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कैसे बोलें कि पब्लिक हो मुट्ठी में

रिया ने आज दी जाने वाली अपनी स्पीच की अच्छी तरह तैयारी की थी, लेकिन स्टेज पर पहुंचते ही अपने सामने पब्लिक को देख उस की टांगें कांपने लगीं, घबराहट से उसे पसीना आने लगा और पलभर में ही उस के चेहरे के हावभाव बदल गए. कहां तो रिया पूरे भाषण की अच्छी तैयारी कर के आई थी और कहां अब उसे एक शब्द भी कहने के लिए नहीं सूझ रहा था कि उसे क्या कहना है. जैसेतैसे कुछ भी बोल कर वह स्टेज से उतर कर बाहर चली गई और मन ही मन भविष्य में उस ने कभी भी भाषण न देने की ठान ली.

उसे खोजतेखोजते आई उस की फ्रैंड स्नेहा ने जब उसे एक कोने में रोते हुए देखा तो उसे काफी दुख हुआ, लेकिन रिया को समझाते हुए वह बोली, ‘‘तुम बेकार में डर रही हो. तुम जैसे बहुत से लोग भीड़ को देख कर घबरा जाते हैं. लेकिन तुम्हें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए. आज इस में सफल नहीं हुई तो क्या हुआ, अगर तुम पब्लिक स्पीकिंग की कला को सीख जाओगी तो भविष्य में जरूर सफल होगी.’’ रिया ने जैसेतैसे अपने को सहज करते हुए स्नेहा से पूछा, ‘‘क्या पब्लिक स्पीकिंग सचमुच में एक कला है?’’ स्नेहा ने जवाब दिया, ‘‘हां, पब्लिक स्पीकिंग वाकई एक कला है और जो इस कला के कलात्मक गुण सीख लेता है वह महफिल की शान बन जाता है.’’

स्नेहा की बात सुन कर रिया ने उन कलात्मक गुणों को जानना चाहा, क्योंकि वह अब खुद के भीतर के इस डर को बाहर निकाल कर एक अच्छा वक्ता बनना चाहती थी. अगर आप भी किसी के सामने कुछ बोलने में हिचकिचाते हैं, बहुत से लोगों के सामने बोलने में आप को डर लगता है, तो जानिए कुछ ऐसे टिप्स, जिन से आप इस डर से तो बाहर निकलेंगे ही साथ ही आप खुद को लोगों के सामने बेहतर ढंग से प्रैजेंट भी कर पाएंगे :

विषय को गहराई से समझें

आप ही सोचिए अगर आप आधाअधूरा ज्ञान ले कर किसी को सिखाने चल दिए और ऐेसे में उस ने आप से कुछ पूछ लिया तो आप के पसीने छूट जाएंगे, आप की जानकारी पर प्रश्नचिह्न लगेगा सो अलग. इस से अच्छा है कि विषय में महारत हासिल करें. आप जिस टौपिक पर भाषण देने वाले हैं उस पर गहराई से जानकारी हासिल करें. अगर आप को कंप्यूटर विषय पर ही भाषण देना है तो इतनी जानकारी जुटाएं कि आप के भाषण को सुन कर कोई यह अंदाजा भी न लगा पाए कि आप इस विषय परबोलने से पहले इस विषय में कुछ नहीं जानते थे. इस के लिए आप इस विषय पर ऐसे लेखकों की किताबें पढ़ें, जिन में तथ्यों को बहुत स्पष्ट समझाया गया हो. जानकारी के लिए सिर्फ किताबों की ही नहीं बल्कि आप कंप्यूटर की हैल्प भी लें. गहन अध्ययन का फायदा यह होगा कि आप अपनी स्पीच को सही दिशा देने के साथसाथ औडियंस के प्रश्नों के जवाब भी दे पाएंगे.

इस बात का खास ध्यान रखें कि आप लीक से हट कर पढ़ने की कोशिश न करें क्योंकि एकसाथ कई चीजें ले कर चलने से हम उन में उलझ जाते हैं, जिस से हम क्या कहना चाहते हैं खुद को ही स्पष्ट नहीं होता, जिस से हम अपनी ही बात को सही तरह समझा नहीं पाते. औडियंस के ब्लैंक ऐक्सप्रैशंस स्पीच देने वाले के कौन्फिडैंस को हिला सकते हैं. एक अच्छा भाषण देने में आप तभी सफल हो पाएंगे जब खुद चीजों को बेहतर ढंग से जानते होंगे. इस स्थिति में आप को न तो लोगों से डर लगेगा और न ही आप के पसीने छूटेंगे.

कैसी है आप की औडियंस

अपनी स्पीच तैयार करते समय इस बात पर गौर करें कि आप अपना भाषण ऐक्सपर्ट्स के सामने देने वाले हैं या फिर एक ऐसे समूह के सामने जो विषय की थोड़ीबहुत ही जानकारी रखता है, क्योंकि अगर आप ऐक्सपर्ट्स के सामने कम ज्ञान के साथ स्पीच देने पहुंच गए तो उस समय न तो आप कौन्फिडैंट हो पाएंगे और न ही स्पीच में फ्लो बन पाएगा. भाषण देते समय भी आप यही सोचते रहेंगे कि कहीं किसी ने मुझ से कोई ऐसा प्रश्न पूछ लिया जिस का मैं जवाब नहीं दे पाया तो? भाषण देते समय दिमाग में इस तरह की बातें चलने से स्पीच में रुकावट पैदा हो सकती है.

आप पहले से ही औडियंस को ध्यान में रख कर स्पीच तैयार करें. जटिल से जटिल और आसान से आसान प्रश्नों की लिस्ट बना कर उन के उत्तर तैयार करें. जब आप विषय की बेहतर तैयारी कर के मंच पर बोलेंगे तो आप को औडियंस की न ज्यादा संख्या परेशान करेगी और न ही मन में इस बात की चिंता रहेगी कि औडियंस आप से किस तरह का प्रश्न पूछ लेगी. चाहे प्रश्न कितना भी टेढ़ा क्यों न हो, लेकिन आप अपनी जानकारी से उस का उत्तर दे कर औडियंस को संतुष्ट कर ही देंगे.

बैस्ट परफौर्मैंस के लिए तैयार करें प्रैजेंटेशन

किसी भी ऐग्जाम में आप तभी बैस्ट परफौर्म कर पाते हैं जब उसे बेहतर व अलग ढंग से प्रैजेंट करते हैं. ठीक उसी तरह अगर आप स्टेज पर खुद की प्रैजेंटेशन को खास बनाना चाहते हैं तो सब से पहले अपनी तैयारी पर ध्यान दें. जिस विषय पर स्पीच देने वाले हैं उस के सभी महत्त्वपूर्ण पहलुओं को समझते हुए उसे एक पेज पर नोट करते जाएं और अति महत्त्वपूर्ण चीजों, जिन पर आप को स्पीच में मेन फोकस करना है, को नोट करने के साथ ही अंडरलाइन कर लें, फिर उन पौइंट्स को आज के उदाहरणों से जोड़ते हुए दिमाग में बैठाएं. इस से आप की प्रैजेंटेशन में जान आ जाएगी, साथ ही सुनने वाले भी आप की स्पीच से इंप्रैस होंगे.

जब पौइंट्स तैयार हो जाएं, उस के बाद पूरी स्क्रिप्ट को अपनी भाषा में तैयार करें ताकि आप उलझें नहीं, क्योंकि जटिल भाषा में स्क्रिप्ट तैयार करने से शब्दों के भूलने का डर ज्यादा बना रहता है.

वर्ड टू वर्ड याद न करें स्पीच

कुछ टीनएजर्स  सोचते हैं कि यदि हम बोलनेलिखने वाली विषयवस्तु को रट लेंगे तो इस से अव्वल आ सकते हैं. लेकिन अगर ऐसा होता तो ऐग्जाम्स में बुक्स तो सभी रटते हैं फिर कोई अव्वल और कोई पिछड़ क्यों जाता है?इस का कारण यही है कि सभी की ग्रहणशक्ति अलग होती है.

इसलिए यदि आप चाहते हैं कि बेहतर वक्ता बनें तो स्पीच को वर्ड टू वर्ड याद करने की भूल बिलकुल न करें, क्योंकि अगर आप एकएक शब्द रटेंगे और स्पीच के दौरान एक भी शब्द आप भूल गए तो आगे की स्पीच बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाएंगे, जिस से आप का कौन्फिडैंस खत्म होगा. इस से बेहतर है कि आप तथ्यों को समझने की कोशिश करें. इस से अगर आप भाषण देते समय थोड़े डगमगाए भी तो फिर आप अपने ज्ञान व शब्दों से टै्रक पर लौटते हुए महफिल में छा सकते हैं.

ज्यादा से ज्यादा प्रैक्टिस करें

यदि आप चाहते हैं कि स्टेज पर जाते हुए आप को घबराहट महसूस न हो तो आप स्पीच की अच्छी तरह पै्रक्टिस करें. प्रैक्टिस की शुरुआत आप पहले अकेले में करें. इस से आप के मन से डर निकलेगा. फिर जब आप अपनी तैयारी को ले कर कौन्फिडैंट हो जाएं तो ऐसे लोगों के सामने प्रैक्टिस करें जिन से आप फ्रैंडली हों और जो आप की अच्छाइयों व कमियों को भी बता सकें, क्योंकि अगर आप ऐसे लोगों के सामने प्रैक्टिस करेंगे जो सिर्फ आप की तारीफ ही करते हों तो इस से आप को अपनी कमियां पता नहीं चल पाएंगी.

जिन लोगों के सामने आप स्पीच दे रहे हैं उन से फीडबैक भी मांगें. आप अपनी स्पीच को रिकौर्ड भी कर सकते हैं, जिस से आप को पता चलेगा कि आप कहां गलती कर रहे हैं और आप को कहांकहां सुधार की जरूरत है.

