत समझाया कि उस की वजह से परिवार की मोहल्ले में बदनामी हो रही है. वह इदरीस से मिलना बंद कर दे. उधर इदरीस के पिता बाबू ने भी इदरीस को समझाया कि वह क्यों अपनी घरगृहस्थी और कारोबार को बरबाद करने पर तुला है. फरीदा को भूल कर वह अपने परिवार पर ध्यान दे.

लेकिन इदरीस फरीदा के प्रेमजाल में ऐसा फंसा था कि उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं था. उस के सिर पर एक ही धुन सवार थी कि फरीदा अपने पति को तलाक दे कर उस के साथ निकाह कर ले. वह यही दबाव फरीदा पर लगातार बना रहा था, पर फरीदा ऐसा करने को मना कर रही थी. वह कह रही थी कि जैसा चला आ रहा है, वैसा ही चलता रहने दे.

घटना के करीब 15 दिन पहले जब रात में फरीदा के पास इदरीस का फोन आया तो फोन की घंटी बजने से आरिफ की नींद खुल गई. फरीदा लिहाफ के अंदर ही इदरीस से बातें करने लगी. किसीकिसी फोन के स्पीकर की आवाज इतनी तेज होती है कि पास का आदमी भी बातचीत सुन सकता है.

फरीदा के पास भी ऐसा ही फोन था. वह अपने प्रेमी इदरीस से जो भी बात कर रही थी, वह आरिफ भी सुन रहा था. इदरीस उस से कह रहा था कि वह अपने पति आरिफ को ठिकाने लगवा दे. इस काम में वह उस की पूरी मदद करेगा. उस के बाद हम दोनों निकाह कर लेंगे.

अपनी हत्या की बात सुन कर आरिफ के होश उड़ गए. उस ने उस समय पत्नी से कुछ भी कहना मुनासिब नहीं समझा. सुबह होते ही आरिफ ने इस बारे में पत्नी से बात की. वह झूठ बोलने लगी. इस बात पर दोनों के बीच नोकझोंक भी हुई.

इस के बाद आरिफ ने फरीदा को विश्वास में लिया और घरगृहस्थी का वास्ता दे कर कहा, ‘‘देखो फरीदा, इदरीस कितना गिरा हुआ आदमी है, वह मेरी हत्या कराने पर तुला है. अपने स्वार्थ में वह तुम्हारी भी हत्या करवा सकता है. तुम खुद सोच लो कि अब क्या चाहती हो. यहां रहोगी या उस के साथ?’’

फरीदा ने अपने बच्चों का वास्ता दे कर आरिफ से कहा, ‘‘मैं इसी घर में तुम्हारे और बच्चों के साथ रहूंगी. उस के साथ नहीं जाऊंगी.’’

बन गई कत्ल की भूमिका

आरिफ ने सोचा कि आज नहीं तो कल इदरीस उस के लिए नुकसानदायक साबित होगा, इसलिए उस ने तय कर लिया कि वह इदरीस को सबक सिखाएगा. इस काम में उस ने पत्नी फरीदा को भी मिला लिया. फरीदा ने पति को यह भी बता दिया कि इदरीस पार्टियों से पेमेंट लेने के लिए प्रतापगढ़ और सुलतानपुर गया हुआ है. इस पर आरिफ ने उस से कहा कि किसी बहाने से उसे बुला लो तो बाकी का काम वह कर देगा.

आरिफ के साले फरियाद को यह पता था कि इदरीस की वजह से उस की बहन के घर में तनाव रहता है, इसलिए आरिफ के कहने पर फरियाद भी इदरीस की हत्या के षडयंत्र में शामिल हो गया.

उधर प्रतापगढ़ और सुलतानपुर के कारोबारियों से करीब 5 लाख रुपए का कलेक्शन कर के इदरीस 13 जनवरी को कांठ लौट रहा था. सफर में उस ने अपना फोन साइलेंट मोड पर लगा लिया था. फरीदा ने इदरीस से बात करने के लिए फोन किया पर इदरीस को इस का पता नहीं चला. फरीदा उसे लगातार फोन कर रही थी.

कांठ पहुंचने पर इदरीस ने जैसे ही अपना फोन देखा तो प्रेमिका की 50 मिस्ड काल देख कर चौंक गया. उसे लगा कि पता नहीं क्या बात है जो उस ने इतनी बार फोन मिलाया. इदरीस ने फरीदा को फोन कर के कहा, ‘‘फरीदा, मेरा फोन साइलेंट मोड पर था, इसलिए तुम्हारी काल के बारे में पता नहीं लगा. बताओ, क्या बात है?’’

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‘‘मैं ने तय कर लिया है कि मैं आरिफ को तलाक दे कर तुम से निकाह करूंगी. इसी बारे में तुम से बात करना चाह रही थी.’’ फरीदा बोली, ‘‘मैं चाहती हूं कि तुम अभी कांठ बसअड्डे पर आ जाओ, वहीं पर हम बात कर लेंगे.’’

