Download App

रेल का एसी डब्बा और नेता

‘‘अब इन नेताओं की बात न पूछिए साहब, बताते हुए जीभ गंधाती है. इन्हें अव्वल दरजे का चोर बेवजह नहीं कहा जाता,’’ जबलपुर-इंदौर ऐक्सप्रैस के सेकंड एसी कोच के एक अटैंडैंट ने बात करने पर बताया, ‘‘अभी हफ्ताभर पहले की बात है, मैं गाड़ी ले कर इंदौर जा रहा था. जबलपुर से भारतीय जनता पार्टी के एक नेताजी अपनी पत्नी के साथ सवार हुए. खूब मशहूर हैं वे और इस रूट की ट्रेनों में अकसर चलते हैं. हमेशा भोपाल के पहले हबीबगंज स्टेशन पर उतरते हैं. रोज की तरह मैं ने पैसेंजर्स को ओबैदुल्लागंज से ही भोपाल आने की खबर देते बैडरोल समेटने शुरू कर दिए. नेताजी के कूपे से एक चादर कम मिली तो मैं घबरा उठा क्योंकि कंबल, चादर, तकिया या नैपकिन गुम हो जाए तो उस का पैसा हमें भरना पड़ता है. ठेकेदार हम पर कोई रहम नहीं करता.’’

यह अटैंडैंट आगे बताता है, ‘‘आमतौर पर आजकल चादर वगैरह कम गुम होती हैं. बारीकी से इधरउधर देखने पर वह चादर मुझे नेताजी की पत्नी के थैले से झांकती मिली तो मैं भौचक रह गया कि इतने बड़े आदमी की पत्नी चादर चुरा रही है. इस पर भी चिंता यह कि अगर यह थैले में ही चली गई तो 400 रुपए का चूना मुझे लगेगा. लिहाजा, मैं टिकट चैकर  के पास गया और उन्हें सारी बात बताई.

‘‘पहले तो उन्होंने यकीन ही नहीं किया, उलटे मुझे डांटते हुए बोले, ‘मालूम है क्या कह रहा है, इतने बड़े नेता की पत्नी, मामूली चादर चुराएगी, कौन मानेगा? और चुरा भी ली है तो यकीन कौन करेगा.’

‘‘पर यकीन तो करना पड़ा. टिकट चैकर यों ही घूमते हुए गए और झोले से झांकती चादर देख तसल्ली कर ली तो उन के भी पसीने छूट गए कि अब वे क्या करें.  उन्होंने मुझ से कहा कि अब चुप रहने में ही भलाई है, चादर के पैसे तुम भुगत लेना. मेरे एतराज जताने और पैसों का रोना रोने पर वे पसीजे और नेताजी के पास जा कर उन से दुआसलाम कर इधरउधर की बातें करते रहे. मेरी तो जान सूख रही थी क्योंकि हबीबगंज स्टेशन आने वाला था.

‘‘मेरे इशारा करने पर वे हिम्मत जुटाते हुए बोले, ‘शायद जल्दबाजी में मैडम ने चादर भी रख ली है.’ नेताजी इस बात पर चौंके और उन की सुस्ती भाग गई.  उन्होंने टिकट चैकर  की निगाह का पीछा किया तो उन्हें माजरा समझ आ गया.  तुरंत उन्होंने थैले से चादर निकाल कर दे दी और अफसोस भी जताया कि वाकई जल्दबाजी में रखी गई होगी वरना इस मामूली चादर का हम क्या करेंगे. इस के बाद वे झेंप मिटाने के लिए अपने मंत्रित्वकाल के किस्से सुनाने लगे और मुझे 50 रुपए टिप के भी दिए. इस दौरान मैडम कुछ न बोलीं. चुपचाप, मोबाइल के बटनों से खेलती रहीं.

‘‘हबीबगंज आया तो वे उतर गए. हमेशा की तरह सुबहसुबह कोई 4-6 कार्यकर्ता उन्हें लेने के लिए आए थे. मैं ने चैन की सांस ली कि चलो, 400 रुपए बच गए वरना बात वही होती कि खायापिया कुछ नहीं, गिलास फूटा चार आने. बाद में टिकट चैकर साहब मजे लेले कर अपने साथियों को यह बात बताते रहे कि देखो, क्या जमाना आ गया है, नेताओं की बीवियां रेलवे की चादर भी नहीं छोड़तीं.’’

इन्हीं बातों में भोपाल स्टेशन पर इसी ट्रेन के एक और टिकट चैकर का जिक्र आया जिसे जबलपुर से भोपाल आते वक्त कुछ महीनों पहले भाजपा सरकार में मंत्री रहे जबलपुर के विधायक हरचरण सिंह बब्बू ने थप्पड़ मार दिया था. विवाद बर्थ का था या गलत टिकट पर यात्रा करने का या फिर टिकट चैकर द्वारा बदतमीजी किए जाने का, पर पता नहीं इस दिलचस्प मामले में खूब अखबारबाजी हुई थी और टिकट चैकर ने थाने में उस विधायक के खिलाफ मारपीट का मामला दर्ज कराया था जिस का  मुकदमा अभी भी चल रहा है. अब वे नेताजी इस मार्ग पर पूरी शराफत से चलते हैं.

जबलपुर या भोपाल ही नहीं बल्कि देशभर के टिकट चैकरों और अटैंडैंटों को मुफ्त पास पर यात्रा करने वाले नेताओं से शिकायतें ही शिकायतें हैं. उन के पास नेताओं से ताल्लुक रखने वाले एक से बढ़ कर एक दिलचस्प किस्से हैं.

पश्चिममध्य रेलवे के झांसी जंक्शन के एक सीनियर टिकट चैकर बताते हैं, ‘‘ये नेता हम रेलकर्मियों को इंसान नहीं गुलाम समझते हैं. ये चाहते हैं जैसे ही ये कोच में चढ़ें तो हम सिर झुकाए इन के सामने खड़े हो जाएं. ट्रेन में इन्हें चायनाश्ता, पानी और कोल्ड ड्रिंक वगैरह सर्व करें. चूंकि यह सब हमारी ड्यूटी में शामिल नहीं है और हमारा अपना स्वाभिमान भी आड़े आता है, इसलिए हम ऐसा नहीं करते तो ये तरहतरह से हमें तंग करते हैं. ये चाहते हैं कि इन का बैडरोल भी हम लगाएं और जूते भी बर्थ के नीचे संभाल कर रखें.’’

लंबी सांस और चेहरे पर आए वितृष्णा के भावों को बजाय छिपाने के उजागर करते रेलवे में 25 साल से नौकरी कर रहे इस टिकट चैकर का कहना है कि ये दिन नवाबी दौर से भी बुरे हैं.  यह सब न करो तो तरहतरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है. नेता तुरंत फोन घुमाता है और ऊपर से हमारे पास निर्देश आता है कि इन का खयाल रखा जाए.

इन टिकट चैकरों और अटैंडैंटों का रोना, गाना और शिकवेशिकायतें निराधार नहीं हैं. तमाम विधायकों, सांसदों, मंत्रियों का किराया नहीं लगता, इस से इन्हें ज्यादा सरोकार नहीं पर एक नेता जब ट्रेन में चलता है तो उस के साथ 4-6 छुटभैये भी रहते हैं. इन का ज्यादातार वक्त एसी फर्स्ट क्लास कोच में बड़े नेता के साथ रहता है. कुछ लोग शराब पीते हैं और धूम्रपान भी करते हैं. यह ठीक है कि आजकल वे ऐसा कोच के बाहर जा कर करते हैं पर इस से परेशानी आम मुसाफिरों को होती है जो भारीभरकम किराया दे कर एसी कोच में सफर कर रहे होते हैं.

मुगलसराय जंक्शन के एक टिकट चैकर का कहना है, ‘‘अब मैं बजाय सिरदर्दी लेने के नेताओं की जर्नी को ऐंजौय करने लगा हूं.’’

इस टिकट चैकर  के मुताबिक, हर नेता का सफर करने का अपना अलग स्टाइल होता है. मसलन, लालू यादव जब सफर करते हैं तो बर्थ पर इतमीनान से अधलेटे से रहते हैं. जर्दा या खैनी उन के मुंह में स्थायी रूप से भरी रहती है जिस की पीक वे बर्थ के नीचे थूकते रहते हैं और कोई एतराज नहीं जताता. उलटे कइयों को अफसोस रहता होगा कि वे पीक साफ नहीं कर पा रहे. लालू यादव ट्रेन में सोते कम हैं, बतियाते ज्यादा हैं और माहौल ऐसा हो जाता है कि आसपास के कूपे के मुसाफिरों का सोना मुश्किल हो जाता है. 

