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आपकी प्राइवेट चैट प्राइवेट नहीं रहती, ये वीडियो आपकी आंखें खोल देगा

अपने बंद कमरे की चार दीवारों में हम कुछ भी करें, किसी को पता नहीं चलता. लेकिन इंटरनेट की दुनिया ऐसी है जहां कुछ नहीं छिपा है. अगर आपको लगता भी है कि, आपकी बातें या वीडियो चैट कोई नहीं देख सकता है, तो आप गलत हैं. कई हैकर्स, वीडियो चैट रिकॉर्डिंग सॉफ्टवेयर, वायरस वगैरा धाक लगा कर बैठे रहते हैं कि कैसे आपकी एक गलती किसी पोर्न साइट तक पहुंच जाए.

आपके लिए आपकी निजी जिंदगी, अपने ब्यॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड के साथ बिताया जाना वाला आपका निजी पल कितना मायने रखता है. आपके लिए इन खास पलों की प्राइवेसी क्या मायने रखती है. शायद बहुत ज्यादा. लेकिन ऑनलाइन चैटिंग करते वक्त आपको पता नहीं होता है कि जिस वेबकैम को आप इस्तेमाल कर रही हैं, उसमें एक शैतान छिपा है. वो शैतान जो आपको पोर्न इंडस्ट्री तक घसीट सकता है.

जी हां अगर आप अपनी गर्लफ्रेंड/पत्नी या किसी से भी वीडियो चैट करते हैं, चैट करते वक्त आप दोनों के बीच कुछ निजी बातों या निजी मूवमेंट्स का आदान-प्रदान होता है, और अगर आप यह सोचते हैं कि सब कुछ सीक्रेट है, तो ऐसा नहीं है. आपकी सीक्रेसी एक झटके में मिट्टी में मिल जाती है, जब हैकर्स आपकी वीडियो चैट को हैक कर लेते हैं.

हैक करने के बाद आपके निजी पलों के साथ-क्या-क्या हो सकता है, आप देख सकते हैं इस वीडियो में. इस वीडियो को देख कर आपको इंटरनेट की रंगीन दुनिया का बहुत ही वीभत्स रूप देखने को मिलेगा.

विजय माल्या की दिक्कतें बढ़ीं

भारतीय स्टेट बैंक की अगुवाई में बैंकों के समूह ने उच्चतम न्यायालय में एक नई याचिका दायर की है, जिसमें विजय माल्या के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई शुरू करने का आग्रह किया गया है.

माल्या इस समय ब्रिटेन में हैं. बैंकों का आरोप है कि माल्या ने निर्देश के बावजूद अपनी पूरी संपत्ति का ब्यौरा नहीं दिया है.

न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ और आर. एफ. नरीमन की पीठ ने बैंकों के इस अंतरिम आवेदन पर 18 जुलाई को सुनवाई पर सहमति जताई है. अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने याचिका को तुरंत सुनवाई के लिये पेश किया था.

रोहतगी ने दावा किया है कि माल्या ने अपनी संपत्ति के बारे में शीर्ष अदालत को सीलबंद लिफाफे में गलत ब्यौरा दिया है. उन्होंने कहा है कि कई सूचनाओं को छुपाया गया है जिनमें 2,500 करोड़ रूपए का लेनदेन भी शामिल है और यह अदालत की अवमानना है.

अदालत ने इससे पहले माल्या से उसकी संपत्ति का सीलबंद लिफाफे में ब्यौरा मांगा था. बैंकों के समूह ने हाल ही में आरोप लगाया था कि माल्या उसके खिलाफ मामले की जांच में सहयोग नहीं कर रहा है और अपनी विदेश स्थित संपत्ति के बारे में जानकारी नहीं दे रहा है.

माल्या के जवाब के प्रत्युत्तर में दायर हलफनामे में बैंकों ने कहा है कि माल्या और उसके परिवार की विदेश स्थित संपत्ति की जानकारी उससे बकाये की वसूली के मामले में काफी अहम होगी.

अब रेत से मिलेगी आपके कंप्यूटर को ठंडक

अगर आपके कम्‍प्‍यूटर पर रेत थोपा जाने लगे तो आपको अजीब लगेगा लेकिन दरअसल यह एक प्रकार की रिसर्च है. यह रेत कोई साधारण रेत नहीं बल्कि सिलिकॉन डाइऑक्‍साइड नैनो-पार्टिकल परत चढ़ी हुई हाई इलेक्ट्रिक कॉन्‍सटेंट पॉलीमर है जो पॉवर हंग्री इले‍क्‍ट्रॉनिक डिवाइस को ठंडक प्रदान करने में सहायक होती है.

वैसे तो सिलिकॉन डाइऑक्‍साइड, अपने आप ठंडक नहीं ही पहुँचाती है. लेकिन, नैनो-स्‍केल मैटेरियल की परत चढ़ी हुई विशेष सतह वाली यह रेत, ठंडक पहुँचाती है.

इसके पीछे छुपे भौतिक सिद्धांत को समझना सामान्‍य व्‍यक्ति के लिए काफी जटिल है क्‍योंकि नैनो-स्‍केल इलेक्‍ट्रोमैग्‍नेटिक, सिलिकॉन डाइऑक्‍साइड पर चढ़कर एक प्रकार के प्रभाव को उत्‍पन्‍न करता है और इसकी वजह से इसके नीचे आने वाली सतह को ठंडक मिलने लगती है. एलईडी, कम्‍प्‍यूटर या इलेक्‍ट्रॉनिक डिवाइस इसके प्रभाव में आकर ठंडी हो जाएगी.

जॉर्जिया इंस्‍टीट्यूट ऑफ टेक्‍नोलॉजी के रिसर्चर, बाराटुंडे ने इस विषय पर काफी शोध किया है और उन्‍होंने इस वीडियो भी इस संदर्भ मे यू-ट्यूब पर डाला है.

जिसमें स्‍पष्‍ट किया गया है कि ये रेत, इलेक्‍ट्रॉनिक डिवाइस के लिए इंसुलेटर की भांति काम करती है और उसे हीट होने से बचाती है जिससे उसकी कार्यक्षमता प्रणाली बढ़ जाती है और उसका जीवन भी दीर्घ हो जाता है. इस शोध को हाल ही में एक जर्नल में भी प्रकाशित किया जा चुका है.

माता पिता की लापरवाही, जोखिम में बच्चों की जान

संतान को जन्म देने के साथ ही मांबाप की जिम्मेदारियां और दायित्व बढ़ जाते हैं. बच्चे की सही परवरिश व सुरक्षा की जिम्मेदारी मातापिता की होती है. ऐसे में बच्चे की परवरिश व देखभाल में हुई जरा सी चूक बच्चे को मौत के मुंह में धकेल सकती है.

आएदिन अबोध बच्चों के बोरवैल में गिरने की घटनाएं, बंद गाड़ी में बच्चों को अकेले छोड़ कर जाने की लापरवाही से बच्चों के दम घुटने के कारण होती मौतें हैरान करती हैं कि मांबाप, जो बच्चों को इस दुनिया में लाने के लिए लाखों जतन करते हैं, वे अपने उन्हीं जिगर के टुकड़ों के प्रति इतने लापरवाह कैसे हो सकते हैं.

15 मार्च, 2016 को महाराष्ट्र के भिवंडी में मातापिता की लापरवाही के कारण 4 वर्षीय बच्चे की पानी की टंकी में गिर कर डूबने से मौत हो गई. अंधविश्वासी अंधविश्वासी मातापिता पूजा में इतने व्यस्त थे कि उन्हें पता ही नहीं चला कि बच्चा सचिन नीचे दूसरी मंजिल से खेलतेखेलते सीढ़ी से नीचे उतर गया और सीढ़ी के नीचे बनी पानी की टंकी में जा गिरा.

6 मई, 2016 को मुजफ्फरनगर के हैवतपुर गांव में परिजनों ने बच्चे को पानी से भरी बालटी के पास खेलने के लिए छोड़ दिया था. काफी देर बाद जब परिजनों को ध्यान आया तो देखा कि बच्चा बालटी में उलटा पड़ा है.

12 जून, 2016 को भोपाल के मोतिया तालाब में डूबने से 2 बच्चों की मौत हो गई. ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे, जिन में मातापिता की लापरवाही के कारण मासूमों की जान चली जाती है.

प्रोफैसर अरुण कुमार प्रसाद कहते हैं कि बच्चे चंचल होते हैं और चंचलता में कभीकभी वे ऐसी हरकतें कर जाते हैं जो उन की ही जान के लिए खतरनाक होती हैं. बच्चों के अभिभावकों को इस के लिए सचेत होने की जरूरत है. जब मातापिता या अभिभावक आसपास नहीं होते हैं तो बच्चों का खिलंदड़पन और उन की शैतानी ज्यादा बढ़ जाती है. वे अपने मन के मालिक बन जाते हैं और कुछ भी कर गुजरते हैं. कम उम्र होने की वजह से उन्हें इस बात का जरा भी भान नहीं होता है कि उन की कोई बदमाशी उन की जान भी ले सकती है.

रांची के सतू रोड की देवी मंडप गली में रहने वाली रेखा दयाल उस रात को याद कर के आज भी सिहर उठती हैं. वे कहती हैं कि 4 साल पहले उन्हें अपने पति के साथ एक शादी समारोह में जाना था. उन्होंने सोचा कि बच्चों को खाना खिला कर सुला दिया जाए, उस के बाद वे शादी के फंक्शन को एंजौय करेंगे. उन्होंने 10 साल की बेटी अदा और 7 साल के बेटे जौय को रात का खाना खिला कर सुला दिया. नौकर को हिदायत दे दी कि बच्चों का ध्यान रखना. उस के बाद रेखा अपने पति के साथ शादी की पार्टी में चली गईं. रात को 11 बजे जब दोनों वापस घर लौटे तो बाहर से देखा कि बच्चों के बैडरूम की खिड़की के परदे में आग लगी हुई है. दोनों दौड़तेभागते बच्चों के कमरे तक पहुंचे तो देखा कि परदा पूरी तरह से जल चुका है, आग कमरे के बाकी हिस्सों में फैलने लगी है और बच्चे कमरे में नहीं हैं.

रेखा पागलों की तरह चिल्लाती हुई बच्चों को ढूंढ़ने लगीं. कुछ देर के बाद उन्होंने देखा कि दोनों बच्चे डर से सहमे हुए सोफे के पीछे छिप कर बैठे हुए हैं. किसी तरह आग पर काबू पाया गया. बाद में रेखा ने जब बच्चों से पूछा कि कमरे में आग कैसे लगी तो अदा ने बड़ी ही मासूमियत से कहा कि वह भाई के साथ किचनकिचन खेल रही थी और खाना बनाने के लिए गैस के चूल्हे को माचिस से जलाने की कोशिश कर रही थी.

इन चीजों से ज्यादा खतरा

मनोविज्ञानी अजय मिश्रा कहते हैं कि घर की सीढि़यां, बालकनी या छत से बच्चों के गिरने का खतरा रहता है. खेलखेल में वे छत और सीढि़यों की रेलिंग पर चढ़ जाते हैं. बाथटब में नहाते समय छोटे बच्चों के डूबने का खतरा रहता है. इसलिए जब छोटे बच्चे बाथटब में नहाएं तो मातापिता में से किसी को उस जगह रहना चाहिए. इस के साथ ही घर में रखे फिनाइल, एसिड, कीटनाशक जैसी जहरीली चीजों के बच्चों द्वारा पीने का खतरा रहता है. बाथरूम में फिसल कर गिरने, पेड़ों पर चढ़ने के दौरान गिरने का अंदेशा बना रहता है. बिजली के उपकरणों एसी, कूलर, आयरन, माइक्रोवेव, रूमहीटर आदि से खिलवाड़ के दौरान बिजली का करंट लगने का खतरा हमेशा रहता है.

भावनात्मक पहलू

बच्चों के प्रति लापरवाही किसी भी तरह की हो सकती है. यह लापरवाही अभिभावकों द्वारा व्यस्त जीवनशैली के चलते बच्चों को समय न देने के रूप में भी हो सकती है, जिस का परिणाम बच्चे अकेलेपन, तनाव व डिप्रैशन के रूप में झेलते हैं. बच्चों को सिर्फ पैसा दे कर सुखसुविधाएं उपलब्ध कराना ही जिम्मेदारियों का पालन करना नहीं है. बच्चों की सही परवरिश व देखभाल में बच्चों को पेरैंट्स का साथ भी चाहिए होता है. मातापिता के होते हुए अगर बच्चे अकेलेपन में अनाथ की सी जिंदगी जिएं तो यह पेरैंट्स की बच्चों के प्रति लापरवाही ही कहलाएगी.

बीते वर्ष पटना के बेली रोड में एक महिला अपने बच्चे को स्कूल छोड़ने जा रही थी. आटोरिकशा जब स्कूल के पास रुका तो बच्चा गलत साइड से सड़क पर उतर आया. जब तक उस की मां कुछ समझ पाती, पीछे आती एक कार ने उसे टक्कर मार दी. मौके पर ही बच्चे की मौत हो गई.

एक प्राइवेट स्कूल की प्रिंसिपल डाक्टर नीना कुमार कहती हैं कि गार्जियन और स्कूलटीचर को चाहिए कि वे 6 से 10 साल के बच्चों को ले कर ज्यादा सावधान रहें. इस उम्र के बच्चों को यह पता नहीं होता है कि उन की किनकिन हरकतों की वजह से उन की जान जोखिम में पड़ सकती है. इस उम्र के बच्चों पर खास ध्यान देने की जरूरत है, वरना वे खुद के लिए व मातापिता के लिए मुसीबत खड़ी कर सकते हैं.

– रखें नजर, बरतें सावधानी

– बच्चों को घर, गाड़ी, मार्केट, मौल आदि जगहों पर अकेला न छोड़ें. अकसर बच्चों के मातापिता ऐसी गलतियां कर बैठते हैं.

– बच्चे को ले कर कार, ट्रेन आदि में सफर कर रहे हों तो खयाल रखें कि वे अपना सिर या हाथ खिड़की के बाहर न निकालें.

– माचिस, लाइटर, गैसचूल्हा, स्टोव, नुकीली चीजें आदि बच्चों की पहुंच से दूर रखें.

– घर से बाहर जाते समय बिजली के सामानों ओवन, हीटर, आयरन, वाशिंग मशीन, टीवी आदि का प्लग निकाल दें.

– बाथटब में जब बच्चे नहाएं तो उन पर खास ध्यान रखें. उन्हें अकेला न छोड़ें.

– बाथरूम में साबुन, शैंपू आदि के इस्तेमाल से फर्श में फिसलन हो जाती है, इसलिए उसे ब्रश से साफ करते रहें.

– बालकनी और छत की रेलिंग को इतना ऊंचा जरूर रखें कि बच्चे उसे फांद न सकें.

– सीढि़यों की रेलिंग पर चढ़ कर बच्चे खेलखेल में ऊपर से नीचे गिर सकते हैं, इसलिए वहां खास एहतियात बरतने की जरूरत है.

– बच्चों को बचपन से ही घर के नियमकायदों के बारे में बताएं कि क्या नहीं करना चाहिए और क्या करना चाहिए.

तलाक मध्यस्थता कितनी जरूरी

सुप्रीम कोर्ट द्वारा मुसलिम महिला  के अधिकारों को परिभाषित करने हेतु सुनवाई प्रक्रिया के बीच ही बौंबे हाईकोर्ट ने अपने एक महत्त्वपूर्ण फैसले में कहा कि शौहर द्वारा मौखिक रूप से 3 बार तलाक कहने मात्र से तलाक वैध नहीं होगा. तलाक देने से पहले उसे कुरआन द्वारा दिए गए दिशानिर्देश का पालन करना होगा. मामला तलाक के बाद गुजारा भत्ते का था और दिलशाद बेगम ने अपने पूर्व शौहर अहमद खां से गुजारा भत्ता पाने के लिए मजिस्ट्रेट के सामने अर्जी दायर की थी. मजिस्ट्रेट ने इस अर्जी को धारा 125 के तहत खारिज कर दिया. तब महिला ने सैशन कोर्ट में अपील की जिसे कोर्ट ने सुनवाई हेतु मंजूर कर लिया और 1,500 रुपए मासिक गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया, साथ ही 5,000 रुपए मुकदमे का खर्च भी देने का निर्देश दिया.

पति ने इस आदेश को बौंबे हाईकोर्ट में चुनौती दी और कहा कि उस ने 20 मई, 1994 को एक मसजिद में 2 गवाहों की मौजूदगी में 3 बार तलाक दिया है और सामान भी लौटा दिया है. इसलिए मुसलिम महिला (तलाक के अधिकारों का संरक्षण) कानून 1986 के तहत इद्दत की अवधि के बाद पत्नी गुजारे का दावा नहीं कर सकती.

अपनी बात के सुबूत में उस ने तलाकनामा भी कोर्ट में पेश किया जिस पर गवाहों के हस्ताक्षर थे. बौंबे हाईकोर्ट ने उस की दलीलें रद्द कर दीं और कहा कि वैध तलाक के लिए तलाकनामा काफी नहीं है. पति को यह साबित करना होगा कि उस ने तलाक से पहले मध्यस्थता अथवा समझौते की कोशिश की थी. इस बारे में पति कोई सुबूत पेश करने में नाकाम रहा.

इस फैसले को ले कर उलेमा और बुद्धिजीवियों दोनों के अलगअलग मत हैं. उलेमा की बहुसंख्या जहां इसे वैध तलाक मान रही है वहां बुद्धिजीवी वर्ग बौंबे हाईकोर्ट के फैसले का समर्थन कर रहा है.

तलाक से पूर्व मध्यस्थता की बात इस से पहले केरल हाईकोर्ट भी कह चुका है. 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने एक फैसले में कहा था कि तलाक के लिए उचित कारण होना चाहिए अर्थात शौहर अदालत को संतुष्ट करे कि तलाक से पूर्व दोनों के बीच मध्यस्थतों द्वारा सुलहसफाई की कोशिश हुई थी. सुलह की विफलता के बाद तलाक दिया जा सकता है.

एकसाथ 3 तलाक अथवा तलाक से पूर्व मध्यस्थता की पाबंदी इसलामी न्यायविदों (फुकहा) के समीप विवादों में रही है. हनफी मसलक (पंथ) में 3 तलाक को वैधता प्राप्त है और मध्यस्थता की लाजिमी शर्त को नकारा गया है.

अलग अलग फैसले

इसी आधार पर औल इंडिया मुसलिम पर्सनल ला बोर्ड का मानना है कि बौंबे हाईकोर्ट का यह फैसला शरीअत के खिलाफ है और इस से कई प्रकार की गंभीर समस्याएं पैदा होंगी. बौंबे हाईकोर्ट के फैसले के मुताबिक तलाक नहीं हुआ जबकि शरीअत के मुताबिक तलाक हो गया और दोनों में मियांबीवी का रिश्ता खत्म हो गया. दोनों एकदूसरे के लिए अजनबी हो गए. लेकिन अदालती फैसले से दोनों को मियांबीवी की हैसियत से अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी होगी.

शरीअत दोनों के बीच यौन संबंधों को हराम और बलात्कार जैसा बड़ा अपराध बताती है लेकिन अदालती फैसले से कानून इस को प्रोत्साहित करता है.

अदालतों के अलगअलग फैसले निश्चित ही मुसलिम पर्सनल ला के लिए चुनौती पैदा कर रहे हैं और अब तो मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है. इन फैसलों के कारण ही समान नागरिक संहिता की बात की जाती है और कहा जाता है कि समय आ गया है कि इस व्यवस्था को लागू किया जाए क्योंकि मुसलमान इस के लिए तैयार हो गए हैं. समान नागरिक संहिता मुसलमानों के लिए कोई मसला नहीं है क्योंकि उन के पास पूरी व्यवस्था है. कुरआन व हदीस में पारिवारिक रिश्तों के बारे में स्पष्ट आदेश हैं, जिन्हें मानना एक मुसलमान के लिए अनिवार्य है.

असल मसला तो बहुसंख्यक वर्ग का है. उस की एक समस्या यह है कि वहां हलाल व हराम की कोई कल्पना नहीं है. वहां कन्यादान के बाद सभी खूनी रिश्तों का सिलसिला पिता व भाई से कम से कम हो जाता है. इस का हल यह निकाला गया कि तलाकशुदा महिला की दूसरी शादी तक अथवा उस को जिंदगीभर पूर्व पति से गुजाराभत्ता अनिवार्य रूप से दिलाया जाए.

इसलाम में शादी जन्मजन्म का बंधन नहीं है, बल्कि एक संधि है जिस के द्वारा दो दिल एक होते हैं. बहुत ही मजबूरी की हालत में गुजारा न होने की स्थिति में उसे तलाक द्वारा आजादी दी गई ताकि वह अपनी इच्छानुसार अपना जीवनसाथी चुन सके. तलाक अंतिम उपाय है. इस के पूर्व एक पूरी प्रक्रिया द्वारा मामले को सुलझाने के बारे में स्वयं कुरआन बताता है कि किस तरह दोनों तरफ के बड़े बुजुर्गों की उपस्थिति में मामले को सुलझाया जाए. लेकिन इस प्रक्रिया को अपनाए बिना तलाक नहीं होगा, उलेमा इसे नकारते हैं. देखना यह है कि केंद्र सरकार इस मामले में क्या पक्ष रखती है और आगे सुप्रीम कोर्ट क्या निर्णय देता है.

सुप्रीम कोर्ट का मत

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मुसलिम समुदाय में 3 बार तलाक बोल कर वैवाहिक संबंध तोड़ना एक बहुत महत्त्वपूर्ण विषय है जो लोगों के एक बड़े तबके को प्रभावित करता है. इसे संवैधानिक ढांचे की कसौटी पर कसे जाने की जरूरत है. अदालत ने ‘पर्सनल ला’ के मुद्दे की जांच करने पर सहमति जताते हुए यह कहा है. शीर्ष अदालत के जजों ने कहा-हम सीधे ही किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच रहे क्योंकि दोनों ओर बहुत मजबूत विचार है. अदालत इस बात पर गौर करेगी कि मुद्दे का निबटारा करते वक्त पिछले फैसलों में क्या कोई गलती हुई है और इस बारे में फैसला करेगी कि क्या इसे और बड़ी या 5 सदस्यीय संविधान पीठ के पास भेजा जा सकता है. प्रधान न्यायधीश न्यायमूर्ति टी एस ठाकुर और न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर की सदस्यता वाली पीठ ने कहा, ‘‘हम सीधे ही किसी निष्कर्ष पर नहीं जा रहे हैं. यह देखना होगा कि क्या संविधान पीठ द्वारा कानून पर कोई विचार किए जाने की जरूरत है.’’ उन्होंने इस में शामिल पक्षों से ‘3 बार तलाक बोले जाने’ पर फैसलों की न्यायिक समीक्षा की गुंजाइश पर एक बहस के लिए तैयार होने को भी कहा.  

गैर शिक्षा कैरियर में भी नाम और पैसा

विकास इस बार भी इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा पास नहीं कर पाया. उस के सारे दोस्त अच्छेअच्छे कालेजों से पढ़ाई कर रहे थे, सिर्फ उसी का दाखिला नहीं हो पाया था. दरअसल, उसे इंजीनियरिंग के क्षेत्र में कैरियर नहीं बनाना था. लेकिन उस के पापा चाहते थे कि उन का बेटा इंजीनियर बने. वे हमेशा विकास को डांटते थे कि ‘दिनभर बैठे बैठे समय गुजारता रहता है, यह नहीं कि थोड़ी मेहनत करे ताकि किसी अच्छे कालेज में दाखिला हो जाए.’

विकास थोड़ी देर के लिए भी पढ़ाई छोड़ कर टीवी देखता तो उस की मम्मी चिल्लाने लगती, ‘विकास, पढ़ाई कर ले, कुछ बन जा. देख, तेरे पापा की समाज में कितनी इज्जत है, उन का नाम मिट्टी में मिलाएगा क्या?’

विकास के घर वाले हमेशा उसे इंजीनियरिंग की परीक्षा पास नहीं कर पाने के लिए कोसते रहते थे. पर उन में से किसी ने भी उस की उस खास प्रतिभा की तरफ ध्यान नहीं दिया जिस में उस की रुचि थी और जिस में वह मास्टर था. दरअसल, उस के पापा को लगता था कि पेंटिंग भी कोई कैरियर है. इसे तो वे लोग करते हैं जो पढ़ाई में कमजोर होते

हैं, जो जीवन में कुछ भी नहीं कर पाते. उन का बेटा कमजोर नहीं है, वह तो एक सफल इंजीनियर बनेगा. इसी सोच की वजह से वे हमेशा विकास पर दबाव बनाते थे.

हम में से अधिकांश मातापिता ऐसा ही करते हैं. बच्चों के कपड़े व खिलौनों की तरह उन का कैरियर भी स्वयं ही तय करना चाहते हैं. फिल्म ‘3 इडियट्स’ का एक संवाद काफी प्रभावशाली है ‘‘बच्चे के पैदा होते ही उस का कैरियर तय कर दिया जाता है — लड़का हुआ तो इंजीनियर और लड़की हुई तो डाक्टर. कोई बच्चे से भी तो पूछ कर देखे कि उसे क्या बनना है?’’

हमारे समाज में लोगों की धारणा है कि डाक्टरी, इंजीनियरिंग और मैनेजमैंट जैसी उच्चशिक्षा की पढ़ाई करने पर ही अच्छा कैरियर बन सकता है. इसी वजह से मातापिता जबरन बच्चों पर अपना फैसला थोपते हैं कि उन्हें इंजीनियरिंग या मैडिकल की ही पढ़ाई करनी है, चाहे इन क्षेत्रों में उन की रुचि हो या नहीं. आगे जा कर इस का परिणाम यह होता है कि बच्चे मातापिता के दबाव में आ कर पढ़ाई कर लेते हैं, लेकिन उस में उन की रुचि नहीं होने की वजह से उन का प्रदर्शन अच्छा नहीं होता है और उन्हें अच्छी नौकरी नहीं मिलती.

जरा सोचिए, आप के बच्चे को 60 साल की उम्र तक नौकरी करनी है. अगर आप ने उस के लिए गलत कैरियर का चुनाव कर दिया, जिस में उस की रुचि नहीं है तो वह कैसे काम कर पाएगा? इसलिए उसे उस का कैरियर चुनने की आजादी दें. अगर उस की रुचि पढ़ाई में नहीं है, वह किसी और क्षेत्र में अपना कैरियर बनाना चाहता है तो उसे अपने मनपसंद क्षेत्र में कैरियर बनाने दें. अब समय बदल चुका है. अब गैर शिक्षा के कैरियर में भी खूब पैसा है जो आप के बच्चे को एक अच्छा भविष्य प्रदान करता है. गैर शिक्षा क्षेत्र में ऐसे एक नहीं कई क्षेत्र हैं जिन में से किसी में भी कैरियर बनाया जा सकता है.

कुकिंग का कमाल

अगर आप के बच्चे को खाना बनाने में मजा आता है, उसे किचन में काम करना अच्छा लगता है और वह कुकिंग में ही कुछ करना चाहता है तो उसे कुकिंग करने दें. ऐसा न सोचें कि लड़का है तो वह खाना कैसे बना सकता है, इतने अच्छे स्कूल में सिर्फ इसलिए पढ़ाया था कि क्या बड़ा हो कर खाना बनाए. कुकिंग करना कोई छोटा काम नहीं है बल्कि यह तो रचनात्मकता से भरपूर है. इस में हर दिन मसालों व स्वाद के साथ कुछ नया करने का मौका मिलता है. अगर वह इसी क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहता है तो उसे प्रोत्साहित करें. गरमी की छुट्टियों में शुरू होने वाले समर कोर्स में उस का दाखिला करवा दें ताकि वह कुकिंग की बारीकियों को समझ सके, साथ ही आप भी अपना अनुभव उस के साथ बांटें.

ऐक्टिंग का शौक

अगर आप का बच्चा आप से कहे कि उसे हीरो बनना है, तो उसे आप और प्रोत्साहित करें. उस की ऐक्ंिटग की प्रतिभा को निखारें. जैसे आप उसे पढ़ाई की चीजें सिखाती हैं वैसे ही उसे ऐक्ंिटग के बारे में भी बताएं. जब तक आप उसे प्रोत्साहित नहीं करेंगी तब तक उस के अंदर आत्मविश्वास नहीं आएगा.

डांसिंग का जनून

डांस अब केवल बर्थडे पार्टी या महिला संगीत तक सीमित नहीं रह गया है. आज के बदलते दौर में डांस एक कैरियर औप्शन बन चुका है. आप का बच्चा अच्छा डांस करता है तो उसे डांस ही सिखाएं ताकि वह डांस में महारत हासिल कर सके. मनोरंजन जगत में होने वाली कोरियोग्राफी हो या डांस शो में भाग लेना, सभी जगह इस की मांग बढ़ रही है. इसलिए आप डांस को कम न समझें और इसे छोटामोटा काम न मानें. इस में नाम के साथसाथ पैसा भी खूब मिलता है.

सिंगिंग का टेलैंट

सिंगिंग के लिए सुर और ताल की समझ होनी बहुत जरूरी है. आप की बेटी अच्छा गाना गाती है, बस यही काफी नहीं है. उस के लिए एक गुरु की तलाश शुरू करें. उसे सुरों को समझने में मदद करें. आप उसे स्कूल और पारिवारिक कार्यक्रमों में गाने के लिए प्रोत्साहित करें. इस से उस का आत्मविश्वास बढ़ेगा. एक बात हमेशा याद रखें, जब तक आप अपने बच्चे को प्रोत्साहित नहीं करेंगे, तब तक दूसरे भी नहीं करेंगे. अगर आप ही दूसरों के सामने बोलते फिरेंगे कि ‘इसे पढ़ाई नहीं करनी, हम ने कितना समझाया, लेकिन हमारी बात ही नहीं मानती,’ तो लोग भी वैसा ही बोलेंगे. इसलिए आप को अपने बच्चों का साथ देना चाहिए.

पेंटिंग के रंग

अगर आप का बच्चा अच्छी पेंटिंग करता है तो ऐसा कभी न सोचें कि उस ने सही रास्ता नहीं चुना. यह रचनात्मक क्षेत्र है जिस में रंगों के माध्यम से भावनाओं को व्यक्त किया जाता है. आप चाहें तो उस के द्वारा बनाई गई पेंटिंग को अपने रिश्तेदारों को गिफ्ट करें, अपने कमरे में लगाएं. आसपास पता करें कि कहीं प्रदर्शनी लगने वाली हो तो उस की पेंटिंग्स भी प्रदर्शनी

में लगवाएं.

खेल की प्रतिभा

क्रिकेट के महानायक सचिन तेंदुलकर पढ़ाई में बहुत अच्छे नहीं रहे लेकिन उन्होंने क्रिकेट के माध्यम से यह साबित किया कि खेल के माध्यम से भी सफल बना जा सकता है. आप का बच्चा चाहे क्रिकेट, फुटबौल, शतरंज, हौकी, बैडमिंटन किसी भी तरह का खेल खेलता हो और उस में उस की रुचि हो तो उसे खेलने दें. उसे अच्छे प्रशिक्षण के लिए कोचिंग दिलवाएं ताकि वह खेल की बारीकियों को समझ पाए. आज खेल जगत में खूब पैसा है, आप चाहे किसी भी खेल से क्यों न जुडे़ हों.

रेडियो जौकी का हुनर

रेडियो जौकी आज युवाओं की पहली पसंद है. उन्हें लगता है कोई उन की दिल की बात समझे चाहे न समझे, रेडियो जौकी जरूर समझते हैं. वे अपनी बातें मम्मीपापा से शेयर करें चाहे न करें पर रेडियो जौकी से जरूर करते हैं. यह क्षेत्र काफी रचनात्मक क्षेत्र है और इस में कैरियर अच्छा है.

इवैंट मैनेजमैंट में कैरियर

वैसे तो आजकल इवैंट मैनेजमैंट की डिगरी प्रदान की जा रही है लेकिन इस में कैरियर बनाने के लिए डिगरी की बहुत ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती. बस, आप के अंदर चीजों को व्यवस्थित ढंग से करने का गुण होना चाहिए. अगर आप के बच्चे इस क्षेत्र में जाना चाहते हैं तो उन्हें जाने दें. इस क्षेत्र में आने वाले समय में काफी विकल्प हैं, साथ ही साथ, पैसा भी खूब है.

वौयसओवर आर्टिस्ट

अगर आप के बच्चे की आवाज अच्छी है, शब्दों का उच्चारण सही करता है तो वौयसओवर आर्टिस्ट भी बन सकता है. उसे बोलने का अभ्यास करवाएं. उसे किसी शौर्टटर्म कोर्स में दाखिला करवा दें. जहां वह इस की बारीकियों को सीख सके. इस काम को आप छोटा न समझें. मनोरंजन जगत में इस की बहुत मांग है.

