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ममता शर्मा

गायिकी की दुनिया में ममता शर्मा को ‘मुन्नी बदनाम’ गीत ने रातोंरात भले ही स्टार बना दिया लेकिन उन्हें यह सफलता 12 साल के लंबे संघर्ष के बाद मिली है. हाल ही में ममता ने अपने कैरियर व निजी जिंदगी से जुड़े कई दिलचस्प पहलुओं पर शैलेंद्र सिंह से बातचीत की. पेश हैं मुख्य अंश.

मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर से मुंबई तक पहुंचने तक किन परेशानियों से आप को गुजरना पड़ा?
सच बात तो यह है कि हम ने कभी मुंबई जाने का सपना नहीं देखा था. मेरे घर में कोई फिल्मी दुनिया का जानकार नहीं था. न ही कभी किसी की इच्छा थी. मेरे नाना को गाने का थोड़ाबहुत शौक जरूर था. मेरे पिताजी एक कपड़ा मिल में काम करते थे. 1992 में वह मिल बंद हो चुकी थी. ऐसे में परेशानियां आने लगीं.

कुछ समय बाद मेरे पिताजी नहीं रहे. काफी जिम्मेदारी मां के कंधों पर आ गई. मैं 11 साल की थी. गाने का शौक था. जो भी लोग सुनते थे कहते कि मुझे गाने का मौका मिलना चाहिए. ऐसे में मैं ने स्टेज पर गाने का सफर शुरू किया. मैं दूसरी गायिकाओं के गाने गा कर स्टेज पर लोगों का मनोरंजन करने लगी. उस समय मध्य प्रदेश जैसी जगह में लड़की का स्टेज पर गाने का फैसला सरल नहीं था.

मां का सहयोग मेरे साथ था. मैं ने आगे बढ़ने का फैसला कर लिया. स्टेज पर गाने से लोगों का मनोरंजन तो हो रहा था पर मुझे संतुष्टि नहीं मिल रही थी. इस दौरान मैं ने एस टी पौल स्कूल से अपनी पढ़ाई पूरी कर ली. इस के बाद मुंबई आ गई.

क्या मुंबई में काम मिलना आसान था?

नहीं, मुंबई की अपनी एक अलग दुनिया है. मैं मुंबई साल 2000 में आई थी. एक बार मैं बस से सफर कर रही थी. मेरे पास 2 रुपए नहीं थे कि मैं बस का टिकट ले सकूं. बस के कंडक्टर ने टिकट बनवाने के लिए कहा तो मैं ने कह दिया कि पर्स घर पर रह गया है. मुझे देख कर एक आंटी को मेरे ऊपर तरस आ गया. उन्होंने मुझे 10 रुपए का नोट दिया. मैं ने 2 रुपए टिकट के ले कर 8 रुपए वापस किए तो वे बोलीं, ‘बेटा, रख लो, आगे काम आएंगे.’ ऐेसी बहुत सी परेशानियां आईं जिन को आज बताना सरल है पर जब समय बीत रहा था तब लगता नहीं था कि इस का कोई अंत होगा. स्टेज शो कर के मैं कमाने लगी.

इस के बाद भोजपुरी फिल्मों में भी गाने गाए. स्टेज शो के दौरान बहुत सारे गीतकारों और संगीतकारों से मुलाकात होती थी. सब कहते थे, फोन करना. जब उन को फोन करते तो केवल घंटी बजती रहती.  

जिंदगी का वह कौन सा मुकाम था जिस ने ममता शर्मा को रातोंरात स्टार बना दिया?

संगीतकार ललित पंडित से मेरी पहले मुलाकात हुई थी. कई माह के बाद एक दिन मैं ने उन को फोन किया तो वे बोले कि मेरा एक गाना है जो तुम्हें गाना है. मैं उन से मिली और फिल्म ‘दबंग’ का गाना ‘मुन्नी बदनाम…’ मुझे गाने का मौका मिल गया. इस गाने का देसी अंदाज मेरी आवाज को सूट कर गया. इस के  बाद तो मेरी जिंदगी बदल गई. 

‘मुन्नी बदनाम…’ और बाकी तमाम गाने भी ऐसे ही आइटम सौंग से रहे. क्या आप की सफलता आइटम सौंग के आसपास ही है?

सब से पहले तो आप जिसे आइटम सौंग कहते हैं, हम उसे फनी सौंग कहते हैं. ऐसे गाने फिल्मों की पहचान बन जाते हैं. इन को लोग मन लगा कर सुनते हैं. खुश होते हैं. अपनी दिनभर की थकान दूर करते हैं. ‘दबंग’ के बाद ‘दबंग 2’ के गाने ‘फेवीकौल…’ और ‘पांडेय जी सीटी…’ को भी लोगों ने उतना ही प्यार दिया. फिल्म ‘राउडी राठौर’ के गाने ‘आ रे प्रीतम प्यारे…’, फिल्म ‘मिले न मिले हम’ का गाना ‘कट्टो गिलहरी…’, फिल्म ‘हाउसफुल 2’ का गाना ‘अनारकली डिस्को चली…’ जैसे तमाम गाने हैं जिन को लोगों ने दिल से प्यार दिया.