फोकस औडियंस पर नहीं स्पीच पर

स्पीच देते समय आप औडियंस से ज्यादा अपनी स्पीच पर फोकस करें, क्योंकि लोग इस ओर ज्यादा ध्यान देते हैं कि आप किस तरह अपनी बात को उन तक पहुंचा रहे हैं या फिर किन नई जानकारियों को उन के सामने परोस रहे हैं. भीड़ देख कर नर्वस कोई भी हो सकता है लेकिन उस समय आप को खुद पर कंट्रोल करना आना चाहिए.

यह भी हो सकता है कि स्टेज पर जाने से पहले कोई आप की इस नर्वसनैस को पहचान भी ले, ऐसे में आप को यह सोच कर परेशान होने की जरूरत नहीं है कि अगर सब आप की इस नर्वसनैस को पहचान गए तो क्या होगा? बल्कि आप एकदो गिलास ठंडा पानी पी कर खुद को कूलडाउन करने की कोशिश करें. मन ही मन यह सोचें कि आप से बेहतर कोई हो ही नहीं सकता. इस तरह के विचार जब आप मन में लाएंगे तो निश्चित ही आप अपनी स्पीच व स्पीच देने के तरीके को सफल बना पाएंगे.

नर्वस होने की चर्चा सब से न करें

अगर आप जल्दी ही नर्वस हो जाते हैं तो भी उस की चर्चा हर किसी से न करें. अगर सामने वाले ने आप की कमी जानने के बाद भी आप को बूस्ट नहीं किया, तो आप की स्थिति पहले से भी खराब हो सकती है. इसलिए ढोल पीटने से अच्छा है कि आप अपनी वीकनैस पर काबू पाएं. शीशे के सामने खड़े हो कर बारबार स्पीच की प्रैक्टिस करें. इस से आप को अपने फेस ऐक्सप्रैशंस के बारे में भी पता चल जाएगा और जहां आप को लगेगा कि आप गलती कर रहे हैं उसे आप और ज्यादा प्रैक्टिस से सुधार सकते हैं.

ड्रेसअप कंफर्टेबल हो

आप अपनी प्रैजेंटेशन पर तभी ठीक से ध्यान दे पाएंगे जब आप का ड्रैसअप सही होगा. इसलिए ध्यान रखें कि आप का ड्रैसअप ऐसा हो कि आप उस में जचें भी सही और वह कंफर्टेबल भी हो.

सभी से आई कौंटैक्ट करें

आप स्पीच देते वक्त अगर किसी एक की ही आंखों में आंखें डाल कर अपनी बात कहने लगेंगे तो उस से शेष सुनने वालों पर अच्छा इफैक्ट नहीं पड़ेगा और आप की प्रैजेंटेशन भी सफल नहीं बन पाएगी. अगर आप चाहते हैं कि स्पीच के दौरान आप का कौन्फिडैंस और बढ़े तो आप सभी औडियंस की तरफ देख कर अपनी बात कहें. औडियंस के पौजिटिव चेहरे देख कर आप में जोश आएगा, जिस से आप का और बेहतर स्पीच देने का उत्साह बढ़ेगा.    

स्वयं से पूछें नैगेटिव प्रश्नों के जवाब

यदि आप प्रैजेंटेशन देने से पहले घबराए हुए हैं तो खुद से ही कुछ नैगेटिव प्रश्न पूछें जैसे ‘अगर मैं टौपिक को ही भूल गया तो’ या फिर ‘विषय से भटक गया तो?’ भले ही प्रश्न कितना भी नैगेटिव क्यों न हो लेकिन उस में भी पौजिटिव ही ढूंढ़ने की कोशिश करें. यकीन मानिए जब आप नैगेटिव में भी पौजिटिव ढूंढ़ने की कोशिश करने लगेंगे तब आप विषम परिस्थितियों में भी रास्ता खोज ही लेंगे.

आप उन लोगों की भी मदद ले सकते हैं जो खुद इस दौर से गुजर चुके हैं, लेकिन आज अपनी इस कमी पर काबू पा कर हजारों लोगों के सामने भी उन्हें अपने विचार प्रकट करने में डर नहीं लगता

यदि आप इन बातों को आजमा कर देखेंगे तो आप खुद में एक बड़ा चेंज महसूस करेंगे

इस बार रौंग नंबर

देश के किसी भी आदमी को द ग्रेट खली के सामने खड़ा कर दिया जाए, वह पिद्दी ही दिखेगा. शारीरिक सौष्ठव के मामले में योगगुरु कहे जाने वाले रामदेव तो और भी दीनहीन लगेंगे जिन्होंने कभी खली को नकली फाइटर करार दिया था. अब खली ने रामदेव के आरोप के जवाब में साफ कहा है कि कपालभारती से ओलंपिक मैडल मिलता होता तो देश में हर कोई मैडल ले आता. खली की खरीखरी पर बाबा ने चुप रहने में ही भलाई समझी. इस का यह मतलब नहीं कि योग कुश्ती से पराजित हो गया बल्कि इस का संबंध खली के डीलडौल और स्वभाव से है जो सिर्फ घूंसेमुक्कों की भाषा जानते हैं. द ग्रेट खली शो में कनाडा के रेसलर से लड़ाई के दौरान घायल हो कर खली जो ठीक हुए तो फिर बौडी स्टील, माइक नोक्स और अपीलो लियान जैसे रेसलरों को उन्होंने धूल चटा दी. अच्छा तो यह होता कि रामदेव बजाय असलीनकली के पचड़े में पड़ने के, खली को लेदे कर पतंजलि फूड और सेहत उत्पादों का ब्रैंड ऐंबैसडर बनने को राजी कर लेते. संत स्वामी आदमियों की खरीद में वैसे ही बहुत कुशल होते हैं.

मायावती की दहाड में इस बार जोश नहीं

14 अप्रैल 2016 को लखनऊ के डाक्टर अंबेडकर सामाजिक परिर्वतन स्थल पर जुटी भीड पहले के मुकाबले काफी कम थी. उम्मीद की जा रही थी कि 2017 के विधानसभा चुनावों को देखते हुये मायावती विरोधी दलों को करारा जवाब देने के लिये भारी भीड जुटायेंगी. रैली में आये ज्यादातर लोग बसपा के अगडे नेताओं द्वारा बसों से लाये गये लोग थे. पहले मायावती शक्ति प्रदर्शन करने के लिये रमा देवी पार्क में रैली करती थी. वह बडा पार्क है. इस बार भीड में कमी का अंदाजा बसपा के लोगों को पहले लग गया था, इसलिये रैली के लिये दूसरी जगह चुनी गई. 

उत्तर प्रदेश जैसे बडे प्रदेश का 4 बार मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती राजनीति में वो मुकाम हासिल नहीं कर पाई जिसकी उम्मीद कांशीराम ने की थी. उत्तर प्रदेश के बाहर राष्ट्रीय स्तर पर बसपा का संगठन धारदार नहीं बन सका. इसकी मूल वजह उसका दलित मुद्दों से कट जाना, कुरीतियों और रूढिवादी सोंच का विरोध बंद कर देना, मूर्तियां लगवाकर पूजा पद्वति का समर्थन करना और भ्रष्टाचार में डूब जाना रहा है. संगठन को विस्तार देने के लिये दूसरे नेताओं पर भरोसा करना पडता है. मायावती ने पार्टी को अपने आसपास ही समेट कर रख दिया. सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर बसपा में वह नेता आ गये, जिनका कभी  बसपा विरोध करती थी. मायावती पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों ने उनकी छवि को बहुत कमजोर कर दिया.

इस बात का अहसास खुद मायावती को अब हो रहा है. मायावती कहती हैं ‘अब स्मारक नहीं बनवाऊंगी. प्रदेश में विकास और कानून का राज स्थापित करूंगी.’ मायावती को दलित राजनीति की कुंजी मिली थी. जिसका प्रयोग करके वह देश की राजनीति में दलितों को मजबूत कर सकती थी. राजनीति में आज गठबंधन का दौर है. मायावती इस बात को भी सीखने को तैयार नहीं है. देश के अलग अलग हिस्सों में काम कर रहे दलित नेताओं, उनकी पार्टियों और दूसरे संगठनों के साथ तालमेल बनाने में मायावती असफल रही हैं.

पिछले 20 सालों में दलितों की सोच में बदलाव आया है. अब वह केवल जाति के नाम पर बसपा के पीछे खड़े होने को तैयार नहीं हैं. बसपा दलित विकास के बजाये केवल दलित स्वाभिमान की बात करती है. मायावती के विपरीत दूसरे दलों ने दलित वर्ग को अपने से जोडने और पार्टी में जगह देने की शुरूआत की है. 

50 रूपये में अपना जिस्म बेच रहीं सेक्स वर्कर

मंहगाई के इस दौर में 50 रूपये की कोई कीमत नहीं रह गई है. आपको यह जानकार हैरानी होगी की उत्तर प्रदेश के बस्ती शहर के सेक्स बाजार में 50 रूपये में सेक्स वर्कर अपना तन बेच रही हैं. इस कमाई से उनके मेकअप का खर्च निकालना भी मुश्किल हो गया है. बस्ती रेलवे स्टेशन से बाहर निकलते ही यह वेश्या बाजार दिखने लगता है. यहां सडक पर ही खडी औरतों को देखकर इस इलाके की पहचान हो जाती है. इस बाजार में 500 के करीब सेक्स वर्कर रहती हैं. 18-20 साल से लेकर 40-45 साल की उम्र वाली औरतें सीधे तौर पर इस बाजार से जुडी हुई है. ज्यादातर सेक्स वर्कर नेपाल और पश्चिम बंगाल से हैं.

यहां यह लोग किराये के कमरे लेकर रहती है. सुविधा के नाम पर इन कमरों में कोई व्यवस्था नहीं होती. कमरे में 5 किलो वाले गैस के चूल्हे रखकर यह अपना खाना बनाती हैं. 30 साल से उपर वाली सेक्स वर्कर इस कोशिश में रहती हैं कि उनका राशन कार्ड और वोटर कार्ड बन जाये, जिससे वह गरीबों को मिलने वाली सरकारी योजना का लाभ उठा सके. कस्टमर के साथ सेक्स करने के लिये अलग से कमरे होते हैं. दोनों का किराया सेक्स वर्करों को देना होता है. सेक्स वर्कर के पूरे दिन की कमाई में दलाल का भी हिस्सा होता है. रोज कमाना इनकी मजबूरी होती है. ऐसे में 35 से 45 साल की उम्र की सेक्स वर्कर 200 सौ रूपये से लेकर 50 रूपये तक में तन बेचने को मजबूर हो जाती हैं.

