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प्यार के सीन मुश्किल: पत्रलेखा

हिंदी फिल्म ‘सिटी लाइट्स’ से ऐक्टिंग के क्षेत्र में कदम रखने वाली 26 साल की पत्रलेखा मेघालय के शिलौंग शहर की रहने वाली हैं. उन्हें बचपन से ही ऐक्टिंग करने का शौक था, जिस में इन के मातापिता ने साथ दिया. इस समय पत्रलेखा फिल्म ‘लव गेम्स’ में लीड हीरोइन का रोल निभा रही हैं. पेश हैं, उन से हुई बातचीत के खास अंश:

आप ने ऐक्टिंग के क्षेत्र में आने की कैसे सोची?

मैं बचपन से ही ऐक्टिंग करना चाहती थी. मैं असम में बोर्डिंग स्कूल में गई. वहां जितने भी कल्चरल प्रोग्राम होते थे, मैं उन में भाग लेती थी. थिएटर और डांस मेरा शौक था. फिर कालेज के लिए मुंबई आई, पर मुझे तो ऐक्टिंग करनी थी.

कालेज के आखिरी साल के दौरान मेरी पहचान एक शख्स से हुई, जो इश्तिहारों के लिए काम करता था. मैं ने उस की मदद ली और उस ने मेरा पोर्टफोलियो बनवा कर सभी विज्ञापन हाउसों में भेजा. उस शख्स ने मुझे एक इश्तिहार भी दिलवाया, जिस से मुझे 5 हजार रुपए मिले थे.

इस के बाद मैं ने कई इश्तिहारों में काम किया. लेकिन मुझे फिल्म नहीं मिल रही थी. फिर मैं ने कास्टिंग डायरैक्टर अतुल मोंगिया से पूछा कि मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है? मुझे काम क्यों नहीं मिल रहा है? उन्होंने मुझे वर्कशौप करने की सलाह दी.

मैं ने बैरी जौन और कई ऐक्टिंग क्लासेस में वर्कशौप की. इस से मुझे पता चल गया था कि कैमरे के आगे क्या करना है. फिर मुझे फिल्म ‘सिटी लाइट्स’ मिली. उस में सब ने मेरी ऐक्टिंग की तारीफ की.

आप के लिए शिलौंग से मुंबई आ कर रहना कितना मुश्किल था?

मेरे लिए ज्यादा मुश्किल नहीं था, क्योंकि मैं 5वीं क्लास से बोर्डिंग स्कूल में पढ़ रही थी. मुझे अपना काम खुद करने की आदत है. मुंबई में पैसों की समस्या नहीं आई. मेरे मातापिता ने हमेशा मेरा साथ दिया, पर यह बिजी शहर है. यहां किसी के पास समय नहीं है. सब जैसे भाग रहे हैं. ऐसे में मैं शिलौंग के अपनेपन को याद करती हूं.

क्या आप को कभी कंप्रोमाइजजैसे शब्दों का सामना करना पड़ा?

सच बताऊं तो नहीं. जब आप को किसी काम के लिए औफर्स आते हैं, तो वे सामने वाले की बौडी लैंग्वेज को देखते हैं. अगर उन्हें कुछ महसूस हुआ, तभी ऐसी नौबत आती है. मैं सोचती हूं, वह साफसाफ कह देती हूं.

आप की फिल्म लव गेम्सकैसी है?

यह एक थ्रिलर रोमांटिक फिल्म है. पहली फिल्म में मैं ने साधारण घरेलू औरत का किरदार निभाया था, लेकिन इस फिल्म में मेरा किरदार एक चालाक, सैक्सी और मजबूत औरत का है. ऐसी स्टोरी मैं ने कभी नहीं सुनी, इसलिए मुझे काफी तैयारियां करनी पड़ीं. अपने किरदार को समझने के लिए मैं हाई सोसाइटी की कई पार्टियों में गई.

इस तरह की फिल्मों में लव सीन ज्यादा होते हैं. ऐसे सीन करना आप के लिए कितना आसान रहा?

ऐसे सीन करने में थोड़ी दिक्कत होती है. फिल्म ‘सिटी लाइट्स’ में भी मैं ने ऐसे सीन किए थे. तब मैं राजकुमार राव के साथ थी. मैं ने डायरैक्टर हंसल मेहता को यह बात बताई थी. तब कैमरामैन और उन के सामने हम दोनों ने ऐक्टिंग की थी.

इस फिल्म में भी समस्या आई, पर मुझे समझना पड़ा कि यह भी एक तरह का डायलौग है, जिसे फिल्माना है.

आप के और राजकुमार राव के संबंधों की काफी चर्चा है. यह बात कितनी सही है?

हम दोनों काफी समय से रिलेशनशिप में हैं. मैं शादी और रिलेशनशिप दोनों को अहमियत देती हूं. मेरे लिए दोनों एकसमान हैं.

आप अगर कलाकार न होतीं, तो क्या होतीं?

तो अपने पिता की तरह चार्टेड अकाउंटैंट होती.

आप कितनी फैशनेबल हैं?

जो आरामदायम हो, मैं वैसे कपड़े पहनती हूं.

आप को खाने में क्या पसंद है?

बंगाली मिठाई मेरी फेवरिट डिश है. मैं चावल के साथ झींगा मछली, कश्मीरी चिकन और पुलाव खाना बहुत पसंद करती हूं.

आप किस तरह की फिल्में करना चाहती हैं?

मैं ‘द डर्टी पिक्चर्स’ और ‘कहानी’ जैसी फिल्में करना चाहती हूं.                 

वैवाहिक बंधन की ढीली पड़ती गांठ

इंस्टेंट फ़ूड की संस्कृति में जन्मों जन्मों तक साथ रहने, हर सुख दुःख में एक दूसरे का साथ निभाने वाले सात फेरों की वैवाहिक बंधन की गांठ ढीली पड़ती दिखाई दे रही है. विवाह अब  पवित्र रिश्ता नहीं रह कर महज एक कांट्रेक्ट रह गया है, जहाँ विवाह का अर्थ स्वच्छंदता और मनमर्जी मात्र रह गया है, जहाँ पतिपत्नी अब महज पार्टनर बन कर रह गये हैं .

आम लोगों की वैवाहिक  ज़िन्दगी का  बदला यह रूप बॉलीवुड नगरी पर भी दिखाई दे रहा है. बॉलीवुड एक्टर्स की ग्लैमर भरी  ज़िन्दगी जो आम लोगो  को बाहर से  खुशियों से भरी नज़र आती हों लेकिन असल में स्थितियां उनके लिए भी आम आदमी की ज़िन्दगी की तरह एक जैसी ही बनती बिगड़ती हैं. पिछले कुछ समय में हमने कई बॉलीवुड कपल्स के सालों के रिश्ते को टूटते हुए देखा है. ये  टूटते रिश्ते  आखिर सिवा अकेलेपन, रिश्तों में कडवाहट और ख़बरों की सुर्खिया बनने  के अलावा और भला क्या देते हैं.

बॉलीवुड में आए दिन किसी न किसी जोड़ी के टूटने की खबर आ रही है. हाल ही में करिश्मा कपूर और उनके पति संजय कपूर के रिश्तों की डोर के  टूटने की खबर समाचार पत्र की सुर्खियाँ बनी. 29 सितंबर, 2003 को दोनों ने बड़े धूम धाम से शादी की थी. ये संजय कपूर की दूसरी, जबकि करिश्मा की पहली शादी थी. 14 साल पहले अभिनेत्री करिश्मा कपूर और कारोबारी संजय शादी के जिस बंधन में बंधे थे अब उनमें तलाक पर समझौता हो गया है. दोनों के बीच बच्चों की कस्टडी को लेकर पेंच फंसा हुआ था जो आपसी समझौते से सुलझा लिया गया है.

दोनों के बीच तलाक का जो फॉर्मूला तैयार किया गया है उसके मुताबिक दोनों बच्चे करिश्मा के पास ही रहेंगे. संजय हर महीने 2 वीकेंड बच्चों के साथ बिता सकेंगे. गर्मी और जाड़े की छुट्टियों का आधा वक्त भी संजय बच्चों के साथ वक्त गुजार सकेंगे. बच्चों के बालिग होने पर पढ़ाई और शादी का आधा खर्च संजय ही देंगे. इसके साथ ही मुंबई में संजय कपूर के पिता का मकान करिश्मा के नाम हो जाएगा. साथ ही संजय ने दोनों बच्चों के लिए 14 करोड़ का बॉन्ड खरीदा है. इस बॉन्ड के जरिए बच्चों को खर्च के लिए हर महीने 10 लाख रुपए मिलेंगे. इसके एवज में करिश्मा ने मुंबई में दर्ज दहेज़ उत्पीड़न और घरेलू हिंसा का केस वापस ले लिया है.

दरअसल, शादी से कुछ सालों के बाद ही दोनों की बीच दरार की खबरें आने लगीं, इसी बीच संजय की जिंदगी में दिल्ली की सोशलिस्ट प्रिया चटवाल आईं, जिसके बाद करिश्मा ने संजय से किनारा कर लिया. आए दिन  दोनों एक दूसरे पर आरोप लगा रहे थे .संजय ने आरोप लगाया कि करिश्मा कपूर ने सिर्फ संजय के पैसों की वजह से उनसे शादी की. संजय के इस आरोप का जवाब करिश्मा के पिता रणधीर कपूर ने खुद मीडिया में आकर  दिया और कहा कि कपूर खानदान के पास इतना पैसा कि उन्हें किसी के पैसे की जरूरत ही नहीं है.

बॉलीवुड में ऐसे स्टार्स  की फेहरिस्त लम्बी हैं, जिन्होंने पूरे गाजेबाजे के साथ शादी की और फिर कुछ ऐसा हुआ कि उनका  विवाह भी टूटते परिवार की कहानी का हिस्सा हो गया. बॉलीवुड अभिनेता ऋतिकरौशन और उनकी पत्नी सुजैन , अभिनेता आमिर खान और उनकी पत्नी रीनादत्ता ,अभिनेता संजय दत्त और उनकी पत्नी  रियापिल्लै, एक्टर, डायरेक्टर, डांसर और कोरियोग्राफर प्रभू देवा और उनकी पत्नी रामलथ के बिखरते रिश्ते इसी कड़ी का हिस्सा हैं . इन सितारों को तलाक के एवज में एलिमनी के रूप में बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ी. दरअसल तलाक विवाह के समय हमेशा खुश रहने के सपने को चूर चूर कर देता है .

फीस की बजाय काम को महत्व देती श्रद्धा कपूर

इन दिनों बौलीवुड में पारिश्रमिक राशि का मुद्दा दिन पर दिन गर्माता जा रहा है. पुरूष कलाकारों की बनिस्बत महिला कलाकारों को कम पारिश्रमिक राशि मिलती है. यह बात अब हीरोइनें बर्दाश्त नहीं कर पा रही हैं. इसी वजह से तमाम दिग्गज हीरोइनों ने खुलकर यह मांग करनी शुरू कर दी है कि कलाकारों की पारिश्रमिक राशि में अंतर नही होना चाहिए, फिर चाहे वह कलाकार पुरूष हो स्त्री. इन सभी का मानना है कि एक फिल्म के निर्माण में सभी का बराबर का योगदान होता है.

पर कई सफल फिल्मों का हिस्सा रही और इन दिनों साजिद नाडि़यादवाला निर्मित तथा शब्बीर खान निर्देशित फिल्म ‘‘बागी’’ में टाइगर श्राफ के साथ खतरनाक एक्शन दृश्यों को अंजाम देकर सुर्खियां बटोर रही अभिनेत्री श्रद्धा कपूर की अपनी थोड़ी सी अलग राय है. वह कहती हैं-‘‘जहां तक मेरा अपना सवाल है, तो मुझे यह अच्छा लगता है कि मुझे फिल्मों में काम करने का अवसर मिल रहा है. मगर फिल्मों में बदलाव आ रहा है. धीरे धीरे महिला कलाकारों को भी अच्छे पैसे मिलने लगे हैं. पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सभी पहला सवाल यही करते हैं कि फिल्म का हीरो कौन है? इसी वजह से उनकी पारिश्रमिक राशि ज्यादा होती है. पर अब धीरे धीरे यह बदल रहा है. अब हीरोइनों को भी महत्व मिलने लगा है.’’