लालू का बैडरोल लगाने में उन के चेलेचपाटे फख्र महसूस करते हैं. कई दफा तो मैं ने इस बाबत होड़ लगी देखी है.

यही टिकट चैकर बताता है, ‘‘सब से ज्यादा परेशानी हमें उमा भारती सरीखी नेताओं के चलने पर होती है. अपने कूपे में ही उमा भारती पूजापाठ शुरू कर देती हैं, यह तो उन के साथ चला हर टिकट चैकर जानता है पर परेशानी तब होती है जब वे कूपे में ही हवन भी करने लगती हैं. ट्रेन में अगरबत्ती जलाना भी खतरनाक होता है पर उमा पर किसी का वश नहीं चलता.  वे तो हवनकुंड सुलगा लेती हैं.’’

इस टिकट चैकर ने आगे बताया कि उमा भारती के कूपे से धुआं उठा तो उस ने आपत्ति की और कूपे के बाहर खड़े उमा के गार्ड को कहा कि मैडम से मना करो कि उस से आग लगने का खतरा है. गार्ड की हिम्मत उमा भारती को टोकने की नहीं पड़ी तो बहादुरी दिखाते उसी टिकट चैकर ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि आप के कूपे से उठते धुएं से दूसरे पैसेंजर घबरा रहे हैं कि कोई हादसा न हो जाए. इस पर उमा बिगड़ उठीं और डपट कर उसे भगा दिया.

ग्वालियर के एक टिकट चैकर की मानें तो इस रूट पर सिंधिया घराने के सदस्यों का दबदबा किसी सबूत का मुहताज नहीं. जब सिंधिया परिवार के सदस्य, खासतौर से वसुंधरा राजे सिंधिया और यशोधरा राजे सिंधिया सफर करती हैं तो उन के साथ अपना बैडरोल होता है. रेलवे की चादरों को टौयलेट तक कालीन सरीखा बिछा दिया जाता है. हमें खास हिदायत रहती है कि मैडम के लिए टौयलेट भी रिजर्व रखा जाए यानी एक टौयलेट ऐसा हो जिसे गंतव्य तक दूसरे मुसाफिर इस्तेमाल न करें. हालांकि अब ऐसा कम हो रहा है. यह टिकट चैकर आगे बताता है कि माधवराव सिंधिया तब रेलमंत्री थे लेकिन ऐसा नहीं करते थे. वे बहुत मिलनसार थे और हर छोटेबडे़ मुलाजिम से आत्मीयता से बात करते व हालचाल जरूर पूछते थे.

रेल के एसी कोच में राजसी ठसक अभी भी बरकरार है. वसुंधरा या यशोधरा चलती हैं तो टिकट चैकर  और अटैंडैंट की मुसीबत हो आती है कि कोई ऐसा काम न हो जिस से मैडम का मूड खराब हो जाए. लिहाजा, दोनों रातभर सोते नहीं.  हर स्टेशन पर उन का सिक्योरिटी गार्ड या पी ए भी कुशलक्षेम जानने आता रहता है.

भोपाल के एक अटैंडैंट का कहना है, ‘‘जब कोई बड़ा नेता दिल्ली जाता या आता है तो हमारी हालत सूली पर चढ़े आदमी जैसी होती है. बड़े नेताओं को चायपानी तो हमारे अफसर पहुंचा देते हैं पर हमें निर्देश रहते हैं कि सोना मत और ऐसा कुछ मत होने देना जिस से कोई बखेड़ा खड़ा हो.’’

हबीबगंज के ही एक टिकट चैकर की मानें तो एसी कोच में बड़ेबड़े काम हो जाते हैं. कुछ नेता फाइलें निबटाते जाते हैं. ट्रांसफर, प्रमोशन और ठेका लेने वाले भी इन के साथ 1-2 स्टेशन तक आगेपीछे घूमते दिखते हैं. किसे मिलने देना है, किसे नहीं, यह नेता का पी ए तय करता है जो आमतौर पर नेता के सोने तक कूपे के अंदरबाहर होता रहता है. लगता ऐसा है कि यह एसी कोच नहीं नेता का दफ्तर है.

कई बार एसी कोच में सफर कर रहे आम लोग भी बड़े नेता से मिल लेते हैं.  नेता की मौजूदगी का एहसास स्टेशन से ही हो जाता है. फूलमालाएं, बुके उसे विदा करने वाले भी ले कर आते हैं और स्वागत करने वाले भी.

कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह एसी कोच में भी नेतागीरी करते नजर आते हैं. भोपाल के ही एक टिकट चैकर का कहना है कि वे सहयात्रियों से खूब बतियाते चलते हैं और पूरा परिचय लेते हैं. इस टिकट चैकर  के मुताबिक, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का भी कभी ऐसा ही हाल था. जब वे विदिशा से सांसद थे तब आमतौर पर मालवा ऐक्सप्रैस या शान ए भोपाल ऐक्सप्रैस से दिल्ली आतेजाते थे. सफर के दौरान उन के साथ के लोग स्लीपर में चले जाते थे और शिवराज सहयात्रियों से बतियाते जाते थे. पर जब से वे मुख्यमंत्री बने हैं, रेल में नहीं हवाई जहाज में सफर करते हैं.

एसी में नेताओं का मिजाज कूलकूल ही रहे, यह जरूरी नहीं. इलाहाबाद जंक्शन के एक टिकट चैकर की मानें तो यह इस बात पर निर्भर करता है कि सफर कर रहा नेता किस पार्टी का है. समाजवादी पार्टी के  नेता आमतौर पर अशिष्ट होते हैं और सहयात्रियों से भी अशिष्टताभरा बरताव करते हैं. इस टिकट चैकर की बात में दम है. वजह, 18 मार्च को एक पूर्व सपा सांसद चंद्रनाथ सिंह पर रेल में युवती को छेड़ने का इलजाम लगा था. प्रतापगढ़ से दिल्ली जा रहे चंद्रनाथ सिंह ने फर्स्ट क्लास एसी कोच में अपनी एक सहयात्री से दुर्व्यवहार किया था. तब वे नशे में थे और उन का टिकट कन्फर्म नहीं था.  मछलीशहर से सांसद रहे इस नेता को पार्टी ने इस दफा भी उम्मीदवार घोषित किया है, इसलिए बवाल मचने से पहले ही थाम लिया गया.  पीडि़ता ने 4 घंटे बाद ही अपनी लिखित शिकायत वापस ले ली थी और इन नेताजी को शाहजहांपुर स्टेशन पर ही उतार लिया गया था. सपा के अधिकांश नेता हथियार ले कर सफर करते हैं.

यह टिकट चैकर बताता है कि जब उत्तर प्रदेश में पहली बार बहुजन समाज पार्टी सत्ता में आई थी तो उस के सांसदविधायक शुरू में बड़े सलीके से सफर करते थे. कइयों ने तो एसी कोच ही पहली बार देखा था और कुछ इस बात पर हैरानी जताते थे कि ट्रेन में चादर, तकिया, कंबल मुफ्त में मिलते हैं. पर धीरेधीरे वे भी सपा के नेताओं की तरह व्यवहार करने लगे. जरा सी असुविधा होने पर गालीगलौज आम बात होने लगी. ऐसी बेहूदी हरकतें करने वाले नेताओं की तादाद हालांकि 30 फीसदी के लगभग है पर ये बाकी 70 फीसदी पर भारी पड़ते हैं. शुरू में अधिकांश बसपा नेता कपड़े का पुराना बैग ले कर चलते थे. देखते ही देखते उन के पास भी वीआईपी सफारी, पोलो और अमेरिकन टूरिस्टर्स जैसी ब्रैंडेड कंपनियों के बैग व सूटकेस नजर आने लगे.

इन अटैंडैंट और टिकट चैकरों के पास नेताओं से ताल्लुक रखते अनुभवों की भरमार है पर अधिकांश के अनुभव कड़वे और अप्रिय हैं. कम ही नेता हैं जो एसी में चलते हुए आचरण को संतुलित रखते हों.  नेताओं को डब्बे में चढ़ते ही नेतागीरी का नशा हो आता है और यह नशा है खुद को औरों से खास दिखाने व होने का. इसीलिए ये चाहते हैं कि उन का सामान भी अटैंडैंट या टिकट चैकर ही उठा कर बर्थ तक पहुंचाए. यह कुंठा नेताओं को विरासत में नहीं मिली है.  एक जमाने में जब कोई बड़ा नेता रेल में सफर करता था तो पूरे स्टाफ को गर्व होता था और वे अपनी हद के बाहर जा कर जिम्मेदारी निभाते भी थे.

पर यह माहौल 70 के दशक तक रहा जब रेलों में एसी कोच न के बराबर होते थे. फर्स्ट क्लास या आरक्षित श्रेणी में नेता बाकायदा टिकट ले कर यात्रा करते थे.  गांधीजी तो नेता ही अफ्रीका में ट्रेन में हुए अपमान से बने और देश में उन्होंने जिंदगीभर सादगी से यात्रा की.