आप जिस दौर में गायिकी के क्षेत्र में आईं हैं उस समय तमाम रिऐलिटी शो म्यूजिक को ले कर बनते हैं.  कलाकार पानी के बुलबुले की तरह होने लगे हैं. कैसा महसूस करती हैं?

देखिए, यह बात तो सच है कि रिऐलिटी शो से एक ब्रेक मिल जाता है. खराब बात यह है कि ऐसे कलाकार अपने को पूरा गायक समझ लेते हैं. इस के बाद वे मेहनत करना बंद कर देते हैं. अपने से बड़ीबड़ी अपेक्षाएं पाल लेते हैं. यही वजह है कि ऐसे कलाकार प्रतिभाशाली होते हुए भी गुम हो जाते हैं.

आप के गानों के बोल कई बार ऐसे होते हैं जिन को ले कर आरोप लगते रहे हैं. मुन्नी नाम की तमाम महिलाओं की शिकायत हुई कि उन को इस गाने के बहाने छेड़खानी का शिकार होना पड़ा?

ऐसी बातें सही नहीं हैं. कई नामों को ले कर पहले भी गाने बने हैं. ‘मेरा नाम है चमेली’ और ‘लड़की अकेली शन्नो…’ जैसे बहुत सारे गाने पहले बने हैं. तब ऐसा नहीं हुआ. दरअसल, यह मीडिया का युग है. इस में हर बात को अलग अंदाज में देखा जाता है.

पर ‘लौंडिया पटाएंगे मिसकौल से…’ जैसे गानों के बोल का कुछ तो असर समाज पर पड़ता ही होगा?

मुझे नहीं लगता कि ऐसे गानों से लोग इतना प्रभावित होते हैं. आज भारत के कुछ देहाती इलाकों में लड़की के लिए लौंडिया शब्द का प्रयोग किया जाता है. हम जब गाते हैं तो चाहे फिल्मों में गा रहे हों या स्टेज पर, हमारा प्रयास यह होता है कि देखने और सुनने वाले हर किसी को खुश कर सकें.  

गीत गाना आप ने कहीं से सीखा है?

नहीं, मैं ने गाना सीखा नहीं है. मैं आशा और लताजी के गाने सुनती थी. वहीं से गाने की कोशिश शुरू की. आशाजी के गाने बहुत पसंद थे. उन के कुछ गाने जो हेलन पर फिल्माए गए थे, मुझे बहुत पसंद थे. ऐसे गानों को गातेगाते कब मैं गाने लगी पता ही नहीं चला. स्टेज पर भी मैं ऐसे ही गाने गाती थी. इस के अलावा जब मैं मुंबई आई तो लगा कि गाने की तकनीकी जानकारी होनी जरूरी है. तब मैं ने इंटरनैट की मदद से गाने को सीखा और समझा.

गाने के अलावा आप के दूसरे शौक क्या हैं?

गाना और खाना.यही मेरे 2 सब से बडे़ शौक हैं. मुझे हर तरह का शाकाहारी खाना बनाना आता है. अखनी पुलाव मैं बहुत अच्छा बनाती हूं. मुझे दाल बनाने का बहुत शौक है. जब मैं ग्वालियर में रहती थी तो केवल यही समझती थी कि दाल को केवल प्याज डाल कर ही छौंका जा सकता है. अब मैं 5 तरह से दाल में छौंका लगा सकती हूं. यह मुझे काफी टेस्टी लगती है. नौनवेज में केवल अंडा ही खाती हूं.

इश्क इन पेरिस

जिस तरह प्रीति जिंटा की आईपीएल टीम किंग्स इलैवन पंजाब की स्थिति हुई वैसे ही उन की खुद की लिखी और अभिनीत पहली फिल्म ‘इश्क इन पेरिस’ की हालत हुई है. बड़ेबड़े पीवीआर जैसे सिनेमाघरों में रिलीज के पहले दिन ही इस फिल्म को दर्शकों का ठंडा रिस्पौंस मिला.
यह फिल्म इसलिए दर्शकों पर अपना असर छोड़ पाने में असफल रही क्योंकि प्रीति जिंटा का यह इश्क काफी ठंडा है, कहानी भी साधारण है. और फिर फिल्म की नायिका खुद प्रीति जिंटा के चेहरे पर मासूमियत नजर नहीं आती. वैसे प्रीति जिंटा की अभी शादी नहीं हुई है, फिल्म की कहानी में नायिका की भी शादी करने में दिलचस्पी नहीं है.
यह फिल्म 2-3 साल से रिलीज होने का इंतजार कर रही थी. प्रीति जिंटा ने इस फिल्म से काफी उम्मीदें बांध रखी थीं लेकिन फिल्म उन की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर सकी है.