बदबू

पिछले अंक में आप ने पढ़ा

किसना देर रात कुछ रुपए घर ले कर आया था, पर वे उस की तनख्वाह के थे या नहीं, वह नहीं बता रहा था. वह थोड़ा घबराया सा था. उस की पत्नी कमली खुश हो गई कि वह इन पैसों से घर का सामान खरीदेगी. अगले दिन वह काम पर चली गई. वहां उस के मालिक के घर पर एक खबरिया चैनल से पता चला कि उस के इलाके में किसी की हत्या हो गई है. वह घबरा कर जल्दी घर जाने लगी. बस्ती में पहुंची तो देखा कि वहां लोगों का जमघट लगा था. अब पढि़ए आगे…

कमली की आंखों के सामने बारबार मरने वाले का चेहरा आ रहा था. माहौल की गरमी से डरतीझुलसती कमली अपनी झोंपड़ी तक पहुंची, पर पता नहीं क्यों अंदर का माहौल बड़ा ही ठंडा सा था.

किसना उसे देखते ही खुश हो गया. वह बोला ‘‘अरे वाह. अच्छा हुआ, जो तू जल्दी आ गई. मैं चिकन लाया हूं, झट से पका दे. मुझे तो बड़े जोरों की भूख लगी है. मैं ने मसाला पीस रखा है.’’

कमली नाक और मुंह पर कपड़ा बांध कर चिकन बनाने में जुट गई. शुद्ध शाकाहारी कमली अभी भी हाथ से चिकन छू नहीं पाती थी, सो चमचे की मदद से उठाउठा कर पकाने में जुट गई. ‘उफ, आज तो मेरा उपवास हो गया,’ कमली ने सोचा, क्योंकि जिस दिन मांस पकता था, उस दिन वह खाना नहीं खा पाती थी. पर पति और ससुर की खुशी के लिए वह बना जरूर देती. ‘‘अरे, तुम ने कुछ सुना क्या… कल किस की हत्या हो गई बस्ती में? टैलीविजन पर देख कर मैं 5 नंबर वाली के यहां से काम छोड़ कर दौड़ी चली आई,’’ कमली बारबार पूछ रही थी, पर मानो किसना के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही थी.

तभी बाहर से ससुरजी भी झोंपड़ी में आ गए. उन के चेहरे की हालत बाहर के मौसम से बड़ी मेल खा रही थी. दोनों बापबेटे आपस में खुसुरफुसुर करने लगे. कमली अपने काम में लगी रही. मांस की बदबू बरदाश्त के बाहर थी, फिर भी कमली ने चिकन बनाया, फिर चावल भी बना दिए. अब कमली को उबकाई आ रही थी. पिछवाड़े में जा कर वह टाट की आड़ में हथेलियों को रगड़रगड़ कर धोने लगी, फिर नहाई भी. नहाने के बाद उस का मन थोड़ा ठीक लग रहा था. बापबेटे दोनों खाने पर टूटे पड़े थे. उसे दया आ गई कि हाथ हमेशा तंग रहने के चलते कहां इन्हें मांस नसीब होता है जल्दी. वह तो कल रात किसना पैसे लाया तो… घर में भर गई मांस की बदबू से बचने के लिए कमली बाहर निकल गई, पर बाहर तो उस से भी ज्यादा बदबू फैली हुई थी.

आबोहवा में फैली ताजा मौत की बदबू, अफवाहों की बदबू, उस प्रतिबंधित मांस के जिक्र की बदबू, सब से बढ़ कर अपनों द्वारा अपनों को दिए गए दर्द की बदबू, उस ताजा बेवा के बिलखने की बदबू… रिश्तों के सड़ने की बदबू. यह सोच कर कमली का सिर घूमने लगा. काफी देर से रोकी गई उबकाई निकल ही गई. हार कर उसे घर में फिर वापस आना ही पड़ा. बापबेटे दोनों आज खुश दिख रहे थे.

‘‘मेरे बारबार पूछने पर भी तुम ने क्यों नहीं बताया कि कल रात हुआ क्या था?’’ कमली ने नाक पर आंचल रखते हुए पूछा.

‘‘अरे, जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा ही. इस में बताने वाली कौन सी बात थी? हमें वैसे भी चुप रहने को कहा गया है,’’ किसना ने कहा.

उबकाई आने के बाद कमली का जी मिचलाना भले ठीक हो गया था, पर भड़ास अभी बाकी थी.

‘‘वह जो मैं ने अभी पकाया था, क्या मांस नहीं था?’’ कमली ने पूछा.

‘‘अगर जीव हत्या की बात करती हो, तो सिर्फ वही जीव होता है, जो दूसरों के घर में पकता है. तुम्हारे घर जो पका था, वह क्या था फिर?’’

‘‘मैं तो शुद्ध शाकाहरी घर से हूं, यहां तुम्हारी खुशी के लिए सबकुछ पकाती हूं या नहीं? तो क्या पड़ोसी की थोड़ी पसंद को बरदाश्त नहीं किया जा सकता है?’’

‘‘अरे, जीवजंतु से रिश्ते जोड़ते हो, फिर पेट में मेरी बेटी है, पता लगवा कर क्यों मरवाया था पिछले साल उसे? क्या बेटी मां से कमतर होती है?’’ ऐसा कहते हुए कमली हांफने लगी थी. उसे कल रात के रुपए याद आ गए. अलमारी खोली, तो सामने ही दिख गए, ऐसा लगा जैसे उस ने फिर से मांस देख लिया. वह रसोई से चिकन वाला चमचा उठा लाई और उसी से नोटों को ठेलते हुए घर के बाहर निकालने लगी.

‘‘पागल हो गई हो क्या? पैसे को फेंक रही हो,’’ कहते हुए किसना ने पैसे उठाए, झाड़े और उन्हें चूमता हुआ वापस अलमारी में रख आया.

हार कर कमली वहीं पसर गई और आंख बंद कर सोने की कोशिश करने लगी थी. वैसे भी आज उस का बिना मतलब उपवास हो गया था. उबकाई आने के बाद अंतडि़यां अब मरोड़ मार रही थीं. कमली की आधी रात को आंख खुली. सड़क से छन कर आ रही रोशनी में उसे अधखुली अलमारी से झांकते नोटों की तरफ नजर पड़ी. लेकिन वहां नोट कहां थे, वहां तो किसी के जले हुए मांस के टुकड़े पड़े थे, उस की बदबू से फिर मन बेचैन हो गया. वह कोने में रखे चिकन पकाने वाले चमचे को फिर से उठा लाई और अलमारी से पैसे गिराने लगी.

खटपट की आवाज से किसना की नींद खुल गई, पर अब की बार वह चिल्लाया नहीं, धीरे से नोटों को फिर से उठा कर चारपाई के नीचे रखे टिन के डब्बे में सहेज दिए. किसना उकड़ू बैठ कर कमली को देखने लगा. वह दिनभर में कैसी बीमार सी हो गई थी. कमली उसे ही घूरे जा रही थी. उस की आंखों में तैरते सवालों के सैलाब में वह खुद को डूबता सा महसूस कर रहा था. ‘‘मुझे ऐसे न देखो, कमली. 2 दिन पहले तारिक भाई ने मुझे और कुछ और लोगों को अपने घर पर बुलाया था और हमें ये पैसे दिए थे. वह बोला था कि चाचा को मारने के बाद और पैसे मिलेंगे. घर में फूटी कौड़ी नहीं थी…’’ बमुश्किल किसना ने थूक गटकते हुए अपना मुंह खोला.

‘‘पर, तारिक तो चाचा की ही बिरादरी का…’’ चौंकते हुए कमली ने पूछा.

‘‘हां. अब तो जो होना था सो हो गया. खराब तो मुझे भी बहुत लग रहा है, वरना मुझे क्या मालूम था कि वे क्या खाते हैं, क्या नहीं खाते हैं. मुझे तो बस इतना पता था कि हमारे घर खाने को कुछ नहीं था,’’ पैरे के अंगूठे से जमीन कुरेदता किसना बोला.

‘‘मैं इतने घरों में काम करती हूं. मैं ने कभी उन की चीजों की तरफ आंख उठा कर नहीं देखा और तू ने चंद रुपयों के लिए किसी की जान ले ली. ‘‘कल मैं कितना खुश हो रही थी कि मेरा मरद पैसे कमा कर लाया है. जाने कितने सपने संजो लिए थे मैं ने कि कैसे कहां खर्च करूंगी, किसी के खून से रंगे ये नोट हमें नहीं पचेंगे रे किसना,’’ कमली ने उस के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा.

‘‘मैं ने अकेले तो नहीं मारा उन्हें. और भी तो बहुत लोग थे,’’ किसना ने कमली को बताया. वे दोनों ही अगले 2 दिनों तक गुनाह के झंझावातों से जूझते रहे. रातदिन बड़ी मुश्किल से बिना खाए ही कट रहे थे, क्योंकि फिर उन रुपयों पर इन की लाली किसना ने भी महसूस की थी. राजनीति की बिसात पर चालें चली जा चुकी थीं. शतरंज के पैदल सिपाही की कुरबानी दी जा चुकी थी. सत्ता और शतरंज सब से पहले आम नागरिकों की ही कुरबानी मांगते हैं. तीसरे दिन ही पुलिस की जीप चुनचुन कर 2 दिनों के लिए बादशाह बने तथाकथितों को अपने साथ लिए जा रही थी और उन पैसों को भी, जिस के लालच ने इन्हें ‘गरीब’ से सीधे ‘दंगाई’ बना दिया था.

बीच चौराहे पर अपनी बिखरी जिंदगी की किरचें चुनती कमली ने देखा कि तारिक भाई मारे गए शख्स के बेटे के कंधे पर हाथ रख रहे थे. कहीं से आवाज आई, ‘हमारा नेता कैसा हो, तारिक भाई जैसा हो.’ इस शोर तले कमली धुंधली आंखों से किसना को जीप में हथकड़ी पहने जाते देखती रह गई.

जीवन की मुसकान

न चाहते हुए भी ससुराल वालों की जिद के कारण मुझे अपने 5 माह के बेटे को ले कर फिल्म देखने के लिए जाना पड़ा. मैं ने बच्चे का जरूरी सामान, अपना पर्स व मोबाइल आदि एक बैग में रख कर अपनी छोटी ननद को पकड़ा दिया. फिल्म के बीच में जब मैं ने उस से बच्चे की दूध की बोतल लेने के लिए बैग मांगा तो वह घबरा कर बोली कि बैग तो वह आटो से उतारना ही भूल गई. बच्चा भूख से रोए जा रहा था. मैं हौल से बाहर आ कर बच्चे को चुप कराने की कोशिश करने लगी. मगर बच्चा भूख से रोए जा रहा था. रात का शो था सो इतनी रात में जाती भी कहां? फिल्म खत्म होने में अभी समय था. मेरे तो हाथपांव ही फूल गए. समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करूं.

तभी मेरी नजर एक व्यक्ति पर पड़ी जो मेरा बैग लिए किसी को खोज रहा है. मुझे तो सहसा विश्वास ही नहीं हुआ. वह मुझे पहचान कर बोला, ‘‘दीदी, आप का यह बैग मेरे आटो में छूट गया था. मैं यहीं आप का बाहर निकलने का इंतजार कर रहा था.’’ मैं ने देखा कि बैग में मेरा सभी सामान सुरक्षित था. मैं ने आटोवाले को धन्यवाद दिया और उचित इनाम दे कर विदा किया.

सच है कि आज भी हमारे देश में जिम्मेदार और ईमानदार लोगों की कमी नहीं है.

– अंजुला अग्रवाल, मीरजापुर (उ.प्र.)

*

हम लोग पर्यटन टूर पर उस दिन चंडीगढ़ में थे. वहां की मशहूर सुकमा झील पर सुबह की सैर कर रहे थे. सुबह व शाम को घूमने के लिए वहां बहुत लोग आते हैं. उस दिन बहुत भीड़ थी. एक समय क्या देखते हैं कि 12-13 साल की एक लड़की झील में डूब रही है. भीड़ में से एक संभ्रांत व्यक्ति देरी न करते हुए झील में कूद पड़ा. उन के पीछे उन का अंगरक्षक भी कूद पड़ा. दोनों ने मिल कर उस डूबती बच्ची को झील से बाहर निकाला. उसे तुरंत अस्पताल ले जा कर इलाज कराया व सारा खर्चा भी दिया. जब उन्हें पता चला कि वह बहुत ही गरीब बाप की बेटी है और पढ़ने में बहुत तेज 9वीं कक्षा की छात्रा है पर गरीबी के कारण उस के बाप ने उस की आगे की पढ़ाई बंद करवा दी थी. इस से दुखी हो कर लड़की ने अपनी जान देने के लिए झील में छलांग लगा ली थी. उस संभ्रांत व्यक्ति ने अपनी जान पर खेल कर उस लड़की की जान तो बचाई ही, उस की आगे की पढ़ाई के लिए एक बड़ी रकम उस के नाम बैंक में जमा करा दी. मेरे जीवन में आदर्शस्वरूप आया वह संभ्रांत व्यक्ति धन्य है.