पर आज के नेताओं की बात ही कुछ और है. छोटे नेता, जो अकसर विधायक स्तर के होते हैं, एसी कोच में शराब भी पीते हैं. विधायक हो या सांसद या फिर मंत्री, जब भी ये एसी कोच में सफर करते हैं तो  कई और लोग भी इन के साथ होते हैं और वे भी मुफ्त में सफर करते हैं. अब तो इन की तादाद भी बढ़ने लगी है.

दीवारों पर बेशर्मी के निशान, क्या यही है भारत महान

आप ने आतेजाते अकसर लोगों को रास्ते में, आम सड़क के किनारे खड़ी दीवारों या आसपास की झाडि़यों को गीला करते देखा होगा. रात में चलते वक्त ये नजारे देख आप की नजरें शर्मसार हो कर अपनेआप झुक जाती हैं. हैरानी की बात तो यह है कि जिन्हें शर्म आनी चाहिए वे बेशर्म बन कर दीवारों और पेड़पौधों को बिना हिचक के खुलेआम गीला करते हैं जबकि पब्लिक सिर और नजरें झुकाए शर्म के मारे झुक कर चलती है.

बात अगर पूरे भारत की की जाए तो खुलेआम ऐसी हरकत करने वाले पुरुष ही हैं जो इस तरह बेशर्म हो कर आसपास गंदगी फैला रहे हैं और वातावरण को भी गंदा कर रहे हैं. राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की ही बात करें तो यह नजारा आप को लगभग शहर के हर मैट्रो पिलर या फ्लाईओवर के नीचे गंदगी और बदबू के साथ देखने को मिल जाएगा.

हद हो गई

राह में चलते वक्त तेजी से मस्ती में आप अपने कदम आगे बढ़ाते हैं. सिर घुमाते ही दाहिनी तरफ देखते हैं एक व्यक्ति को जो लगा है झाडि़यों को हराभरा करने में, यह देख आप की नजर अचानक से ठिठक जाती है और आप नाक की सीध में तेज कदमों के साथ चलने लगते हैं. यह क्षणभर की शर्मिंदगी उस व्यक्ति को नहीं होती जो अपनी हरकत से दूसरों को असहज महसूस करा रहा है, उलटे राहगीर शर्मसार हो कर गरदन झुकाए रास्ता पार करता है. साथसाथ गंदगी, मक्खियां और बदबू का सम्मिश्रण भी राहगीरों को परेशान करता है. यह हालत दिल्ली की ही नहीं बल्कि देश के लगभग हर छोटेबड़े शहर की है.

सुलभ शौचालयों का अभाव

राह में या वाहनों में चलते वक्त कूड़ाकरकट रास्ते में फैलाना, थूकखंखार फेंकना, कहीं भी खड़े हो कर पेशाब करना, दीवारों को गंदा कर आपत्तिजनक शब्दों को लिखना, पेड़पौधों के आसपास और नुक्कड़ों में अपने घरों का कूड़ा लालपीली पन्नियों में बांध कर छोड़ जाना आदि. क्या यही सब हमारे देश की सफाई और स्वच्छता है? क्या यही है हमारा सहयोग और योगदान हमारे अपने देश के प्रति?

देश में ऐसी कई जगहें हैं जहां सुलभ शौचालय नहीं हैं पर जहां हैं वहां तो उन का उपयोग होना चाहिए. आसपास के लोगों व राहगीरों के अनुसार सुलभ शौचालय तो हैं पर सफाई नहीं. लोग शौचालयों का इस्तेमाल तो करते हैं पर बराबर सफाई न होने की वजह से दोबारा इस्तेमाल नहीं कर पाते. कई सुलभ शौचालयों में जबरन 2 से 5 रुपए ले कर शौचालय इस्तेमाल करने दिया जाता है. लोग पैसा देने से कतराते हैं और आसपास झाड़ या पेड़ के नीचे ही शुरू हो जाते हैं. कई शौचालयों के बोर्ड पर निशुल्क लिखे होने के बावजूद पैसा वसूला जाता है.

समझें अपनी जिम्मेदारी

हर व्यक्ति साफसफाई चाहता है. जरा सी बदबू में नाक और भौंहों को सिकोड़ लेता है. दरअसल, हम सफाई तो चाहते हैं पर सफाई करना नहीं चाहते. रोज आसपास की जगहों को साफ देखना चाहते हैं पर खुद गंदगी फैलाते हैं. हम ऐसी गंदगी अपने घरों में क्यों नहीं फैलाते? हम हमेशा अपने ही घर को साफ रखने की जद्दोजहद क्यों करते हैं? जो जिम्मेदारी हमारी अपने घर की तरफ है, क्या नहीं लगता कि ऐसी ही एक जिम्मेदारी हमारी अपने देश के प्रति भी होनी चाहिए. ज्यादा नहीं तो केवल अपने आसपास की सफाई करने की ही सही. क्या हम इतना भी नहीं कर सकते, अपने देश के लिए, अपने शहर के लिए ताकि हमें खुद शर्मिंदगी न उठानी पड़े.

मैला उठाने की प्रथा बरकरार

यह दुखद बात है कि आज के दौर में भी हमारे देश में सिर पर मैला ढोने की प्रथा बदस्तूर जारी है. देश के कई शहरों में नगरनिगमों को अंगूठा दिखा कर नालियों में मैला बहाया जाता है. क्या यह अच्छी बात है? कतई नहीं. यह जुर्म है. ऐसा करने वाले पर कानूनी कार्यवाही हो सकती है. पिछले दिनों टैलीविजन कार्यक्रम ‘सत्यमेव जयते’ के जरिए आमिर खान ने देश का ध्यान इस समस्या की ओर खींचा था. यह प्रयास सराहनीय रहा. पर दुखद यह है कि देश में अभी भी 3 लाख से अधिक लोग सिर पर मैला उठा रहे हैं.

बिगड़ रही है भारत की छवि

पर्यटन विभाग द्वारा प्रसारित ‘अतिथि देवो भव:’ के विज्ञापन शृंखला के एक विज्ञापन में एक अभिजात्य वर्ग की महिला, पुल के किनारे पर अपनी महंगी गाड़ी से उतरती है. अपने छोटे बच्चे को पुल के किनारे पेशाब करवाते हुए दिखाई देती है. दूर से यह दृश्य एक विदेशी पर्यटक बड़े ही आश्चर्य से देख रहा होता है,

इस के बाद आमिर खान अपना संदेश देशवासियों को देते हैं और कहते हैं कि हमारी इन्हीं हरकतों से देश की छवि बिगड़ रही है…जानेअनजाने में हम देश की यह कैसी तसवीर पेश कर रहे हैं? दिल्ली मैट्रो सिटी नाम से जानी जाती है. भारत के 4 महानगरों में से एक महानगर दिल्ली है, जिस की खूबसूरती को निहारने दूरदराज के देशों से भी पर्यटक आते हैं. हर रोज हजारों की संख्या में पर्यटक दिल्लीमुंबई जैसे शहरों में घूमने के लिए पहुंचते हैं. ऐसे में वहां की खूबसूरती के साथसाथ उक्त शहर की बदसूरती भी उन से नहीं छिपती. कभी सोचा है कि हम इन लोगों के सामने अपनी और देश की, अपने शहर की, अपने जनजीवन की क्या छवि बना रहे हैं?

बहरहाल, इन बातों पर गौर करना बेहद जरूरी है. देश के नागरिकों को जागरूक होना पड़ेगा. वे जागरूक होंगे तभी एक स्वच्छ और सुंदर परिवेश का निर्माण हो सकेगा.

पेड़ और तुम

धरती की देह पर उगे पेड़
जो सदा मौन हैं
हर पेड़ में नजर आया मुझे तुम्हारा चेहरा
इन पेड़ों की छाया तले
बुजुर्गों के लगे ठहाके
मनचलों की ताश की बिसातें बिछीं
बालकों को शाखों पे चढ़ते देखा
किशोरियों ने झूला डाला
प्रेमी जोड़ों ने खाल को छील, दिल बनाए

किंतु इन पेड़ों के चेहरों पर
कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखी
ठीक तुम्हारी तरह
और अब जैसे आदी हो गई हूं
इस मौन की, पेड़ों की भी और तुम्हारी भी

इन पेड़ों ने और तुम ने झेले हैं
न जाने कितने जलते और सुलगते मौसम
दर्द की बारिश में भारी बौछारों में
भीगते हो तुम भी
दुख की धूप में झुलस
सच पूछो मुझे यह मौन जरा नहीं भाता
न पेड़ों का न तुम्हारा

काश ये पेड़
कटिहारों के हर आघात का जवाब
चीख कर दे सकें
और तुम प्रेम के हर आभास का उपहार
छीन कर ले सको
अस्वीकृति में सिर हिलाओ और
स्वीकृति में बांहें फैलाओ
सदैव मौन होना तो पत्थर होना है
और पत्थर की मूरत कुछ नहीं पाती
केवल देखी जाती है
लोग आते हैं और निर्लज्जता से आंखें मूंद
खड़े हो जाते हैं.