फिल्म की कहानी ऐसे 2 लोगों की है जो शादी में विश्वास नहीं करते. कहानी पेरिस से शुरू होती है. इश्क (प्रीति जिंटा) और आकाश (रेहान मलिक) रोम से पेरिस जा रही एक ट्रेन में मिलते हैं. दोनों भारतीय हैं. दोनों में दोस्ती हो जाती है. आकाश इश्क को पेरिस में अपने साथ एक रात बिताने को राजी कर लेता है. दोनों एकदूसरे से वादा करते हैं कि दोबारा नहीं मिलेंगे. लेकिन नियति उन्हें फिर से मिला देती है. आकाश को इश्क से प्यार हो जाता है परंतु इश्क शादी को नापसंद करती है. आखिर में इश्क की मां उसे अपने और पति के तलाक के बारे में सचाई बताती है. इश्क को लगता है कि उस के अंदर भी प्यार का अंकुर फूटने लगा है. वह लंदन वापस जा रहे आकाश के पास पहुंच जाती है और अपने प्यार का इजहार करती है.

फिल्म की यह कहानी एकदम ठंडी है. कहानी की गति भी बहुत धीमी है. फिल्म का निर्देशन भी दमदार नहीं है. कहानी में ट्विस्ट भी नहीं है, सीधीसपाट सी है. पूरी कहानी एक किरदार के मुंह से कहलवाई गई है.

हां, निर्देशक ने पेरिस और वहां पर बने एफिल टावर की खूबसूरती को दिखाने में कोई कंजूसी नहीं बरती है. रात के समय हजारों बल्बों की रोशनी में चमकता एफिल टावर बहुत खूबसूरत लगा है.

प्रीति जिंटा के अभिनय में कोई नवीनता नजर नहीं आती, उलटे उस के चेहरे पर प्रौढ़ता झलकने लगी है. रेहान मलिक का काम कुछ अच्छा है. फिल्म में सलमान खान का एक आइटम सौंग भी डाला गया है. प्रीति जिंटा भी सलमान के साथ नाची हैं.

फिल्म का संगीत कुछ अच्छा है. ‘कुडि़ए दी कुरती’ और ‘जाने भी दे’ गीत सुनने में अच्छे लगते हैं.

आई डोंट लव यू

आई डोंट लव यू यानी मैं तुम से प्यार नहीं करता. फिल्म का टाइटल आप को चौंकाने वाला लगेगा. लेकिन फिल्म देखने पर आप को पता चलेगा कि इस में प्यारव्यार का कोई चक्कर नहीं है, यह तो किसी सनसनीखेज एमएमएस कांड पर आधारित है तो आप एक बार फिर से चौंक जाएंगे.
फिल्म का नायक रुसलान मुमताज एक चर्चित एमएमएस कांड से जुड़ा है. वह फिल्म इंडस्ट्री की एक नई अदाकारा के साथ अपने एमएमएस की वजह से ही चर्चा में आया था.
किसी भी एमएमएस कांड को कुछ खबरिया चैनल किस तरह बढ़ाचढ़ा कर पेश करते हैं और सनसनी फैलाते हैं ताकि उन की टीआरपी बढ़े, इस पर फिल्म में खासी रोशनी डाली गई है.

फिल्म की कहानी दिल्ली के एक कालेज में पढ़ने वाले छात्र युवान (रुसलान मुमताज) की है. उसी कालेज में एक लड़की आयरा (चेतना पांडे) पढ़ने आती है. युवान को आयरा से प्यार हो जाता है. एक दिन आयरा युवान को अपने घर बुलाती है. युवान आयरा के डांस को अपने मोबाइल कैमरे में रिकौर्ड करने लगता है. फिर अचानक वह आयरा को किस करता है और उस के टौप की चैन खोल देता है. आयरा युवान को  झटक देती है. युवान वहां से चला जाता है. कुछ दिनों बाद वह एमएमएस एक न्यूज चैनल के रिपोर्टर के हाथ लग जाता है. वह सनसनी फैलाने के लिए एक  झूठी रिपोर्ट बना कर पेश करता है. परेशान हो कर युवान अपने घर की इमारत से छलांग लगा देता है. वह बच जाता है. ठीक होने पर वह आयरा से माफी मांगता है. एक अन्य चैनल युवान को बेकुसूर साबित करता है. आयरा युवान को माफ कर देती है. उस के घर वाले उस का हाथ अयान के हाथ में दे देते हैं.

इस फिल्म के माध्यम से यह दिखाने की कोशिश की है कि खबरिया चैनल वाले किस तरह किसी इंसान के निजी पलों को सैक्स स्कैंडल के रूप में दिखा कर उस की जिंदगी तबाह कर डालते हैं.

फिल्म की यह कहानी बहुत धीमी है. नायक और नायिका दोनों ही नए हैं. दोनों ने ही निराश किया है. निर्देशन साधारण है. निर्देशक ने मुद्दा तो अच्छा उठाया है परंतु उस का ट्रीटमैंट सही ढंग से नहीं कर पाया है. फिल्म का गीतसंगीत साधारण है. आखिर में अधनंगी लड़कियों द्वारा किया गया नाच भी दर्शकों का ध्यान नहीं खींच पाता. टाइटल सौंग में अंगरेजी के शब्द हैं. मिका द्वारा गाया गया एक गीत ‘इश्क की मां की…’ अपनी बोल्डनैस की वजह से आजकल चर्चा में है. छायांकन अच्छा है.