प्रेमिका के मुंह से अपने मन की बात सुन कर इदरीस खुश हो गया. उस ने कहा, ‘‘फरीदा, मैं कुछ देर में ही वहां पहुंच रहा हूं. तुम भी जल्द पहुंच जाना.’’

‘‘ठीक है, तुम आ जाओ, मैं वहीं मिलूंगी.’’ फरीदा बोली.

इदरीस थोड़ी देर में बसअड्डे पर पहुंच गया. फरीदा अपने पति के साथ वहां पहले से ही मौजूद थी. औपचारिक बातचीत के बाद फरीदा ने कहा, ‘‘रायपुर खास गांव में मेरे भाई के यहां खाने का इंतजाम है. वहां चलते हैं, वहीं बातचीत हो जाएगी.’’

इदरीस खानेपीने का शौकीन था. उस समय भी वह शराब पिए हुए था, इसलिए फरीदा के साथ रायपुर खास गांव जाने के लिए तैयार हो गया. जब वह वहां पहुंचा तो फरीदा के भाई फरियाद ने इदरीस का गर्मजोशी से स्वागत किया. उस ने चिकन बना रखा था.

कुछ देर बातचीत के बाद फरियाद ने उस से खाना खाने को कहा तो शराब के शौकीन इदरीस ने शराब पीने की इच्छा जताई. इस पर फरियाद ने कहा कि यह सब घर पर संभव नहीं है. पीनी है तो कांठ बसअड्डे पर ठेका है, वहीं पर पी लेंगे.

इदरीस को मिली मौत की दावत

इदरीस बसअड्डे पर जाने के लिए तैयार हो गया. इदरीस और आरिफ फरियाद की मोटरसाइकिल पर बैठ कर कांठ बसअड्डे पहुंच गए. इदरीस ने पैसे दे कर एक बोतल रम मंगा ली. फरियाद एक बोतल रम और पकौड़े ले आया तो आरिफ बोला, ‘‘चलो, बाग में बैठ कर पिएंगे. उस के बाद खाना खाएंगे. वहीं बात भी हो जाएगी.’’

शराब की बोतल और पकौड़े ले कर तीनों मोटरसाइकिल से आम के बाग में पहुंच गए. बाग में बैठ कर तीनों ने शराब पी. योजना के अनुसार आरिफ व फरियाद ने कम पी और इदरीस को कुछ ज्यादा ही पिला दी थी.

इदरीस जब ज्यादा नशे में हो गया तो आरिफ इदरीस से बोला, ‘‘देखो इदरीस भाई, तुम पैसे वाले हो. मैं छोटा सा एक साइकिल मैकेनिक हूं. मेरी तुम्हारी क्या बराबरी. तुम यह बताओ कि मेरा घर क्यों बरबाद कर रहे हो. तुम्हारी वजह से वैसे भी मोहल्ले में मेरी बहुत बदनामी हो गई है. अब तो पीछा छोड़ दो.’’

‘‘देखो आरिफ, तुम एक बात ध्यान से सुन लो. मैं फरीदा से बहुत प्यार करता हूं. अब फरीदा मेरी है. उसे मुझ से कोई भी अलग नहीं कर सकता. तुम्हें यह भी बताए देता हूं कि उस का जो 5 महीने का बच्चा है, वह मेरा ही है.’’

आरिफ भी नशे में था. यह सुनते ही उस का और फरियाद का खून खौल उठा. दोनों ने उस से कहा कि लगता है तू ऐसे नहीं मानेगा. इस के बाद दोनों ने इदरीस के गले में पड़े मफलर से उस का गला घोंट दिया, जिस से उस की मौत हो गई.

इदरीस की हत्या करने के बाद उन्होंने उस की लाश मोटरसाइकिल से बाग के बीचोबीच ले जा कर डाल दी. तलाशी लेने पर इदरीस की जेब से 5 लाख रुपए और एक मोबाइल फोन मिला. दोनों ही चीजें उन्होंने निकाल लीं.

उस के बाद फरियाद घर से फावड़ा ले आया. आरिफ और फरियाद ने करीब 5 फुट गहरा गड्ढा खोद कर इदरीस की लाश दफन कर दी. लाश ठिकाने लगा कर वे अपने घर लौट गए. इदरीस की जेब से मिले पैसे दोनों ने आपस में बांट लिए.

पुलिस ने फरीदा, उस के पति आरिफ के बाद फरियाद को भी गिरफ्तार कर लिया. उन की निशानदेही पर पुलिस ने 70 हजार रुपए, इदरीस का मोबाइल फोन और फावड़ा बरामद कर लिया.