– गंगाप्रसाद मिश्र, नागपुर (महा.)

शहरों की शान हैं खास लैंडमार्क

इंडिया गेट, विक्टोरिया मैमोरियल, द गेटवे औफ इंडिया, चारमीनार, स्वर्णमंदिर, ताजमहल, बड़ा इमामबाड़ा, गंगाजमुना का संगम-इन तमाम चीजों में क्या समानता है? ये तमाम चीजें अलगअलग शहरों की पहचान हैं. किसी का भी नाम लो, उस शहर का नाम जबान पर आ जाता है. इंडिया गेट कहते ही आंखों में दिल्ली की तसवीर घूमने लगती है. स्वर्णमंदिर कहो तो अमृतसर आंखों में रक्स करने लगता है. दरअसल, किसी शहर की प्रोफाइल उस के किसी विशिष्ट लैंडमार्क से ही बनती है. यह लैंडमार्क उस शहर की आईडैंटिटी में इतना माने रखता है कि अगर उस शहर से उसे निकाल बाहर करें तो एक किस्म से उस शहर का वजूद ही शून्य हो जाता है. किसी शहर का ऐसा लैंडमार्क कोई सालदोसाल में नहीं सदियों में बनता है. मसलन, बनारस के बिंदास मिजाज की पहचान हो या लखनऊ की नफासत. ये पहचानें कोई एक दिन में नहीं बन गईं, सदियों लगे हैं.

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि किसी शहर की नई पहचान बनती ही न हो. कभी हैदराबाद, हैदराबादी बिरयानी और चारमीनार के लिए जाना जाता था. लेकिन आज हैदराबाद शहर साइबर सिटी के रूप में भी पहचाना जाता है. यही हाल बेंगलुरु का है. कभी वह द सिटी औफ मैडिसिन गार्डन के रूप में जाना जाता था, मगर आज भारत की सिलिकौन वैली बन चुका है. पुणे, जो कभी मराठी रंगशालाओं से अपनी पहचान पाता था, आज उच्च शिक्षा के गढ़ के रूप में विकसित हो चुका है. प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेज और मैडिकल कालेज शहर की नई और पुख्ता पहचान है.

हद तो यह है कि जिस दिल्ली को मुगलों और अंगरेजों की उत्कृष्ट स्थापत्यकला के लिए जाना जाता था, अब उस को भी नई पहचान मिल चुकी है. देश की राजधानी दिल्ली को हाल के दशकों में मैट्रो रेल और अक्षरधाम मंदिर ने बिलकुल नई और आधुनिक पहचान दी है. अभी डेढ़ दशक पहले तक दिल्ली लालकिला और जामा मसजिद जैसी मुगलकालीन ऐतिहासिक इमारतों के लिए और राष्ट्रपति भवन व संसद भवन जैसी अंगरेजी सल्तनत की इमारतों के लिए ही जानी जाती थी. अभी भी दिल्ली के लिए अभिजात्यता को व्यक्त करने वाला मुहावरा, लुटियन जोन, प्रभावशाली है.

लेकिन मैट्रो रेल ने एक झटके में ही दिल्ली को मुगलकाल और ब्रितानी हैंगओवर से बाहर निकाल इसे एक बिलकुल नई, आधुनिक और ग्लोबल पहचान दी है. एक दशक पहले तक तेज रफ्तार जीवनशैली, आधुनिकता और ढांचागत भव्यता के पैमाने पर सिर्फ मुंबई शहर ही खरा उतरता था. लेकिन इस बात से शायद ही कोई इनकार करे कि हाल के सालों में देश की राजधानी दिल्ली ने एक झटके में ही मुंबई की तमाम खासीयतों को छीन लिया है. 1982 के एशियाई खेलों से दिल्ली की पहचान फ्लाईओवरों वाले शहर की बन गई थी लेकिन कहना नहीं होगा कि मुंबई ने जल्द ही दिल्ली से यह तमगा छीन लिया था. हालांकि कौमनवैल्थ खेलों ने 2010 में फिर दिल्ली को यह तमगा दिलाने की कोशिश की, लेकिन फ्लाईओवर वह प्रतीक नहीं था जिस से दिल्ली को राष्ट्रीय परिदृश्य में सब से आधुनिक और ग्लोबल टच वाले शहर की छवि मिलती हो.

जी हां, यह मैट्रो रेल थी जिस ने एक झटके में दिल्ली का न केवल मेकओवर किया बल्कि लैंडमार्क के लिहाज से देश में सरताज होने की मुंबई की बादशाहत छीन ली. हाल के सालों में देश के दूसरे शहरों ने जिस एक चीज के लिए दिल्ली को हसरतभरी निगाह के साथसाथ ईर्ष्या की निगाह से भी देखा है, वह राजधानी दिल्ली की चमचमाती मैट्रो रेल ही है. जिस दिल्ली के लोगों को रैड, ब्लू और न जाने किसकिस रंग की खौफनाक बसों से कराहते हुए ही, दूसरे शहरों, खासकर मुंबईकरों को देखने की आदत थी, वो दिल्लीवासी एक झटके में लंदन वालों की तरह ट्यूब या मैट्रोवादी हो गए. मैट्रो ने एक झटके में ही दिल्ली की छवि बदल दी.

इस में दोराय नहीं है कि सड़कों पर आज भी दिल्ली घूमने आने वाले सैलानी बड़े पैमाने पर लालकिला, जामा मसजिद व इंडिया गेट जाते हैं. लेकिन अब दिल्ली आने वाले सैलानियों की सूची में मैट्रो का सफर पहली प्राथमिकता बन गया है. हाल के दशकों में शायद ही किसी शहर की कोई उपलब्धि इतनी चर्चित हुई हो जितनी चर्चा दिल्ली की मैट्रो रेल की हुई है. यह अकारण नहीं था कि दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश और हरियाणा के उपशहरों ने अपनेआप को दिल्ली का पड़ोसी होने पर गर्व किया. सच तो यह है कि दिल्ली के इर्दगिर्द पिछले कुछ सालों में बहुत तेजी से जो शहरीकरण हुआ है उस के पीछे एक बड़ा कारण मैट्रो का भविष्य में इन पड़ोसी उपनगरों तक पहुंचना शामिल है. यह मैट्रो की जादुई मौजूदगी ही थी जिस के चलते एनसीआर यानी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पिछले डेढ़ दशकों में जमीन की कीमतों में भारी बढ़ोतरी हुई है.

दिल्ली ने हाल में सिर्फ मैट्रो रेल का ही नया लैंडमार्क नहीं हासिल किया, पिछले 1 दशक में इस की पहचान की सूची में एक और नाम अनिवार्य रूप से जुड़ गया है. वह है पूर्वी दिल्ली में स्थित अक्षरधाम मंदिर. दिल्ली की नई पहचान इन दोनों के बिना आज अधूरी है. दिल्ली को व्यक्त करने वाले प्रतीकों में मैट्रो रेल और अक्षरधाम अब सब से चटक प्रतीक हैं.

जबकि मुंबई अभी तक अपने दशकों या कहें एक सदी पुराने प्रतीकों के जरिए ही जानीपहचानी जाती है जैसे द गेटवे औफ इंडिया, बौलीवुड, तेज रफ्तार जीवनशैली को अपने कंधों में ढोती लोकल रेल, भव्य विक्टोरिया टर्मिनस जैसी विरासती इमारत, आंखों को कुदरती सौंदर्यबोध नवाजने वाली क्वीन नैकलैस या नरीमन पौइंट, चौपाटी और पारसी समुदाय.

ऐसा नहीं है कि पिछले कुछ दशकों या कहें आजादी के बाद मुंबई में कुछ नया, भव्य और अद्भुत नहीं रचा गया. आखिर गुजरे 5-6 दशकों में बौलीवुड बिलकुल यूटर्न ले चुका है. भले औस्कर पुरस्कार जैसे पैमानों से देखने पर बौलीवुड की यह शानदार और अद्भुत रूप से सफल यात्रा न दिखे मगर अपने इतिहास की ही कसौटियों में कस कर देखें तो बौलीवुड ने इन 5-6 दशकों में सफलता का अद्भुत सफर तय किया है. कमाई और पसंदगी के स्तर पर तो बौलीवुड फिल्मों ने इतिहास रचा ही है, अभिनय, तकनीक, विषयवस्तु जैसे पैमानों में भी बौलीवुड ने इन दशकों में कमाल किया है. आज देश के कोनेकोने से ही नहीं, दुनिया के कोनेकोने से लोग बौलीवुड में अपना भविष्य तलाशने आ रहे हैं.

बौलीवुड अब ग्लोबल हो चुका है. मुंबई की जीवनशैली का हिस्सा रहा अपराध, अंडरवर्ल्ड की शक्ल में भूमंडलीय हो चुका है. मुंबई जो कभी चालों का शहर था या कहें चालों के रूप में सामुदायिक सभ्यता का गढ़ था, अब वही (मुंबई) विलगाववादी अथवा एलीमिनेटेड जीवनशैली का अड्डा बन चुका है. इस सब के बावजूद ये तमाम चीजें मुंबई के पारंपरिक प्रतीकों को नहीं बदल सकीं. शायद इस की वजह पुराने प्रतीकों की ताकत थी. मगर यह भी सच है कि कोई प्रतीक कितना ही ताकतवर क्यों न हो, एक न एक दिन उस का रंग धुंधलाता ही है. यह बात सिर्फ मुंबई के प्रतीकों पर ही नहीं लागू होती, बल्कि देशविदेश के हर शहर और देश पर लागू होती है.

हालांकि प्रतीकों का बनना या बिखरना आसान नहीं होता जैसे कुदरत की सदियों की उठापटक और जद्दोजेहद के बाद चट्टानें बनती हैं उसी तरह तमाम कसौटियों पर लगातार कसे जाने और खरा उतरते रहने के मुकम्मल प्रयास से एक स्थायी पहचान बनती है. पुरानी पहचान को रौंद कर नई पहचान बनाना तो और भी मुश्किल काम होता है. पुरानी पहचान को ध्वस्त करने का मतलब है नई पहचान का दोगुना ज्यादा ताकतवर होना. पुराने प्रतीक ध्वस्त कर नया प्रतीक बनाना हमेशा कठिन होता है.

रोम के खंडहर आज तक उस की पहचान बने हुए हैं, क्योंकि रोमन साम्राज्य के इन खंडहरों से विराट प्रतीक बाद के इतिहास में अब तक गढ़ा ही नहीं जा सका. मतलब यह कि पुराने प्रतीकों से चिपके रहने का मतलब यह भी है कि हमारा वर्तमान, हमारे अतीत से फीका है. 

ये रहे दुनिया के सब से बड़े लैंडमार्क

यों तो हर जगह की अपनी एक पहचान होती है, जिसे वहां के लोग भलीभांति जानते होते हैं. मगर कुछ पहचानें ऐसी होती हैं जिन्हें दुनिया जानती है. चाहे वहां कोई गया हो या कभी न गया हो या कभी न जाए. भारत में ऐसी पहचान का मौका उत्तर प्रदेश के आगरा शहर को मिला है. जी हां, सिटी औफ ताज होने के कारण. ताजमहल की खूबसूरती या उस की प्रसिद्धि पर लिखना सचमुच सूरज को दीपक दिखाने जैसा है. ताज सिर्फ आगरा शहर की पहचान ही नहीं है, सच तो यह है कि विश्व परिदृश्य में ताज भारत के गौरव का प्रतीक और पहचान है. ताजमहल कहते ही आंखों के सामने मुगलों का वैभव, उन की उत्कृष्ट स्थापत्यशैली और 16वीं शताब्दी में ईरान के सौंदर्यबोध की श्रेष्ठता रश्क करने लगती है. दुनिया में न जाने कितने लोग हैं जो ताजमहल को देखते ही भारत को याद करते हैं. ताजमहल आधुनिक विश्व के 7 आश्चर्यों में शामिल है. भारत की सैर करने आने वाले दुनिया के सैलानियों के लिए ताजमहल देखना पहली प्राथमिकता होती है.