औरंगजेब

न तो यह पीरियड फिल्म है न ही इस का मुगल सल्तनत के शासक औरंगजेब से कुछ लेनादेना है. फिल्म पूरी तरह से ऐक्शनथ्रिलर है. फिल्म में औरंगजेब जैसी बादशाहत भी नहीं है. दांवपेंच जरूर ऐसे हैं जिन के जरिए भाइयों, रिश्तेदारों और दोस्तों को भी मारना पड़ता है. साजिशों, धोखाधड़ी और कत्लों के बीच पनपते रिश्तों को फिल्म में दिखाया गया है.

फिल्म का विषय नोएडा के आसपास के क्षेत्र, जहां ऐक्सप्रैसवे बना है, की जमीनों को रसूखदार आदमियों द्वारा औनेपौने दामों पर किसानों से ले कर करोड़ोंअरबों रुपए कमाना है. दिल्ली एनसीआर में रियल एस्टेट सैक्टर में कितनी धांधलियां हो रही हैं, यह किसी से छिपा नहीं है. बिल्डर माफिया ने रातोंरात अपने एंपायर खड़े कर लिए हैं.

फिल्म का विषय नया तो नहीं है लेकिन निर्देशक अतुल सभरवाल ने फिल्म का ट्रीटमैंट ऐसा किया है कि दर्शक कुछ हद तक बंधे से रहते हैं. फिल्म की सिर्फ एक ही कमजोरी है. वह है कहानी का धीमा होना.

फिल्म का नायक बोनी कपूर का बेटा अर्जुन कपूर है. फिल्म ‘इशकजादे’ के बाद यह उस की दूसरी फिल्म है. अपनी पहली फिल्म में भी उस ने काफी अच्छा अभिनय किया था. इस फिल्म में उस की दोहरी भूमिका है जिसे उस ने बबूखी निभाया है. इस फिल्म से यह साफ हो गया है कि उस में दम है.

कहानी रियल एस्टेट का बिजनैस कर रहे यशवर्धन सिंह (जैकी श्रौफ) के साम्राज्य की है. उस का बेटा अजय (अर्जुन कपूर) शराबी और बिगड़ैल है. यशवर्धन का बिजनैस उस की पार्टनर नीना (अमृता सिंह) और उस का बेटा इंदर संभालते हैं.

यशवर्धन की तरह डीसीपी रविकांत (ऋषि कपूर) भी अपना साम्राज्य खड़ा करना चाहता है. वह अपने भतीजे आर्य (पृथ्वीराज) और बेटे देव (सिकंदर खेर) के साथ मिल कर बिल्डर माफिया से पैसों की वसूली करता है. एक दिन रविकांत के भाई (अनुपम खेर) की मौत के बाद आर्यन को पता चलता है कि उस की सौतेली मां वीरा (तन्वी आजमी) और जुड़वां भाई विशाल (अर्जुन कपूर) भी है जिस की वजह से बचपन में उसे पिता की बेरुखी सहनी पड़ी थी. वह यह खबर अपने चाचा रविकांत को सुनाता है.

रविकांत आर्यन के साथ मिल कर एक प्लान बनाता है. वह अजय का अपहरण कराता है और विशाल को अजय बना कर यशवर्धन के पास भेजता है ताकि वह विशाल के जरिए यशवर्धन के काले कारनामों का पता लगा सके. प्लान कामयाब हो जाता है. जब आर्यन और रविकांत यशवर्धन को दबोचने जाते हैं तभी बाजी पलट जाती है. आर्यन को अपने चाचा की महत्त्वाकांक्षा का पता चल जाता है. रविकांत आर्यन को गोली मारता है लेकिन वह मरता नहीं. उधर, विशाल रविकांत को मार डालता है. अजय और विशाल अपने पिता यशवर्धन को बचा लेते हैं.

इस फिल्म में यह दिखाने की कोशिश की गई है कि जिस प्रकार मुगल शासनकाल में औरंगजेब की वजह से मुगल सल्तनत को काफी नुकसान पहुंचा था, उसी तरह फिल्म के नायक और यशवर्धन के दूसरे बेटे विशाल की वजह से उस का पूरा साम्राज्य चौपट हो गया.

इस फिल्म में किरदार बहुत हैं. ज्यादा किरदारों का होना कहानी को उल झाता है. सभी किरदारों को घुमाने का काम ऋषि कपूर ने किया है. उस का अभिनय बहुत बढि़या है. उस ने शतरंज की ऐसी बिसात बिछाई है कि एकएक कर सभी गिरतेमरते नजर आने लगते हैं.

दक्षिण के अभिनेता पृथ्वीराज का अभिनय भी अच्छा है. उस का कम बोलना उस के आक्रोश को दिखाता है. अजय की प्रेमिका की भूमिका में सलमा आगा की बेटी साशा आगा ग्लैमरस और हौट लगी है.
फिल्म के संवाद अच्छे हैं. एक गीत ‘बरबादियां… मीठी लगें आजादियां…’ जिसे साशा आगा ने गाया है, अच्छा है. बाकी गाने पंजाबी में हैं जो अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाते. फिल्म का छायांकन अच्छा है.