इस उम्र वर्ग की करीब 40 फीसदी महिलायें यहां है. सेक्स वर्करों में केवल 5 फीसदी ही ऐसी है जो 12 सौ से 2 हजार तक कस्टमर से लेती हैं. कम उम्र की सेक्स वर्कर समय समय पर यहां से बाहर भी जाती रहती हैं. ज्यादातर ऐसी सेक्स वर्कर हैं जो 500 से 700 के करीब वसूल करती हैं. कम पैसे कमाने वाली एक के अलावा कई कस्टमर के साथ समय बिताती हैं. जिससे उनकी कमाई ज्यादा हो जाती है. 50 रूपये से 100 रूपये देने वाले ग्राहकों में रिक्शा चलाने वाले या बाहर से आने वाले मजदूर ज्यादा रहते हैं.

सेक्स वर्करों में ज्यादातर 15-16 साल की उम्र में ही इस धंधे में आ जाती हैं. सेहत और शरीर का सही से रखरखाव न कर पाने के कारण यह 25-30 साल में ही बूढी नजर आने  लगती हें. ऐसे में इनको कम पैसे में तन बेचने को मजबूर होना पडता है. नेपाल के करीब होने के कारण वहां की लडकियां यहां आ जाती हैं. इनके काम का समय 9 बजे सुबह से ही शुरू हो जाता है. ज्यादातर कस्टमर शाम आते है और रात शुरू होने तक यहां से बाहर चले जाते है.

बच्चों का मजाक न बनाएं

अधिकांश मातापिता अपने बच्चों से प्यार तो खूब करते हैं लेकिन उन की शैतानियों से तंग आ कर अकसर घर आए मित्रों, मेहमानों या रिश्तेदारों से मजाकमजाक में उन की ढेर सारी शिकायतें कर देते हैं. निश्छल और कोमल मन के बच्चों को ये बातें बिलकुल अच्छी नहीं लगतीं. कई बार तो इन बातों का उन पर ऐसा गहरा असर पड़ता है कि वे अंतर्मुखी हो जाते हैं, खुद में सिमट कर रह जाते हैं और धीरेधीरे उन की सामान्य गतिविधियां और खिलंदड़पन कुंद पड़ने लगते हैं. बच्चे आप की बातों का बुरा न मान जाएं, इस के लिए आप को उस की अग्रलिखित बातों की चर्चा दूसरों के सामने कतई नहीं करनी चाहिए.

बोलचाल पर आक्षेप

बहुत से बच्चे शुरूशुरू में तुतला कर बोलते हैं. यह स्वाभाविक है क्योंकि स्वरों और शब्दों पर उन की सही पकड़ तब नहीं हो पाती. ज्यादातर मामलों में लगातार दूसरों से सही उच्चारण सुनने और अभ्यास के बाद उन की यह कमजोरी खुद ही दूर हो जाती है. लेकिन जब मातापिता या बडे़ भाईबहन दूसरों के सामने उन की खिल्ली उड़ाते हैं और नकल करते हुए तुतला कर बोलते हैं तो बालमन आहत हो जाता है. इस से बच्चे का आत्मविश्वास डगमगा जाता है और वह बोलने से कतराने लगता है. नतीजतन, वार्त्तालाप करने का उस का अभ्यास भी कमजोर पड़ने लगता है और यह कमजोरी कई बार बड़े होने तक बनी रह जाती है.

बच्चे की समझ को समझें

कुछ ओवरस्मार्ट मातापिता अपने बच्चे से वयस्कों जैसी त्वरित प्रतिक्रिया और परिपक्व विचारों की उम्मीद करते हैं. जबकि बच्चा तो अपनी समझ के अनुसार ही रिऐक्ट करेगा. कई बार उसे बातें समझने में देर लग जाती है और फिर जवाब या प्रतिक्रिया के लिए सही जवाब या शब्द ढूंढ़ने में भी वक्त लगता है. यह सहज बात है क्योंकि वह इस दुनिया में नया है, उस का शब्द भंडार सीमित है और अनुभव भी बहुत कम होता है. स्वाभाविक है कि उस की संप्रेषण क्षमता बड़ों जैसी नहीं हो सकती. बच्चे बड़ों की तरह बातों को मौनिटर नहीं करते और अपनी बात अलग तरीके से कहते हैं. कई मातापिता इस बात को नहीं समझते और बच्चे को ‘ट्यूबलाइट’ का दरजा दे डालते हैं. ऐसा करना अपने बच्चे की मानसिक क्षमता के साथ खिलवाड़ करना है. उन पर टौंट करने के बजाय उन से ज्यादा से ज्यादा संवाद करें ताकि उन की संवाद क्षमता में निखार आए.

अस्तित्व को न नकारें

कुछ लोग बच्चों द्वारा बालसुलभ शैतानी या जानेअनजाने में की गई गलतियों पर बहुत जल्दी धैर्य खो देते हैं और हताश व क्रोधित हो कर बिना आगापीछा सोचे झट कह देते हैं, ‘तुम जैसी औलाद पैदा ही नहीं होती तो अच्छा रहता.’ इसी प्रकार के मातापिता बच्चे के नहाने में देर होने, सही ढंग से कपड़े न पहनने, बाल न संवारने या अनजाने में कुछ गिरा देने पर कहने लगते हैं, ‘इसे तो शर्म ही नहीं आती. सारी शर्म बेच कर खा गया…’ या ऐसे ही अनापशनाप जुमले. हो सकता है आप ने ये बातें क्षणिक आवेश में ही कह दी हों पर बालमन पर लंबे समय तक इस बात का असर रहता है.

शर्मिंदगी का एहसास

बहुत से बच्चे सीरियल, फिल्म या गानों के बजाय बड़े होने पर भी कार्टून चैनल देखना ज्यादा पसंद करते हैं. बच्चों के पीछे पड़े रहने वाले पेरैंट्स को यह कतई अच्छा नहीं लगता. जब बच्चा उन के बारबार मना करने पर भी नहीं मानता तो उसे प्रैशर में लाने के लिए घर आए मेहमानों के सामने या उस के दूसरे साथियों के सामने मातापिता उस पर तंज कसने लगते हैं, ‘हमारा डब्बू तो पोंगा है, पोगो देखता है.’ इस से बच्चे को अनावश्यक शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है. पेरैंट्स के साथसाथ जब दूसरे लोग या उस के हमउम्र बच्चे जब उस बच्चे का मजाक उड़ाते हैं तो उस के मन में आप के प्रति रोष की भावना आती है.

खानपान पर अटैक

बच्चे तो बच्चे हैं?, जब मन किया, जो मन किया, खा लेते हैं. उन की पसंदीदा चीज फ्रिज में रखी हो, फ्रूट बास्केट में अंगूर, चेरी, केला, सेब जैसे फल रखे हों या केकपेस्ट्री, बिस्कुट, टौफी आदि उन की पहुंच में हों तो वे खा लेते हैं. यह एक सहज सी बात है. लेकिन कई पेरैंट्स अपने बच्चों की इस आदत का मजाक उड़ाते हैं. घर आए मेहमानों के सामने बच्चे की इस आदत को बढ़ाचढ़ा कर बोलते हैं और उसे ‘पेटूराम’ का दरजा दे बैठते हैं. इस से बच्चा बुरी तरह शरमा जाता है. उस के मानसम्मान को चोट पहुंचती है और बहुत संभव है कि वह खाने से कतराने लगता है. नतीजतन, बच्चे का शारीरिक विकास बाधित होता है.

असलीनकली का सवाल

कभीकभी मातापिता बच्चे को छेड़ने के लिए मजाक में तो कभीकभी रोष में कह देते हैं, तुम हमारी औलाद ही नहीं, लगता है अस्पताल में बदल दिए गए हो या फिर तुम्हें तो हम रास्ते से उठा कर लाए हैं. इन बातों का बच्चों के कोमल मन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है. कभीकभी तो वे जिंदगीभर इस बात को मन से नहीं निकाल पाते हैं कि वे आप की असल औलाद नहीं. वे मन में बिठा लेते हैं कि वे किसी और के बच्चे हैं. कई बार ऐसे भी मामले देखने में आए हैं कि जब बच्चा दुखी हो कर सचमुच घर से निकल गया, अपने कथित ‘असली’ मातापिता को ढूंढ़ने के लिए.

झिझक न बने प्रैस्टिज इश्यू

बच्चे अबोध होते हैं. वे मातापिता या दादादादी के अलावा अकसर नए लोगों से मिलने में संकोच करते हैं क्योंकि उन्हें संवाद की कला नहीं आती. साथ ही, नए लोगों के सामने वे असहज महसूस करते हैं. यह एक सहज बात है. लेकिन कई मांबाप दूसरों के सामने उसे ‘शर्माऊ दुलहन’ का दरजा दे डालते हैं. कई पेरैंट्स तो बच्चे को नए लोगों से मिलवाने का प्रयास ही छोड़ देते हैं. जब बच्चा बारबार अपमान और उपेक्षा महसूस करने लगता है तो पेरैंट्स के प्रति उस के मन में सम्मान तो घटता ही है, वह आगे चल कर भी नए लोगों के समक्ष सहज नहीं हो पाता.

बीमारी का इलाज कराएं

बहुत सारे बच्चे रात में बिस्तर गीला कर देते हैं. कुछ बच्चे जरा बड़े होने तक भी ऐसा करते हैं. यह बहुत गंभीर बात नहीं है. शिशु रोग विशेषज्ञ आसानी से इस का इलाज कर देते हैं. लेकिन कुछ नासमझ मातापिता इस बात का जिक्र उस के सहपाठियों, पड़ोसियों या घर आए मेहमानों के सामने कर देते हैं. ऐसे में बच्चा बुरी तरह शर्मिंदा हो जाता है. वह खुद को ‘गंदा’ और ‘बीमार’ समझने लगता है. पेरैंट्स को समझना चाहिए कि इस समस्या में बच्चे का कोई नियंत्रण नहीं होता, इसलिए दूसरों के सामने उसे लज्जित करने के बजाय उस पर समुचित ध्यान दें और चिकित्सक से इलाज कराएं.