पहचान या लैंडमार्क के मामले में ताजमहल जैसी ही शोहरत न्यूयौर्क स्थित स्टैच्यू औफ लिबर्टी की है. यह भी महज न्यूयौर्क भर की पहचान नहीं है, बल्कि यह आधुनिक अमेरिकी लोकतंत्र, समानता और स्वतंत्रता की पहचान देती है. अमेरिका जाने वाले सैलानियों की भी पहली पसंद स्टैच्यू औफ लिबर्टी को देखना और उस की पृष्ठभूमि में तसवीर खिंचवाना होता है. लंदन का क्लौक टावर भी लंदन ही नहीं, बल्कि समूचे ब्रिटेन और ब्रितानियों को पहचान देता है. पैलेस औफ वैस्टमिंस्टर में लगा यह क्लौक टावर ब्रितानियों की नफासत, उन के कीमती इतिहास और स्वाभाविक जीवनशैली की पहचान है.

कला और कौशल के रोमन इतिहास को अपने में समेटे रोम के अखाड़े या एंफी थिएटर रोम की पहचान के सब से बड़े प्रतीक हैं. कभी रोम के शासक इन दोनों तरफ से खुले स्टेडियमों में बैठ कर मल्लयुद्ध से ले कर तमाम तरह के आम और खौफनाक खेल देखा करते थे. आज खंडहर हो रहे रोमन शासकों की इस धरोहर को देखने के लिए पूरी दुनिया से पर्यटक खिंचे चले आते हैं. रोम की पहचान के इस सब से बड़े प्रतीक के चलते ही रोम दुनिया के सैलानियों के लिए पहली पसंद बना हुआ है.

पहचान की इस परंपरा का एक और बड़ा नाम है पेरिस का एफिल टावर. भले ही पिछले एक साल से आतंकी गतिविधियों के कारण पेरिस सुर्खियों में रहा हो लेकिन उस की सदाबहार सुर्खी एफिल टावर ही है. यह टावर पेरिस का पर्याय तो है ही साथ ही फ्रांस की भी पहचान है. जैसे भारत को दुनिया में ताजमहल के देश के रूप में जाना जाता है उसी तरह फ्रांस को एफिल टावर के देश के रूप में जाना जाता है. हालांकि पेरिस की पहचान का एक मजबूत सिरा इस की रोमानी जीवनशैली भी है, खासकर पेरिस की रंगीन शामें.

 

बड़े शहर, बड़ी पहचान
दिल्ली इंडिया गेट
कोलकाता विक्टोरिया मैमोरियल
मुंबई द गेटवे औफ इंडिया
हैदराबाद चारमीनार
लखनऊ बड़ा इमामबाड़ा
वाराणसी गंगा के घाट
अमृतसर स्वर्णमंदिर
आगरा ताजमहल
गया बोधगया मंदिर
इलाहाबाद कुंभ और संगम
बेंगलुरु सिलिकौन वैली

 

बंदूक के दम पर बढ़ते अपराध

उत्तर प्रदेश के आगरा में एक मेला लगा था. मेले में डांस दिखाने वाला आरकेस्ट्रा चल रहा था. मंच पर तमाम डांसर नाच रही थीं. कम कपड़ों में डांस करती डांसर फिल्म ‘बुलेट राजा’ के गाने ‘तमंचे पे डिस्को…’ पर डांस कर रही थीं. इस बीच वहां डांस देख रहा एक बाहुबली मंच पर चढ़ गया. उस ने अपनी जेब से पिस्तौल निकाली और एक डांसर की कमर पर लगा दी. वह बाहुबली अपने दूसरे हाथ में पैसे भी लिए हुए था. डांसर की नजर उस के पैसों पर थी. डांसर पैसे लेने के चक्कर में पिस्तौल पर ठुमके लगा रही थी. पैसे की छीनाझपटी के बीच कब पिस्तौल से गोली चल गई, पता ही नहीं चला. वह गोली डांस देख रहे एक आदमी को लग गई. वह आदमी वहीं मर गया. यह इस तरह की अकेली वारदात नहीं है.

वाराणसी जिले में नौटंकी में एक लड़की ‘नथनिया पर गोली मारे सैयां हमार…’ गाने पर डांस कर रही थी. उस के डांस को देख कर वहां मौजूद एक दारोगा तैश में आ गया. उस ने अपनी जेब से पिस्तौल निकाल ली और डांसर के साथ डांस करना शुरू कर दिया. नशे में धुत्त उस दारोगा को एहसास ही नहीं था कि उस से क्या गलती होने जा रही है. पिस्तौल से गोली चला कर वह नचनिया पर निशाना लगाने लगा. उस का निशाना चूक गया, जिस से डांसर घायल हो गई. अगर निशाना सही लग जाता, तो वह मर जाती. लखनऊ शहर में एक कारोबारी परिवार में शादी की पार्टी चल रही थी. जब जयमाल हो गया, तो नातेरिश्तेदारों में से कुछ लोगों ने खुशी में बंदूक से गोली चलानी शुरू कर दी. गलती से एक गोली दूल्हे के भाई को लग गई, जिस से वह शादी के उसी मंडप में मर गया.

खुशी में होने वाली इस तरह की तमाम फायरिंग पीडि़त परिवार पर गम का पहाड़ तोड़ देती है. शादी के अलावा जन्मदिन, बच्चा होने, मुंडन और दूसरे तमाम संस्कारों पर खुशी में फायरिंग का रिवाज होता है. ऐसे में तमाम घटनाएं घट जाती हैं, जो दुख की वजह बनती हैं. लाइसैंसी असलहे का एक सच यह भी सामने आता है कि ये अपनी हिफाजत से कहीं ज्यादा खुदकुशी करने में इस्तेमाल होते हैं. पुलिस महकमे के आंकड़े बताते हैं कि बंदूक से होने वाली खुदकुशी में 95 फीसदी वारदातें लाइसैंसी असलहे से ही होती हैं. लखनऊ में ही एक दारोगा की बेटी ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई में फेल होने के बाद पिता की लाइसैंसी रिवौल्वर से गोली मार कर खुदकुशी कर ली. एक रिटायर अफसर ने तनाव में आने के बाद अपनी लाइसैंसी राइफल से खुद को खत्म कर लिया. ऐसी तमाम वारदातें रोज रोशनी में आती हैं, जहां पर बंदूक संस्कृति अपराध को बढ़ाने का काम करती है. असलहे की यह संस्कृति आम लोगों में दहशत फैलाने का काम भी करती है. बंदूक के बल पर केवल लूट और डकैती ही नहीं, बल्कि बलात्कार जैसे अपराध भी होते हैं.

दहशत में शहरी

लखनऊ के विकास नगर महल्ले में माफिया मुन्ना बजरंगी के रिश्तेदार रहते हैं. मुन्ना बजरंगी उत्तर प्रदेश के झांसी जेल में बंद है. जब वह पुलिस की निगरानी में अपने रिश्तेदार से मिलने आया, तो असलहे से लैस उस के समर्थक किसी कमांडो की तरह महल्ले की गलियों में फैल गए. किसी के हाथ में सिंगल बंदूक, तो किसी के हाथ में डबल बैरल रिपीटर बंदूक थी.

ज्यादातर लोगों के पास अंगरेजी राइफल थी. राइफल के साथ ये लोग कारतूस से भरे बैग भी अपने हाथों में लटकाए थे. कई लोगों के पास कमर में लगी पिस्टल भी देखी जा सकती थी.

मुन्ना बजरंगी 3 दिन के पैरोल पर झांसी जेल से बाहर आया था. उस के एक रिश्तेदार की मौत हो गई थी, जिस के परिवार से वह मिलने आया था. मुन्ना बजरंगी को पुलिस एक बुलेटप्रूफ वैन से लाई थी.

लखनऊ के विकास नगर महल्ले में रहने वालों ने पहली बार किसी के साथ बंदूकों का इतना बड़ा जखीरा देखा था. इस के कुछ दिन पहले ही एक और माफिया ब्रजेश सिंह उत्तर प्रदेश विधानपरिषद का चुनाव जीत कर जब शपथ ग्रहण करने लखनऊ विधानसभा पहुंचा था, तो उस के साथ भी बंदूकों का ऐसा ही जलजला देखा गया था.

उत्तर प्रदेश में बाहुबलियों की पसंद रेलवे ठेकेदारी है. आंकडे़ बताते हैं कि साल 1991 से साल 2016 के बीच लखनऊ में रेलवे का ठेका हासिल करने में 12 ठेकेदारों की हत्या हो चुकी है. 1999 के बाद इस में कुछ कमी आई, पर 18 मार्च, 2016 को उत्तर रेलवे में ठेकेदारी विवाद में आशीष पांडेय की हत्या कर दी गई. यह विवाद एक करोड़ रुपए के ठेके को ले कर हुआ था.

लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर 6 पर वाशेबल एप्रैल लगाने का काम होना था. आशीष पांडेय अपने साथियों के साथ यह ठेका हासिल करने आया था. ठेका लेने आए दूसरे गुट के लोगों को जब टैंडर डालने से रोका जाने लगा, तो संघर्ष शुरू हुआ और यह वारदात हो गई.

आशीष पांडेय हरदोई जिले का रहने वाला था. वह एक मामले में पहले भी जेलजा चुका था.

उत्तर प्रदेश सब से ज्यादा बंदूक रखने वाले राज्यों में शामिल है. साल 2012 से साल 2015 के बीच देश में 47 फीसदी बंदूकें जब्त की गईं, जिन की तादाद 16,925 रही. बंदूकों के जब्त होने के मामले में उत्तर प्रदेश सब से आगे है. यहां तकरीबन 7 फीसदी बंदूकें जब्त की गईं. इन की कुल तादाद 2,283 रही.

उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर को भारत की गन कैपिटल कहा जाता है. यहां बंदूक बेचने की सब से ज्यादा दुकानें हैं. उत्तर प्रदेश के बाद बिहार, पश्चिम बंगाल, जम्मूकश्मीर, असम, महाराष्ट्र, मणिपुर, हरियाणा और झारखंड का नंबर आता है. यही वजह है कि इन राज्यों में बंदूक से होने वाले अपराध सब से ज्यादा होते हैं.

इन प्रदेशों में जब लोकल लैवल पर हिंसा होती है, तो वहां पर सब से ज्यादा इस तरह की बंदूकों का इस्तेमाल होता है. चुनावों के समय यहां होने वाली हिंसा में भी गैरलाइसैंसी बंदूकों का इस्तेमाल सब से ज्यादा होता है. केवल दुश्मनी निकालने में ही नहीं, बल्कि खुशी के समय पर भी होने वाली फायरिंग में तमाम बार जान चले जाने की वारदातें होती हैं.

अपराध हैं ज्यादा

बंदूक को अपनी हिफाजत के लिए रखा जाता है. असल बात यह है कि बंदूक अपनी हिफाजत से ज्यादा दहशत फैलाने और समाज में अपराध को बढ़ावा देने में काम आती है. बंदूक रखना अपने दबदबे को बनाए रखने का आसान तरीका हो गया है.

भारत में कितनी बंदूकें हैं, इस बात का कोई आधिकारिक आंकड़ा सरकार के पास नहीं है. अपराध के आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि देश में लाइसैंसी बंदूकों से ज्यादा गैरलाइसैंसी बंदूकें हैं.

बंदूकों से होने वाली हत्याओं को देखें, तो पता चलता है कि 90 फीसदी हत्याओं में गैरलाइसैंसी बंदूकों का इस्तेमाल होता है. चुनावी हिंसा में सब से ज्यादा बंदूकों का इस्तेमाल होता है.

चुनाव को करीब से देखने वाले कहते हैं कि चुनावों में बूथ कैप्चरिंग और वोट न डालने देने की वारदातों में बंदूकों का जम कर इस्तेमाल होता है. छोटेबडे़ पंचायत चुनावों से ले कर लोकसभा चुनावों तक में बहुत सारे पुलिस इंतजाम के बाद भी बंदूक का जोर देखने को मिलता है.