पुलिस ने 11 फरवरी, 2018 को तीनों अभियुक्तों को गिरफ्तार कर न्यायालय में पेश किया, जहां से उन्हें न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया गया. कथा संकलन तक तीनों अभियुक्त जेल में बंद थे.

– कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

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दें अपनों को तारीफ का तोहफा

नन्ही खुशी उदास बैठी थी. आज स्कूल में दौड़ प्रतियोगिता में भाग लेते समय वह गिर पड़ी थी. एक तो दौड़ से बाहर हो गई दूसरे सभी दोस्तों ने उस का खूब मजाक उड़ाया.

‘‘अरे मेरी परी, तू तो मेरी रानी बेटी है. बहादुर बच्चे ऐसे हिम्मत हार कर नहीं बैठते. अगली बार तुम पक्का फर्स्ट आओगी, मुझे पूरा विश्वास है,’’ मां के इन चंद प्यारे बोलों ने उस पर जादू सा असर किया और वह उछलतीकूदती फिर चल पड़ी बाहर खेलने.

15 वर्षीय होनहार छात्र मयंक अपना 10वीं कक्षा का रिजल्ट आने पर बहुत दुखी था. उस के उम्मीद के  मुताबिक 90% से कम मार्क्स आए थे. अपने पेरैंट्स और टीचर्स का प्यारा आज अकेले बैठे आंसू बहा रहा था. उसे अपने मम्मीपापा की आशाओं पर पूरा न उतर पाने का बहुत दुख था. वह हताशा के भंवर में पूरी तरह डूब चुका था. तभी उस के दादाजी का उस के घर आना हुआ. अपने कमरे में उदास बैठे मयंक के कंधे पर जैसे ही दादाजी ने हाथ रखा वह चौंक गया. उस का मुरझाया चेहरा देख दादाजी ने बड़े प्यार से कारण पूछा, तो अपने दादा से लिपट कर रोने लगा और बोला कि उस जैसे हारे हुए लड़के को जिंदगी जीने का हक नहीं है. वह मर जाना चाहता है.

मासूम मयंक के मुंह से ऐसी बातें सुन कर दादाजी को बहुत हैरानी हुई. फिर बोले, ‘‘अरे तेरे 82% मार्क्स सुन कर ही तो मैं तुझे बधाईर् देने आया हूं और तू इस तरह की बातें कर रहा है. बेटा तूने बहुत अच्छे नंबर लिए हैं. हम सभी को तुझ पर गर्व है. आइंदा कभी ऐसे विचार मन में मत लाना,’’ कह कर दादाजी ने उसे गले से लगा लिया. दादाजी की इतनी सी तारीफ ने मयंक में  एक नई ऊर्जा का संचार कर दिया. वह जिंदगी को सकारात्मक तरीके से जीने लगा. अगर उस वक्त मयंक अपने दादाजी से नहीं मिला होता तो निराशा और हताशा की उस स्थिति में शायद आत्महत्या ही कर लेता.

‘‘अरे मां, भाभी की बात का क्या बुरा मानना. वे दूसरे घर से आई हैं. आप को अभी अच्छी तरह जानती नहीं. मुझे पूरा विश्वास है धीरेधीरे आप उन्हें सब सिखा देंगी. मेरी मां हैं ही इतनी प्यारी, वे सब से तालमेल बैठा लेती हैं,’’ स्नेहा द्वारा कहे गए तारीफ के चंद शब्दों ने उस की मां अलका का खोया विश्वास वापस ला दिया.

इन सभी स्थितियों में जरा सी तारीफ या प्रशंसा भरे बोलों से इनसान में सकारात्मक बदलाव आते देखा. उम्र बचपन की हो या फिर 56 की अथवा युवावस्था आखिर प्रोत्साहन सभी को चाहिए. अपनों के स्नेह में पगे दो बोल व्यक्तिविशेष पर जादू सा असर करते हैं.

आज आधुनिकतम सुविधाओं और तकनीकों से लैस हमारा जीवन बहुत व्यस्त तथा प्रतिस्पर्धी हो चुका है. फलस्वरूप हमें कई बार बेहद जटिल परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है. इस के चलते हम अत्यधिक तनाव में जीने लगते हैं और निराशावादी हो जाते हैं. यदि कोई कार्य हमारे मनमुताबिक नहीं होता या किसी कार्य में मेहनत करने के बाद भी हमें आशातीत सफलता नहीं मिलती तो जीवन के प्रति हम उदासीन हो जाते हैं और कई बार यह उदासीनता आगे बढ़ कर विकराल रूप धारण कर लेती है, जो आत्महत्या जैसे दुखांत परिणाम के रूप में सामने आती है.