प्रत्युषा का कमबैक

‘बालिका वधु’ से पौपुलर हुई प्रत्युषा बनर्जी जल्द ही एक नए टीवी शो में बंगाली बहू की भूमिका में नजर आएंगी. शो का नाम अभी तय नहीं हुआ है. इस में वे एक मौडर्न अवतार में दिखाई पडें़गी. प्रत्युषा के अचानक बालिका वधु छोड़ने को ले कर यह सुनने में आ रहा था कि उन्हें शो से निकाल दिया गया है जबकि प्रत्युषा ने अपनी मां की आंखों के औपरेशन के बाद सेवा की दुहाई दी थी.

बात चाहे कुछ भी हो पर प्रत्युषा को एक बार फिर मौका मिल रहा है. इस बार वे निर्मातानिर्देशक को परेशान नहीं करेंगी बल्कि अपने काम पर ध्यान देंगी. इसी में भलाई है प्रत्युषाजी नहीं तो आप समझ ही गई होंगी.

रहमान की शहनाई

जल्द ही रिलीज होने वाली फिल्म ‘रांझणा’ में अच्छा संगीत सुनाई देगा ऐसी उम्मीद है. निर्देशक आनंद राय ने इस फिल्म में बनारस को फिल्माने की वजह से उस में बनारस के पारंपरिक संगीत को डाला है. संगीतकार ए आर रहमान ने बनारसी अंदाज को बयान करने के लिए शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्ला खान की शहनाई को शामिल किया है. यह बिस्मिल्ला खान के प्रति एक सम्मान है.

सभी बड़े संगीतकार अपने गानों में बड़ेबड़े उस्तादों के योगदान को याद करेंगे तो एक अच्छा संगीत सुनने को तो मिलेगा ही साथ ही, हमारे संगीत की परंपरा लुप्त होने से भी बच सकेगी.

 

प्रीति का फ्लौप शो

प्रीति जिंटा इन दिनों बुरे दौर से गुजर रही हैं. पहले प्रेमी नेस वाडिया से ब्रेकअप ने उन का दिल तोड़ा फिर आईपीएल में उन की टीम किंग्स इलैवन की फिसड्डी परफौर्मेंस ने. अब उन की फिल्म ‘इश्क इन पेरिस’ बौक्स औफिस पर धड़ाम हो गई. वे न सिर्फ इस फिल्म की निर्माता हैं बल्कि कहानी और स्क्रीन प्ले भी उन्होंने लिखा है. उन्हें उम्मीद थी कि इस फिल्म के जरिए उन्हें इंडस्ट्री में खोया रुतबा वापस मिल जाएगा.

बैडमैन बने ऋषि कपूर

वर्ष 2012 में फिल्म अग्निपथ में ऋषि कपूर ने रौफ लाला की निगेटिव भूमिका निभा कर दर्शकों की काफी प्रशंसा बटोरी. अब वे फिल्म औरंगजेब में पुलिस औफिसर की भूमिका में हैं. इस किरदार में?भी खलनायक की झलक है. ऋषि कपूर मौजूदा वक्त के खलनायक के रूप में उभर रहे हैं. अच्छी बात है कि वे वक्त के साथसाथ खुद को ढाल रहे हैं. यही वजह है कि उन्होंने फना, नमस्ते लंदन, लव आजकल, दो दूनी चार आदि फिल्मों में काम किया है. कई दूसरे कलाकारों की तरह गुमनाम जिंदगी नहीं बिता रहे.

सना बनी सनसनी

सलमान खान यारों के यार माने जाते हैं. तभी तो बिग बौस की प्रतिभागी रही और फिल्म ‘मेंटल’ की अदाकारा सना खान के सपोर्ट में उतर आए हैं. उन पर एक नाबालिग लड़की को अपहरण करने का आरोप लगा है. सना ने अपने भाई की शादी एक 15 साल की लड़की के साथ करवाने के लिए उस का अपहरण करने की कोशिश की. ऐसे वक्त में सल्लू ने ट्विटर पर लिखा है कि बेचारी सना, दुख हुआ. पहले उसे मशहूर होने दीजिए, उस के बाद कटघरे में खड़ा करिए. कोई लड़की आखिर एक 15 वर्षीय लड़की का अपहरण क्यों करेगी?

सल्लू भैया, यह तो जांच के बाद ही पता चल पाएगा, लेकिन उस की इतनी तरफदारी आखिर क्यों?

गौड पार्टिकल और धार्मिक अंधविश्वास

गौड पार्टिकल से जुड़े धार्मिक अंधविश्वास को वैज्ञानिकों ने निराधार साबित कर जता दिया है कि विज्ञान मानव जाति को सृष्टि के जन्म तथा विकास से जुड़े धार्मिक पाखंडों की अंधेरी गलियों से ठोस व तार्किक आधार द्वारा बाहर निकालने के लिए कटिबद्ध है. सदियों से धार्मिक हैवानियत और यातनाओं से गुजर कर दुनिया को सच से वाकिफ कराते वैज्ञानिक प्रयासों पर पढि़ए जितेंद्र कुमार मित्तल का लेख.