गुडि़या रेप केस- शर्मसार होती इंसानियत

दिल्ली के 16 दिसंबर के दामिनी गैंगरेप कांड की खौफनाक यादें अभी जेहन से निकली भी न थीं कि राजधानी सहित देश के कई हिस्सों में मासूम बच्चियों के साथ हैवानियत और दरिंदगी की वारदातों ने लोगों को झकझोर कर रख दिया है. यह सिलसिला न जाने और कितनी मासूमों को अपना शिकार बनाएगा, इस का जवाब किसी के पास नहीं है. पढि़ए राजेश कुमार की रिपोर्ट.

 
आप ने गिद्ध को लाश का मांस नोचते देखा होगा, बोटियां खाते देखा होगा. कभीकभी अधमरे जीव के इर्दगिर्द ललचाई नीयत से मंडराते भी देखा होगा. पर क्या कभी किसी गिद्ध को हड्डियां नोचते देखा है? जवाब है नहीं. मांस नोचने वाले गिद्ध में भी शायद कोई भाव होगा जो उसे दरिंदगी की सीमा से परे जा कर हड्डियों को नोचना निहायत ही घिनौना महसूस कराता होगा. लेकिन इंसान आज ऐसा गिद्ध बन चुका है जो हैवानियत की सारी हदें पार कर बोटियों के साथ हड्डियां भी नहीं छोड़ता.

दिल्ली के गांधीनगर इलाके में 5 साल की मासूम गुडि़या को जिन हैवानों ने अपनी कामवासना की गिद्धभावना के तहत नोचाखसोटा होगा, उन्हें भी तो उस मासूम बदन से मांस की जगह सिर्फ हड्डियां ही मिली होंगी.

दरअसल, 17 अप्रैल को दिल्ली के गांधीनगर इलाके के एक बेसमैंट में 5 साल की मासूम बच्ची गंभीर रूप से जख्मी हालत में मिली. मैडिकल रिपोर्ट में मासूम के साथ दुष्कर्म और शारीरिक यातनाओं का खुलासा हुआ. हैवानियत भरे इस कुकृत्य को जिस ने सुना, आक्रोशित हो सड़कों पर उतर पड़ा.

10 जनपथ, एम्स, पुलिस हैडक्वार्टर हर जगह गुस्साई भीड़ उन दरिंदों को फांसी देने की मांग करने लगी. 20 अप्रैल को सुबह के 10 बजे जब हम अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान पहुंचे तो मैन गेट पर टीवी चैनलों के

30-40 ओबी वैन और बैरिकेडों की परिधि में माइक और कैमरों से लैस मीडियाकर्मी जमा थे. गेट के दूसरी ओर प्रदर्शनकारी व गेट के बीचोंबीच मीडिया और गुस्साई भीड़ को संतुलित करती दिल्ली पुलिस मूक भूमिका में दिखी.

एम्स परिसर के हर गेट पर पुलिस का कब्जा था. मुख्य गेट के संकरे किनारे से मैं गेट से अंदर दाखिल हुआ. इस बात से बेखबर कि प्रैस का अस्पताल में दाखिल होना सख्त वर्जित है. चूंकि हाथ में किसी तरह का माइक और गले में कोई प्रैस का पट्टा न था, शायद इसलिए मु?ो किसी ने रोकने की जहमत नहीं उठाई.

अंदर पहुंचते ही जनरल वार्ड का रुख किया. एक सुरक्षाकर्मी से गुडि़या के बारे में पूछा तो जवाब में खामोशी मिली. शायद उसे निर्देश मिले थे. दूर किनारे बैठे दार्जिलिंग निवासी सुरक्षाकर्मी संतोष ने जरूर दबी जबान में बताया कि गुडि़या को एबी 5 की 5वीं मंजिल पर आईसीयू में भरती किया गया है. एक दिन पहले यानी 19 अप्रैल की शाम को ही उसे यहां लाया गया था. उस दिन वह जिंदगी और मौत के बीच जू?ा रही थी. मैडिकल बुलेटिन भी अभी तक जारी नहीं हुआ था. लिहाजा, पूरा देश उस की सलामती को ले कर चिंतित था.

अस्पताल के माहौल में अजीब सा सन्नाटा पसरा था. आम दिनों से खचाखच भरा रहने वाला एम्स आज ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वहां कर्फ्यू लगा हो. लिफ्ट से 5वीं मंजिल पर पहुंचा, जहां गुडि़या का इलाज चल रहा था. लंबी गैलरी पुलिस छावनी में तबदील थी. मुख्य दरवाजे पर भारीभरकम ताले लगे थे. एकबारगी लगा मानो तिहाड़ जेल आ गया हूं. हाथ में वौकीटौकी लिए चहलकदमी करती पुलिस इतनी चुस्तदुरुस्त पहली बार देखी थी. काश, यही चुस्ती अगर पुलिस पहले दिखाती तो शायद ये दिन ही नहीं देखने पड़ते.

खैर, दरवाजे तक पहुंचा ही था कि अफरातफरी सी मच गई. सुरक्षाकर्मी व कुछ पुलिसकर्मी मेरी ओर दौड़े. कौन है? कहां से आ गया? किस की ड्यूटी है गेट पर? किस ने अंदर आने दिया इसे? जैसे तमाम सवाल एक के बाद मेरी तरफ उछले. मैं सकपका सा गया. जवाब देते बन नहीं रहा था. बस, इतना ही बोल पाया कि मीडिया से हूं. फिर क्या था. पुलिस वाले तिलमिला उठे और उन में से एक इधरउधर देखते हुए बोला, ‘‘अरे, किस ने घुसने दिया इसे, बाहर निकालो.’’ उस की आवाज में तल्खी थी.

आलम यह था कि आगे कुछ भी पूछता तो पुलिसकर्मी का मु?ा पर हाथ उठ जाता. सोचा कि इस का क्या दोष. यह तो अपनी ड्यूटी कर रहा है. ऊंचे ओहदों पर बैठे अधिकारियों और सियासतदां के तानाशाही फैसलों का पालन करना ही तो इन की ड्यूटी है.

वापस निकलना ही मुनासिब लगा. गेट पर आ कर मीडिया सैल पहुंचा जहां अभीअभी मीडिया बुलेटिन के परचे बांटे जा रहे थे. परचा पढ़ कर मालूम हुआ कि गुडि़या खतरे से बाहर है. लेकिन इस खबर से वहां मौजूद गुस्साए लोगों को कोई खास राहत मिलती नहीं दिखी. वे अभी भी गुस्से में उतना ही उबल रहे थे जितना पहले. जनसैलाब नारों व तख्तियों पर लिखी इबारतों के जरिए बलात्कारियों को फांसी देने की मांग कर रहा था. यह गर्जना, तख्तियां और नारों का कोलाहल 16 दिसंबर के दामिनी वाली घटना की याद दिला रहा था.

उसी भीड़ में माथे पर 16 दिसंबर की काली पट्टी बांधे एक महिला नारेबाजी करती दिखी. पास जा कर पूछा कि वे यहां कब से हैं? जवाब मिला 116वां दिन है. जवाब चौंकाने वाला था. पर उन्होंने बताया कि 16 दिसंबर को दामिनी के साथ हुए गैंगरेप के बाद से ही वे

16 दिसंबर क्रांति के बैनर तले प्रदर्शन कर रही हैं. उन्होंने बताया कि हम तो दामिनी को इंसाफ दिलाने के लिए लड़ रहे थे, उस बेचारी का इंसाफ अभी ढंग से पूरा हो भी नहीं पाया था कि एक और नन्ही दामिनी के लिए लड़ना पड़ रहा है. इस से ज्यादा बुरी व दर्दनाक बात और क्या हो सकती है.

दिल्ली की इस महिला का नाम सरिता गुप्ता है. सरिता की तरह सुल्तानपुरी से आई राखी कहती हैं कि अगर यही हादसा प्रधानमंत्री की बेटी के साथ होता तो अपराधी को सजा मिल गई होती. गुडि़या तो मजदूर की बेटी है.

वहीं, नरेला के दीप भारद्वाज ‘दिल्ली पुलिस चोर है, कामचोर है और दलाल है’ के नारे लगा रहे थे और पुलिस सिर नीचे किए चुपचाप सुनने को विवश थी. तपती गरमी में लोगों में यह गुस्सा इसलिए था कि दरिंदों ने मासूम बच्ची को भी नहीं छोड़ा.