इन चुनावों में हिंसक वारदातें होती रहती हैं. इन को रोकने के लिए चुनाव आयोग ने चुनावों के समय बंदूकों को जमा कराने की मुश्किल भी शुरू की. लाइसैंसी बंदूकों के जमा होने के बाद भी चुनावी हिंसा की वारदातों से पता चलता है कि देश में लाइसैंसी हथियार से ज्यादा गैरलाइसैंसी हथियार हैं.

देश में फैक्टरी मेड और हैंडमेड हर तरह के असलहे मिलते हैं. इन का इस्तेमाल ऐसे ही अपराधों में किया जाता है. देश में बढ़ती बंदूक संस्कृति ने ही नक्सलवाद और आतंकवाद को बढ़ाने का काम किया है.

गैरलाइसैंसी हथियार ज्यादा

देश में लाइसैंसी से ज्यादा गैरलाइसैंसी हथियार जमा हो रहे हैं. लाइसैंसी हथियार लेने के लिए सरकारी सिस्टम से गुजरना पड़ता है. पुलिस से ले कर जिला प्रशासन तक की जांच से गुजरने के बाद बंदूक रखने का लाइसैंस मिलता है.

कई तरह के असलहे रखने के लिए शासन लैवल से मंजूरी लेनी पड़ती है. इस सिस्टम में बहुत सारा पैसा रिश्वत और सिफारिश में खर्च हो जाता है.

हर जिलाधिकारी के पास सैकड़ों की तादाद में लाइसैंस लेने के लिए भेजे गए आवेदन फाइलों में धूल खाते हैं. ऐसे में अपराध करने वाले लोग गैरकानूनी असलहे रखने लगते हैं.

आकंड़ों के मुताबिक, देश में साल 2012 से साल 2015 के बीच 4 सालों में 36 हजार से ज्यादा गैरकानूनी असलहे पकडे़ गए. साल 2009 से ले कर 2013 बीच 15 हजार से ज्यादा मौतें गैरकानूनी असलहों से हुईं. पुलिस महकमे से जुडे़ लोगों का मानना है कि कई ऐसे परिवार हैं, जहां पीढ़ी दर पीढ़ी केवल बंदूक बनाने का ही काम होता है.

उत्तर प्रदेश का पश्चिमी हिस्सा इस तरह की फैक्टरी चलाने वाला सब से बड़ा इलाका है. मध्य उत्तर प्रदेश में हरदोई सब से बड़ा जिला है, जहां हर तरह की ऐसी बंदूकें बनाई जाती हैं, जैसी ओरिजनल बनती हैं. इन को भ्रष्ट पुलिस की मिलीभगत से खरीदाबेचा जाता है.

दरअसल, गैरकानूनी असलहे को खरीदने और बेचने का एक बड़ा कारोबार है. इस के जरीए करोड़ों रुपयों की रकम इधर से उधर होती है. 3 हजार से ले कर 50 हजार रुपए तक के असलहे इन गैरकानूनी फैक्टरियों में बनते और बिकते हैं. उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों में जितने हथियार एक जिले में हैं, उतने किसी बाहरी देश में नहीं हैं.

साल 2011 के एक सर्वे में बताया गया कि भारत के 671 जिलों में से केवल 324 जिलों में 4 करोड़ लोगों के पास हथियार पाए गए. इन में से केवल 15 फीसदी लोगों के पास लाइसैंसी हथियार थे. बंदूक से होने वाली मौतों के मामले में 5 शहरों में से 4 शहर मेरठ, इलाहाबाद, वाराणसी और कानपुर उत्तर प्रदेश के हैं. उत्तर प्रदेश के बाद बिहार सब से ज्यादा असलहे वाला प्रदेश है. गैरकानूनी असलहे का इस्तेमाल सब से ज्यादा बाहुबली और दबंग अपने दबदबे को बढ़ाने के लिए करते हैं. इस से ही वह अपना असर बढ़ाने का काम करते हैं. समाज में अपराध को रोकने के लिए बंदूक संस्कृति पर रोक लगाने की जरूरत है. यह काम केवल लाइसैंस सिस्टम से काबू में आने वाला नहीं है. ऐसे में जरूरी है कि कुछ नया सिस्टम लागू किया जाए, जिस से समाज में बढ़ती बंदूक संस्कृति को रोका जा सके.

‘बंदूक कल्चर’ पर फिल्मों का असर

आज तमाम फिल्में ऐसी बनती हैं, जिन में बंदूक संस्कृति को ग्लैमर की तरह पेश किया जाता है. बंदूक के बल पर अपराधियों को ऐश करते दिखाया जाता है. इस को देख कर आम जिंदगी में भी लोग बंदूक संस्कृति को बढ़ाने में लग जाते हैं. इस के अलावा आम लोगों में दिखावे की सोच बढ़ रही है, जिस से वे बंदूक खरीदना चाहते हैं. शहरों से कहीं ज्यादा गांवों में यह चलन बढ़ रहा है. गांवों में जमीन बेच कर बंदूक खरीदने का चलन है. यहां पर लोग अपने दबदबे को बढ़ाने के लिए बंदूक खरीदते हैं. कई लोग तो ऐसे भी हैं, जिन के पास केवल साइकिल है, पर वे लोग भी बंदूक रखते हैं. बंदूक की आड़ में समाज में गैरकानूनी असलहे बढ़ रहे हैं. सरकार को गैरकानूनी असलहे को जब्त करने के लिए सरकार को योजना बनानी होगी. जब तक यह योजना नहीं बनती, तब तक समाज को अपराध से मुक्त नहीं किया जा सकता. आम जिंदगी ठीक से गुजरे, इस के लिए जरूरी है कि समाज को बंदूक से दूर रखा जाए.

नशे की गिरफ्त में युवा

कभी स्टेटस सिंबल, कभी प्रेम में असफलता, कभी पेरैंट्स का कम्युनिकेशन गैप तो कभी यारीदोस्ती के चलते युवा नशे की गिरफ्त में फंसते जा रहे हैं. इस से जहां युवाओं में स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां पैदा हो रही हैं वहीं वे क्राइम की ओर भी उन्मुख हो रहे हैं. जरूरत है काउंसलिंग के जरिए युवाओं की दिनचर्या पटरी पर लाने की ताकि उन्हें इस लत से बचाया जा सके.

उपभोक्तावादी एवं पश्चिमी सभ्यता के प्रभावों से जीवनशैली में आए बदलाव के चलते युवाओं में शराब व सिगरेट पीने का चलन कुछ ज्यादा ही बढ़ रहा है. युवाओं में सिगरेट या शराब पीने की लत बढ़ती जा रही है. युवतियां भी इस में युवकों से पीछे नहीं हैं. काउंसलर दीप्ति शर्मा का कहना है कि समाज के मूल्यों में तेजी से बदलाव का परिणाम है युवाओं में शराब व सिगरेट की बढ़ती लत.

एक समय था जब शराब अथवा सिगरेट को सामाजिक बुराई माना जाता था तथा ऐसे व्यक्ति को हेयदृष्टि से देखा जाता था, लेकिन आज युवा घर के बाहर ही नहीं बल्कि घर के अंदर भी जाम लड़ाने से गुरेज नहीं करते. सिगरेट तो हर कदम पर उन का शगल बन चुका है. शराब के मामले में अब तो ‘फैमिली ड्रिंकिंग’ की अवधारणा ने जन्म ले लिया है, जिस के चलते अब एक ही छत के नीचे पिता और बेटाबेटियां शराब पी रहे हैं.

माहौल का असर

युवाओं में शराब या सिगरेट की लत बढ़ने की कई वजह हैं. ग्रामीण परिवेश में जहां जागरूकता की कमी, कुसंगति, शादीविवाह के अवसर पर मस्ती के चलते शराब पी जाती है तो वहीं मैट्रो शहरों में सोसायटी मैंटेन करने या नाइट पार्टीज में इस का खुला प्रयोग हो रहा है. समाज का एक वर्ग ऐसा भी है जो सिगरेट या शराब न पीने को सीधे सामाजिकता से जोड़े बैठा है. इसे स्टेटस सिंबल माना गया है. ड्रिंकिंग या स्मोकिंग न करने वालों को समाज में कोई इज्जत अथवा जगह नहीं दी जाती. इस बारे में दिल्ली की एक मल्टीनैशनल कंपनी में कार्यरत आदित्य कहते हैं कि मैं यूपी के एक छोटे से कसबे का रहने वाला हूं. मेरे परिवार में शराब पीना तो दूर कोई गुटका भी नहीं खाता, जबकि मेरी कंपनी में करीब 80% कर्मचारी शराब पीते हैं. शुरूशुरू में वे मुझ पर भी शराब पीने के लिए दबाव डालते थे, लेकिन मेरे अडि़यल रवैए के कारण वे सफल नहीं हुए. अब उन्होंने मुझे किसी पार्टी या फंक्शन में जाने के लिए पूछना भी छोड़ दिया.

छूट से मिलता है बढ़ावा

आज के युवा तरक्की की राह पर अग्रसर हैं. वे आत्मनिर्भर तो बन ही रहे हैं साथ ही परिवार का दायित्व भी बखूबी निभा रहे हैं. लेकिन वे अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीना चाहते हैं. हर कदम पर उन्हें रोकटोक बरदाश्त नहीं. ऐसे में पेरैंट्स पर भी उन की कमाई या कामयाबी का अप्रत्यक्ष दबाव रहता है, जिस कारण वे उन्हें मना भी नहीं कर पाते और युवा समाज के खुलेपन और समय की मांग का हवाला दे कर अपनेआप को सही साबित कर लेते हैं. इस तरह घर से मिली छूट से उन्हें बढ़ावा मिलता है.

स्कूल कालेजों में होती है मस्ती

आजकल स्कूलकालेज जाने वाले किशोर व युवा आसानी से नशे की गिरफ्त में आ रहे हैं, उन्हें वहां आसानी से ये चीजें उपलब्ध हो जाती हैं और साथी भी मिल जाते हैं. कई बार न चाहते हुए भी वे इस दलदल में फंस जाते हैं. एक पब्लिक स्कूल के 12वीं के छात्र मोहित सक्सेना का कहना है कि जब मैं कालेज जाने लगा था तो बिलकुल सिगरेट नहीं पीता था लेकिन फ्रैंड सर्किल में रहते हुए दोस्तों की संगत में मैं ने सिगरेट पीना शुरू कर दिया. अब मैं अपनी इस लत से परेशान हूं और छोड़ना चाहते हुए भी नहीं छोड़ पा रहा हूं.

कारण और भी हैं

युवाओं में शराब अथवा सिगरेट का सेवन करने के और भी कई कारण हैं. कई बार वास्तविक कारण पता भी नहीं चल पाता. एक कंपनी में असिस्टैंट मैनेजर के पद पर कार्यरत 26 वर्षीय नीतू पिछले छह माह से रोजाना शराब पी कर घर लौटती थी, लेकिन बारबार पूछने पर भी वह वजह नहीं बताती थी. इस का भेद तब खुला जब पेरैंट्स नीतू को एक मनोचिकित्सक के पास ले गए. पता चला कि एक युवक से उस का बे्रकअप हो गया था जिस कारण वह नशे में डूबी थी. कई बार युवाओं को अपेक्षित सफलता न मिलने पर भी वे टूट जाते हैं और नशे में लिप्त हो जाते हैं.

पेरैंट्स कम्युनिकेशन गैप न होने दें

दिनरात अपने काम एवं नौकरी में उलझे पेरैंट्स इस से पूरी तरह अनभिज्ञ रहते हैं कि उन के बच्चे क्या कर रहे हैं. यहां तक कि कई बार तो बच्चों से बात किए उन्हें हफ्तों बीत जाते हैं. इस से युवा होते बच्चे लापरवाह हो जाते हैं और उन के मन में पेरैंट्स का डर नहीं रहता. उन्हें यह दुख भी सालता है कि पेरैंट्स उन्हें प्यार नहीं करते या समय नहीं देते. इस कारण वे डिप्रैशन में आ कर भी नशे की ओर उन्मुख हो जाते हैं. इसलिए जरूरी है कि पेरैंट्स बच्चों से निरंतर संवाद बनाए रखें. यह उम्र ऐसी होती है जिस में जरा सी अवहेलना भी उन्हें तोड़ देती है. एक बार यदि उन के कदम गलत दिशा की ओर उठ जाएं तो फिर उन्हें रोक पाना मुश्किल हो जाता है. किन्हीं कारणों से यदि बच्चा नशे के जाल में फंस चुका है तो पेरैंट्स को चाहिए कि वे उस के साथ प्यार से पेश आएं न कि ताना मारें. उसे रचनात्मक कार्यों में लगाएं. इस से धीरेधीरे वह नशे की प्रवृत्ति से दूर होता जाएगा.

काउंसलर या मनोचिकित्सक की मदद लें

पेरैंट्स यदि प्रयत्न करने के बावजूद बच्चे को सिगरेट या शराब की लत से छुटकारा न दिलवा सकें तो किसी डाक्टर, मनोचिकित्सक या काउंसलर की मदद लें. कई बार बच्चे पेरैंट्स से अपनी परेशानी बताने में हिचकते हैं जबकि काउंसलर से वे अपनी समस्या तुरंत बता देते हैं. इस से उन की समस्या का हल हो जाता है.

युवाओं के दिमाग पर होता है असर

कम उम्र में शराब पीने से सब से ज्यादा असर दिमाग पर पड़ता है. चूंकि इस उम्र में उन का सब से अधिक विकास होता है पर अलकोहल के सेवन से विकास रुक जाता है. यही वजह है कि शराब पीने के बाद उन की सोचनेसमझने की शक्ति क्षीण हो जाती है और उन की पर्सनैलिटी भी प्रभावित होती है. शुरूशुरू में उन्हें ज्यादा असर नहीं होता, लेकिन जैसेजैसे उन के शरीर में अलकोहल की मात्रा बढ़ती जाती है, उन्हें कई तरह की दिक्कतें होने लगती हैं, जबकि युवतियों के चेहरे पर शराब अथवा सिगरेट पीने का साफ असर दिखता है.

आंकड़ों की नजर में वाइन इंडस्ट्री

पिछले कुछ वर्षों के आंकड़े बताते हैं कि भारत में शराब की खपत तेजी से बढ़ी है. युवाओं में भी इस का चलन तेजी से बढ़ रहा है. ग्लैमर एवं सैलिब्रिटी स्टेटस दिखाने के चक्कर में युवावर्ग भी इस की ओर तेजी से आकर्षित हुआ है. युवतियों का भी शराब के प्रति बढ़ता मोह निश्चित ही शोचनीय है. नैशनल सैंपल सर्वे संगठन की हालिया रिपोर्ट की मानें तो शहरी क्षेत्र की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्र के लोग भी मधुशाला जाने में पीछे नहीं हैं. शहरी क्षेत्र के युवा जितना पैसा विदेशी शराब पीने में खर्च करते हैं उस से कहीं ज्यादा पैसा ग्रामीण देशी शराब पर खर्च कर रहे हैं.

विनेक्सपो/आईडब्लूएसआर 2010 के सर्वे पर गौर करें तो शराब की तेजी से खपत करने वाले देशों की श्रेणी में भारत का स्थान 10वां है. रिपोर्ट के मुताबिक 2004 में जहां 17.38 मिलियन बोतलों की खपत थी, वहीं वर्ष 2008 तक बढ़ कर यह 1.449 मिलियन 9 लिटर तक पहुंच गई. आगे इस के 1.475 मिलियन 9 लिटर तक बढ़ने की संभावना है. इस अध्ययन रिपोर्ट की मानें तो लगभग सभी देशों में शराब की खपत प्रत्येक 5वें वर्ष में सीधे दोगुना हो जाती है. एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार करीब 65 फीसदी भारतीय शराब बाजार पर व्हिस्की बनाने वाली कंपनियों का अधिकार है.

आयु सीमा का कानून सिर्फ कागजों में

शराब की बिक्री और सेवन को ले कर युवाओं के संदर्भ में न्यूनतम आयु सीमा भी निर्धारित की गई है. इस आयु सीमा से कम आयुवर्ग के लिए शराब खरीदना व पीना दोनों प्रतिबंधित हैं. कई जगह न्यूनतम आयु सीमा 18 वर्ष तो कई जगह 25 वर्ष तय की गई है. उदाहरण के तौर पर दिल्ली में न्यूनतम आयु सीमा 25 वर्ष निर्धारित है, लेकिन विडंबना है कि यहां पर शराब का सेवन करने वाले करीब 60 फीसदी युवा 18 से 21 साल के हैं. केरल एक ऐसा राज्य है जहां युवा सब से अधिक शराब का सेवन करते हैं. 1986 में जहां 19 साल के युवक शराब का अधिक सेवन करते थे, वहीं 1990 में 17 साल तथा 1994 में यह सीमा घट कर 14 साल तक हो गई. देश में शराब के सेवन के संदर्भ में बने कानूनों का कड़ाई से पालन नहीं किया जाता. शराब काउंटर्स पर अभी भी न्यूनतम आयु सीमा से कम उम्र के लोग लाइन में लग कर शराब खरीदते नजर आ जाते हैं. छोटे शहरों में यह कानून पूर्णतया निष्प्रभावी है.        

युवाओं का स्टेटस सिंबल बनता शराब का सेवन

दिल्ली विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग के प्रोफैसर अशुम गुप्ता का कहना है कि हमारी शहरी सोसायटी में युवाओं का शराब या सिगरेट पीना आम बात है. अब तो यह युवाओं का स्टेटस सिंबल बनता जा रहा है. शुरूशुरू में पेरैंट्स यही सोचते हैं कि हम लिबरल हैं और बच्चों को फ्रीडम दे रहे हैं. वे बच्चों के साथ पीने से गुरेज नहीं करते. इस से धीरेधीरे बच्चों की भी हिचक खत्म हो जाती है और वे कहीं भी पीना शुरू कर देते हैं. युवतियां भी इस में पीछे नहीं हैं.

कई ऐसे मामले भी सामने आए हैं जिन में युवा अपनी खुशी या गम को जताने अथवा भुलाने के चक्कर में शराब पीते हैं. युवावर्ग या समाज भले ही इसे मौडर्न सोसायटी का नाम दे कर बढ़ावा दे रहा हो पर यह चलन घातक साबित हो रहा है. शराब के नशे में यूथ हत्या, लूटपाट, रेप जैसी घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं. जब तक उन के पास पैसे होते हैं वे मजे से पीते हैं लेकिन पैसे खत्म होते ही वे इस के इंतजाम के लिए गलत तरीकों की ओर उन्मुख होने लग जाते हैं.

संघवाद का विरोध कर क्या हीरो बनेंगे नीतीश…?

नीतीश कुमार ने संघवाद और भाजपा के खिलाफ देशव्यापी मुहिम छेड़ने के लिए तमाम समाजवादियों और सियासी दलों को एक झंडे तले लाने की कवायद शुरू कर दी है. इसके पीछे उनकी निगाहें साल 2019 में होने वाले लोक सभा चुनाव पर टिकी हुई हैं. सभी दलों को एक मंच पर लाने की कोशिश की राह में कई झमेले हैं पर इस सुर को छेड़ कर फिलहाल नीतीश नेशनल हीरो तो बन ही गए हैं. इसके साथ ही वह बिहार की सीमा से बाहर निकल कर दिल्ली में भाजपा को चुनौती देने और खुद को प्रधानमंत्री का दावेदार बनने की राह में अपना पहला कदम बढ़ा दिया है.

नीतीश कुमार ने भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ सभी राजनीतिक दलों को एकजुट करने की मुहिम छेड़ी है. उन्होंने खुल कर कहा कि देश और लोकतंत्र को बचाने के लिए सभी दलों को मिलना जरूरी है. साल 2014 के लोक सभा चुनाव नीतीजे के बाद उन्हें भाजपा की ताकत और क्षेत्रीय दलों की कमजोरी का अहसास हो चुका है. वह समझ चुके हैं कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता है, इसलिए उन्होंने गैरसंघवाद का नारा उछाल कर सभी भाजपा विरोधी दलों की निगाहें अपनी ओर कर ली हैं. वह कहते हैं कि अब देश में केवल 2 धुरी होगी. एक ओर भाजपा होगी और दूसरी ओर सारी पार्टियां रहेंगी.

अपनी बात में वजन पैदा करने के लिए वह राममनोहर लोहिया की सेाच का जिक्र करते हैं. वह कहते हैं कि जिस तरह से राममनोहर लोहिया ने कांग्रेस के खिलाफ सभी दलों को एक धुरी में आने पर जोर दिया था, उसी तरह से आज भाजपा और संघ के खिलापफ धुरी बनाने की जरूरत आ गई है. अब किसी तीसरे फ्रंट की बात बेमानी हो चुकी है.

भाजपा और संघ का आजादी की लड़ाई में कोई भी भूमिका नहीं रही है इसके बाद वह राष्ट्रभक्ति का ढोल पीटती रही है. भगवा झंडा फहराने वालों को कभी भी तिरंगे से कभी कोई वास्ता नहीं रहा, आज वह लोग तिरंगे पर लेक्चर झाड़ रहे हैं. साल 2014 के आम चुनाव में भाजपा ने कई वादे और दावे किए थे, पर सारे हवा हो गए. न काला धन देश में आया और न ही लोगों के खाते में 15-15 लाख रूपए आए. किसानों को समर्थन मूल्य भी नहीं मिला. बेरोजगारी खत्म करने के नाम पर केंद्र की सरकार को वोट मिला था, पर क्या हुआ?

नीतीश समझ चुके हैं कि प्रधनमंत्री बनने के लिए उन्हें कांग्रेस और वाम दलों समेत सभी क्षेत्रीय दलों की मदद जरूरी है और संघ एवं भाजपा का विरोध करके ही इन सारे दलों को एक झंडे के नीचे लाया जा सकता है. गैरसंघवाद का राग छेड़ कर नीतीश ने गेंद को सभी भाजपा विरोधी दलों के पाले में डाल दिया है और सभी दल इस मसले पर मंथन में लग भी गए हैं.

नीतीश के इस दांव ने भाजपा और संघ को बौखला दिया है. भाजपा नेता और राजग सरकार में नीतीश कैबिनेट में उपमुख्यमंत्री रहे सुशील कुमार मोदी कहते हैं कि केंद्र और बिहार में भाजपा के साथ मिलकर 17 साल तक सत्ता की मलाई खाने वाले नीतीश कुमार के मुंह से भाजपा और संघ का विरोध उसी तरह है जैसे कहा जाता है कि सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली. भाजपा के बूते ही वह दिल्ली और बिहार में अपनी सियासी जड़े जमाई और वहीं आज भाजपा और संघ की जड़ो को काटने की कवायद में लगे हैं, जो कभी भी कामयाब नहीं होगी. संघ और भाजपा का जितना विरोध हुआ है, उतनी ही मतबूत बन कर उभरी है.

नीतीश ने जो गैरसंघवाद का तीर छोड़ा है वह निशाने पर लगता है या नहीं यह तो कुछ समय के बाद ही पता चलेगा, पर फिलहाल तो उन्होंने भाजपा और संघ के खेमे में नई हलचल तो मचा ही दी है.

पनामा पेपर्स: काली कमाई के किले में मीडिया की घुसपैठ

समूचे विश्व को सकते में डाल देने वाले पनामा पेपर्स लीक मामले में दुनिया भर के देशों में तहलका मचा हुआ है. इसे लेकर कई राष्ट्राध्यक्षों समेत भ्रष्ट शख्सीयतों में बेचैनी है तो ईमानदारी से टैक्स चुकाने वाले लोग स्तब्ध हैं. पिछले 10 सालों में नेताओं, कारपोरेट, अपराधियों, बिचौलियों और दूसरे नामीगिरामी लोगों द्वारा काली कमाई छिपाने वाले नापाक गठजोड़ का यह सब से बड़ा खुलासा है. पनामा पेपर्स में भ्रष्ट नेताओं, कारपोरेट्स और ला फर्म का ऐसा बेनाम गठबंधन सामने आया है जिस ने दुनिया के प्रभावशाली लोगों ने बेनामी शैल कंपनियों के माध्यम से अकूत दौलत छुपाने का काम किया है.

पनामा पेपर्स लीक मामला आर्थिक अपराध की दुनिया का अब तक का सब से बड़ा पर्दाफाश है. इस खुलासे ने दुनिया के आर्थिक तंत्र के पीछे छिपी खामियों को उजागर किया  है. यह दुनिया भर के मीडिया की सामूहिक ताकत का इतिहास का सब से बड़ा उदाहरण है जिस ने एक साथ विश्व के भ्रष्ट नेताओं, उद्योगपतियों, खिलाडि़यों, अभिनेताओं, कुख्यात अपराधियों और नामीगिरामी शख्सीयतों की कमाई के काले कारनामों को उजागर किया है.

मामले के खुलासे के बाद शासकों के इस्तीफे हो रहे हैं. सरकारों के खिलाफ लोग सड़कों पर उतर आए हैं पर भारत में खामोशी है. पनामा पेपर्स में भारत के भी 500 लोगों के नाम उजागर हुए हैं पर इस राष्ट्रद्रोह पर कोई अंगुली नहीं उठा रहा है. भारत के मीडिया में भी चुप्पी है.

दुनिया भर के रसूखदार लोगों के नाम सामने आने के बाद यह बातें कही जा रही है कि ये सभी गुप्त बैंक खाते और औफशोर कंपनियां गैरकानूनी नहीं हैं पर माना जा रहा है कि जिन लोगों के नाम आए हैं उन्होंने मनी लौंड्रिंग करते हुए रकम यहां लगाई और अपने देशों में टैक्स चोरी की है.

दरअसल जरमनी के म्युनिख शहर ने निकलने वाले ‘ज्यूडडायचे जाइटुंग’ अखबार ने अपने सूत्रों से पनामा की मोसैक फोंसेका नाम की ला फर्म के 1.15 करोड़ टैक्स दस्तावेज हासिल किए. यह फर्म कानूनी सेवा देने वाली कंपनी है जो कंपनियों की खरीदबिक्री में मदद करती है.

कहा जाता है कि 1977 में स्थापित इस कंपनी ने कई फर्जी कंपनियों को बिकवाने का खेल खेला जिस के जरिए विश्व के बड़े लोगों ने अपना पैसा सरकार से छिपा कर पनामा में जमा कराया ताकि टैक्स न देना पड़े. इस अखबार को 1970 से ले कर 2015 तक 2 लाख से ज्यादा कागजी कंपनियों के दस्तावेज मिले. विश्व के कई देशों से जुड़ी इतनी बड़ी संख्या वाली कंपनियों और उन के करोड़ों दस्तावेजों को पढना और जांचपरख करना आसान न था इसलिए इन दस्तावेजों को ‘इंटरनैशनल कंसोर्टियम औफ इंवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट’[आईसीआईजे] से साझा किया गया. अंतर्राष्ट्रीय खोजी पत्रकारों के इस संगठन में दुनिया भर के 100 से ज्यादा मीडिया संस्थानों के 370 पत्रकार जुड़े हुए हैं.  लीक डाटा का साइज 2.6 टेराबाइट है. यह जूलियन असांजे के विकीलिक्स और सीआईए एजेंट एडवर्ट स्नोडेन के जारी किए डाटा से कई गुना ज्यादा हैं.

पनामा पेपर्स सब से पहले हासिल करने वाले जरमन अखबार ने कहा कि वह सभी 1.15 करोड़ पेपर्स सार्वजनिक नहीं करेगा. अखबार ने कहा कि दस्तावेजों में 2.10 लाख लोगों, कंपनियों, संस्थानों और ट्रस्टों की कमाई की जानकारी है. दुनिया भर के पत्रकार इन कागजातों की जांचपरख में जुटे हैं और आए दिन नए खुलासे हो रहे हैं.

भ्रष्टों की काली कमाई के अभेद्य किले में मीडिया की इस घुसपैठ की विश्व भर में प्रशंसा हो रही है. हालांकि फंसे हुए लोग मीडिया को कोस रहे हैं और खुद को पाक साफ बताते हुए बेतुके तर्क दिए जा रहे हैं.

पत्रकारों की इस पड़ताल से यह जाहिर हुआ है कि हर दौर में ताकतवर और अमीर लोग अपने देश का पैसा पनामा, कैमरून, बरमूडा, आइलैंड, ब्रिटिश वर्जिन, जिब्राल्टर, मकाऊ, स्विट्जरलैंड, लाइबेरिया और माल्टा जैसे देशों में छिपा कर रखता आया है.

आज जब लोकतंत्र का चौथ स्तंभ दुनिया भर में कारपोरेट और सत्ता तंत्र के आगे नतमस्तक नजर आ रहा है, ऐसे में जरमन अखबार और इंटरनैशनल कंसोर्टियम औफ इंवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स अपने दायित्व को निभाने में खरा उतरा है. भारत में तो मीडिया दिनरात धर्म, सत्ता तंत्र और व्यक्ति भक्ति में लीन दिख रहा है.

भारत में पिछले वर्षों में कौमनवेल्थ घोटाला, 2जी स्पैक्ट्रम, कोयला घोटाला जैसे मामलों का मीडिया ने पर्दाफाश नहीं किया. ये मामले सीएजी ने उजागर किए. ऐसे में जरमन अखबार और अंतर्राष्ट्रीय खोजी पत्रकार संघ जैसे पत्रकारीय दायित्व पर खरे उतरने वाले पत्रकारों की प्रशंसा करनी चाहिए. यही उम्मीद लोकतंत्र को बचा रही है.

जो काम सरकारों, विपक्षी पार्टियों और सरकारी एजेंसियों को करना चाहिए था, इस मामले में कहीं नहीं लगता कि ये अपना दायित्व निभा रहे थे. यह जोखिम भरा काम  मीडिया ने कर दिखाया. यह काम खतरनाक है क्योंकि पनामा पेपर्स से पता चलता है कि मोजैक फोंसेका ने आतंकवादी संगठनों की मदद करने वाले, ड्रग माफिया से ले कर बैंक लूटने वाले और माफिया डौन दाऊद इब्राहिम जैसे खूंखार अपराधियों तक के पैसे यहां ठिकाने लगाए गए थे. यह सच है कि आज विश्व भर में मीडिया के दायित्व पर सवाल उठ रहे हैं. उसे कारपोरेट की गोद में जा बैठने वाला, पैसों का गुलाम बताया जा रहा है लेकिन फिर भी हर जगह ऐसी स्थिति नहीं है.

अब तो हमारे ज्यादातर मीडिया मालिक, संपादक, पत्रकार लगभग मुफ्त की जमीन, पदम पुरस्कार, राज्य सभा की मेंबरी के लिए लपलपाती लालसा में अपना दायित्व, पत्रकारिता के मूल उद्देश्य भूल गए हैं और सत्ता के साथ नाजायज संबंध कायम कर लिए हैं. मानो उसे अब जनता से समाज से कोई सरोकार नहीं रह गया है. इसीलिए लोग इसे प्रेस्टीट्यूट जैसे शब्द कहने पर मजबूर होने लगे हैं.

1977 में बने इंटरनेशनल कंसोर्टियम औफ इंवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स [आईसीआईजे] 76 देशों के विश्व के 109 मीडिया संस्थानों के खोजी पत्रकारों का ग्रुप है. इस संगठन का मकसद ग्लोबल दौर में पत्रकारिता किसी देश की सीमा के भीतर सिमट कर न रह जाए, बढते अपराध, भ्रष्टाचार किसी एक देश तक सीमित नहीं है इसलिए जरूरी था कि कई देशों के पत्रकार मिल कर काम करें. इस संगठन में कई तरह के अनुभवी लोग काम करते हैं जो खासतौर से सरकारी रिकार्ड पढने में माहिर होते हैं. तथ्यों की पड़ताल करने वाले वकील पत्रकार भी होते हैं.

पत्रकार संगठन ने बहुराष्ट्रीय तंबाकू कंपनियों द्वारा नशे की तस्करी और चोरी को उजागर किया. आईसीआईजे ने 2008 से 2011 में वैश्विक तंबाकू उद्योग की फिलिप मौरिस इंटरनैशनल व अन्य कंपनियों केरूस, मैक्सिको, उरुग्वे और इंडोनेशिया में अवैध कारोबार विकसित करने का खुलासा किया था. निजी सैन्य उत्पादक संघ, अभ्रक कंपनियों और जलवायु परिवर्तन वाले लौबिस्टों का भंडाफोड किया था.

पर उधर मोसैक फोंसेका ने हैकिंग का मामला दर्ज कराया है. कहा गया है कि यह  इस फर्म के नेटवर्क में घुसपैठ का आपराधिक मामला है. उन के पास टैक्निकल रिपोर्ट है कि इसे विदेश के सर्वरों ने हैक किया है.

पनामा के वित्तीय सेवा सेक्टर को बुरी तरह हिला देने वाले इस मामले को कानूनी फर्म मोसेक फोंसेका और सरकार गैरकानूनी नहीं मानती. इन का कहना है कि औफशोर कंपनियां अपनेआप में कानून जायज हैं. मोसैक फोंसेका उस के ग्राहकों द्वारा किए गए कामों के लिए जिम्मेदार नहीं है इसीलिए दुनिया भर के राजनीतिबाज और दूसरे रसूखदार लोग अपने बचाव में यही राग अलाप रहे हैं कि उन्होंने कुछ भी गैर कानूनी नहीं किया.

पनामा पेपर्स खुलासे के बाद आइसलैंड के प्रधानमंत्री सिंगमुदुर दावी गुनलुन और चिली के ट्रांसपैरेंसी इंटरनैशनल के मुखिया की कुर्सी छीन ली. आइसलैंड में तो लोग प्रधानमंत्री के खिलाफ सड़कों पर उतर आए थे पर भारत में न तो मीडिया में, न राजनीतिक क्षेत्र में ज्यादा हलचल है. टेलीविजन चैनलों पर कोई बहस नहीं है न सोशल मीडिया में क्योंकि जिन लोगों के नाम सामने आए हैं वे तो इस देश के भगवानों के बराबर हैं, सत्ता के नजदीकी हैं और महान देशभक्त भी. विश्व प्रेस आजादी दिवस पर ह रिपोटर्स बिदाउट बौर्डर्स की ओर से जारी रैंकिंग में भारत का स्थान 180 देशों में 136वां है. अंदाज लगाया जा सकता है हम पत्रकारिता में कहां हैं.

अब भारत सरकार ने जांच की बात कही है जिस में एक बहुपक्षीय जांच समूह उन नामों से जुड़े देश और विदेश स्थित खातों की छानबीन करेगा और धन लगाने के स्रातों के बारे में पता करेगा. यह तय है कि इस से किसी का कुछ नहीं बिगड़ेगा.  हालांकि अमिताभ बच्चन, ऐश्वर्र्या राय, अडाणी जैसे फंसे हुए लोग ढुलमुल तर्कों से खुद को बचाने की कोशिश कर रहे हैं और उन्हें पता है कि उन का बाल भी बांका नहीं होगा. सरकार ने पहले ही काले धन की घोषणा करने वालों के साथ रियायत दिखा रही है. उन के घोषित धन के करीब आधे पर टैक्स छूट देने की बात कही थी.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चुनावी भाषणों में काले धन को देश में लाने  की खूब बातें की थीं. हर भारतीय के खाते में 15-15 लाख रुपए डालने का उन का चुनावी भाषण चर्चा में रहा था. सरकार ने काले धन को वापस लाने के मकसद से 13 देशों के साथ टैक्स इनफोरमेशन एक्सचैंज एग्रीमेंट भी किए लेकिन मोदी सरकार के दो साल के कार्यकाल में बात केवल स्वैच्छिक घोषणा से आगे नहीं बढ पाई. हालांकि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि विदेशों में जमा धन का खुलासा न करने वालों के खिलाफ कड़ी काररवाई की जाएगी पर ये मामले वर्षों जांच और फिर अदालतों में पड़े रहेंगे. कुछ ठोस नतीजा निकलेगा इस में संदेह है.

हालांकि पिछले साल सरकार ने काला धन विधेयक पास किया था जिस में भारी जुर्माने और आपराधिक मुकदमे की काररवाई का प्रावधान है. अंतर्राष्ट्रीय नियमों के तहत वित्तीय संस्थानों को ग्राहकों की वित्तीय जानकारियां सरकार से साझा करनी होती है, जहां उस पर टैक्स देना पड़ता है. नियमों के तहत किसी भी देश में कानूनी रूप से अवैध संपत्ति रखने वाला व्यक्ति दोषी कहलाता है इसलिए वित्तीय पारदर्शिता लाना जरूरी है. अमेरिका में फोरेन अकाउंट टैक्स कंप्लायंस एक्ट के कारण देश का पैसा अवैध रूप से बाहर नहीं जा पाता. इस के तहत प्रत्येक व्यक्ति को विदेश में मौजूद अपने खातों की सही जानकारी देना आवश्यक होता है.

दुनिया के कई देशों में कमाई छिपाने, टैक्स चोरी करने और किसी सुरक्षित जगह पर पैसा रखने के लिए वर्षों से यह सिलसिला चल रहा है. इन देशों को टैक्स हैवन कहा जाता है. यह कारोबार बहुत बड़ा है. इस का अंदाज भी नहीं लगाया जा सकता. कई देशो की तो समूची अर्थव्यवस्था ही इसी पैसे पर  टिकी है.

कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर गेब्रियल जकमैन लिखते हैं कि इन द्वीपों की शैल कंपनियों का पैसा न्यूयार्क के रियल एस्टेट से ले कर बांड इक्विटी और यूरोप तक निवेश होता है. प्रतिबंध की गतिविधियां रोकी जा सकती हैं. मनी लौंड्रिंग पर रोक लगाने से आतंकवाद और अपराध को वित्तीय मदद बंद करने में सहायता मिलेगी.

अनेक देशों में काला धन रोकने के लिए कानून भी बने हुए हैं. विश्व भर में टैक्स जानकारी साझा करने के लिए 500 से ज्यादा समझौतों और अमेरिकी कानून फोरेन अकाउंट टैक्स कंप्लायंस ऐक्ट के लागू होने की तैयारियों के बावजूद वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए यह साबित कर पाना बड़ा मुश्किल हो गया है कि टैक्स हैवन देशों में इकट्ठा खरबों डौलर चोरी के हैं या कानूनी तौर पर जमा किए गए हैं.

ऐसे खुलासे पहले भी हुए हैं. 2011 में विकीलिक्स ने भारतीयों समेत विश्व के कई नाम उजागर किए थे जिन्होंने स्विस बैंकों में धन जमा कराया था. विकीलिक्स मामला 5 अखबारों ने मिल कर किया था. इस में भारत के 22 लोगों के नाम सामने आए. सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर स्पेशल इंवेस्टिगेटिव टीम बनाई. सीआईए के एक पूर्व कर्र्मचारी एडवर्ट स्नोडेन ने कई पत्रकारों के साथ मिल कर दस्तावेज जारी किए थे जिस से विश्व भर में खलबली मची रही.

भारतीयों द्वारा विदेशी बैंकों में चोरी से जमा किए गए धन का कोई निश्चित आंकड़ा तो नहीं है पर जानकारों का अनुमान है कि यह लगभग 7,280,000 करोड़ रुपए हैं.

भारत और दूसरे देशों में जहां पनामा पेपर्स खुलासे को सराहा जा रहा है वहीं चीन के राष्ट्रपति शीन जिनपिंग और उन के जीजा डेंग जियागुई सहित कई नेताओं के नाम सामने आने पर वहां की लाइव जानकारी दिखाने वाली वेबसाइटों पर सेंसर लगा दी गई है. इन में इकोनोमिस्ट और टाइम भी शामिल हैं ताकि चीन की जनता अपने नेतओं के भ्रष्टाचार के बारे में न जान सके. शी जिनपिंग के जीजा और उन की पत्नी ने अरबों डौलर रियल एस्टेट , शेयर होल्डिंग और अन्य निवेश क्षेत्र में लगाए थे. इस बात का 2012 में ब्लूमबर्ग न्यूज ने भी खुलासा किया था.

ओलिंपिक खिलाड़ी तात्याना नावका का नाम आने पर उन्होंने कहा कि मीडिया को कोई और काम नहीं है. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी मोदी से पूछ रहे हैं, मोदी सरकार पनामा पेपर्स पर क्यों नहीं बोल रहे हैं. वे काला धन रखने वालों पर काररवाई नहीं करेंगे क्योंकि अरुण जेटली हाल ही में नई फेयर एंड लवली स्कीम लाए हैं जहां कोई भी डाकू, लुटेरा, ड्रग डीलर, गैगस्टर अपने काले धन को कुछ टैक्स दे कर सफेद बना सकता है.

सोशल मीडिया पर पनामा पेपर्स में आ रहे नामों को महान देशभक्त कह कर कटाक्ष किए जा रहे हैं. अमिताभ बच्चन के बारे में कहा गया है कि वह देशभक्ति के गीत गाते हैं, कविताएं सुनाते हैं और टैक्स चोरी कर विदेशों में धन को छुपाते हैं.

मामले में दुनिया भर से प्रतिक्रियाएं आ रही हैं. कुछ लोग इस में सीआईए का हाथ देख रहे हैं. कहा जा रहा है कि यह आपरेशन रूस और सीरिया के खिलाफ है जिस के पीछे वाशिंगटन और उस के पश्चिम पार्टनर हैं क्योंकि  वे दोनों जगह सत्ता बदलना चाहते हैं. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन का नाम भी सामने आया है. हालांकि वह स्वयं शामिल नहीं हैं पर उन के रिश्तेदार के नाम हैं. उधर सीरिया के राष्ट्रपति अल बशर असद का नाम भी है. इंटरनेशनल कंसोर्टियम औफ इंवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स को ओपन सोसायटी फाउंडेशन और फोर्ड फाउंडेशन का भी समर्थन हासिल बताया जा रहा है. फोर्ड फाउंडेशन द्वारा आईसीआईजे को आर्थिक मदद के दावा भी किया जा रहा है.

अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने पनामा पेपर्स खुलासे के दो दिन बाद कहा कि टैक्स चोरी से बचने के ये तरीके दुनिया भर के लिए समस्या है. इन में से बहुत से खाते और कंपनियां कानूनी हैं पर समस्या तो यही है. समस्या यह है कि ये कानून ही क्यों बने हैं.

ग्लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रिटी की काउंसल लिज कोंफालोन कहती हैं कि पनामा पेपर्स मामला बिचौलियों का ऐसा चित्रण है जिस में पनामाई ला फर्म मोजैक फोंसेका बेनाम मालिकों और कंपनियों के बीच स्क्रीन की तरह है. वह अमेरिका समेत कई देशों में सेवा देती है. अमेरिका में कोई भी व्यक्ति सही व्यक्ति का नाम उजागर किए बिना कंपनी खोल सकता है. अधिकारियों को पता होता है कि कंपनी गलत काम कर रही है पर उसे यह पता नहीं होता है कि गलत काम कौन कर रहा है. अगर उस का पता चल भी जाए तो राशि का पता नहीं चलता. इस तरह बेनामी कंपनी के मालिक को सजा से मुक्त होने का लाइसेंस मिल जाता है. यहां बेनामी कंपनी खोलना लाइब्रेरी कार्ड बनवाने से भी ज्यादा आसान है.

सोशल मीडिया में तरुण कहते हैं, ‘‘पनामा घोटाले में शामिल लोगों पर मोदी कोई काररवाई नहीं करेंगे. ज्यादातर उन के परिचित और करीबी हैं. सभी भ्रष्ट लोगों और काला बाजार करने वालों के लिए भाजपा सुरक्षित पनाहगाह है. अगर कोई भाजपा में शामिल होता है तो उस के सारे अपराध माफ हो जाते हैं.’’

सचिन ने लिखा है, ‘‘लालची, भ्रष्ट और सत्ता से ताकतवर बने लोग गैरकानूनी माध्यम से पैसे को दूसरे देशों में पहुंचाते हैं और बेनामी कंपनियों के जरिए उस पैसे का हस्तांतरण होता है. यह देश के साथ गद्दारी है. ऐसे लोगों को कड़ी सजा मिले.’’

नितिन धारीवाल ने सवाल उठाया है कि टैक्स चोरी करते वक्त तमाम सरकारी एजेंसियां कहां चली जाती हैं? इंफोर्समेंट डिपार्टमेंट, सीबीआई, सीआईडी, इंकम टैक्स विभाग क्या कर रहे होते हैं? जब किसी मामले का खुलासा होता है तभी सारे विभाग जागते हैं.

पनामा जैसी जगह पर हम ऐसी वित्तीय गतिविधियां क्यों चलने दे रहे हैं जिस के पैसों का उपयोग अपराध को बढावा देने में हो रहा है. एक सज्जन लिखते हैं कि बेनाम वाली कंपनियां अर्थव्यवस्था और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा होती हैं.

आज जब पत्रकारिता दम तोड़ रही है, निश्चित ही पनामा पेपर्स लीक मामला विश्व में जवाबदेही पत्रकारिता का बड़ी मिसाल है.जरमन अखबार और पत्रकारों के इस संगठन के अपने दायित्व से जिम्मेदार पत्रकारिता के मापदंड स्थापित हुए हैं.

अंतर्राष्ट्रीय खोजी पत्रकार संघ के सहयोगी

आईसीआईजे के साथ विश्व भर के जो अखबार और न्यूज एजेंसियां जुड़ी हुई हैं उन में ये प्रमुख हैं,

बीबीसी, ले मोंडो, फ्रांस, अल मुंडो, स्पेन, अल पेइस, स्पेन, द हफ्फिंगटन पोस्ट, अमेरिका, द एज, आस्ट्रेलिया, फोल्हा द साओ पाउलो, ब्राजील, ले सोइर, बेल्जियम, द साउथ चाइना मोर्निंग पोस्ट, हांगकांग, स्टर्न, जरमनी, द गार्जियन, ब्रिटेन, द संडे टाइम्स, ब्रिटेन, प्रोसेको, मैक्सिको, 24 चासा, बुल्गारिया, एबीसी कलर डिजिटल, पैरागुआ, द असाही शिंबुन, जापान, कनाडियन ब्राडकास्टिंग कारपोरेशन, कनाडा, सीआईएन-आईजेसी, क्रोशिया, कौमनवेल्थ मैगजिन, हांगकांग, अल कोमेरियो, एक्वाडोर, अल कांफिडेंशिल, स्पेन, फिन्निश ब्राडकास्टिंग कंपनी, फिनलैंड, फोकस, स्वीडन, द इंडियन एक्सप्रैस, भारत, इसरा न्यूज एजेंसी, थाइलैंड,  द आइरिश टाइम्स, आयरलैंड, न्यूजटपा, दक्षिण कोरिया, कीव पोस्ट, उक्रैन, ला नैशियन, अर्जेंटीना, ला नैशियन, क्रोशिया, ले मैटिन डामांचे व सोन्नटंग्स जेइटुंग, स्विट्जरलैंड, ले एस्प्रैसो, इटली, मलेशियन किनी, मलेशिया, मिंग पाओ, हांगकांग, एनडीआर, जरमनी, न्यू एज, बंगलादेश, न्यूज, आस्ट्रेलिया, नोर्वेजियन ब्राडकास्टिंग कारपोरेशन, नोर्वे, नोवाया गजट, रूस, नोवी मैगजिन, सर्बिया, ओरिगो, हंगरी, पाक ट्रिब्यून, पाकिस्तान, पाकिस्तान न्यूज सर्विस, पाकिस्तान, प्रिमियम टाइम्स, नाइजीरिया, रेडिया फ्री यूरोप, रेडिया लिबर्टी, अजरबेजान, रुस्टवी टीवी, जार्जिया,  सुडडायचे जाइटुंग, जरमनी, द न्यूयार्क टाइम्स, द सिडनी मोर्निंग हैराल्ड, आस्ट्रेलिया, टा निया, ग्रीक, ट्राउ, नीदरलैंड, द वाशिंगटन पोस्ट.

21 ज्यूरिस्डिक्शन में फैला काला कारोबार

मोसैक फोंसेका विश्व की 5 सब से बड़ी औफशोर कंपनियों में से एक है जिस का कारोबार दुनिया के 21 देशों में फैला हुआ है. इन में ब्रिटिश वर्जिन आइसलैंड में सब से ज्यादा 1,13,000 कंपनियां हैं. दूसरा स्थान पनामा का है जहां मोसैक फोंसेका का हैडक्वार्टर है. इन में ये देश हैं, बहामास, ब्रिटिश अंगुएला, कोस्टारिका, हांगकांग, जर्सी, नेवादा, नीए, रास अल खेमाह, सेसेल्स, ब्रिटेन, वायोमिंग, बेलिज, ब्रिटिश वर्जिन आइसलैंड, साइप्रस, एसले औफ मैन, माल्टा, न्यूजीलैंड, पनामा, समोआ, सिंगापुर, उरुग्वे.

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