नीचा न दिखाएं

कई पेरैंट्स बातबात में बच्चे को एक ही डायलौग सुनाते हैं, ‘हम तुम्हारी उम्र के थे तो ये कर लेते थे, इतने बजे उठते थे…एक तुम, कितने नालायक हो.’ ऐसी बातों से न सिर्फ बच्चे के मन में दुख होता है बल्कि वह आप की बातों को गप भी मानने लगता है. आप के द्वारा बातबात में डींग हांकने और बच्चे को नीचा दिखाने की कोशिश करने पर बच्चा आप की बातों पर ध्यान देना बंद कर देता है और दिनपरदिन आप की अवहेलना कर के ढीठ होता जाता है. हो सकता है, कभी वह पलट कर ऐसा भी जवाब दे दे कि आप की उम्र में तो बहुत सारे लोग उद्योगपति, फिल्मकार और खिलाड़ी बने बैठे हैं, फिर आप इतनी लोप्रोफाइल जिंदगी क्यों जी रहे हैं.

तसवीरें जो न पोस्ट करें

नंगी तसवीर : कई पेरैंट्स अति उत्साह में अपने बच्चों की बाथरूम में नहाते समय, पालने में लेटे हुए या मगबाल्टी से खेलते हुए नंगे पोज की तसवीरें ही फेसबुक या वाट्सऐप पर डाल देते हैं. ध्यान रहे, ये तसवीरें आप के हाथ से निकलते ही दूसरों की संपत्ति बन जाती हैं और वे इन्हें सेव कर के भविष्य में दुरुपयोग कर सकते हैं. बच्चा जरा बड़ा होने पर अपनी ऐसी तसवीरें देखता है तो उसे भी शर्मिंदगी महसूस होती है.

शर्मिंदगी के क्षण : कई बार बच्चा चलतेचलते गिर गया हो, फ्रिज से चुरा कर कुछ खा रहा हो, खाने की टेबल पर सो गया हो या नींद में बड़बड़ा रहा हो, तो मोबाइल कैमरे से पेरैंट्स झट उस का वीडियो बना लेते हैं या तसवीरें ले लेते हैं और फेसबुक पर पोस्ट कर देते हैं. ऐसी नकारात्मक तसवीरें बच्चे को शर्मिंदा कर देती हैं और उस का बालमन बुरी तरह आहत हो जाता है. वह एंग्जाइटी या लौंगटर्म स्ट्रैस का शिकार हो सकता है और आगे चल कर बुरी संगत में भी पड़ सकता है.

औपरेशन फेसबुक

मेरा विश्वास है कि अब तक आप सभी लोग आधुनिक युग के चेहरे की किताब यानी कि फेसबुक से तो अवश्य ही परिचित हो गए होंगे और आप के फेस की खुशी भी इसी बात में निहित होगी कि आप फेसबुक पर बने रहें. परिणामस्वरूप, आप को लोग जम कर लाइक करें. यहां पर दुनियाभर से प्राप्त रिपोर्ट्स के आधार पर मैं यह बात बहुत आसानी से कह पाने में समर्थ हूं कि फेसबुक जैसी सोशल मीडिया साइट्स के माध्यम से दुनियाभर के लोगों के मूड को दुनियाभर में आसानी से फैलाया जा सकता है. फेसबुक लोगों के इमोशंस को फेसटूफेस स्क्रीन के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप में फैलाता है. फेसबुक पर पोस्ट किए गए अरबोंखरबों अपडेट्स में इमोशनल पुट मिलता ही है. जब वह तरोताजा बादलों के मूड और उन के बरसने का व्याख्यान होता है तो दिल्ली शहर की चिलचिलाती गरमी में भी दिल्ली वालों को मौसम में नमी का एहसास होने लगता है. मन, बिन बरसात नाचे मयूरी, हो जाते देर नहीं लगती. क्या कहें जनाब, कवि निराला ने भी बादलों और बरसात पर इतनी कविताई नहीं की जितनी कविताई आधुनिक अतुकांत कविताई आजकल के युवकयुवतियां फेसबुक पर डाल कर अपने हिस्से में एक ही क्लिक पर तमाम सारे लाइक एकसाथ बटोर लेते हैं. निराला जिंदा होते तो आधुनिक अक्ल से पैदल इन कवियों से ईर्ष्या किए बिना नहीं रहते.

फेसबुक अकाउंट पर बादल के संबंध में यदि आप अपडेट पोस्ट करें, तो भला जिन शहरों में बारिश नहीं होने के आसार भी होंगे तो वहां भी कम से कम इमोशनल बारिश तो हो ही जाती है, वास्तविकता में भले ही धरती आग उगल रही हो. जी हां, ऐसा है हमारा आधुनिक दौर का फेसबुक कनैक्शन और इमोशन. पुराने समय में फेसबुक नहीं था तो प्रेमी अपनी प्रेमिका का चुंबन लेने के नायाब तरीके खोजता था. आजकल फेसबुक है, उस पर प्रेमिका का फोटो भी मौजूद है. कितना आसान है उस का चुंबन लेना. फोटो डाउनलोड करो, क्रोप करो और उस के गाल पर अपनी फोटो के होंठों को सटाओ, चिपका कर नजदीक ले आओ और चुंबन लो और फिक्स कर के कर दो पोस्ट. और तो और, इस नई फोटो के बारे में दुनियाभर से पूछ लो लाइक किया या नहीं?

प्रेमिका भी आधुनिक है. उसे अल्ट्रा माइल्ड सिगरेट पीने की लत है, इसलिए आधुनिक है. चुंबन लेने व देने से वह अब जरा भी नहीं शरमाती बल्कि गालों पर क्या शरीर के प्रत्येक अंग पर चुंबन करते हुए फोटो को पोस्ट करने की रिक्वैस्ट करने के बाद ही सिगरेट का दूसरा दम भरती हुई देखी जाती है.

आजकल आप ‘लेखक’, ‘चिंतक’, ‘राजनीतिज्ञ’, ‘डाक्टर’, ‘इंजीनियर’ या फिर ‘प्रोफैसर’ कुछ भी हों मगर फेसबुकिया न हुए तो कुछ भी न हुए. ‘शेयर’, ‘लाइक’, ‘कमैंट’ को यदि आप नहीं जानते तो आप अशिक्षित व पिछड़े हुए प्राणी की श्रेणी में ही रखने योग्य कहलाएंगे. आजकल आप ‘इंटरनैट’, ‘गूगल’, ‘याहू’, ‘औरकुट’, ‘ट्विटर’ नहीं जानते तो आप को शायद मनुष्य होने का अधिकार ही नहीं है. समाज आप को पशु के समान देखेगा. आप पशु कहलाएंगे, पशु. भाइयो और बहनो, इस दुनिया में तरहतरह की जनजातियां पाई जाती हैं. उन्हीं जातियों, जनजातियों और उपजातियों में से एक नई जाति पैदा हुई है वह है- फेसबुकिया. इसलिए कुछ भी न बन सको तो ‘फेसबुकिया’ अवश्य बनो

अपनी जिंदगी को बेकार और बोझिल समझने वाले अभी तक कुंआरे गुप्ताजी ने सोचा कि सक्सेनाजी लेखक हैं, जो भी कहेंगे या जो भी लिखेंगे, सच ही होगा, इसलिए उन्होंने ‘फेसबुकिया’ बनने के लिए दी गई मेरी नेक सलाह को सिरआंखों पर रख कर तुरंत खोल लिया अपना फेसबुक अकाउंट और लगे नएनए फ्रैंड्स बनाने. गुप्ताजी थे तो बहुत समझदार इंसान मगर उन के अंदर लड़कियों का सामना करने की हिम्मत बिलकुल भी नहीं थी. जिस को वे चाहते, उस के सामने आने पर प्रत्यक्षरूप से ‘आई लव यू’ बोलने और उस से शादी करने की हिम्मत जुटा पाना उन के बस की बात नहीं थी. किसी भी लड़की के सामने पड़ते ही उन के होंठ आपस में फैवीकोल का जोड़ हो जाते और हाथ भी बहनजी कह कर नमस्कार की मुद्रा में जुड़ने लगते. कृतज्ञता से ओतप्रोत हो कर वे किसी भी लड़की से अपने मन की बात कभी न कह पाते. ऐसी अवस्था में उन्हें ज्यों ही फेसबुक का सहारा मिला तो 2-4 नहीं, अनेक फ्रैंड्स बना डाले. चंद दिनों में ही उन्होंने कई दर्जन हसीनाओं को अपनी फ्रैंडलिस्ट में शामिल कर लिया.

फेसबुक अकाउंट पर लगी उन की प्रोफाइल व कई अंदाज में रंगीन फोटो के अपलोड्स को देख कर एक के बाद एक मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, बनारस आदि से फ्रैंड रिक्वैस्ट आने लगीं तो उन की खुशी का ठिकाना न रहा. अब गुप्ताजी को एहसास के साथ विश्वास हो चला कि ‘साला, कुछ भी हो, हैं तो हम भी बहुत ऊंची चीज. अमा यार, ऐसे ही नहीं इतने लोग हमें अपना फ्रैंड बनाने के लिए उतावले हैं.’

पुराने दिनों की याद करते हुए वे अपनेआप को कोसते और मन ही मन कहते, ‘यार, खामखां ही इतने दिन बेकार किए. आखिर, कितनी बेचैन हैं ये लड़कियां मुझे अपना फ्रैंड बनाने के लिए. आखिर यह सब मेरा प्रोफाइल देख कर ही तो मुझ से फ्रैंडशिप करने की रिक्वैस्ट भेजती होंगी. मैं कोई ऐरागैरा नत्थूखैरा थोड़े ही हूं. साक्षात दिखने में सुंदर जरूर नहीं हूं मगर फोटो में तो मैं किसी फिल्मी हीरो से कम नहीं दिखता. इसीलिए वे सब मेरी बनना चाहती हैं. अब मेरी मरजी जो इन में से मैं किस से, कब और कहां मिलूं.’ उन्होंने फिर अपनेआप को शाबाशी देते हुए अपनी मुट्ठी बांध कर जोर से आसमान में लहराई और कहा, ‘यस, आई एम ग्रेट.’ उन्हें लगा जैसे अब उन का जीवन पूर्ण हो गया. उन्हें सारे जहां की खुशियां मिल गईं.