होता यों है कि जब नकारात्मकता हम पर पूरी तरह हावी हो जाती है, तो जिंदगी के प्रति हमारी सोच और नजरिया भी पूरी तरह बदल जाता है. अचानक जिंदगी से सभी खुशियां रूठी हुई सी लगती हैं. चारों ओर दुख व निराशा के बादल मंडराते से नजर आते हैं. दुखी मन नकारात्मक विचारों के प्रवाह को जन्म देता है. ये नकारात्मकता हमारे आसपास निराशा की एक ऐसी चादर बुन देती है, जिस से एक अनजाना सा भय पैदा हो जाता है और अपने आसपास की कोई भी खुशी हमें नजर नहीं आती. हम कुछ भी करने में अपनेआप को असमर्थ पाते हैं.

हम सभी के जीवन में कभी न कभी ऐसा एक पल जरूर आता है जब हम अपनेआप को अकेला महसूस करते हैं. खुद को दुनिया का सब से बेकार इनसान समझते हैं, जिस की जरूरत किसी को नहीं है. उस वक्त किसी के द्वारा की गई जरा सी तारीफ हमारे भीतर एक नया जोश भर देती है. प्रशंसा में कहे उस के शब्द संजीवनी बूटी का काम करते हैं, जिस से हमारे भीतर का डर नष्ट हो जाता है तथा आशा की किरण स्फुटित होती दिखाई देती है.

अपनों को जरा सा तारीफ का तोहफा दे कर हम उन्हें अवसाद में जाने से बचा सकते हैं. जिंदगी बहुमूल्य होती है, पर अवसाद में घिरा व्यक्ति इतना दुखी व व्यथित होता है कि उसे जीवन के दूसरे सकारात्मक पहलू दिखाई ही नहीं देते. वक्त के थपेड़ों से वह इतना भयक्रांत हो जाता है कि उसे जिंदगी जीने की तुलना में मौत को गले लगाना अधिक सरल लगता है.

कई लोगों को लगता है कि सिर्फ छोटे बच्चों को ही तारीफ या प्रोत्साहन की जरूरत होती है, जबकि सचाई यह है कि तारीफ और प्रोत्साहन किसी उम्र विशेष से संबंधित नहीं है, बल्कि हर उम्र के इनसान को इस की दरकार होती है. इस का सीधा सा कारण है कि हम कितने भी बड़े हो जाएं मन में भावनाएं ज्यों की त्यों ही रहती हैं. हां, बड़े हो कर हम कुछ हद तक उन पर काबू रखना अवश्य सीख जाते हैं. लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों में जब हम अपने को कमजोर व अकेला महसूस करते हैं तब हमारी तारीफ में कहे गए किसी के दो शब्द भी हमारी तकलीफ व तनाव को कम करने के लिए काफी होते हैं. उस से अवसाद की स्थिति उत्पन्न नहीं होती है. यहां तक कि भयंकर तनाव के बीच आत्महत्या करने का मन बना चुका व्यक्ति भी अगर किसी ऐसे व्यक्ति के संपर्क में आ जाए जो उसे पौजिटिव ऐनर्जी दे, तो वह बड़ी आसानी से उक्त विचार को त्याग सकता है.

सारिका के केस में ऐसा ही हुआ. 17 वर्षीय सारिका आधुनिक खयालात की मस्त बिंदास लड़की थी. उस के इसी खुले व्यवहार का फायदा उठा कर उस के क्लासमेट अंकित ने पहले तो उस से दोस्ती की और फिर उसी दोस्ती को प्यार का जामा पहना कर उसे फुसला कर उस से प्रेम संबंध बनाए. यही नहीं अपने बीच बने संबंधों का वीडियो बना कर उस ने उसे ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया. हर समय हंसतीखिलखिलाती रहने वाली सारिका अचानक बुझीबुझी व उदास सी रहने लगी.

सारिका के स्वभाव में अचानक हुआ यह परिवर्तन उस की मां की अनुभवी आंखों से छिप न सका. उन के बहुत पूछने पर भी सारिका उन्हें उस हादसे के बारे में बताने की हिम्मत न जुटा सकी. ऐसे में उस की समझदार मां ने उस की तारीफ कर न सिर्फ अपनी बेटी का हौसला बढ़ाया, बल्कि उसे विश्वास भी दिलाया कि जिंदगी के हर कदम, हर परेशानी में वे उस के साथ खड़ी हैं.

मां से जरा सा स्नेह और सहारा मिलने पर सारिका बच्चों की तरह फफक पड़ी और उस ने अपनी मां को सारी हकीकत बता दी. उस की मां यह जान कर और भी हैरत से भर उठीं जब उन्हें सारिका ने बताया कि कोई और रास्ता न निकलता देख इस जिल्लत से तंग आ कर वह आत्महत्या जैसा कदम उठाने की सोच रही है.