मामला यों था. दिल्ली के गांधी नगर इलाके की गली संख्या 14 में स्थित मकान संख्या 7619 में रहने वाली गुडि़या 15 अप्रैल को शाम 4 बजे अपनी मां को खेलने जाने की बात कह कर घर से निकली. जब रात 8 बजे तक वह वापस नहीं आई तो उस की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराने उस के पिता थाने पहुंचे, लेकिन बमुश्किल रात 1 बजे तक एसएचओ के आने पर ही रिपोर्ट दर्ज हो सकी. 

अगले दिन यानी 16 अप्रैल को सुबह 8 बजे से शाम 8 बजे तक पिता को थाने में यों ही बिठाए रखा गया. 17 अप्रैल को सुबह 11 बजे उसी मकान के बेसमैंट से किसी ने बंद कमरे से बच्ची के रोने की आवाज सुनी. यह आवाज गुडि़या की थी. सूचना मिलने पर पुलिस ने कमरे का ताला तोड़ कर बच्ची को निकाला.

गंभीर हालत में मिली बच्ची को दिल्ली के स्वामी दयानंद अस्पताल में दाखिल कराया गया जहां मैडिकल परीक्षण से दुष्कर्म का खुलासा हुआ. रात 9 बजे औपरेशन कर बच्ची के अंग से प्लास्टिक की शीशी व मोमबत्ती निकाली गई.19 अप्रैल सुबह 10.30 बजे अस्पताल परिसर में प्रदर्शन शुरू हुआ. बच्ची की गंभीर हालत को देखते हुए शाम 5.40 बजे उसे एम्स ट्रांसफर किया गया.

गुडि़या के साथ हुई इस दर्दनाक घटना को दबाने के लिए पुलिस ने कथित तौर पर बतौर रिश्वत 2 हजार रुपए गुडि़या के परिवार को देने की पेशकश की ताकि बात वहीं की वहीं दब जाए. दूसरी ओर पुलिस अधिकारी एसीपी बी एस अहलावत ने विरोध कर रही एक लड़की को सार्वजनिक रूप से थप्पड़ जड़ने में भी हिचक नहीं दिखाई. जब मीडिया में यह बात आ गई तो एसीपी अहलावत को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया गया. हालांकि दबाव बढ़ते ही पुलिस ने इस कुकृत्य के मुख्य आरोपी मनोज साह और प्रदीप को बिहार से गिरफ्तार कर लिया.

सवाल उठता है कि एम्स को छावनी बनाने वाली दिल्ली पुलिस आखिर उस वक्त कहां गायब हो जाती है जब ऐसी घटनाएं होती हैं? पुलिस जितनी मुस्तैदी वारदात के बाद बेकाबू भीड़ को संभालने में दिखाती है उस की आधी मुस्तैदी ही आम दिनों में अपनी ड्यूटी में दिखाए तो ऐसे हादसे ही न हों.

लेकिन सवाल यह भी है कि क्या सारा दोष पुलिस का है? पुलिस के लिए यह संभव नहीं है कि हर जगह वह मौजूद रहे. इसलिए स्वयं को सचेत रहने की जरूरत है. समाज को इस के लिए सोचना होगा. केवल नारेबाजी या सड़कों पर तोड़फोड़ करने से इस तरह की वारदातों पर लगाम नहीं लगाई जा सकती. यही समाज कल को गुडि़या पर लांछन लगाएगा.

भविष्य में सामान्य जिंदगी जीना उस के लिए कतई आसान नहीं होगा. कई कठिन सर्जरी से गुजर चुकी गुडि़या को शारीरिक तौर पर कई मुश्किलों का सामना तो करना ही पड़ेगा साथ ही उसे मानसिक तौर पर भी कई मुश्किलें परेशान करेंगी. जब वह बड़ी होगी तो समाज से तिरस्कार और उलाहने भी उसे सामान्य जिंदगी से दूर कर सकते हैं. इस बात का अंदाजा शायद गुडि़या के पिता को भी है. इसीलिए वे कह रहे हैं कि उन की बेटी के ठीक हो जाने के बाद क्या समाज सामान्य व्यवहार करेगा?

ऐसा नहीं है कि गुडि़या के साथ हुई हैवानियत अब थम गई है. जिस दिन गुडि़या को एम्स में लाया गया उसी दिन यानी 19 अप्रैल को मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में 8 साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म हुआ. कई दिनों तक वह मौत से जूझती रही पर आखिरकार उस ने दम तोड़ दिया. फिर 24 अप्रैल को मसूरी की कृष्णा कालोनी में एक अधेड़ व्यक्ति ने 8 साल की बच्ची से रेप की कोशिश की. इस के बाद पलवल, हथीन के गांव गुराकसर में 3 युवकों ने 15 वर्षीय किशोरी को अगवा कर गैंगरेप किया और गुड़गांव में भी पुलिस ने सौतेले बाप को उस की 2 बेटियों से रेप के आरोप में गिरफ्तार किया है.

पूर्व पुलिस अधिकारी किरण बेदी कहती हैं कि पुलिस सिस्टम को, समाज को, पुलिस के प्लान को दोबारा सजीव करने की जरूरत है. सिटिजन वार्डन, सिविल डिफैंस और सिविल पैट्रोलिंग को वापस लाना होगा. पुलिस समाज में ह्वील्स पर हो रहे अपराधों को रैंडम्ली चैक करे. हो सकता है कि यह उपाय कारगर हो पर पूरी तरह से इस सिस्टम को लागू करने में कितनी सफलता मिलेगी, इस की गारंटी किसी के भी पास नहीं है.

सब जानते हैं कि कानून व्यवस्था के नाम पर सरकार सिर्फ दिखावा करती है. सांप के गुजरने के बाद लाठी पीटी जाती है. लेकिन व्यवस्था को बदलने के लिए आंदोलन का गुस्सा तभी उबाल लेता है जब इस तरह की कोई ताजा वारदात होती है. जैसेजैसे मामला मीडिया की सुर्खियों और नेताओं की बयानबाजियों से ठंडा पड़ने लगता है वैसेवैसे ही हमारे गुस्से का उबाल भी ठंडा पड़ने लगता है. यह कारगर उपाय नहीं है.

दरअसल, रोष, आक्रोश, गुस्सा, नाराजगी सब अपनी जगह है और यह दिखना भी चाहिए लेकिन सर्वविदित है कि बलात्कारी जनपथ, पुलिस हैडक्वार्टर या फिर जंतरमंतर पर नहीं रहते. ये तो हमारे पड़ोस और गलीमहल्ले में हैं. अगर वहां इन्हें पहचान सकें तो बात बने. शुरुआत खुद से कीजिए. अपने बिजी शैड्यूल से इतर कम से कम अपने इलाके की जानकारी तो रखिए. अपने घर के दरवाजे या खिड़कियां बंद करने से कुछ नहीं होगा. बेहतर है कोई स्थायी समाधान निकाला जाए. वरना कौन सा आयोग, कौन सा कमीशन, कौन सी रिपोर्ट, कौन सा कानून और कौन सी सजा इन पर लगाम लगा सकी है?

ये घिनौनी वारदातें इस बात की तसदीक करती हैं कि मासूमों के साथ दरिंदगी यों ही होती रहेगी. हजारों में इक्कादुक्का मामले जो मीडिया के चलते देश भर के सामने उजागर हो जाते हैं, उन के आरोपियों को सजा देने भर से इस तरह के अपराध थम जाएंगे, लगता तो नहीं है. फिर क्या हो? इस मसले पर सब के अपनेअपने विचार हैं. कोई सरकार को कुसूरवार मानता है, कोई पुलिस सिस्टम और अशिक्षा को. लेकिन खुद को कोई जवाबदेह नहीं मानता.    

ऐसे हादसों के बाद जनाक्रोश सड़कों पर दिखाई तो देता है पर उसे ठंडा पड़ते देर नहीं लगती, जैसे कि दामिनी व गुडि़या मामलों में देखा गया.

 

कानून के हाथ

इंटरनैशनल क्रिमिनल कोर्ट यानी अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय अब सही शक्ल लेने लगा है और नरेंद्र मोदी जैसे शासकों की नींद हराम कर सकता है जो आज भी अपने गुनाहों के लिए अफसोस जाहिर करना तो दूर, उन के सहारे अपना नया रास्ता खोज रहे हैं. अंतर्राष्ट्रीय अदालत के पास अब तक कम मामले आए हैं पर युगांडा में जोसेफ कोनी के खिलाफ वारंट जारी होने के बाद उस का बुरी तरह कमजोर हो जाना और कांगो के पहले शासक थौमस लुबांगा को 14 साल की सजा मिलने जैसे फैसलों से दहशत फैल गई है.

