"थक गई मैं घर के काम करते-करते. वही एक जैसी दिनचर्या सुबह से शाम, शाम से सुबह." "घर का सारा टेंशन लेते-लेते मैं परेशान हो चुकी हूँ, अब मुझे भी चेंज चाहिए कुछ."

शोभा जी अक्सर ये बातें किसी न किसी से कहती रहती थीं. एक बार अपनी बोरियत भरी दिनचर्या से अलग, शोभा जी ने अपनी दोनों बेटियों के साथ इतवार को फ़िल्म देखने और घूमने का प्लान किया. शोभा जी ने तय किया इस आउटिंग में वो बिना कुछ चिंता किये सिर्फ़ और सिर्फ़ आनन्द उठाएँगी. मध्यमवर्गीय गृहिणियों को ऐसे इतवार कम ही नसीब होते हैं, जिसमें वो घरवालों पर नहीं बल्कि अपने ऊपर समय और पैसे दोनों ख़र्च करें, इसीलिए इस इतवार को लेकर शोभा जी का उत्साहित होना लाज़िमी था. ये उत्साह का ही कमाल था कि इस इतवार की सुबह, हर इतवार की तुलना में ज़्यादा जल्दी हो गई थी.

उनको जल्दी करते-करते भी, सिर्फ़ नाश्ता करके तैयार होने में ही साढ़े बारह बज गए. शो डेढ़ बजे का था, वहाँ पहुँचने और टिकट लेने के लिए भी समय चाहिए था. ठीक समय वहाँ पहुँचने के लिए बस की जगह ऑटो ही एक विकल्प दिख रहा था. और यहीं से शोभा जी के मन में 'चाहत और ज़रूरत' के बीच में संघर्ष शुरू हो गया. अभी तो आउटिंग की शुरुआत ही थी, तो 'चाहत' की विजय हुई.

ऑटो का मीटर बिल्कुल पढ़ी लिखी गृहिणियों की डिग्री की तरह, जिससे कोई काम नहीं लेना चाहता पर हाँ जिनका होना भी ज़रूरी होता है, एक कोने में लटका था. इसीलिए किराये का भाव-ताव तय करके सब ऑटो में बैठ गए.

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