तारीफ करनी होगी सारिका  की मां की जिन्होंने अपनी बेटी पर नजर रख कर उसे आत्महत्या जैसा संगीन जुर्म करने से बचा लिया. और फिर अपनी कोशिशों से कुसूरवार अंकित को न सिर्फ सजा दिलवाई, बल्कि सारिका का खोया आत्मविश्वास भी लौटाया. प्रसिद्ध मनोचिकित्सक डा. सुनील मित्तल के अनुसार हमारे देश में आज डिप्रैशन इतना आम हो चुका है कि लोग इसे बीमारी के तौर पर नहीं लेते. लेकिन समस्या अगर वाकई बड़ी हो तो काउंसलर के पास पीडि़त को ले जाने में ही भलाई होती है अन्यथा नतीजा घातक सिद्ध हो सकता है. इसी बारे में मनोचिकित्सक डा. समीर कलानी कहते हैं कि आज के आधुनिक जीवन की जटिलताओं एवं सामाजिक व आर्थिक समस्याओं के कारण डिप्रैशन की स्थितियों में तेजी आई है. अत: आज जरूरत इस बात की है कि हम अपनों की समस्याओं को समझने के तौरतरीकों व दृष्टिकोण में बदलाव लाएं. साथ ही अपनों की तारीफ में कुछ बातें कह उन के साथ मस्ती के कुछ पल अवश्य बिताएं.

आप को जान कर आश्चर्य होगा कि अमेरिका और कनाडा जैसे देशों में तो हर साल 6 फरवरी का दिन तारीफ के लिए ही होता है. उन लोगों द्वारा यह दिन एक विशेष अंदाज में मनाया जाता है. इस दिन लोग अपनों को बाकायदा ग्रीटिंग कार्ड्स भेंट कर उन की तारीफ करते हैं. इतना ही नहीं कार्यालयों में भी इस दिन ऐसे कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं ताकि अधिकारी व अधीनस्थों के बीच संवाद और विश्वास की नींव मजबूत हो सके. तो अब किसी की तारीफ करने में कंजूसी क्यों? हम सब भी आज से ही बल्कि अभी से देना शुरू कर सकते हैं, अपनों को तारीफ का अनमोल तोहफा.

चौथापन- भाग 3: बाबूजी का असली रूप क्या था?

वह मुकेश की गुस्ताखी की चर्चा करना चाहते थे, लेकिन कुछ सोच कर चुप रह गए थे. वह जानते थे कि मुन्ना सब कुछ सुन कर तपाक से कहेगा, ‘‘अरे बाबूजी, क्यों बच्चों के मुंह लगते हैं? नौकर से कह दिया होता. वह दबा देता आप का सिर.’’

लेकिन प्रश्न यह था कि क्या नौकर खाली बैठा रहता था उन के लिए? दूध लाओ, सब्जी लाओ, बच्चों को ट्यूशन पढ़ने के लिए छोड़ कर आओ, बहू और बच्चों के कमरे साफ करो, रसोई धोओ. हजार काम थे उस के लिए. वह भला उन का काम कैसे करता?

‘‘दर्द निवारक टिकिया मंगवाई थी न आप ने? 2 गोलियां एकसाथ खा लीजिए. तुरंत आराम आ जाएगा. मैं सुबह डाक्टर को बुलवा कर दिखवा दूंगा. अच्छा, मैं चलता हूं. अगर रात में ज्यादा तकलीफ हो तो हमें आवाज दे दीजिएगा,’’ कह कर मुन्ना चल दिया था.

मुन्ना के पहले उन की 2 बेटियां और थीं. वह सोचते थे कि बेटियां तो पराया धन होती हैं. दूसरे घर चली जाएंगी. उन का बेटा मुन्ना ही बुढ़ापे में उन की सेवा करेगा. उस की बहू आ जाएगी तो वह उन की सेवा करेगी. फिर नातीनातिन हो जाएंगे तो वे बाबाबाबा कहते हुए उन के आगेपीछे घूमेंगे. मुन्ना बचपन में आए- दिन बीमार पड़ जाता था. उन्होंने उस की बड़ी सेवा की थी और धन भी खूब लुटाया था. न जाने कितने दवाखानों की धूल छानी थी. न जाने कितनी मनौतियां मानी थीं. न जाने कितनी रातें जागते हुए गुजार दी थीं. अब उस का रवैया देख कर लगता था कि उन्होंने कितना बड़ा भ्रम पाल लिया था. वह भी कैसे पागल थे.

उन का शरीर बुखार से तप रहा था. कुछ देर तक मुन्ना के कमरे से डिस्को संगीत का शोर और बच्चों के हंगामे की कर्णभेदी आवाजें आती रहीं और उन का सिर दर्द से फटता रहा. फिर खामोशी छा गई. कमरे के सन्नाटे में छत के पंखे की खड़खड़ाहट गूंजती रही. उन्हें लेटेलेटे बारबार यह खयाल सताता रहा कि बहू बेटे को उन से कोई हमदर्दी नहीं है. बहू ने तो एक बार भी आ कर नहीं पूछा उन की तबीयत के विषय में.