आज एक ऐसे शासक का बहुमत के सहारे भी राज करना खतरे से खाली नहीं अगर वह नरसंहार के लिए कभी जिम्मेदार रहा है. अब सरकारें अपनी जनता के खिलाफ सेना का इस्तेमाल नहीं कर सकतीं. श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे पर भारी दबाव पड़ रहा है कि देश के विभाजन की गलत मांग को कुचलने के दौरान की गई निहत्थे निर्दोषों की हत्याओं के लिए उन को सजा क्यों न मिले?

जेनेवा स्थित यह अदालत असल में उन शासकों या अपनी निजी सेनाएं बना कर उन विद्रोहियों के लिए खतरा बन गई जो अपने ही लोगों को मारने को अपना हक समझते हैं. दूसरे देश की सेना आक्रमण करे और बचाव में हत्या हो तो यह रक्षा है पर अपने लोगों के विद्रोह को कुचलना अब अंतर्राष्ट्रीय मसला बन गया है जो वर्षों की सजा दिला सकता है. यूगोस्लाविया के टुकड़े होने के बाद वहां धर्म के आधार पर हुए दंगों और बाकायदा हत्याओं का खमियाजा उस में से बने कई देशों के शासक भुगत रहे हैं.

यह खुशी की बात है कि अब जनता के प्रति अपराध एक हद तक ही किए जा सकते हैं. सदियों से राजा जमीन, पैसे या धर्म के कारण लाखों की जान ले कर भी तालियां पिटवाते रहे हैं. हर देश की फौज का बड़ा काम अपने आदमियों को मारना रहा है. देश के मध्यवर्ती इलाकों में पनप रहे माओवादी चाहे कितने ही गलत क्यों न हों, उन के साथ जो हिंसा बरती जा रही है वह अपराध है, चाहे खाकी वर्दी वाले कर रहे हों. देश की रक्षा या सुरक्षा के नाम पर निर्दोषों की हत्या का हक अब इस इंटरनैशनल क्रिमिनल कोर्ट के कारण किसी शासक के पास नहीं रह गया.

1984 व 2002 के दंगों के मामले फिर खुल जाएं तो आश्चर्य नहीं. ये वे घाव हैं जो समय के चलते भी नहीं भरते. न्याय की पट्टी ही उन्हें ठीक कर सकती है. हां, लकीरें फिर भी रह जाती हैं, चोट पर भी, दिलों पर भी. 

मोदी पर भ्रम

एक तरफ जनता दल (यूनाइटेड) के बहुत महत्त्वपूर्ण नेता व बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी के ही लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज व शत्रुघ्न सिन्हा जैसों ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग की तरफ से प्रधानमंत्री पद के भावी उम्मीदवार के नाम पर सवाल खड़े कर के नरेंद्र मोदी के फूलते गुब्बारे को फुस्स नहीं किया तो उस की गैस भरी जाने को कम जरूर कर दिया. नेताओं के सूखे से त्रस्त भाजपा ने नरेंद्र मोदी को पिछले गुजरात विधानसभा चुनाव में जीत के बाद हाथोंहाथ ले लिया था, बिना सोचेसमझे कि यह चमकती रोशनी लाख वाट का बल्ब है या कहर ढाती बिजली की कड़क.

गुजरात की सफलता पर कम, गुजरात के मुसलमानों को सबक सिखाने की क्षमता पर टिकी नरेंद्र मोदी की ख्याति से कट्टर हिंदू बेहद खुश हैं. उन्हें लगता है कि द्वारका का चक्र घुमाता कृष्ण आखिर इंद्रप्रस्थ पर विजय के लिए आ ही गया है और उसे केवल सारथी नहीं, पांचों पांडवों की जगह भी एकसाथ मिलने से कोई रोक नहीं सकता.

ये कट्टर हिंदू भूल रहे हैं कि महाभारत का युद्ध जनता के भले के लिए नहीं, पांडवों की उस सिंहासन की जिद के कारण लड़ा गया था जिस पर उन का कोई हक नहीं था. वे यह भी भूल रहे हैं कि कृष्ण ने उन पांडवों का साथ दिया था जो अपने पिता की संतानें न थीं. वे यह भी भूल रहे हैं कि कृष्ण ने पांडवों का साथ इसलिए दिया था क्योंकि वे किसी भी कीमत पर युद्ध कराना चाहते थे ताकि इंद्रप्रस्थ या हस्तिनापुर का राज नष्ट हो जाए.

नरेंद्र मोदी उन्हीं कृष्ण के पदचिह्नों पर चल रहे हैं. ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ का राग अलाप कर वे यह कहते फिर रहे हैं कि उन्होंने सोमालिया जैसे गुजरात को10 साल में बदल दिया. उन के आने से पहले गुजरात पिछड़ा, गरीब, सूखे, बाढ़, गुंडागर्दी, भ्रष्टाचार, रोजमर्रा बदलती सरकारों, कंगाल अपराधियों का गढ़, औरतों के लिए असुरक्षित, बेकारों से भरा, उद्योगव्यापार विहीन जंगल था जिसे उन के 10 सालों ने अग्रणी बना दिया, सुधार दिया.

एक झूठ को सौ बार कहा जाए तो सच हो जाता है, यह हिटलरी वाक्य नरेंद्र मोदी ने पूरी तरह अपना लिया है. हिटलर के पास जैसे जरमनी के दुखों का दोष मढ़ने के लिए यहूदी थे, वैसे ही नरेंद्र मोदी के पास मुसलमान और दलित हैं और इन दोनों से नफरत करने वाले कट्टर हिंदू (जो उन की कमाई पर ऐश करने में कभी हिचकते नहीं हैं) नरेंद्र मोदी की वाहवाही में लगे हैं.

नीतीश कुमार ने तो सिर्फ यह कहा है कि उन्हें विघटनकारी नेता नहीं चाहिए. उन्होंने अभी तक नरेंद्र मोदी का नाम ले कर विरोध नहीं किया पर वे नरेंद्र मोदी के पापों का बोझ अपने सिर पर नहीं लेना चाहते.

बात अगला प्रधानमंत्री कौन बनेगा की नहीं, बल्कि यह है कि क्या देश विभाजनकारी, दंभी, सचझूठ में भेद न करने वाले को केंद्र की सत्ता सौंप कर चैन से बैठ सकता है?

 

लालच का फेर

कोलकाता की शारदा चिटफंड कंपनी के सुदीप्तो सेन ने लोगों के हजार करोड़ रुपए गटक डाले हैं या 20 हजार करोड़ रुपए, यह कभी पता न चलेगा. चिटफंड जैसी कंपनी में एजेंटों के जरिए आम लोगों को मोटे ब्याज का झांसा दे कर उन से छोटीछोटी रकमों के सहारे हजारों करोड़ रुपए जमा करा लेना कितना आसान है, यह सुदीप्तो सेन ने दिखा दिया है. इस देश के गरीब यों ही गरीब नहीं हैं. वे मेहनत कर के पैसा कमाते हैं, मेहनत कर के गंवाते हैं और गरीब के गरीब बने रहते हैं.

मोटे मुनाफे की कल्पना करना ही मूर्खता है पर जिस देश में लोग पहले दिन से चमत्कारों के लालच में पूजापाठ, गंडे, तावीजों, व्रत, उपवासों और मंदिरों व मसजिदों में जाने को कमाई का पहला साधन समझते हैं, वहां लोगों को बेवकूफ बनाना कोई मुश्किल नहीं है. पैसा मेहनत से बनता है, सही बचत से पूंजी बनती है जिस से ज्यादा कमाई हो सकती है. यह गुर सिखाया नहीं जाता, अपनेआप आता है. कितने ही जीव सर्दियों के लिए अनाज समय पर जमा करते हैं ताकि ठंड के दिनों में, खासतौर पर जहां बर्फ पड़ती है, वे आराम से पेट?भर सकें.

इस प्राकृतिक गुण को समाप्त कर कोई एजेंट, भगवान की दुकान का या चिटफंड कंपनी की दुकान का, कहने लगे कि 1 लगाओ 10 पाओगे और उसे सही मान कर करोड़ों जमा हो जाएं तो एक नहीं सैकड़ों सुदीप्तो सेन पैदा हो जाएंगे.