एक दिन फेसबुक पर अपनी मनचाही लड़की की फ्रैंड रिक्वैस्ट पा कर गुप्ताजी ने फ्रैंडशिप स्वीकारते हुए पहली बार चैट शुरू की और महसूस किया कि वह उन के सामने बैठी है और वे उस का हाथ अपने हाथों में ले कर उस की सांसों की गरमाहट को महसूस भी कर रहे हैं. मन ही मन में उस के साथ अंतरंग क्षण में वे अपनेआप को समाहित भी महसूस करने लगे. वैसे गुप्ताजी सभ्य थे, इसलिए उन्होंने कभी भी अपनी पोस्ट लिखते समय या चैट करते समय अपने विचारों की लक्ष्मणरेखा पार नहीं की. हां, मन ही मन उतावले जरूर बने रहे. वे गिरना तो चाहते थे लेकिन ‘अभी नहीं, अभी नहीं’ कह कर वे खुद को सदा ही रोक लेते. लेकिन एक दिन वह अपनेआप को रोक नहीं पाए और उन्होंने उस मनचाही लड़की को लिखा, ‘‘मैं आप से मिलना चाहता हूं. कुछ बातें ऐसी होती हैं जो लड़कालड़की साक्षात आमनेसामने बैठ कर ही करें तो बेहतर रहता है. क्या आप मुझे अपना कीमती वक्त देंगी?’’

जवाब मिला, ‘‘मैं आप की फेसबुक फ्रैंड हूं और फेसबुक फ्रैंड ही रहना चाहती हूं. मुझे स्क्रीन पर आसानी से उपलब्ध फ्रैंड पसंद हैं. मैं साक्षात फ्रैंड बनाने में विश्वास नहीं रखती हूं क्योंकि मेरे मित्र, मैं भी आप के ही लिंग की हूं. वह तो मेरी मजबूरी थी कि मुझे आप से दोस्ती करने के लिए फेसबुक पर अपना लिंग परिवर्तित कर स्त्रीलिंग में आप से बातचीत करनी पड़ी. यही तो फेसबुक पर स्क्रीनमय फेसटूफेस होने का असली मजा है. बुरा न मानना मेरे प्यारे मित्र. फेक अकाउंट बना कर लड़कों को बेवकूफ बनाना मेरा शौक है. वादा करो कि यह सब जान कर तुम आत्महत्या नहीं करोगे. मेरे फेसबुकिया फ्रैंड, मेरी राय मानो तो जल्दी ही ‘शादी डौट कौम’ पर जा कर अच्छी सी लड़की ढूंढ़ कर शादी कर लो और प्रत्येक रात अपनी नईनवेली पत्नी के साथ भविष्य के नएनए पुल्लिंग और स्त्रीलिंग तैयार करने में व्यस्त हो जाओ.’’

इतना लिख कर वह सदा के लिए औफलाइन हो गई. गुप्ताजी ने भी तुरंत कंप्यूटर को शटडाउन किया और आंखें मूंद कर थोड़ी देर के लिए ध्यानमुद्रा में बैठ कर भविष्य में फिर से मन की शांति के लिए गहरी सांस ली. हम ने गुप्ताजी के टूटे हुए दिल पर अपनी संवेदनाएं प्रकट करनी चाहीं कि तभी शर्माजी आ धमके और बोले, ‘‘यार, सक्सेना साहब, आप को कब फुरसत मिलेगी मुझे लाइक करने की? मैं ने आज सुबह ही फेसबुक पर अपनी नई फोटो लगाई है. सुबह से 50 बार कंप्यूटर पर फेसबुक खोल कर देख चुका हूं. 5 हजार लोगों ने मुझे लाइक किया है, मगर आप की लाइक गायब है. कैसे परममित्र हो यार?’’

मैं ने कहा, ‘‘शर्माजी, मैं आप का परममित्र हूं, इसलिए फेसबुक पर आप के द्वारा लगाई गई फोटो को लाइक करूं या न करूं, क्या फर्क पड़ता है. रहूंगा तो आप का मित्र ही न.’’

‘‘नहीं यार, इस तरह बात नहीं बनेगी. अभी कंप्यूटर औन करो और फेसबुक खोल कर मेरी फोटो को लाइक करो. आप के लाइक करते ही मैं सब से कह सकूंगा कि पूरे 5001 लोगों ने मुझे लाइक किया है.’’

मैं ने भी सोचा कि जब ‘हींग लगे न फिटकरी रंग भी चोखा ही आए’ तो फिर कंप्यूटर औन कर के शर्माजी की फोटो को लाइक कर ही देता हूं. करना ही कितना होता है फेसबुक औन किया, माउस घुमाया, क्लिक किया और बस हो गया एक और लाइक. सो, तुरंत कर दिया. मेरे लाइक को प्राप्त करते ही शर्माजी बल्लियों उछलते हुए मेरे कक्ष की तरफ दौड़े तो अचानक उन का पैर मुड़ गया और वे सीढि़यों से फिसल कर गिर पड़े और बेहोश हो गए. उन्हें तुरंत पास के अस्पताल में भरती करवाया गया. होश आने पर अपने एक पैर और एक हाथ पर चढ़ा हुआ प्लास्टर देख कर बोले, ‘‘एक लाइक के चक्कर में मेरी यह हालत हो गई.’’ मैं ने मुसकरा कर अपना स्मार्ट फोन देते हुए कहा, ‘‘शर्माजी, जो हुआ सो हुआ. लो कर लो फिर से अपना फेसबुक अकाउंट अपडेट.’’

उन्होंने पहले तो मना किया लेकिन फेसबुक की लत के शिकार थे, इसलिए शीघ्र ही उन की उंगलियां मेरे दिए हुए स्मार्ट फोन पर थिरकने लगीं तो उन के फेसबुक अकाउंट पर उन के दुर्घटनाग्रस्त हो कर हाथपैर टूट जाने की तमाम सारी संवेदनाएं व सांत्वनाएं और जल्दी स्वस्थ हो जाने की ढेरों शुभकामनाएं तो थीं मगर प्रत्यक्षरूप से उन से मिलने कोई भी फ्रैंड अस्पताल में मौजूद नहीं था सिवा मेरे. यह देख कर उन्होंने मन ही मन कुछ सोचा और थोड़ा सा बुदबुदाए, मानो किसी को गाली दे रहे हों और तत्काल उन्होंने मोबाइल को स्विचऔफ कर मुझे वापस कर दिया. और बोले, ‘‘खबरदार, जो अब कभी मुझ से फेसबुक के बारे में बात भी की. मैं ने फेसबुक और उस पर आसानी से उपलब्ध अपने सभी 5 हजार फ्रैंड को सदा के लिए छोड़ दिया है. जो दुख में काम न आए वह फ्रैंड कैसा? यह बात अब मुझे अच्छी तरह से समझ आ गई है.’’

फेसबुक पर बढ़ती उम्र की महिलाओं को भी फ्रैंडबाजी का रोग लग जाता है कि वे आव देखती हैं न ताव, न उम्र देखती हैं न अपने बूढ़े अंग, न रूप देखती हैं न रंग. ये भी अपनेआप को भूखप्यास की चिंता किए बिना रोजाना ही 2-2, 3-3 घंटे लगातार कमैंट करने और लाइक करने के चक्कर से बाहर ही नहीं निकल पातीं. ऐसे में एक 50 वर्षीय महिला रीटा को जब अपनेआप को लाइक करवाने का चस्का लगा तो उस ने अपनी जवानी की फोटो फेसबुक पर लगा दी. उस की लिस्ट में तुरंत तमाम सारे युवा शामिल हो गए. एक युवक तो उस के चक्कर में ही पड़ गया और कमैंट करने लगा, ‘‘जवानी जाने मन, हसीन दिलरुबा, मिले दो दिल जहां, निसार हो गया.’’ बस, एक लाइक के चक्कर में वह युवक तो पागल हो गया और पागलखाने में उसे भरती करवाया गया. ऐसा होने पर भी उस की मम्मी अपने घर वालों को यह नहीं बता पाई कि वह पागलखाने में भरती किए जाने वाले पागल युवक की सगी मां है.

फेसबुक पर अपने ढेरों ‘लाइक’ और ‘कमैंट्स’ के चक्कर में अपने सगे बेटे को ही पागल करवा चुकी इस मां को अभी भी फेसबुक से दूरी बनाए रखने की बिलकुल तमन्ना नहीं थी क्योंकि उसे अपने बेटे के साथ रहने के सुख से ज्यादा फेसबुक पर बने रहने और कमैंट पढ़ कर मन ही मन खुश रहने में बहुत मजा आने लगा था. लेकिन, ऐसी आधुनिक महिलाओं के बारे में सोचसोच कर मैं तो बहुत परेशान था कि कैसा जमाना आ गया है, जो बेटे से ज्यादा फेसबुक प्यारा हो गया.

बच्चों के मुख से

मेरी बहन और उस का 5 वर्षीय बेटा मेरे पास आए हुए थे. उन दिनों आम का मौसम लगभग समाप्ति पर था. मेरे पति आम ले कर आए थे जिन में से एक आम, जो सब से बड़ा था, मैं ने बचा कर रख दिया ताकि खाने के समय काट कर सब को दे सकूं. बहन का लड़का बारबार फ्रिज के पास जाता, उसे खोल कर देखता और फिर बंद कर देता. यह क्रम वह लगभग हर 5 मिनट बाद दोहरा रहा था. मैं उस की इस हरकत को देख रही थी. आखिर मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘फ्रिज में से कुछ चाहिए, बेटा?’’ बच्चे ने तपाक से कहा, ‘‘बड़ी मम्मी, क्या इस आम का झाड़ उगाओगी?’’ बच्चे द्वारा मासूमी से कही बात पर मेरी हंसी छूट गई. बात 18 साल पुरानी हो चुकी है लेकिन आज भी फ्रिज में आम रखे देखती हूं तो घटना ताजी हो जाती है.

– विमला ठाकुर, महेंद्रगढ़ (हरि.)

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मैं मायके गई हुई थी. मेरा बड़ा बेटा तब ढाई साल का था. उसे हिंदी, इंगलिश का फर्क भी नहीं मालूम था. छोटी बहन दीवार पर कील ठोंकने का काम कर रही थी. उस ने मेरे बेटे से कहा कि अनुज, जरा वह हथौड़ी मुझे पकड़ा दो. बेटे ने पास ही पड़ी हथौड़ी बहन को दी और कहने लगा, ‘‘मौसी, आप लोग तो बड़े अंगरेज हो, हम लोग तो इसे हैमर कहते हैं.’’ यह सुन कर हम सब खूब हंसे.

– कीर्ति सक्सेना, बेंगलुरु (कर्नाटक)

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मेरी भतीजी की 4 साल की बेटी है. वह बहुत ही चंचल है. एक दिन उस की मौसी की शादी में लेडीज संगीत हो रहा था. वह भी डांस करने के लिए तैयार हो कर आ गई. फिर उस ने डांस किया. उस के डांस को सब लोगों ने बहुत पसंद किया. डांस कर के उस ने आ कर हम लोगों से पूछा, ‘‘बताइए, मैं ने कैसा डांस किया?’’ फिर थोड़ी देर बाद अपनी मम्मी से बोली, ‘‘मैं ने तो वह वाला पोज ही नहीं किया, मैं फिर से जा कर कर लूं?’’ यह सुन कर सभी हंसे बिना न रह सके.

– नीलिमा रायजादा, लखनऊ (उ.प्र.)

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मेरी बहन आभा अपनी बेटी की डिलीवरी के लिए अमेरिका गई थी. बेटी के बेटा हुआ. वह 4 दिन के बच्चे से प्यार से हिंदी में बोल कर उस के साथ दुलार कर रही थी, तभी उस की 4 वर्षीया नातिन बोली, ‘‘नानी, ही डज नौट नो हिंदी, स्पीक इन इंगलिश.’’ उस की बात सुन कर वहां पर उपस्थित सभी लोग हंस पड़े.

– अरुणा रस्तोगी, मोतियाखान (न.दि.)

रामू काका डौट कौम

रामू काका डौट कौम का बोर्ड जब मेरे कार्यालय के सामने प्रौपर्टी डीलर का बोर्ड हटा कर लगाया गया तो मेरी समझ में कुछ न आया. कैंपस में 12 दुकानें हैं और उन के पीछे कहीं सिंगल, कहीं डबलरूम सैट बने थे. आगे की दुकानों में ज्यादातर कार्यालय और पीछे सुविधानुसार रिहाइश या स्टोर. रामू काका डौट कौम वाली दुकान के पीछे 2 कमरों का सैट था, मतलब कोई परिवार रह सकता था. रामू काका डौट कौम का बड़ा सा बोर्ड दूधिया ट्यूबलाइट में जगमगा रहा था. कैंपस में एक डाक्टर का क्लीनिक, एक लैब, मैडिकल स्टोर, औप्टिकल सैंटर, मोबाइल रिपेयर, ब्यूटीपार्लर, फैशन पौइंट, रेडीमेड गारमैंट्स, बीमा एजेंट, एक हलवाई और एक नाई था. सीढि़यों के नीचे छोटी सी नाई की दुकान के आगे बौंबे हेयर कटिंग का बोर्ड टंगा था. कैंपस के सभी लोग अपनेअपने काम के साथ एकदूसरे के धंधे की चालाकियां, ग्राहकों की नौटंकी और आने वाले लोगों पर पूरी नजर रखते.

खाली समय में एकदूसरे पर तंज कसते और खट्टीमीठी नोंकझोंक मनोरंजन का काम करती. अलगअलग कामधंधे के बावजूद पूरा कैंपस एक यूनिट की तरह था. किसी एक के साथ गड़बड़ होती तो सभी का समर्थन तुरंत मिल जाता. कैंपस से ग्राहक खाली हाथ न लौटे, यह सामूहिक प्रयास रहता. रामू काका डौट कौम का कार्यालय 4 दिनों तक जब नहीं खुला तो कैंपस में चर्चा आम हो गई. आखिर है क्या बिजनैस? कौन रहेगा, क्या करेगा? सभी जानने के लिए उत्सुक. कानाफूसी हो रही थी – न जाने क्या धंधा होगा, कैंपस को सूट भी करेगा या नहीं. नाम तो कुछ मौडर्न, कुछ अजीब सा है-रामू काका डौट कौम. 5 दिन बाद एक तिलक, चुटिया, धोतीधारी अधेड़ ने कार्यालय खोला. 2 गंवई से युवक उन के साथ थे.

मेरा बीमे का काम सुबह के समय कम रहता है, हाथ में नए वर्ष का कलैंडर उठाए मैं ने उन के कार्यालय में दस्तक दी. उन्होंने तुरंत अभिवादन करते हुए स्वागतम की मुद्रा में हाथ जोड़े. मैं ने संक्षेप में अपना परिचय दिया और हाथ में पकड़ा बीमा निगम का कलैंडर आगे बढ़ा दिया. कामकाज तो उन के पास भी न था, न कोई ग्राहक. मैं ने अंदर झांक कर देखा, कोई सामान न था. कार्यालय में कुछ ही चीजें नजर आईं- एक लैंडलाइन जैसा हैंडसैट वाला टैलीफोन, दीवार पर टंगा 14 इंच वाला रंगीन टीवी, एक लैपटौप, 4-6 कुरसियां और वाटरकूलर के ऊपर औंधा धरा गिलास. मैं ने पूछा, ‘‘भाईसाहब, कब कर रहे हो शुरुआत?’’

‘‘अरे, वह तो हो गई. बैठ गए न गद्दी पर. अब देखते हैं, क्या होता है.’’

‘‘माल कब आ रहा है?’’ मैं ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘माल थोड़े न बेचेंगे.’’

‘‘तो खरीद करोगे?’’

‘‘न खरीदेंगे, न बेचेंगे.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मैं, राधेश्याम राधेश्याम, एक कंपनी चलाता हूं. यहां सिर्फ औफिस रहेगा.’’ मेरे पल्ले अभी भी कुछ खास न पड़ा था, उस ने ज्यादा खुलासा न किया और अपनी नजरें टीवी पर गड़ा दीं. मैं वापस अपने औफिस आ गया यह सोच कर कि मार्केट में बैठा है, क्या करेगा, एक दिन तो पता चल ही जाएगा.

दूसरे दिन सुबह अखबार खोला तो उस में रामू काका डौट कौम का परचा पाया. उस में लिखा था, ‘घरेलू नौकर, रसोइया, माली, वौचमैन, केयरटेकर के लिए उम्दा एवं भरोसेमंद सेवा अब आप के शहर में आप के द्वार पर उपलब्ध है. काम देख कर रेट तय होगा. केवल पुरुष नौकर के लिए ही आवेदन करें. महिलाओं की सेवा हेतु गंगू बाई डौट कौम पर संपर्क या लौग इन करें.’ परचे में नीचे 2-3 मोबाइल नंबर और मेल आईडी लिखी थी. लोकल टीवी चैनल पर विज्ञापन की पट्टी लगातार चल रही थी, ‘उचित दामों पर प्रशिक्षित घरेलू नौकर, रसोइया, माली, वौचमैन, केयरटेकर के लिए संपर्क करें- रामू काका डौट कौम, स्वामी हरिगिरी कौंप्लैक्स.’ सुबह 11 बजने तक कौंप्लैक्स में भीड़ जुटनी शुरू हो गई. रामू काका डौट कौम में खूब चहलपहल थी. 2-4 क्लाइंट हर वक्त लाइन में रहे.

संचालक राधेश्याम बता रहे थे, ‘‘सर, हमारी सेवाएं लीजिए, सभी झंझटों से छुटकारा पाएं. पुलिस वैरीफिकेशन से ले कर कोई नौकर बड़ा नुकसान कर दे या मालमत्ता ले कर भाग जाए, उस की जिम्मेदारी हमारी. रजिस्टर्ड संस्था है. हमारे पास लगभग सभी जाति के नौकर मिलेंगे, ज्यादातर ब्राह्मण हैं जिन से आप रसोई और अन्य सभी काम ले सकते हैं. एक महीना रख कर देखिए, काम में शिकायत हो तो हमारे नंबर पर शिकायत दर्ज करवाएं. 24 घंटे के अंदर रिजल्ट मिलेगा. फिर भी संतुष्ट न हों तो पहली तारीख को तबादला कर के दूसरे की व्यवस्था करना हमारी जिम्मेदारी रहेगी.’’

एक पार्टी ने पूछा, ‘‘ब्राह्मण ही क्यों रखे हैं?’’

‘‘क्या करें साहब, आरक्षण की मार से त्रस्त हैं. थोड़ीबहुत नौकरियां हैं तो वे उच्च कुलीन, सरमाएदार सवर्णों के लिए हैं. हम गरीबगुरबा तो यही करेंगे. घर से कोसों दूर कौन भांडे माज रहा है और कौन झाड़ू दे रहा है, यह कौन जानता है. बस, घर का चूल्हा जलना जरूरी है. इस के लिए हम गांवदेहात से योग्य एवं ईमानदार लोग भरती करते हैं. उन्हें प्रशिक्षित करते हैं. फिर योग्यतानुसार काम देते हैं ताकि नौकर और मालिक को कोई परेशानी न हो. इस कार्यालय में हर माह मालिकों की मीटिंग होती है. वहां वे अपनी समस्याएं बता सकते हैं.’’

दूसरी पार्टी ने पूछा, ‘‘वेतन कैसे तय करते हैं?’’

‘‘फिक्स रेट है जी. यह बोर्ड देखिए-

साधारण घरेलू नौकर – 5 हजार रुपए प्रतिमाह.

वौचमैन, केयरटेकर – 5 हजार रुपए प्रतिमाह.

माली – 6 हजार रुपए प्रतिमाह

रसोइया एवं ड्राइवर – 7 हजार रुपए प्रतिमाह.’’ बोर्ड के नीचे एक नियमावली भी चस्पां थी- ‘झाड़ूपोंछा, बरतन मांजना कपड़े धोना, कुत्ता पालने का अतिरिक्त रुपया देना होगा. साधारण नौकर माली, रसोइया और वौचमैन के काम नहीं करेगा. वौचमैन किसी का सामान नहीं उठाएगा. रसोइया शाकभाजी एवं दालमसाले बाजार से स्वयं लाएगा, मालिक को केवल रुपए देने होंगे.’ बीच में बोल्ड अक्षरों में एक विज्ञापन था- ‘रामू काका डौट कौम आएं घरेलू झंझटों से छुटकारा पाएं, चार दिन की चांदनी है, जीवन को मजेदार बनाएं.’

‘फार्म पर पता, फोन नंबर, पद, पेशा अवश्य भरें तथा घोषित करें कि वे नौकरों पर घरेलू हिंसा नहीं करेंगे, और वेतन हर माह की 2 तारीख को ऐडवांस जमा करवाएंगे. फार्म का मूल्य केवल 100 रुपए.’ नीचे एक चलताऊ सी तुकबंदी लिखी थी- ‘नौकर के लिए रिहाइश, खानापीना, कपड़ा, जूता मालिक के सिर.’ जब से रामू काका डौट कौम हमारे शौपिंग कौंप्लैक्स में आया है, रौनक बढ़ गई है. चायसमोसे वाले की तो पौबारह हो गई. खुद राधेश्याम शाम तक खूब चाय और ठंडा मंगवाता है. अमीर लोगों की गाडि़यों की रेलमपेल मची रहती है. कौंप्लैक्स में हर किसी का बिजनैस बढ़ा है. महीनाभर लोग रजिस्ट्रेशन करवाते रहे. नौकरों की पहली खेप ब्लैक में बंटी. अतिरिक्त सरचार्ज देने वाले को नौकर पहले उपलब्ध करवाए गए. फिर दूसरी और तीसरी खेप भी शहर में सेवार्थ आ पहुंची. देरी से रजिस्ट्रेशन करवाने वाले प्रतीक्षा सूची में पड़ेपड़े इंतजार कर रहे थे. धंधा चल निकला, प्रतीक्षा सूची लंबी होती गई.

कुछ दिनों तक सब ठीक चला मगर महीने बाद ही शिकायतों की फाइल मोटी होने लगी, टैलीफोन की घंटी घनघनाने लगी. राधेश्याम ने अब अपने 2 रूम सैट के एक कमरे को अदालत में तबदील कर लिया. शिकायत वाली फाइल खुलती, जिस नौकर की शिकायत निकलती, राधेश्याम उस का 500 रुपया उस के वेतन से पहले ही काट लेते, फिर होता शिकायत का निबटारा. दोबारा शिकायत आने पर 1 हजार रुपए काटे जाते. शिकायत में लिखी एकएक बात विस्तार से पूछी जाती. उत्सुकतावश मैं भी खाली समय में राधेश्याम की अदालत में कार्यवाही देखने पहुंच जाता. केस नं. 1 : पहला मामला राम गोपाल के यहां काम कर रहे लल्लू का था. राधेश्याम ने जिरह शुरू की. खुद ही आरोपी और खुद ही जज, ‘‘हां, तो लल्लू, यह बताओ कि 4 किलो दूध की मलाई रोजरोज कहां गायब हो जाती है? और टौयलेट में बीड़ी पीने के बाद हाथ भी नहीं धोते? बोल, सुधरेगा या कटवा दूं वापसी का टिकट?’’

‘‘माफ कर दें बड़े भाई, आगे ऐसा नहीं होगा.’’

‘‘चल, भाग ले अब.’’

केस नं. 2 : दूसरा मामला भीमश्री रंगनाथन के नौकर का था. राधेश्याम ने डपट कर पूछा, ‘‘तो रजकजी, ‘‘बताइए सब्जीभाजी, दही और बडि़यां लेने में कितना टांका लगा रहे हो? हिसाबकिताब पर मालिक को प्रवचन सुनाते हो. रजक की औलाद, वहां गांव में मैला ढोने की भी मजदूरी नहीं मिलती. सुधरेगा या जाएगा गांव वापस?’’

रजक ने पैर पकड़ लिए, ‘‘दोबारा गलती न होगी, दाऊ.’’

केस नं. 3 : मामला प्रीति खन्ना के घर में काम कर रहे चुन्नू का था. राधेश्याम ने पूछा, ‘‘चुन्नू, बताओ फूलपौधों के नाम आई खाद और स्प्रे कहां बेच दी? खाली पानी का छिड़काव करते फिरते हो?’’

‘‘यह सरासर झूठ है, हम चोर नहीं.’’

‘‘अबे मंडल के डंडल, अक्ल होती तो यहां आ कर घास क्यों छीलता. तू ने माल भी बेचा तो अपने मालिक के रिश्तेदार की दुकान पर…फिर ससुरा किस मुंह से हरिश्चंद्र बन रहा है. चल, तेरा तबादला करता हूं खान की जगह, उस की जगह पहुंच जा और उसे अपनी जगह भेज दे.’’

केस नं. 4 : धनपत के यहां काम कर रहे कमल का मामला था. राधेश्याम ने जिरह की, ‘‘कमल, यह बताओ कि तुम्हें भांडे मांजने या झाड़ू बुहारने के लिए भेजा है या ज्ञान झाड़ने? मालिक कितना भी बड़ा मूर्ख क्यों न हो, उस के आगे ज्ञान दिखाने या बड़ा बनने की जरूरत नहीं. तुम छोटे रहोगे तो ही उन्हें मालिक होने की फीलिंग आएगी. मालिक के आगे ज्ञान दिखाने की जरूरत नहीं. लल्लू बने रहो. और हां, तुम उन की व्हिस्की की बोतल से पैग निकाल कर उस में पानी क्यों डाल देते हो? चलो दफा हो जाओ, दोबारा शिकायत आई तो हजार रुपए काट लूंगा.’’

केस नं. 5 : मामला एक बंगले में रखवाली करते चिंटू का था. राधेश्याम ने उस से कहा, ‘‘चिंटू, आप ने मालिक के टौमी के साथ क्या किया, स्वयं ही बताओ, क्या समस्या है?’’

‘‘क्या बताऊं, दाऊ, अपनी जिंदगी तो कुत्ते से भी बदतर है. शैंपू से नहाना, गाड़ी में जाना. मालिक उसे दिन भर साथ घुमाते हैं तो रात को साथ सुलाते हैं. उसे टौयलेट कराने मैं ले जाता हूं, फिर भी काटने को मुझे ही दौड़ता है. यह देखिए, मेरी टांग. जहांतहां कितनी बार नोंच ली. मालिक कहता है टीके लगवाए हैं, कुछ न होगा. मैं ने उसे भांग की गोली दी, तो फिर वह अपनी ही पूंछ को पकड़ने के लिए 3 दिन गोलगोल घूमता रहा.’’

‘‘अबे मुसहर के मूसल, बड़े लोग हैं, गायभैंस तो पालेंगे नहीं. तुम लोग कुत्तों से बैर रखोगे तो हो गई नौकरी. अपनाअपना समय है, समझते क्यों नहीं. चल, दोबारा ऐसा मत करना.’’

केस नं. 6 : मामला ऐश्वर्या के घर पर नौकरी करने वाले सूमू द्विवेदी का था. राधेश्याम ने उस से पूछा, ‘‘द्विवेदी, बताओ, मालकिन के सिर मालिश करतेकरते तबीयत बिगड़ गई कि इधरउधर हाथ मारने लग पड़े. शुक्र है मालिक ने तुझे 4 जूते मार कर छोड़ दिया, गोली नहीं मारी. तेरे बच्चे सारी उम्र जूते गांठते रहते.’’

‘‘हम तो रोज ही अच्छे से मालिश करते रहे दाऊ. मालकिन ने कई बार इनाम भी दिया है. अब मालिक ने देख लिया तो हम क्या करें? मालकिन ने तो कुछ नहीं कहा, दाऊ.’’

‘‘अबे, अक्ल के अंधे, मालिशवालिश छोड़, आज से तुझे वौचमैन की ड्यूटी पर लगाता हूं. तन कर खड़े रहना सारा दिन तब अकड़ टूटेगी तेरी.’’

केस नं. 7 : मामला रमा देवी के कार्यालय में सेवक का कार्य कर रहे रूप का था. राधेश्याम ने रूप को डांटा था, ‘‘अरे द्विवेदी, वौचमैन की वरदी में खुद को एसएसपी समझने लगे हो? क्या जरूरत है सोसाइटी की महिलाओं के बैग की तलाशी लेने की? महिलाओं के अंडरगारमैंट्स निकालनिकाल कर क्या ढूंढ़ रहा था? यह ठीक रहा कि मालिक 4-6 जूते मार कर छोड़ दिया वरना तेरी खाल खींच लेते वे. बोल, कहां भेजूं?’’

केस नं. 8 : सेना के एक कर्नल की कोठी में काम करने वाले केयरटेकर गंगू  का मामला था. राधेश्याम ने कहा, ‘‘गंगू, तुम बताओ कर्नल साहब की कोठी को रैस्टहाउस बना डाला. सारे शहर के जुआरी और शराबियों का अड्डा बना रखा है और फिर सफाई भी नहीं रखते. शुक्र मनाओ कि उन की बेटी आ धमकी. कर्नल साहब पधारे होते तो तुम कहां होते, पता न चलता. कल से माया सोसायटी चले जाओ, तन कर 12 घंटे खड़े होगे तो सारी होशियारी चली जाएगी.’’ शाम को औफिस से निकलने लगा तो राधेश्याम ने आवाज दी, ‘‘बाबू साहब, आज रुको हमारे पास, पार्टी करेंगे.’’ कुछ खानेपीने के बाद राधेश्याम खुद ही बोले,

‘‘लगता है रामू काका डौट कौम बंद ही करनी पड़ेगी.’’