एकाएक उन्हें अपना गला सूखता सा महसूस हुआ. लो, कमरे में पानी रखवाना तो वह भूल ही गए थे. अब क्या करें? वह उस बुखार में उठ कर रसोई तक कैसे जा सकेंगे? अचानक उन की नजर शाम को पानी से भर कर खिड़की पर रखे गिलास पर गई. उन्होंने उठ कर वही पानी पी लिया.

वह मन की घबराहट को दूर करने के लिए खिड़की के पास ही खड़े हो गए और सूनी सड़क पर चल रहे इक्कादुक्का लोगों को देखने लगे. काश, वह उन्हें आवाज दे पाते, ‘‘आओ, भाई, मेरे पास बैठो थोड़ी देर के लिए. मेरा मन बहुत घबरा रहा है. कुछ अपनी कहो, कुछ मेरी सुनो.’’

सहसा वह पागलों की तरह हंस पड़े अपने पर. ‘अरे, जिसे छोटे से बड़ा किया, पढ़ायालिखाया, अपने जीवन भर की कमाई सौंप दी, वह बेटा तो चैन की नींद सो रहा है. भला ये अपरिचित लोग अपना काम- धंधा छोड़ कर मेरे पास क्यों बैठने लगे? वह फिर से पलंग पर आ कर लेट गए.’

उन्हें याद आया कि कैसे दिनरात मेहनत कर के उन्होंने कारखाना खड़ा किया था, किस तरह मशीनें खरीदी थीं, किस तरह कारखाने की नई इमारत तैयार की थी, धूप में घूमघूम कर, भूखेप्यासे रहरह कर, देर रात तक जागजाग कर वह किस तरह काम में लगे रहते थे. किस के लिए? मुन्ना के लिए ही तो. अपने परिवार के सुख के लिए ही तो? जिस में वह खुद भी शामिल थे.

अब कहां गया वह सुख? उन के परिवार ने क्या कीमत रखी है उन की या उन के सुख की? वह सब के सामने इतने दीनहीन क्यों बन जाते हैं? क्या वह मुन्ना की कमाई पर पल रहे हैं? क्यों खो दी उन्होंने अपनी शक्ति? नहीं, बहुत हो चुका, वह अब और नहीं सहेंगे.

वह आवेश में उठ कर बैठ गए. क्षण भर में ही उन का शरीर पसीने से लथपथ हो गया. दूसरे दिन सुबह मुन्ना सपरिवार नाश्ता कर रहा था, तभी गोपाल ने आ कर सूचना दी, ‘‘भैयाजी, नाश्ते के बाद आप को दादाजी ने अपने कमरे में बुलाया है.’’

मुन्ना ने नाश्ते के बाद उन के कमरे में जा कर देखा कि वह पलंग पर बैठे कोई किताब पढ़ रहे हैं.

‘‘आओ, मुन्ना बैठो,’’ उन्होंने सामने पड़ी कुरसी की ओर संकेत किया. जाने कितने वर्षों के बाद उन्होंने उसे ‘मुन्ना’ कह कर एकदम सीधे संबोधित किया था.

‘‘कैसी तबीयत है आप की?’’

‘‘तबीयत तो ठीक है. मैं ने एक दूसरी ही चर्चा के लिए तुम्हें बुलवाया था.’’

‘‘कहिए.’’

‘‘यहां इस घर में पड़ेपड़े अब मेरा मन नहीं लगता. स्वास्थ्य भी बिगड़ता रहता है. बेकार पड़ेपडे़ तो लोहा भी जंग खा जाता है, फिर मैं तो हाड़मांस का आदमी हूं. मैं चाहता हूं कि घर से निकलूं और…’’

‘‘इन दिनों मैं भी यही सोच रहा था, बाबूजी,’’ मुन्ना ने उन की बात पूरी होने से पहले ही उचक ली और बड़े निर्विकार भाव से बोला, ‘‘आप का चौथापन है. इस उम्र में लोग वानप्रस्थी हो जाते हैं, घरसंसार को तिलांजलि दे देते हैं. आप भी हरिद्वार चले जाइए और वहां किसी आश्रम में रह कर भगवान की याद में बाकी जीवन बिता दीजिए.’’

सुनते ही उन्हें जोरों का गुस्सा आ गया. वह क्रुद्ध शेर की तरह गरज उठे, ‘‘मुन्ना, क्या तू ने मुझे उन नाकारा और निकम्मे लोगों में से समझ लिया है, जिन के आगे अपने जीवन का कोई महत्त्व ही नहीं है. अभी मेरे हाथपांव चलते हैं. दुनिया में बहुत से अच्छे काम हैं करने के लिए. मैं घर में निठल्ला नहीं पड़ा रहना चाहता. घर से बाहर निकल कर समाज- सेवा करना चाहता हूं.’’

‘‘तो फिर कीजिए समाजसेवा. किस ने रोका है?’’

‘‘हाथपैरों से तो करूंगा ही समाज- सेवा, मगर उस के लिए कुछ धन भी चाहिए, इसलिए मैं चाहता हूं कि तुम कम से कम 1 हजार रुपए महीना मुझे जेब- खर्च के तौर पर देते रहो.’’

मुन्ना के कान खड़े हो गए, ‘‘1 हजार रुपए, किसे लुटाएंगे इतने पैसे आप?’’

हमेशा की तरह वह कमजोर नहीं पड़े, झुके भी नहीं, बल्कि वह मुन्ना से आंखें मिला कर बोले, ‘‘इस से तुम्हें क्या? त्रिवेणी को भी मैं अपने साथ रखना चाहता हूं. दे सकोगे न तुम मुझे मेरा खर्च?’’

‘‘कैसे दे पाऊंगा, बाबूजी, इतना पैसा? अभी जो मुंबई से नई मशीन मंगवाई हैं, उस का पैसा भी भेजना बाकी है.’’

‘‘तुम खुद मुझे इन झगड़ों से दूर कर चुके हो. यह देखना तुम्हारा काम है. मैं भी कोई मतलब नहीं रखना चाहता कारोबारी बखेड़ों से. मैं इतना जानता हूं कि यह कारखाना मेरा है और मैं चाहूं तो इसे बेच भी सकता हूं या किसी के भी सुपुर्द कर सकता हूं, लेकिन मैं ऐसा नहीं करना चाहता. मेरा तो इतना ही कहना है कि जब तुम लोगों के खर्च के लिए हजारों रुपए महीना निकल सकते हैं तो क्या मेरे लिए 1 हजार रुपए महीना भी आसानी से नहीं निकल सकते? आखिर मैं ने भी बरसों कारखाना चलाया है और अभी भी चलाने की हिम्मत रखता हूं. तुम से नहीं संभलता तो मुझे सौंप दो फिर से.’’

मुन्ना कोई उत्तर नहीं दे सका. वह सिर झुकाए बैठा रहा. कमरे का वातावरण बोझिल हो चला था. फिर मुन्ना ने ही धीरे से कहा, ‘‘अच्छा होता, बाबूजी, आप हरिद्वार…’’

‘‘नहीं, बेटा, मैं जिंदा इनसान हूं. कोई मुरदा नहीं कि हरिद्वार जा कर किसी आश्रम की कब्र में दफन हो जाऊं या घर में समाधि ले कर बैठा रहूं. तुम अपने ढंग से जीना चाहते हो, तो मैं अपने ढंग से.’’

‘‘अच्छा,’’ मुन्ना उठ कर बाहर जाने लगा. उन्होंने उन्नत मस्तक को उठा कर देखा कि वह अब भी सिर नीचा किए कमरे से बाहर जा रहा था.

चौथापन- भाग 2: बाबूजी का असली रूप क्या था?

मुन्ना ने जोर से कार का दरवाजा बंद किया. फिर कार चल दी. मुन्ना ने अचानक पूछ लिया, ‘‘बाबूजी, बूआ यहां कब तक रहेंगी?’’

वह चौंके, ‘‘क्यों बेटा? उस से तुम्हें क्या तकलीफ है?’’

‘‘तकलीफ की बात नहीं है, बाबूजी. मां के मरने पर बूआजी आईं तो फिर वापस गईं ही नहीं.’’

‘‘वह तो मैं ही उसे रोके हुए हूं बेटा. फिर उस पर ऐसी कोई बड़ी जिम्मेदारी अभी नहीं है. सो वह हमारे यहां ही रह लेगी.’’

‘‘लेकिन हम उन की जिम्मेदारी कब तक उठाएंगे? उन के अपने बेटाबहू हैं. उन्हें उन के पास ही रहना चाहिए. फिर वह यहां तरीके से रहतीं तो कोई बात नहीं थी पर वह तो हमेशा आप की बहू ममता पर रोब गांठती रहती हैं.’’

मुन्ना के शब्दों ने ही नहीं उस के स्वर ने भी उन्हें आहत कर दिया था. वह जानते थे कि त्रिवेणी पर लगाया गया आरोप झूठा है. आखिर त्रिवेणी उन की एकमात्र बहन है. वह उसे बचपन से जानते हैं. ममता उस के विषय में ऐसी बात कह ही नहीं सकती थी. लेकिन वह चाह कर भी मुन्ना से अपना विरोध प्रकट नहीं कर सके थे. वह जानते थे कि मुन्ना और बहू अब त्रिवेणी को घर में शांति से नहीं रहने देंगे. उसी को ले कर हर समय कलह मची रहेगी. बातबात पर त्रिवेणी को अपमानित किया जाता रहेगा. वह यह ज्यादती सहन नहीं कर सकेंगे. इसीलिए उन्होंने त्रिवेणी को भेज दिया था.

त्रिवेणी चली गई थी. जिस दिन वह गई, उस दिन उन्हें ऐसा लगा मानो इंदू की मौत अभीअभी हुई हो. कितने ही दिनों तक वह अनमने से रहे थे. अब उन्हें पूछने वाला कोई न था. सुबह की चाय के लिए भी तरस जाते थे. वह बारबार बच्चों द्वारा बहू के पास संदेश भेजते रहते, पर वह संदेश अकसर बीच में ही गुम हो जाता था. थक कर वह खुद रसोईघर के द्वार पर जा कर दस्तक देते. जवाब में बहू का तीखा स्वर सुनाई देता, ‘‘आप को चाय नहीं मिली? अंजू से कहा तो था मैं ने. ये बच्चे ऐसे बेहूदे हो गए हैं कि बस… अकेला आदमी आखिर क्याक्या करे? मैं तो काम करकर के मर जाऊंगी, तब ही शांति मिलेगी सब को.’’

वह अपराधी की तरह मुंह लटकाए अपने कमरे में लौट आते थे.

भोजन के समय भी अकसर ऐसा ही तमाशा होता था. कई बार उन के मुंह का कौर विष बन जाता था. पर उस जहर को निगल लेने की मजबूरी उन की जिंदगी की विडंबना बन गई थी.

सुबह के समय वह कितनी ही देर तक गरम पानी के अभाव में बिना नहाए बैठे रहते थे. अब त्रिवेणी तो घर में थी नहीं कि सुबह जल्दी उठ कर गीजर चला देगी. बहू उठती थी पूरे 7 बजे के बाद और नौकर 8 बजे तक आता था.

जब तक पानी गरम होता था, स्नानघर में पहले ही कोई दूसरा व्यक्ति स्नान के लिए घुस जाता था. भला उन्हें कौन सा काम था? उन के जरा देर से नहाने से कौन सा अंतर पड़ जाता. बहू, बच्चे, मुन्ना सब को जल्दी थी, सब कामकाजी आदमी थे. बस, वही बेकार थे.

वह इंतजार में इधरउधर टहलते हुए बारबार नौकर से पूछते रहते थे, ‘‘गोपाल, क्या स्नानघर खाली हो गया?’’

‘‘स्नानघर खाली हो जाएगा तो मैं खुद बता दूंगा आप को, दादाजी,’’ नौकर भी मानो बारबार एक ही प्रश्न पूछे जाने पर उकता कर कह देता था.

और केवल नहानेखाने की ही तो बात नहीं थी. घर की हर गतिविधि में उन्हें पंक्ति के सब से आखिर में खड़ा कर दिया जाता था. घर में उन के दुखसुख का साथी कोई नहीं था.

एक दिन अचानक उन के सिर में भयंकर पीड़ा होने लगी. बड़ा नाती मुकेश कमरे में अपना बल्ला रखने आया. उन्होंने उसे पकड़ कर चापलूसी की, ‘‘बेटे, जरा मेरा सिर तो दबाना. बड़ा दर्द हो रहा है.’’

मुकेश ने अनिच्छा से 2-4 हाथ सिर पर मारे और तत्काल उठ खड़ा हुआ. वह घबरा कर कराहे, ‘‘अरे बस, जरा और दबा दे.’’

‘‘मेरे हाथ दुखते हैं, दादाजी.’’

वह दंग रह गए. फिर दूसरे ही क्षण तमक कर बोले, ‘‘बूढ़े दादा की सेवा करने में तुम्हारे हाथ टूटते हैं? आने दे मुन्ना को.’’

मुकेश ढिठाई से मुसकराता हुआ चला गया. वह पड़ेपड़े मन ही मन कुढ़ते रहे थे. उन्हें अपना बचपन याद आने लगा था. वह कितनी सेवा करते थे अपने बाबा की. रोजाना रात को नियम से उन के हाथपैर दबाया करते थे. बाबा उन्हें अच्छीअच्छी कहानियां सुनाया करते थे.

बाबा की याद आई तो उन्हें एहसास हुआ कि आज जमाना कितना बदल गया है. मजाल थी तब परिवार के किसी सदस्य की कि बाबा की बात को यों टाल देता.

भोजन के बाद मुन्ना उन के कमरे में आया. पूछा, ‘‘बाबूजी, सुना है, आप ने खाना नहीं खाया है आज?’’

‘‘इच्छा नहीं थी, बेटा. सिर अभी तक बहुत पीड़ा कर रहा है. शायद बुखार आ कर ही रहेगा.’’

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