सुदीप्तो सेन ने कोई ऐसा नया काम नहीं किया जो पहले नहीं किया गया. उस ने मोटे ब्याज का जो लालच दिया वह बारबार दिया जा रहा है. अमेरिका में कार्लो पीएट्रो गियोवानी गुगलिएल्मो टेबाल्डो पोंजी नाम के एक इटैलियन मूल के आदमी ने 1,250 डौलर के 90 दिन के डिपौजिट पर 750 डौलर का ब्याज देने की बात की. उस के पास हजारों डौलर जमा होने लगे और नए जमा पैसे का इस्तेमाल वह पहले जमा हुए पैसों पर ब्याज और मूल देने के लिए करता था. यह स्कीम कई साल तक चली और वह सुदीप्तो सेन की तरह अरबपति बन गया. इस पोंजी स्कीम को अमेरिका में ही नहीं दुनियाभर में सैकड़ों बार दोहराया गया है और बेवकूफ हर बार चमत्कार के चक्कर में अपना पैसा गंवाते रहे हैं.

भारत में अनपढ़, मजदूर, छोटी रकम वालों के पास एजेंट भेजे जाते हैं जो मोटा कमीशन पाते हैं और लच्छेदार बातों में उलझा कर 5 हजार से 20 हजार रुपए झटक लेते हैं. एजेंटों की बाढ़ आ जाती है और वे पंडेपुजारियों की तरह घरघर जा कर ‘1 पैसा दो, ऊपरवाला 1 लाख देगा,’ की अलख जगा कर वसूलना शुरू कर देते हैं. होम सर्विस मिलने पर लोग उसी तरह चीट कंपनियों में पैसा दे देते हैं जैसे घर आए साधु को.

सुदीप्तो सेन को तृणमूल कांग्रेस का समर्थन प्राप्त था या नहीं, यह विवाद बेमतलब का है. देशभर में सैकड़ों नहीं लगभग 10 हजार चिटफंड या फाइनैंस कंपनियां चल रही हैं जिन का मूल मौडल यही है. जब तक लोग बेवकूफ बनने को तैयार रहेंगे, बेवकूफ बनाने वालों की कमी न रहेगी. जब तक सवाल पूछने की आदत न बनेगी, अंधविश्वास को महिमामंडित करना बंद न होगा, तब तक लूट चलती रहेगी.

 

आप के पत्र

सरित प्रवाह, अप्रैल (द्वितीय) 2013

संपादकीय टिप्पणी ‘संजय दत्त, कानून, सजा’ बड़े मनोयोग से पढ़ी. आप के स्पष्ट, निष्पक्ष और बिंदास विचार वास्तव में काबिलेतारीफ हैं. आप की लेखनी निडरता व बिना लागलपेट के अपना विचार व्यक्त करती है.

कहा जाता है कि ‘जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनायड’ यानी देर से किए गए न्याय का कोई औचित्य नहीं रह जाता. आज अदालतों में 20 सालों से ज्यादा समय से लंबित मुकदमे बिना न्याय के लटके हुए हैं. मुकदमा करने वाले कई तो न्याय पाने की आस में दूसरी दुनिया के वासी हो गए हैं. ऐसे में अगर उन के मरने के बाद न्याय मिलता है तो ऐसे न्याय से उन को क्या फायदा हुआ.

अभी हाल ही में एक मुकदमे में 20 साल बाद फैसला आया है जिस में एक डीएसपी को फर्जी मुठभेड़ में मार गिराया गया था. फैसला सुन कर उन की आईएएस बेटी न्यायालय में ही रो पड़ी और उस की मां फैसला सुनने के लिए अब तक जिंदा नहीं बची थीं.

किसी भी अपराध के पीडि़तों को पहला सुकून तब मिलता है जब अपराधी को सजा मिल जाए और सजा ऐसी कि वह पीडि़त को दोबारा प्रताडि़त न कर सके. आप का यह सु?ाव कि अगर समाज ऐसी न्याय व्यवस्था नहीं तैयार कर पा रहा जिस में पीडि़त को संतोष मिल सके और जनता को भरोसा मिले कि देश में कानून का राज चल रहा है तो दोषी सरकार, पुलिस, नेता, अदालतें और न्यायाधीश सभी हैं, यह कथन सत्य से सराबोर है.

देश की अदालतों में लाखों ऐसे मुकदमे भी लंबित हैं जिन में वर्षों से अभियुक्तों पर अपराध सिद्ध नहीं हुए पर जमानत न मिलने के कारण वे जेलों में सड़ रहे हैं, यह भी अमानवीय है, जनता के साथ अन्याय है. संजय दत्त का मामला तो सिर्फ ?ाक?ोरने के लिए है कि 20 वर्ष बाद अपराधी या निरपराधी सिद्ध करने का अर्थ क्या है? इस तरह के अपराधों में सरकार केस को त्वरित निबटाने के लिए आदेश दे तब तो कुछ सार्थक हल निकल सकता है.

प्रधानमंत्री व सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने भी कई बार अधिक दिनों से लंबित पड़े मुकदमों को शीघ्र निबटाने के लिए सु?ाव दिए हैं.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

*

‘संजय दत्त, कानून, सजा’ टिप्पणी में उठाया गया लचर न्याय प्रक्रिया से संबंधित आप का सवाल समाज, देश व उस के शासकों को ?ाक?ोर देने के लिए काफी है. यह बात अलग है कि ये सभी अपनीअपनी कर्तव्यविमुखता का दोष एकदूसरे पर डाल कर अपना पल्ला ?ाड़ लें. ‘आतंक के जनक’ दसियों सालों तक पकड़े नहीं जाते हैं जबकि संजय दत्त जैसे लोग मात्र ‘हथियार रखने’ के अपराध में सालों तक के लिए नाप दिए जाते हैं.

इस से ज्यादा शर्मनाक और क्या होगा कि वर्ष 1993 के मुंबई हमले के मास्टरमाइंड तो आज तक हमारे पड़ोसी के राज में खुले सांडों समान बेखौफ घूमते हमारी प्रभुसत्ता तक को ललकारते फिर रहे हैं कि अगर दम है, तो उन पर हाथ डाल कर दिखाओ, कुख्यात दाऊद इब्राहिम और टाइगर मेनन क्या इस के पुख्ता सुबूत नहीं? आप का यह सु?ाव भी अति महत्त्वपूर्ण, तथ्यजनक व विचारणीय है कि हमारे यहां सस्पैंडेड सजा का प्रावधान क्यों नहीं किया जा सकता. ताकि किसी जानेअनजाने में किए गए अपराध को अगर आरोपी भूल कर मान या स्वयं में सुधार कर अपने को पेश करे तो उसे जांचपरख कर माफ भी किया जा सके.

 ताराचंद देव रेगर, श्रीनिवासपुरी (दिल्ली)

*

आप की टिप्पणी ‘चीन और बच्चा नीति’ पढ़ी. यह टिप्पणी बिलकुल सामयिक और हर तरह से देश के हित में है. चीन का यह दावा बिलकुल सत्य से ओतप्रोत है कि 1980 के दशक में उस के कम्युनिस्ट तानाशाहों ने जो ‘एक बच्चा’ नीति, लागू की थी, आर्थिक चमत्कार उसी का परिणाम है. ज्यादा बच्चों की अपेक्षा अगर दंपती के पास एक बच्चा हो तो उस का लालनपालन, पढ़ाईलिखाई, खानपान, पहनावा सब उच्चकोटि का होगा. वह ज्यादा स्वस्थ, पढ़ाई में प्रखर, शरीर मजबूत, निरोग व हमेशा प्रसन्न रहेगा. मातापिता को भी ज्यादा बच्चों की परवरिश की अपेक्षा, उस की परवरिश में काफी सुविधा रहेगी. कम बच्चे हों तो मातापिता 5-7 साल बाद बच्चों की जिम्मेदारी से लगभग मुक्त हो जाते हैं और अपने काम पर समय व शक्ति ज्यादा लगा सकते हैं, काम चाहे खेतों में हो या कारखानों या फिर दफ्तरों में. कम बच्चे होने पर पारिवारिक बचत बढ़ जाती है जो देश की पूंजी बनती है.

हमें चीन की ‘एक बच्चा नीति’ का विरोध नहीं करना चाहिए और भारत को भी देश में इस का जम कर प्रचार करना चाहिए.

 कैलाश, इलाहाबाद (उ.प्र.)

*

मिट्टी से जुड़ी पत्रिका

बचपन से ही मैं ने सरिता को अपनी माताजी के हाथों में देखा है. रेलगाड़ी से यात्रा के दौरान, मेरी गाड़ी अंबाला रेलवे स्टेशन के मैग्जीन स्टौल के ठीक सामने रूकी. मैं ने स्टौल पर सरिता को देखा. रोज की भीड़भाड़ में वक्त ही नहीं मिला कि इस खजाने को जान सकूं. उस दिन मैं पता नहीं कैसे उस स्टौल के सामने जा कर खड़ी हो गई.