मैं ने पूछा, ‘‘क्यों, अच्छीभली तो चल रही है, पैसा भी खूब कमा रहे हो.’’

कामचोर, निखटू लोगों की जो जमात मैं ने इकट्ठी कर रखी है.

‘‘ऊंह, पैसा तो है मगर किसी दिन ये सारे मुझे मरवा देंगे.’’

‘‘मैं समझा नहीं?’’

‘‘बाबूजी, ये सारे निखद किसी काम के नहीं. गांव में 2 दिन की मजदूरी के लिए तरसते हैं, यहां अच्छा खातेपीते ही इन के दिमाग पर चरबी चढ़ जाती है.  अच्छे घरों में, बढि़या जगहों पर काम दिला दिया. अच्छा खापी रहे हैं. मगर इन के काम वही रहे. बाहर जा कर मजदूरी भी करें तो हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी पल्ले कुछ नहीं पड़ता, रोटीपानी और किराएभाड़े में ही खत्म हो जाते हैं.’’

राधेश्याम पुन: बोले, ‘‘पहले गंगू बाई डौट कौम पिटी.’’

‘‘मतलब?’’

तब उन्होंने सोचते हुए कहा कि अरे यार, वहां भी यही हाल हुआ था जो यहां हो रहा है. काम करना ही कौन चाहता है. मुफ्त की रोटियां तोड़ना चाहते हैं. भइया, अब तो यहां से बोरियाबिस्तर उठाने में ही भलाई है.

भवन निर्माताओं की दिक्कतें

भवन निर्माताओं को कठघरे में खड़ा करने की आदत देशभर में बुरी तरह फैली हुई है. लोगों को मकान चाहिए पर वे मकान बनाने की दिक्कतों को न तो समझने को तैयार हैं और न ही सरकार पर दबाव बनाने को. आम लोग अब जमीन खरीद कर मकान बनाने से कतराते हैं क्योंकि वे मकान बनाने में आने वाली अड़चनों का सामना नहीं कर सकते. पर जब वे पैसे ले कर भवन निर्माता के पास जाते हैं तो उन्हें लगता है कि सैकंडों में वह काम हो जाएगा जो वे वर्षों में नहीं कर पाते. भवन निर्माण में सरकारी अड़चनों की कोई सीमा नहीं है. जमीन खरीदी से ले कर अंत तक न जाने कितने फौर्म भरने पड़ते हैं. तब कहीं जा कर खरीदार उस में रह पाता है. ऊपर से जब से भवन निर्माण में तेजी आई है, मजदूर मिलने कम हो गए हैं. बैंक कर्ज देते हैं पर वह स्रोत कहीं बीच में न रुक जाए, यह डर बना रहता है.

मकानों के बाजार में ऊंचनीच चलती रहती है. लोगों की पसंद कब बदल जाए, पता नहीं चलता. जो इलाके शहर के अच्छे माने जाते थे और जहां दाम कुछ ज्यादा थे, देखतेदेखते स्लम और ट्रैफिक की चपेट में आ कर कब खराब हो जाएं, पता नहीं चलता. एक बाग के सामने बना मकान अच्छे पैसे देता है पर बाग की जगह पर कब कारखाना, स्कूल, मंडी या डंप उग आएं, कहा नहीं जा सकता. भवन निर्माताओं की इन दिक्कतों को कोई नहीं देखता. सरकार भवन निर्माताओं पर पेंच कसने के नियमकानून बना रही है. उपभोक्ता अदालतें लगातार भवन निर्माताओं के विरुद्ध फैसले देती रहती हैं. सुप्रीम कोर्ट में अकसर भवन निर्माताओं को फटकार पड़ती है, बनेबनाए मकानों को तोड़ने के आदेश दे दिए जाते हैं.

जिस देश में सड़कों पर कब्जा कर दुकान चलाना मौलिक हक सा बन गया हो, जहां सैकड़ों एकड़ खाली जगह पर दशकों से झुग्गीझोंपडि़यां बसी हों, जहां कोई नगरनिगम, राज्य सरकार या केंद्र सरकार 5 मील लंबी साफ व बाधारहित सड़क नहीं बना सकती हो, जहां सरकारी मकान भद्दे व कच्चे बनते हों, वहां भवन निर्माताओं को खलनायक सिद्ध करना कैसे सही कहा जा सकता है. ठीक है कि भवन निर्माताओं ने पिछले दशकों में बहुत कमाई की है पर उस तरह की कमाई किसानों और मकानमालिकों ने भी की है. उन दोनों की कमाई सिर्फ इस बात पर हुई है कि शहरीकरण तेजी से बढ़ा और कौडि़यों की जमीनों के दाम करोड़ों तक पहुंच गए. इस गुनाह के साझेदार सारे ही लोग हैं, सरकार सब से बड़ी.

भवन निर्माण आवश्यकता है. रोटीकपड़े के बाद मकान की जरूरत अहम है. उसे बनाने वाला पैसे के साथ सम्मान चाहता है, कोरी गालियां नहीं. नए कानून जो बनाए जा रहे हैं उन में सभी दिक्कतों का खयाल रखा जाए. भवन निर्माण में आने वाली सरकारी रुकावटें पहले दूर हों. और तब भी अगर भवन निर्माताओं की ओर से गड़बड़ी हो तो ही उन्हें कठघरे में खड़ा किया जाए.

कहानी पर तकनीक हावी न हो: इम्तियाज अली

झारखंड के जमशेदपुर के रहने वाले निर्देशक इम्तियाज अली का मानना है कि फिल्म बनाने के लिए सब से जरूरी चीज कहानी है. आप के पास दर्शकों से कहने के लिए कुछ होना चाहिए. कहानी ऐसी होनी चाहिए जो जिंदगी से मिलतीजुलती हो. वे बताते हैं कि वे कहानी की खोज में खूब घूमते हैं और कई लोगों से मिलते हैं. एक लेखक और निर्देशक को समाज व उस की समस्याओं से रूबरू होना बहुत जरूरी है. आज फिल्म इंडस्ट्री में कहानी पर तकनीक हावी हो गई है. कहानी फिल्म की जान होती है और जब किसी चीज में जान ही न हो तो उस से क्या उम्मीद की जा सकती है. पिछले दिनों उन से हुई मुलाकात के दौरान उन्होंने बताया कि तीसरी क्लास से 8वीं क्लास तक की पढ़ाई उन्होंने पटना में की थी. 44 साल के इम्तियाज कहते हैं कि बिहार की किसी थीम पर वे फिल्म बनाना चाहते हैं और इस के लिए वे अच्छी कहानी की तलाश में हैं. पटना के नेट्रोड्रम और सैंट माइकल स्कूल से पढ़ाई करने के बाद आगे की पढ़ाई उन्होंने जमशेदपुर में की और उस के बाद दिल्ली के हिंदू कालेज से ग्रेजुएशन किया. जल्द ही उन की किसी फिल्म में बिहार या झारखंड नजर आ सकता है.

वे कहते हैं कि पढ़ाई के दौरान उन्होंने फिल्म के बारे में कुछ नहीं सोचा था और इस बारे में कुछ जानकारी भी नहीं थी. स्कूल में पढ़ाई के दौरान नाटक करते थे. पिता ने कभी भी उन्हें नाटक करने से मना नहीं किया. नाटक की पटकथा लिखने और निर्देशन का काम वे खुद ही करते थे. पढ़ाई के दौरान काफी कविताएं भी लिखीं. लेखन से ले कर टैलीविजन के कई शो को डायरैक्ट किया. युवाओं की थीम पर फिल्में बनाने के लिए मशहूर इम्तियाज अली कहते हैं कि उन का जैसा मन करता है, वैसी फिल्में बना देते हैं. फिल्में सफल होंगी या नहीं, इस की चिंता नहीं करते हैं. आगे वे कहते हैं कि जब किसी चीज को पूरे मन और मेहनत से किया जाए तो उसे कामयाबी मिलती ही है.

साल 2004 में फिल्म ‘ब्लैक फ्राइडे’ में ऐक्ंिटग कर अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत करने वाले इम्तियाज का मन ऐक्ंिटग में नहीं रमा और साल 2005 में उन्होंने ‘सोचा न था’ फिल्म का निर्देशन किया. उस के बाद साल 2007 में फिल्म ‘जब वी मेट’ की कामयाबी ने हिंदी सिनेमा में निर्देशक के तौर पर उन के पांव जमा दिए. उस के बाद तो इम्तियाज कामयाब फिल्मों की गारंटी ही बन गए. ‘लव आजकल’, ‘रौकस्टार’, ‘कौकटेल’, ‘हाइवे’, ‘तमाशा’ आदि फिल्मों की कामयाबी ने उन्हें बेहतरीन निर्देशकों की कतार में खड़ा कर दिया. उन की हर फिल्म के केंद्र में प्रेम के होने के सवाल के जवाब में वे कहते हैं कि मोहब्बत ही उन की फिल्मों की यूएसपी है. प्रेम कहानियों में हर मोड़ पर नयापन और बदलाव आता रहता है और दर्शक उस से बंधे रहते हैं. वे कहते हैं कि निर्देशक को काफी और लगातार पढ़ते रहने की दरकार है, तभी वह अपनी फिल्मों में नयापन और सचाई पेश कर सकेगा. ज्यादातर फिल्म निर्देशकों को कहानी, कविता, गीत, संगीत आदि की कोई समझ ही नहीं होती है, जिस का असर उन की फिल्मों पर साफतौर पर दिखाई देता है.

आर्ट और कमर्शियल फिल्म के अंतर के बारे में इम्तियाज का मानना है कि कोई अंतर नहीं है. हर फिल्म बनाने वाला चाहता है कि उस की फिल्म बौक्स औफिस पर चले. कोई भी नुकसान उठाने के लिए फिल्म नहीं बनाता. फिल्ममेकर अपनी सोच के हिसाब से फिल्में बनाते हैं और क्रिटिक ही उसे आर्ट और कमर्शियल फिल्मों के खांचे में बिठा देते हैं. फिल्म बनाना ही एक बहुत बड़ा आर्ट है और हर फिल्म में आर्ट होता ही है.

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