विज्ञान की नईनई खोजें सृष्टि के रहस्यों को समझने में हमारी मदद करती आई हैं. पिछले दिनों वैज्ञानिकों द्वारा की गई उस कण (पार्टिकल) की खेज इसी शृंखला की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है जो इस ब्रह्मांड को आकार देने में अहम भूमिका निभाता है और जो ‘हिंग्स बोसौन’ या ‘गौड पार्टिकल’ के नाम से जाना जाता है. यूरोपीय सैंटर फौर न्यूक्लियर रिसर्च यानी सर्न की 2 टीमें इस महत्त्वपूर्ण खोज में वर्षों से लगी हुई थीं और अब ऐसा लगता है कि उन की यह मेहनत रंग लाई है और वे इस गुत्थी को सुलझाने में कामयाब रही हैं.

मोटे तौर पर सृष्टि की हरेक चीज चाहे वे तारे, ग्रह या फिर हम स्वयं ही क्यों न हों, मैटर यानी पदार्थ से बनी हैं और पदार्थ अणु व परमाणुओं से बना है. ‘मास’ यानी द्रव्यमान वह फिजिकल प्रौपर्टी है जिस से अणु व परमाणुओं जैसे तमाम कणों को ठोस रूप मिलता है. अगर यह ‘मास’ यानी द्रव्यमान (भार) नहीं होगा तो ये कण रोशनी की रफ्तार से ब्रह्मांड में दौड़ते रहेंगे और कभी भी दूसरे कणों के साथ मिल कर किसी ठोस आकार में बदल नहीं सकेंगे. यही ‘मास’ जब गुरुत्वाकर्षण से गुजरता है तो वह भार के रूप में भी मापा जा सकता है.

सब से अहम सवाल जो वैज्ञानिकों को बरसों से परेशान कर रहा था वह यह था कि यह ‘मास’ या भार आखिर आता कहां से है? जब तमाम कणों को एक निश्चित वैज्ञानिक व्यवस्था के अनुरूप रख कर इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश की गई तो वैज्ञानिकों को इस में किसी कण की कमी या गैप नजर आने लगा.

वर्ष 1965 में इस कमी को भरने के लिए इस अज्ञात कण को ब्रिटिश वैज्ञानिक पीटर हिंग्स ने ‘गौडडैम पार्टिकल’ की संज्ञा दी लेकिन बाद में उन के संपादक ने ‘गौडडैम’ में से ‘डैम’ को काट कर इसे ‘गौड पार्टिकल’ बना दिया. चूंकि क्वांटम यांत्रिकी के क्षेत्र में अलबर्ट आइंस्टीन के समकालीन भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्रनाथ बोस ने महत्त्वपूर्ण काम किया था, जिसे बाद में आइंस्टीन ने और आगे बढ़ा कर ‘बोस आइंस्टीन थ्योरी’ के रूप में पेश किया, इसीलिए इस कण को हिंग्स और बोस दोनों के नामों को जोड़ कर हिंग्स बोसौन पार्टिकल’ नाम दिया गया.

हिंग्स बोसौन कण लगभग रोशनी की रफ्तार से दौड़ता है और उसे पकड़ पाना मुश्किल है. उसे नजर में लाने व उस का विश्लेषण करने के लिए इतनी शक्ति की जरूरत थी, जितनी अरबों वर्ष पहले ब्रह्मांड के जन्म के समय रही होगी, इसलिए दुनियाभर के कुछ गिनेचुने वैज्ञानिकों ने वर्ष 2008 में 10 अरब डौलर की लागत से 27 किलोमीटर लंबी गोलाकार सुरंग बनाई, जिसे एलएचसी यानी ‘लार्ज हैड्रौन कोलाइडर’ का नाम दिया गया.

वैज्ञानिकों का यह मानना था कि इस प्रयोग से ब्रह्मांड के रहस्यों से परदा उठेगा, लेकिन कुछ सिरफिरे लोग ऐसे भी थे जो यह मानते थे कि यह भगवान के काम में हस्तक्षेप करने जैसा है और इसलिए इस मशीन का बटन दबाते ही दुनिया खत्म हो जाएगी. लेकिन दुनिया खत्म नहीं हुई और यह प्रयोग अंधविश्वासी लोगों की तमाम आशंकाओं को गलत साबित कर पूरी तरह सफल रहा.
इस कौलाइडर में प्रोटोंस को रोशनी की रफ्तार से दौड़ा कर जब टकराया गया तो उस से जो ऊर्जा पैदा हुई उस से कई कण वजूद में आए. तभी यह भी पता लगाया गया कि इन कणों में से एक कण ‘गौड पार्टिकल’ था.
सर्न के डायरैक्टर रौल्फ डीहेयर के शब्दों में, ‘‘प्रकृति को समझने की दिशा में हम अपनी मंजिल तक पहुंच गए हैं. हिंग्स बोसौन पार्टिकल की खोज नई खोजों का रास्ता खोलेगी, जिन से ब्रह्मांड के दूसरे रहस्य भी खुलेंगे.’’

हिंग्स बोसौन सिद्धांत के जन्मदाता पीटर हिंग्स अब काफी वृद्ध हो चुके हैं. उन्होंने इस खोज पर अपनी खुशी का इजहार कुछ इस तरह किया, ‘‘मुझे अपने जीवनकाल में इस सदी की इतनी महत्त्वपूर्ण खोज की उम्मीद नहीं थी.’’ लिवरपूल विश्वविद्यालय के प्रोफैसर थेमिस बोकौक के अनुसार, ‘‘भौतिकशास्त्रियों के लिए यह खोज उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी कोलंबस द्वारा अमेरिका की खोज.’’