मैं उन सभी सुनहरे व रूपहले पलों का भ्रमण करना चाहती थी जो मेरी माताजी ने इस पत्रिका के साथ किए. मेरे पिताजी का तबादला दूरदराज के इलाकों में होता रहता था. इस बीच दिल्ली जैसे शहर में सरिता ने मेरी माताजी को अकेलेपन का एहसास नहीं होने दिया, बल्कि एक संगिनी की तरह हमेशा साथ दिया.

मैं भी उन सभी लमहों से वाकिफ होना चाहती थी. इसलिए अगले ही क्षण वह पत्रिका मेरे हाथों में थी. मैं अंतर्मन से समस्त संपादकीय टीम का धन्यवाद करना चाहूंगी, हमें इतने सच्चे व सुदृढ़ लेख प्रदान करने के लिए. व्यंग्य, स्तंभ, लेख, कहानी सब अपने स्थान पर अग्रणी हैं.

मैं सरिता पत्रिका से हमेशा के लिए जुड़ गई हूं, अपनी माताजी के दिखाए हुए एक और रास्ते को मैं ने अपना लिया है.

एक पाठिका

 

धर्मांध लोग अपने गिरेबां में झांकें

अप्रैल (द्वितीय) अंक में ‘वृंदावन की विधवाओं से होली का स्वांग’ शीर्षक से प्रकाशित रपट में थोड़ी भी सचाई है तो धर्म के इन ठेकेदारों, विधवाओं की तथाकथित सेवादारी में लगे पंडेपुजारियों व विधवाओं की मृतदेह को टुकड़ों में (कसाइयों समान) काट कर बोरों या पौलिथीनों में भर कर फेंक देने वाले तत्त्वों को चुल्लूभर पानी में डूब कर मर जाना चाहिए. हमारे समाज में पुरुषों में जो पितृप्रधान होने का गुमान हमारे ऐसे ही दुष्ट, धर्मप्रवृत्ति के लोगों ने कूटकूट कर भर रखा है, क्या वे विधुर नहीं होते? क्यों उन्हें सिर मुंडवा कर अपनी पत्नी की चिता में ‘सता’ होने को नहीं कहा जाता?

स्त्री समाज के जानी दुश्मन, इन धर्मांध तत्त्वों को अपने अगले पल का तो पता नहीं होता है कि क्या होने वाला है जबकि बातें वे पिछले जन्म की यों करते नजर आते हैं जैसे किसी के (विशेषकर विधवाओं के) पूर्व जन्म में वे ही साक्षात भविष्यवक्ता थे, जो वे फरमाते हैं कि पति की मौत तो पत्नी के पिछले जन्म के पापों के कारण ही होती है. मगर ऐसी कुंठित सोच वाले धर्म के ठेकेदार कभी अपने गिरेबां में ?ांकें, तो उन्हें पता चल जाएगा कि असली पापी कौन है?’

 टी सी डी गाडेगावलिया, (नई दिल्ली)

*

वृंदावन की विधवाओं के बारे में पढ़ कर तो वाकई मैं चौंक गया. जिन सामाजिक दरिंदगियों को आजादी के बाद अभी तक समाप्त हो जाना चाहिए था वे न केवल पनप रही हैं बल्कि विधवाओं को मिलने वाली सरकारी सुविधाएं भी दलाल हड़प कर रहे हैं. ताज्जुब की बात है कि मरने के बाद विधवा के शव को टुकड़ों में काट कर, बोरे में भर कर फेंक दिया जाता है और यह कहीं और नहीं बल्कि हमारे उन तीर्थ स्थानों (वृंदावन, मथुरा और बनारस के विधवा आश्रम) में हो रहा है जिन को आज भी रामकृष्ण के लिए याद किया जाता है.

मैं सम?ाता हूं कि सब से पहले तो उन शहरों की गैरसरकारी संस्थाओं की खबर लेनी चाहिए. टीवी चैनल्स पर चर्चाएं अगला प्रधानमंत्री कौन बनेगा पर न हो कर विधवा आश्रम में रहने वाली विधवाओं की दयनीय अवस्था पर होनी चाहिए. मैं अकसर पढ़ता और देखता हूं कि छोटे तबके के लोगों को राज्य सरकारें पक्के मकान बना कर देती हैं और उन्हें आजादी से जीने देती हैं. तो क्या वजह है कि बेचारी विधवाएं कालकोठरी में अपना जीवन व्यतीत करने पर मजबूर हैं?

आजकल नारी के सम्मान की बात हो रही है, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि नारी का जीवन भी पति की मृत्यु के बाद उतना ही आवश्यक है जितना कि एक पति का उस की पत्नी की मौत के बाद. आशा करता हूं कि इस लेख के छपने से दोनों केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकारें विधवाओं की हालत सुधारने की पूरी कोशिश करेंगी.

ओ डी सिंह, वडोदरा (गुजरात)

*

जब हों बीमार…

‘कैसे पाएं महंगे इलाज से नजात’ शीर्षक से मार्च (द्वितीय) अंक के पृष्ठ संख्या 92 और ‘कहीं देर न हो जाए’ शीर्षक से पृष्ठ संख्या 96 पर प्रकाशित लेख एकदूसरे के विपरीत संदेश दे रहे हैं. पहले लेख में बीमारी का स्वयं इलाज करने या सिर्फ मैडिकल स्टोर में मौजूद दवा विक्रेताओं से दवा ले कर इलाज करने पर जोर दिया गया है. उस लेख के लेखक कोई डाक्टर नहीं हैं. वहीं, दूसरे लेख में बीमारी की शंका मात्र होने पर डाक्टर से तुरंत सलाह लेने पर जोर है. मैं एक फिजीशियन हूं और इस नाते मैं सभी को यह सलाह देता हूं कि किसी भी तरह की बीमारी का अंदेशा हो तो मैडिकल स्टोर के बजाय डाक्टर के पास जाएं.

डा. सौरभ कंसल

हम आमतौर पर चाहते हैं कि लोग चिकित्सक के पास ही जाएं पर यदि वे उपलब्ध न हों तो मैडिकल स्टोर के लाइसैंसशुदा कैमिस्ट से साधारण

दवाओं के लिए जैसे सिरदर्द, पेटदर्द या चोट पर दवा की राय लेना किसी तरह गलत नहीं हैं. इस पर आपत्ति की गुंजाइश नहीं है. यह न भूलें कि छोटी सी सलाह के लिए भी डाक्टर 500 से 1500 रुपए मांग लेते हैं. यह ज्यादा गलत है.

-संपादक 

विधवाओं की दुर्गति

अप्रैल (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘वृंदावन की विधवाओं से होली का स्वांग’ ने अंतआर्त्मा को ?ाक?ोर दिया. चाहे वह कोई भी धर्म हो, क्या धर्मग्रंथों की रचना केवल स्त्री शोषण के लिए हुई है. अगर ऐसा है तो आस्तिक से नास्तिक होना कहीं बेहतर है. हिंदू धर्म में विधवाओं के साथ बुरा सुलूक होता है, ऐसा सुनती थी किंतु इतना बर्बर सुलूक होता है, यह अब जान पाई. क्या विधवाएं इस समाज का अंग नहीं? क्या उन्हें भी सम्मान भरा जीवन नहीं चाहिए?

एक विधवा की दुर्गति की कहानी सर्वप्रथम उस के परिवार में लिखी जाती है. इस स्त्री समाज को सरकार ने क्यों उपेक्षित कर रखा है? जब किसी विधवा को परिवार द्वारा ठुकराया जाता है तभी वह वृंदावन या काशी का रुख करती है. सरकार को ऐसे परिवारों को दंडित करना चाहिए और एक विधवा को उस के घर में उस का हक मिलना ही चाहिए.

उद्योगपति जो मठोंमंदिरों में लाखों का चढ़ावा देते हैं ताकि उन के पाप धुल सकें तो क्या वे एक विधवा आश्रम को संरक्षण नहीं दे सकते. आखिर कब तक धर्म के ठेकेदार स्त्री को पशु से भी बदतर सम?ाते रहेंगे? सच तो यही है कि पुरुष सदैव स्त्री के लिए लक्ष्मणरेखा खींचते रहे हैं. इन की सोच बदलना आसान नहीं किंतु पाखंडियों पर कानूनी अंकुश तो लगाया ही जा सकता है. इस में सुधार की जिम्मेदारी महिलाओं को ही उठानी होगी. सर्वप्रथम कमउम्र विधवाओं को रोजगार दिया जाए और यदि वे चाहें तो उन का पुनर्विवाह करवाया जाए. अधेड़ या बूढ़ी विधवाओं के लिए सरकार और धर्म के नाम पर महादान करने वाले उद्योगपतियों को उन का संरक्षक बनाया जाए. महादान से कहीं बेहतर है किसी जरूरतमंद की सेवा की जाए.

शशिकला सिंह, सुपौल (बिहार)

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें