Download App

शारीरिक संबंध में सहमति

यह आश्चर्य की बात है कि देश की संसद बलात्कार की परिभाषा तय करते हुए सहमति की आयु 16 वर्ष हो या 18 वर्ष इस पर दलीय आधार पर बंट गई. सांसदों से अपेक्षा होती है कि ऐसे मामलों, जिन में सत्ता का कोई दखल न हो, में वे सामाजिक जिम्मेदारी निभाएं. यहां इस विषय पर कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी सब दलीय खेमों में बंट गए.

कुछ दल 16 वर्ष से अधिक की लड़की को शारीरिक संबंधों में सहमति को सही मानना चाहते हैं तो कुछ 18 वर्ष की आयु की. वैसे, दोनों ही पैमाने गलत हैं क्योंकि प्रकृति ने तो लड़की के रजस्वला होते ही शारीरिक संबंधों की आवश्यकता पैदा कर रखी है. जब लड़कालड़की राजी हों तो सहमति का लाभ उस लड़के को मिलना चाहिए जिस पर बाद में लड़की के नाराज होने पर मुकदमा चल रहा हो. जहां सहमति न हो, वहां तो किसी भी आयु का जबरन संबंध बलात्कार ही है. सांसदों को परिपक्वता दिखानी चाहिए थी.

कानूनों में जटिलता

सरकार को जगाने और लालफीताशाही को दूर करने के लिए प्रधानमंत्री ने सुझाव दिया है या कहिए कि फैसला किया है कि नागरिक अधिकार विधेयक के तहत  दिए गए समय के भीतर सरकारी नौकरशाही द्वारा काम पूरा न करने पर नौकरशाहों को जुर्माना भरना होगा. यह विधेयक अन्ना हजारे की 2011 की मांग पर लाया जा रहा है. उस का क्या असर होगा, यह इसी बात से साफ है कि सिर्फ विधेयक लाने में सरकार को 2 साल लग गए और लागू कराने में कितने लगेंगे, पता नहीं.

यह कोरी कागजी बात है कि सरकारी बाबूडम अपने निकम्मेपन के लिए कभी अपनी जेब ढीली करेगा. सरकारी नियम इतने जटिल और ज्यादा हैं कि किसी भी आवेदन को बरसों लटकाना किसी भी बाबू के लिए बाएं हाथ का काम है. सिटीजन चार्टर में चाहे जो मांग रखी जाए, सरकारी चींटियां अपनी गति से ही नहीं चलेंगी, वे हर जगह की चाशनी भी हड़प करती जाएंगी और जनता, अन्ना हजारे और चाहें तो सोनियामनमोहन सरकार भी उस का कुछ नहीं कर सकती.

सरकारों ने देश को सुव्यवस्थित ढंग से चलाने के नाम पर इतने सारे कानून और नियम बना रखे हैं कि उन के बहाने सरकारी दफ्तर चाहे तो कागज 20 साल तक यों ही पड़ा रहे. 15 से 30 दिन में काम पूरा कर देने का कानून लागू करना असंभव  है. जरूरत सरकारी कर्मचारियों पर जुर्माना लगाने से ज्यादा नियम व कानूनों को कम करने और सरकारी अफसरों के विवेकाधिकारों को कम करने की है. ज्यादातर दिक्कतें इसी से आती हैं कि सरकारी दफ्तर किसी भी आवेदन पर सवालिया निशान लगा सकता है.

कागजों और कानूनों में उस के पास सैकड़ों अधिकार हैं जिन की आड़ में वह उल्लू सीधा करने के लिए नएनए नियम, फार्म, प्रक्रियाएं गढ़ सकता है. आमतौर पर बेकार से मामलों में भी आवेदकों से पहचानपत्र, राशन कार्ड, पैन कार्ड, पासपोर्ट, पड़ोसी की सिफारिश, सरकारी अधिकारी द्वारा सत्यापन जैसी शर्तें जोड़ दी जाती हैं. एक में भी कोई खामी हो, मामला लटका दिया जाता है.

ऐसे में समयबद्ध काम करने के नियम कोरे आश्वासनों से ज्यादा कुछ साबित न होंगे. सरकार में जाने और सरकारी नौकरी या नेतागीरी करने का लाभ ही क्या होगा अगर शासन में रह कर सत्तासुख नहीं पाया? 

अभिव्यक्ति और कानून

हिंदी फिल्म ‘जौली एलएलबी’ के कुछ दृश्यों और संवादों को ले कर दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका प्रस्तुत की गई?थी. गनीमत है कि उच्च न्यायालय ने उसे खारिज कर दिया क्योंकि यह याचिका केवल ट्रेलरों पर आधारित थी जो सिनेमाघरों या टैलीविजन पर दिखाए जा रहे हैं. गंभीर बात यह है कि याचिका कुछ वकीलों ने प्रस्तुत की थी.

देशभर के वकीलों ने यह शौक सा अपना लिया कि वे फिल्मों, नाटकों, प्रदर्शनियों, पुस्तकों, टैलीविजन बयानों पर छोटीबड़ी अदालतों में कभी धार्मिक भावनाएं आहत होने के, कभी अश्लीलता के नाम पर तो कभी मानहानि होने का पीड़ा दर्शा कर मामला अदालत में ले जाते हैं. निर्माता, निर्देशक, लेखक, प्रकाशक, संपादक आदि को दूरदराज इलाकों में खींच कर ये वकील बहुत उत्साहित महसूस करते हैं.

असल में वे उस संविधान को अपमानित कर रहे हैं जिस के अंतर्गत उन का व्यवसाय चल रहा है. संविधान की जड़ में विचारों की अभिव्यक्ति है. यह सर्वश्रेष्ठ व सर्वशक्तिशाली अधिकार है. संविधान कोराकागजी शेर बन कर रह जाएगा अगर विचारों की अभिव्यक्ति का अधिकार खोखला हो जाए.

विचारों की अभिव्यक्ति का मतलब ही यह है कि कुछ ऐसा कहना जो किसी को बुरा लगे. चाटुकारिता करने को विचारों की अभिव्यक्ति नहीं कहा जाता. यह अधिकार तो चीन, ईरान, सऊदी अरब, म्यांमार, नाइजीरिया और काफी हद तक रूस जैसे देशों में है जहां जब तक आप तारीफों के पुल बांध रहे हैं, चाहे झूठे हों, आप के पास अवसर ही अवसर हैं.

अधिकार का असली मतलब होता है आलोचना और वह भी कड़ी व कड़वी. मामला चाहे वकीलों को ले कर हो, अदालतों को ले कर हो, धर्म को ले कर हो, संस्कृति का हो, अभिव्यक्ति का अधिकार तभी है जब आप निश्चिंत हो कर दिल की बात कह सकें. सैंसरशिप चाहे सरकार की हो, भगवाई हो, टोपीपगड़ी वालों की हो या काले कोट वालों की हो, गलत है. यह संविधान पर प्रहार है.

अदालतों को तो इस तरह की याचिकाओं को प्रस्तुत करने वालों को फटकारना चाहिए पर वह ऐसा न कर दूसरे पक्ष को समन ही नहीं कभीकभी गिरफ्तारी वारंट भी जारी कर देती हैं, बिना जानेबूझे कि संबंधित व्यक्ति कहां रहता है और पीडि़त वास्तव में कोई हक रखता है या नहीं. भारत में अब इस स्वतंत्रता का हनन सरकार के हाथों कम, जनता के हाथों ज्यादा हो रहा है और इस का अर्थ है कि हमें संविधान की समझ नहीं. लगता है हमारे मन में अभी भी उसी शासन की कल्पना है जो हमारे पलपल का हिसाब रखे हमें जंजीरों में बांध कर रखे.

 

धर्म और औरत

अमेरिका के विदेश मंत्री, जिसे वहां सैक्रेटरी औफ स्टेट कहा जाता है, जौन कैरी ने उन औरतों, जिन्होंने अपने अधिकारों के लिए बेहद हिम्मत दिखाई, का सम्मान करते हुए कहा कि कोई भी समाज या देश उन्नति नहीं कर सकता अगर वह आधी आबादी को पीछे छोड़ दे. विश्व आर्थिक संगठन का मानना भी है कि जिन देशों में औरतों के अधिकार पुरुषों के बराबर हैं वे ज्यादा प्रतियोगी और अमीर हैं और उन देशों में कानून व्यवस्था की स्थिति भी अच्छी है.

पर जौन कैरी यह संदेश दे किसे रहे हैं. सरकारें लगभग सभी देशों में लिंग भेद समाप्त करना चाहती हैं क्योंकि सरकारी बाबूशाही और नेता दोनों जानते हैं कि यदि ज्यादा उत्पादन होगा तो  ज्यादा कर मिलेगा तो उन की मौज भी ज्यादा होगी.

औरतों को घरों में रोकने वाले पति या पिता हरगिज नहीं होते. पति को ऐसा जीवनसाथी चाहिए जो बराबरी से उस की समस्याएं समझे, हल करे और बराबरी से सैक्स सहयोगी बने. मुर्दा सा शरीर पति के लिए न रसोई या ड्राइंग रूम में काम का है न बिस्तर पर. पिता, मनोवैज्ञानिक फ्रायड की भाषा में, बेटी को बेटों से ज्यादा प्यार करता है.

तो फिर समस्या है कहां? जहां है वहां के बारे में सर्वशक्तिशाली अमेरिका के विदेश मंत्री जौन कैरी भी कुछ कहने में घबराते हैं. उन्होंने पाकिस्तान की मलाला यूसुफजई, जिसे तालिबानियों ने बस में गोली मारी थी क्योंकि वह स्कूल जाना चाहती थी, या दिल्ली की 23 साला लड़की, जिसे चलती बस में 6 युवकों ने बुरी तरह रेप किया, रौंदा, पीटा, की समस्याओं की जड़ पर प्रहार करने की हिम्मत नहीं दिखाई.

दुनियाभर में औरतों के साथ भेदभाव धर्म के इशारे पर होता आया है. न जाने क्यों औरतें फिर भी धर्म की ज्यादा गुलाम रहीं, जबकि उन्हें ही धर्म के नाम पर सताया गया. ईसाई धर्म हो, इसलाम हो या हिंदू धर्म, औरतों पर प्रतिबंध धर्मजनित हैं. उन्हें सुरक्षा के नाम पर पालतू जानवर बना कर पिंजरों में रखा गया जहां उन के पर काट दिए गए.

वे केवल थोड़ा सा खाना बनाने या बच्चे पैदा करने की मशीन बन कर रह गईं. धर्मों की नीयत रही कि औरतें लड़ाकू बेटे पैदा करें जो विधर्मी की हत्या करें, उन्हें लूटें, उन की औरतों का बलात्कार करें और अपने धर्म के पंडेपुजारियों को पैसा ला कर दें. पंडेपुजारी ही वे हैं जो औरतों की आजादी के खिलाफ अड़े रहते हैं.

आसाराम, प्रवीण तोगडि़या, अशोक सिंघल, पोप, अयातुल्ला खामेनाई, सब एक सी भाषा बोलते हैं. बड़ी बात यह है कि वे जो मरजी बोल लें, उन पर कोई उंगली नहीं उठा सकता. यदि उन के कथन की पोल खोलो तो धर्म खतरे में पड़ जाता है.

जौन कैरी में हिम्मत है तो धर्मों के खिलाफ बोलें वरना अपना मुंह बंद रखें. औरतें खुद धर्म की गुलाम बनी रहना चाहें, भेड़ों की तरह अपनी कुरबानी देती रहें तो यह धर्मों की सफलता है और सुधारकों की विफलता, क्योंकि वे जौन कैरी की तरह धर्म की पोल खोलना खतरनाक समझते हैं.

पुलिस अफसर की हत्या

उत्तर प्रदेश में एक पुलिस अफसर की हत्या ने अखिलेश यादव की सरकार को सकते में डाल दिया है. यह हत्या प्रतापगढ़ जिले में एक भूमि विवाद पर हुई. चूंकि हत्या के पीछे वहां के विधायक और मंत्री रघुराज प्रताप सिंह जिसे राजा भैया के नाम से ज्यादा जाना जाता है, का हाथ बताया जाता है, इसलिए मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी किसी भी तरह इस मंत्री को बचाना चाहती है. फिलहाल, उन से त्यागपत्र ले कर और मामले को केंद्रीय जांच ब्यूरो को सौंप कर आग बुझाने की कोशिश की गई है.

मामला उत्तर प्रदेश की बिगड़ती कानून व्यवस्था का ज्यादा है. अखिलेश यादव पर आरोप है कि वे अपने अफसरों को काबू में नहीं कर पा रहे हैं और पिता व चाचाओं के कारण सत्ता के केंद्र कई हो गए हैं जिन में अखिलेश बौने रह गए हैं. उत्तर प्रदेश की ढीलीढाली सरकार के लिए किसी को तो दोषी ठहराना ही होगा, इसलिए अखिलेश यादव की अनुभवहीनता को कोसा जा रहा है.

उत्तर प्रदेश असल में अभी भी सदियों की मानसिक गुलामी, निकम्मेपन, अंधविश्वासों, बेईमानी, गुंडागीरी के जंजाल से नहीं निकल पाया है. जहां हर कोई मुफ्त की खाना चाहता हो वहां विकास नाम की चिडि़या को कोई पर कैसे मारने दे सकता है.

उत्तर प्रदेश चाहे कल्याण सिंह के हाथों में रहा या मुलायम सिंह या मायावती के, सदा ही लखनऊ से चमत्कारों की अपेक्षा करता रहा. उत्तर प्रदेश अभी भी सदियों पुरानी खेती के अलावा कुछ भी नया करना नहीं सीख पाया है. यहां न उद्योग लग रहे हैं न अब नहरें या बांध बन रहे हैं. बिजली की हालत बुरी है क्योंकि यहां इंजीनियर न उत्पादन जानतेसमझते हैं, न वितरण. उत्तर प्रदेश की पुलिस भी सदियों पुरानी है बल्कि कहिए कि आज तो पहले से भी ज्यादा बदतर है और उस में अब रिश्वतखोरी व निकम्मेपन की दीमक भी लग गई है. तभी लोगों में ऐसी हिम्मत आ गई कि सरेआम पुलिस अफसर की हत्या कर डाली गई.

उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य, जिस का केंद्र की राजनीति पर हमेशा दबदबा रहा है और जो दिल्ली के सब से निकट है, की लगातार हो रही दुर्दशा यह साफ करती है कि वहां अभी कुछ नहीं होने वाला.

 

नया सीरियल किसर

अब तक ‘सीरियल किसर’ के रूप में केवल अभिनेता इमरान हाशमी ही जाने जाते थे पर अब लगता है कि अभिनेता नील नितिन मुकेश इमरान के किसिंग रिकौर्ड को तोड़ने वाले हैं. नील ने ‘उ जी’ में अभिनेत्री सोनल चौहान को 32 बार ‘किस’ किया है. इतना ही नहीं, वे अगली फिल्म ‘शौर्टकट रोमियो’ में?अभिनेत्री अमीषा पटेल को भी ‘किस’ करते हुए दिखेंगे. नील, संभल जाइए, फिल्में कहानी, अभिनय और अच्छे निर्देशन से हिट होती हैं, किसिंग सीन से नहीं.

बदल गई वधू

टैलीविजन सीरियल ‘बालिका वधू’ की आनंदी यानी प्रत्यूषा बनर्जी ने इस शो से विदा ले ली. 3 साल तक इस सीरियल में काम करने के बाद जमशेदपुर की प्रत्यूषा अब कुछ दिन अपनी मां की सेवा करना चाहती हैं. हाल ही में उन की मां की आंखों का औपरेशन हुआ है. हालांकि अंदरूनी खबर यह है कि पिछले कुछ महीनों से प्रोडक्शन हाउस और चैनल वाले उन के बरताव से नाखुश थे जबकि प्रत्यूषा का कहना है कि शेड्यूल हैक्टिक होने की वजह से वे समय नहीं निकाल पा रही थीं. फिलहाल, उन की जगह अभिनेत्री तोरल रासपुत्र ने ली है.

 

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें