पीकू फिल्म के क्लाइमैक्स में जब भास्कोर बनर्जी साइकिल ले कर कोलकाता की सड़कों पर घूम रहा होता है तब पीकू का झल्लाना दरअसल एक द्वंद्व और भड़ास की अभिव्यक्ति थी जिस का सार यह था कि एक उद्दंड, अशिष्ट, जिद्दी और सनकी पिता अपने स्वार्थ के लिए बेटी की शादी नहीं होने दे रहा. उस के कैरियर और कारोबार में अड़ंगे डाल मनमानी करता रहता है. उसे अपनी युवा बेटी के भविष्य, इच्छाओं और सुख की चिंता तो दूर की बात है, परवा भी नहीं. इस तरह की तमाम ज्यादतियां सहन करने के बाद भी आज का युवा पीकू की तरह वृद्धों की सेवा करने की अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है. अपनी इच्छाएं, सुख और कैरियर दांव पर लगा रहा है तो यह उस की मजबूरी नहीं, बल्कि खूबी है जिस के पारिवारिक दायित्व के अलावा सामाजिक और राष्ट्रीय माने भी हैं. पीकू हर कहीं है और भास्कोर बनर्जी भी उस के साथ है. उस के फूहड़पन और स्वभाव में थोड़ाबहुत अंतर हो सकता है लेकिन पीकू के समर्पण, सेवा और संस्कारों में खास अंतर नहीं. बीते 15-20 सालों में भारतीय युवाओं ने दुनियाभर में विभिन्न क्षेत्रों, खासकर बैंकिंग व आईटी में अपनी मेहनत, लगन और प्रतिभा की धाक जमाई है. बावजूद इस सच के कि हर घर में उन पर वृद्धों की सेवा का भार दबाव की शक्ल में है यानी धैर्य भी युवाओं में है जो इस आरप को खंडित करता है कि युवा आमतौर पर बेसब्रे होते हैं.
बदलते युवा
दशक दर दशक युवा बदले हैं और अच्छी बात यह है कि उन में आ रहे बदलाव सुखद हैं. आज के युवा की पहली प्राथमकिता कैरियर है जिस के लिए वह कालेज में जिंदगी के 6-8 साल खपाता है. मौजमस्ती और रोमांस वह आज भी कर रहा है लेकिन उच्छृंखल नहीं हो रहा. उस में गंभीरता आई है, समझदारी आई है और जिम्मेदारियां निभाने का जज्बा भी आया है. ये सब बातें उसे परिपक्व बनाती हैं. मुद्दत से युवाओं ने कोई हिंसक आंदोलन नहीं किया है. 70 के दशक में युवाओं की मनमानी आम थी. संजय गांधी उस पीढ़ी के आदर्श थे जिन के बारे में औसत आमराय आज भी अच्छी नहीं. उसी दशक में जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी की आपातकालीन मनमानी को खत्म करने को युवाओं का आह्वान किया तो देखते ही देखते निजाम बदल गया था. अन्ना हजारे के आंदोलन की जान युवा ही थे लेकिन वे अपेक्षाकृत अनुशासित थे. अपवादों को छोड़ दें तो कहीं कोई कानून तोड़ने जैसी हिमाकत युवाओं ने नहीं की और व्यवस्था को हिला कर और बदल कर भी रख दिया. ऐसा संतुलित और लोकतांत्रिक आक्रोश पहले कभी देखने में नहीं आया. दरअसल, 40 साल में युवाओं में भारी बदलाव आए हैं और ये बदलाव हर स्तर पर आए हैं. वृद्धों और पारिवारिक उत्तरदायित्वों के मामले में ये कैसे हैं, इन्हें पीकू फिल्म से आसानी से समझा जा सकता है. पीकू का समर्पण ऊर्जा, धैर्य और इस के बाद पिता के बेहूदापन पर भड़ास इस की मिसाल है.
युवाओं का यही बदलता स्वभाव उन का मूल्य निर्धारित करता है. एक युवती, जिस की उम्र मौजमस्ती की, रोमांस की और कैरियर पर ध्यान देने की है, का पूरा ध्यान अपने जिद्दी और सनकी पिता पर रहता है. दफ्तर जा कर वह कुरसी भी ढंग से संभाल नहीं पाती कि पिता का फोन आ जाता है. वह अपना कामधाम छोड़ घर की ओर भागती है. यह अकेली पीकू नहीं कर रही, बल्कि अधिकांश युवाओं को इस परीक्षा और चुनौती से गुजरना पड़ रहा है जिन पर खरा उतरने के लिए वे दोहरी मेहनत कर रहे हैं. वे तनाव और दहशत में जीते हुए काम कर रहे हैं, इसलिए उन पर पहले की तरहकोई दोष मढ़ने की हिम्मत नहीं कर पाता. अफसोस की बात यह है कि कोई उस का आभार तक प्रदर्शित नहीं करता. पीकू सहज सोचने को विवश करती है कि अहमियत आखिर किस की ज्यादा है, युवाओं की या वृद्धों की. युवाओं के अपने सपने होते हैं, उन में जोश होता है. खुद के लिए, परिवार, समाज व देश के लिए कुछ करने का जज्बा होता है. वह परेशानी में उस वक्त तबदील होता है जब घर का ही कोई बुजुर्ग भास्कोर बनर्जी का मुखौटा पहन उन का जीना मुहाल कर देता है.
और वृद्ध…
वृद्ध भी बदले हैं लेकिन बहुत गलत तरीके से बदले हैं. अगर पीकू युवाओं का प्रतिनिधित्व करती मानी जाए तो भास्कोर बनर्जी वृद्धों की अगुआई करता दिखाई देता है. भारतीय समाज में वृद्धों का सम्मान महज उम्र और अनुभव के चलते अहम माना गया है. पीढ़ी अंतराल और पीढ़ी युद्ध हर दौर में होते रहे हैं लेकिन अब वे एकतरफा समझौते में बदलते नजर आ रहे हैं. भास्कोर जैसे वृद्धों की हरकतों से किसी भी नजरिए से सहमत नहीं हुआ जा सकता जो मूलतया उन की शोषक प्रवृत्ति को ही दर्शाती है. चिंतनीय बात यह है कि आज का वृद्ध पजैसिव और एग्रैसिव होता जा रहा है. वह अपनी कमजोरियां न स्वीकार रहा है, न ही उन से कोई समझौता कर रहा है. व्यावहारिक दृष्टिकोण से वह अनुपयोगी है लेकिन फिर भी युवा उस का अपमान नहीं करते. यह घरघर की कहानी है कि बुजुर्ग जो भी करें उस से समझौता कर लो, उसे मान लो सिर्फ इसलिए कि वे वृद्ध हैं और कुछ दिनों के मेहमान हैं. किस के मूल्यों में गिरावट आई है, यह कहने की जरूरत नहीं कि पीकू पर गर्व करने और उसे शाबाशी देने की तमाम वजहें हैं लेकिन भास्कोर में ढूंढ़ने से एक भी खूबी नजर नहीं आती जो किसी मूल्य को स्थापित करती हो या उस का मूल्य बताती हो. दिक्कत तो यह है कि परंपराओं और रूढि़यों में जकड़ा भारतीय समाज यह मानने में ही अपराधबोध से ग्रस्त हो जाता है कि वृद्धों की गैरजरूरी दखलंदाजी पूरे समाज और देश का नुकसान कर रही है. ऐसे में परिवारों के हाल क्या होंगे, सहज समझा जा सकता है. पीपल और बरगद की छांव की उपमा से नवाजे जाने वाले वृद्धों को कतई नए जमाने और दौर का एहसास नहीं. उन का अनुभव स्वार्थ तले दबा है. वे वाकई सिर्फ पेट की खराबी और कब्ज के इर्दगिर्द केंद्रित हैं, उन्हें आज और समाज से कोई सरोकार नहीं. दोटूक कहा जाए तो वे बेरहम साहूकार की तरह युवाओं से अपने किए यानी उन्हें पैदा करने व उन की परवरिश करने की कीमत सूद समेत वसूल रहे हैं.
अर्थशास्त्र रिश्तों का
युवा ईमानदारी से मूल और सूद दोनों चुकाते नैतिकता का भार ढो रहे हैं, इसलिए वे ज्यादा मूल्यवान हैं. उन्हें मालूम है कि वृद्ध उन के बिना वाकई जिंदा नहीं रह पाएंगे, उन्हें तो अपने सुखचैन गिरवी रख जिंदा रखना पड़ेगा और पीकू की तरह ऐसा कर वे मिसाल ही कायम कर रहे हैं. पीकू में एक उदाहरण भास्कोर बनर्जी के कोलकाता स्थित पैतृक मकान का है. पीकू व्यावहारिक है जो यह चाहती है कि अतीत से मोह न रखते उस मकान को बेच दिया जाए क्योंकि आखिरकार रहना तो दिल्ली में ही है. पर भास्कोर इस बात को नहीं समझता. शायद वह इस गलतफहमी में ही रहना चाहता है कि पीकू उस की सेवा उस मकान के लिए कर रही है, अगर इसे बेच दिया तो वह हाथ से निकल जाएगी.
परिवार और समाज की बनावट और बदलाव का यह वह दौर है जिस में ऐसी संपत्तियों की भरमार है जो पारिवारिक विवादों व फसादों को जन्म देती हैं. गांव से शहर व शहर से बडे़ शहरों और बड़े शहरों से विदेशों में बसते युवा जायदाद को तो छोड़ रहे हैं लेकिन वृद्धों को यहां फेंक कर नहीं जा रहे. दरअसल, युवाओं को अपनेआप पर भरोसा है लेकिन वृद्धों को नहीं है. उलटे, वे इसे युवाओं की खुदगर्जी और लालच समझते हैं व ज्यादा मनमानी करते नजर आ रहे हैं बावजूद यह जानने के कि उन के बाद जायदाद आखिरकार है तो संतान की ही. सौ में से एक युवा ही ऐसा मिलेगा जो पैतृक संपत्ति के भरोसे बैठा निकम्मा और निठल्ला हो रहा हो. तमाम महानगर छोटे शहरों के युवाओं से भरे पड़े हैं जहां वे प्राइवेट कंपनियों में हाड़तोड़ मेहनत कर जीवनयापन कर रहे हैं और अप्रत्यक्ष रूप से देश के निर्माण व विकास में भागीदारी निभा रहे हैं.
मतभेद के मुद्दे
बुजुर्गों और युवाओं के बीच मतभेद एक नहीं, कई मुद्दों पर हैं. बात चाहे सब्जीभाजी खरीदने की हो या नौकर की पगार से पैसा काटने की, वृद्ध उन में दखल देते ही हैं. और अब तो नौबत यहां तक आ पहुंची है कि वे संतान कीशादी ही अपने जीतेजी नहीं होने देना चाहते. मूल्य खोती इस (वृद्ध) पीढ़ी की कभी एक ही इच्छा होती थी कि बेटी के हाथ पीले हो जाएं तो चैन की सांस लूं. घर में बहू आ जाए, नातीपोते खेलने लगें तो जीवन सार्थक हो जाए. फिल्म पीकू बताती है कि यह सार्थकता निरर्थकता में बदल रही है. वृद्धों की तानाशाही एकल होते परिवारों में भी कायम है. बस, उस का तरीका बदल गया है. अब वे कब्ज के हंटर से बच्चों को भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल कर रहे हैं. भास्कोर बनर्जी की तरह चौबीसों घंटे एक ही बात पर बोल रहे हैं और उसी पर सुनना चाह रहे हैं. वह निराशाजनक कब्ज, ब्लडप्रैशर, शुगर, बवासीर या दूसरी कोई ऐसी ही बीमारी में से कुछ भी हो सकती है जिस से कि संतान अपने बारे में कुछ सोचे ही न. अघोषित शर्त यह है कि युवा अगर जिंदगी शुरू करें तो उन के मरने के बाद करें. यह कौन सी संस्कृति, धर्म या संस्कार है, इस का जवाब किसी के पास नहीं.
ऐसे बदलते हालात में दोटूक कहा जा सकता है कि युवा ज्यादा मूल्यवान हैं, उस के सामने उम्र पड़ी है जो भी निर्माण हो रहे हैं उसी से हो रहे हैं. उस में ऊर्जा है, ताकत है, स्वास्थ्य है और अहम बात एक व्यावहारिक समझ और जिम्मेदारियां निभाने का जज्बा है. उस की उपयोगिता पर कोई सवालिया निशान लगाया ही नहीं जा सकता. संवेदनहीनता हमेशा मूल्यों की गिरावट की वजह होती है और इस पैमाने पर वृद्ध पिछड़ रहे हैं. दिक्कत तो यह है कि एक वक्त के बाद उन में सोचनेसमझने लायक शक्ति और समझ नहीं रह जाती. उन्हें जो जीना था वे जी चुके लेकिन युवाओं को अपनी मरजी से न जीने देने का गुनाह तो वे ही कर रहे हैं. अशक्तता के चलते एक स्वाभाविक असुरक्षा उन में होने की बात अस्वीकार्य नहीं.
इन तमाम पीकूगीरी में गड़बड़ तब होती है जब सच जानतेसमझते लोग पंडों की तरह यह दोहराते नजर आते हैं कि नहीं, वृद्धों का सम्मान करो क्योंकि वे वृद्ध हैं. ऐसे लोगों को पीकू की वह भड़ास याद कर लेनी चाहिए जो उस ने अपने पिता पर निकाली थी. उस से असहमत होने के लिए शायद ही कोई तर्क किसी केपास हो.