इस खोज से यह साफ हो जाता है कि दुनियाभर के वैज्ञानिक मानवजाति को सृष्टि के जन्म व विकास से जुड़े धार्मिक किस्सेकहानियों की अंधेरी बंद गलियों से निकाल कर एक ठोस तार्किक व वैज्ञानिक आधार प्रदान करने के लिए कटिबद्ध हैं. लेकिन इतिहास इस बात का गवाह है कि धर्मगुरुओं ने हमेशा ही वैज्ञानिक खोजों का विरोध किया है. यूरोप में तो धार्मिक पुनर्जागरण के प्रारंभिक दिनों में अपनेआप को भगवान का दूत कहने वाले पादरियों द्वारा कई वैज्ञानिकों को नरक का भागी करार दे दिया गया, यहां तक कि उन में से कई को तो जिंदा जला कर मार डालने का अमानवीय काम भी किया गया.

पादरी लोग वैज्ञानिकों को यह कह कर सजा देते रहे हैं कि बाइबिल जैसे धर्मगं्रथ स्वयं भगवान ने लिखे हैं और वे उन के खिलाफ कुछ नहीं कह सकते. यहां पर सवाल उठता है कि अगर बाइबिल भगवान ने लिखी है तो फिर उस में ऐसी बातें कहां से आ गईं जो बाद में वैज्ञानिक खोजों ने गलत साबित कर दीं. मानव जाति की उत्पत्ति संबंधी ‘आदम और हव्वा’ की कहानी जब डार्विन ने अपने विकास के सिद्धांत से गलत साबित कर दी तो उन के समकालीन धर्मगुरुओं ने उन के खिलाफ भी फतवे जारी किए थे. आज उन धर्मगुरुओं के शायद किसी को नाम तक याद नहीं होंगे, लेकिन डार्विन मानवीय प्रगति के इतिहास में हमेशा के लिए अमर हो गए.

हमारे यहां कहा जाता रहा है कि वेदों की रचना स्वयं भगवान ने की है, लेकिन चार्वाक ने हिंदू धर्मगुरुओं की परवा न करते हुए यह स्पष्ट किया कि वेदों की रचना भगवान द्वारा नहीं, बल्कि जीतेजागते हाड़मांस के इंसानों ने की थी. चार्वाक के विरोधियों के पास उन के कथन को गलत साबित करने का कोई ठोस तर्क नहीं था और शायद इसीलिए उन्होंने यह कह कर अपने मन की भड़ास निकाली कि भगवान का अनादर करने के अपराध में चार्वाक व उन के शिष्यों को अगले जन्म में सियार की योनि में जन्म लेना पड़ेगा.

तेरहवीं सदी के ब्रिटिश दार्शनिक व वैज्ञानिक रौजर बैकन को अपने वैज्ञानिक विचारों के लिए तथा मध्ययुगीन चर्च के अंधविश्वासों का विरोध करने के जुर्म में बारबार जेल जाना पड़ा.

बैकन के बाद 1327 में खगोलशास्त्री सेको द एस्कोली को धर्म के पैरोकारों ने इसलिए जिंदा जला डाला था कि उन का मानना था कि दुनिया गोल है और इसीलिए उस के दूसरी ओर भी लोगों के रहने की संभावना है. 1513 के आसपास कोपरनिकस ने मानवजाति की महानतम खोज की थी कि धरती सूरज की परिक्रमा करती है. इस के 300 साल बाद तक चर्च इस सत्य को झुठलाता रहा और इस बात को मानने वाले लोगों को सजा देता रहा.

धर्मधुरंधरों की इसी हैवानियत का सुबूत हैं दार्शनिक बू्रनो, जिन्हें 1600 में रोम में जिंदा जला कर मार डाला गया. बू्रनो के बाद गैलीलिओ को भी इसी सत्य का प्रतिपादन करने के अपराध में जेल में डाल दिया गया और उन्हें अनेक यातनाएं दी गईं. गैलीलिओ का अपराध भी यही था कि वे चर्च के अंधविश्वासों के खिलाफ थे.

इतिहास इस तरह की धार्मिक हैवानियत की सच्ची घटनाओं से भरा पड़ा है जब पोंगापंथी धर्मगुरुओं ने अपने धार्मिक अंधविश्वासों की रक्षा के लिए सचाई को ही सूली पर चढ़ा दिया. आज स्थिति यह है कि अपने धर्म को बचाने के लिए धर्मगुरुओं को आखिरकार विज्ञान के सामने घुटने टेकने पडे़ और यह कहने के लिए मजबूर होना पड़ा कि जीसस व बाइबिल की कहानियों को उन के शाब्दिक अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए.

धर्म के नाम पर ही दुनिया में बारबार युद्ध लड़े गए और लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया. हिटलर द्वारा यहूदियों का कत्लेआम व मुसलिम आतंकवाद इसी सिक्के का दूसरा घिनौना पहलू है. जिस धर्म के नाम पर व्यक्ति हैवान बन जाता है और बड़ी निर्दयता से दूसरों की जान ले लेने पर उतारू हो जाता है, उस से आदमी या समाज को भला क्या लाभ मिल सकता है?

समाजशास्त्रियों के दृष्टिकोण से अगर धर्म की व्याख्या करें तो बादलों के गरजने, बिजली के गिरने या फिर भूकंप आने जैसी प्राकृतिक आपदाओं से डर कर आदिम मनुष्य ने धर्म व भगवान का निर्माण किया और उस आदिम मानव के मन का डर व अज्ञान आज तक मनुष्य व समाज के मन पर हावी है.

परीक्षा में पेपर खराब हो जाने का डर हो या व्यापार में घाटे का या फिर परिवार के किसी सदस्य की गंभीर बीमारी का डर, कमजोर इंसान आज भी भगवान, मंदिर या फिर किसी धर्मगुरु की शरण में पहुंच जाता है और शायद इसलिए निर्मल बाबा जैसे ढोंगी धर्मगुरु लोगों को बेवकूफ बना कर उन से करोड़ों रुपए बटोरने में कामयाब हो जाते हैं.

कई बार आसानी से धन कमाने का लालच भी लोगों को इन धर्मगुरुओं की शरण में ले जाता है क्योंकि धर्मगुरु निरंतर प्रचार करते रहते हैं कि दुख दूर करने हैं तो धर्म की दुकान पर आओ. और पर्याय न होने के कारण वहां जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं होता. वहां एक बार लुट जाने पर बारबार जुआरी की तरह लुटने की आदत बन जाती है.

न्यूयौर्क से ले कर नई दिल्ली तक, धर्मगुरुओं के सैक्स स्कैंडलों से हर कोई वाकिफ है. किस प्रकार नित्यानंद जैसे हैवान अपनी जिस्मानी भूख मिटाने के लिए भोलीभाली लड़कियों को अपना शिकार बनाते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है. अपने पति से तलाक होने के बाद जब दक्षिण की मशहूर अभिनेत्री रंजीता जैसी कोई महिला मन की शांति के लिए किसी स्वामी की शरण में जाती है तो उसे शांति और गुरुमंत्र के नाम पर मिलता है एक और वहशी, जो उसे अशांति के गर्त में और गहरे धकेल देता है.

आज तमाम वैज्ञानिक खोजों के बावजूद इस तरह के स्वामियों का समाज में बोलबाला है. इन में से कई पर तो लाखों लोग आंख मूंद कर विश्वास करते हैं, जिन के पास बड़ेबड़े आश्रम हैं, बेशुमार दौलत है, जो बड़ीबड़ी कारों व हवाई जहाजों में घूमते हैं. इन धर्मगुरुओं के ऐशोआराम व ऐयाशी देख कर शायद पुराने राजामहाराजाओं को भी अपनेआप पर शर्म आने लगे. उन के ये ऐशोआराम व भोगविलास, सबकुछ उन के अनुयायियों के बड़ेबड़े दान के बल पर चलते हैं. कई धर्मगुरुओं की राज्य व केंद्र सरकार के मंत्रियों तक पहुंच है और वे अपने अनुयायियों के जरिए सरकार से काम निकलवाने के लिए दलालों का काम करते हैं. ये धर्मगुरु माया बटोरने के लिए किसी भी हद तक गिर सकते हैं. इस का जीताजागता उदाहरण है चित्रकूट वाले एक स्वामी जिस ने 1 हजार से भी ज्यादा सुंदरियां अपने जाल में फंसा रखी थीं, जिन्हें वह राजनीतिज्ञों व ऊंचे तबके के लोगों को सप्लाई करता था.

इंडियन रैशनलिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष सनल इदा मारुकु का कहना है, ‘‘मध्यवर्ग के अनेक भारतीय अब इन धर्मगुरुओं से नफरत करने लगे हैं. कई धर्मगुरु अब भगवा वस्त्र पहनने से घबराने लगे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि कहीं उन के भगवा वस्त्र देख कर लोग उन्हें पाखंडी समझ कर उन पर पत्थर न फेंकने लगें.’’ इदा मारुकु की संस्था की पूरे देश में 200 से भी अधिक शाखाएं हैं, जिन के माध्यम से वे इन धर्मगुरुओं के कुकर्मों का भंडाफोड़ करने का महत्त्वपूर्ण काम कर रहे हैं.

बहरहाल, किसी एक व्यक्ति या संस्था से समाज इस कोढ़ से मुक्ति नहीं पा सकता. इस के लिए जरूरी है कि केवल बड़ेबड़े शहरों में ही नहीं, बल्कि छोटेछोटे कसबों व गांवों में भी पाखंडी धर्मगुरुओं के खिलाफ जनचेतना पैदा की जाए, तभी समाज को इस अभिशाप से मुक्ति मिल सकेगी. इस के साथ ही सरकार को भी इन ढोंगियों को सजा दिलवाने के लिए कठोर कानून बनाने चाहिए और छल व कपट से एकत्र की गई उन की संपत्ति को जब्त करना चाहिए. धर्म के नाम पर पाखंडियों का काला कारोबार ज्यादा समय तक चलने नहीं दिया जाना चाहिए.

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