माता पिता के दायित्व

माता पिता को चाहिए कि वे अग्रलिखित बातों का ध्यान रखें:

सोच बदलें : कई लोग ऐसा सोचते हैं कि लड़का है तो उसे लड़कों वाले क्षेत्र में ही कैरियर बनाना है. उस की रुचि डांस, सिंगिंग या कुकिंग में है तो वह इन में नहीं जा सकता क्योंकि ये लड़कियों वाले काम हैं. ऐसा भेदभाव बिलकुल न करें, क्योंकि ऐसा कर के आप अपने बच्चे के भविष्य को खराब कर रहे हैं.अगर आप ने जबरदस्ती कर के उसे इंजीनियरिंग की पढ़ाई करवा भी दी तो क्या फायदा. इस काम में उस का मन नहीं लगेगा और वह नौकरी छोड़ देगा. इसलिए उसे अपना कैरियर चुनने की आजादी दें. मास्टर शेफ विजेता रिपूदमन हांडा की भी कहानी कुछ ऐसी ही है.

घर के लोग उन की कुकिंग की प्रतिभा को प्रोत्साहित नहीं करते थे. उन्हें बेकार समझते थे. उन के घर वाले सोचते थे कि खाना बना कर क्या करेगा. लेकिन रिपूदमन ने अपनी मेहनत से मिसाल पेश की कि जिस काम को करने में आप की रुचि हो, उस में ही आगे बढ़ना चाहिए.

काम को छोटा न समझें : मां बाप यह सोचते हैं कि अगर उन के बच्चे नाचगाने में कैरियर बनाएंगे तो समाज में उन की क्या इज्जत रहेगी, लोग क्या कहेंगे कि पिता को देखो, इतनी अच्छी नौकरी पर है, पर बेटे को देखो. जब नाचगाना ही करना था तो इतने पैसे बरबाद करने की क्या जरूरत थी. आप दूसरे लोगों की बात न सुनें क्योंकि कोई भी काम छोटा नहीं होता. अगर आप के बच्चे की उस में रुचि है और वह उस में अच्छा कर सकता है तो उसे प्रोत्साहित करें.

देखादेखी न करें : कभी भी बच्चों के कैरियर में देखादेखी न करें कि आप के पड़ोसी का बेटा जो पढ़ाई कर रहा है, आप भी अपने बेटे को वही पढ़ाएं. हर बच्चा अलग होता है और हर एक की रुचि अलग होती है. हो सकता है पड़ोसी ने अपने बेटे के लिए जो कैरियर चुना है वह उन के बेटे के लिए सही हो लेकिन वही कैरियर आप के बेटे के लिए भी सही हो, यह जरूरी नहीं है.

बच्चों में तुलना न करें : ऐसा हमेशा देखा जाता है कि मांबाप बच्चों में तुलना करते हैं कि देखो, तुम्हारा बड़ा भाई कितनी अच्छी नौकरी कर रहा है. लेकिन तुम्हें तो हम ने उस से ज्यादा लाड़प्यार दिया है, तुम्हारी हर बात मानी है लेकिन तुम ने सारी मेहनत बरबाद कर दी. अरे, गिटार बजा कर क्या करोगे, कितने दिन तक गिटार बजाओगे. एक न एक दिन तो काम करना ही पडे़गा. इस तरह का व्यवहार कभी न करें. इस से बच्चे के अंदर आत्मविश्वास में कमी आने लगती है. वह जीवन में आगे नहीं बढ़ पाता. वह अपनी इच्छाओं को दबा कर परिवार की बात मान लेता है. परिणाम यह होता है कि वह किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो पाता.

आप अपने बच्चे की रुचि पहचान कर उस के बारे में जानने का प्रयास करें. यह जानने की कोशिश करें कि आप का बच्चा जो कैरियर चुनना चाहता है, उस में क्या विकल्प हैं. वह इस क्षेत्र में कैसे आगे बढ़ सकता है, उस के लिए किस तरह की टे्रनिंग की जरूरत है जो आप के बच्चे को सफलता दिला सके.

इस तरह साफ है कि उच्च शिक्षा हासिल किए बिना भी बेहतर कैरियर बनाया जा सकता है. कैरियर बनाने के लिए कई गैर शिक्षा क्षेत्र उपलब्ध हैं, युवा किसी भी क्षेत्र में अपना भविष्य संवार सकते हैं.

शिक्षा के नए आयाम बनते वैकल्पिक स्कूल

16 वर्ष की आयु में सुधीर ने आगे चलने के लिए उस सड़क को चुना जिस पर कम मुसाफिर ही कदम रखते हैं. दिल्ली के एक सम्मानित स्कूल से उस ने 10वीं कक्षा 85 प्रतिशत अंकों से पास की और फिर वह पुडुचेरी के निकट ओरोविले में इस उम्मीद से प्रवेश के लिए पहुंच गया कि वह अपना भविष्य वैकल्पिक स्कूलिंग के जरिए बनाएगा.

सुधीर की तरह अनेक छात्र हैं जिन्होंने परंपरागत स्कूलों के बजाय ओरोविले जैसी वैकल्पिक व्यवस्थाओें का चयन किया है इस उम्मीद के साथ कि वैकल्पिक शिक्षा परंपरागत क्लासरूमों से बेहतर है. लेकिन इस का अर्थ यह नहीं है कि परंपरागत स्कूलों में प्रवेश के लिए लंबी लाइनें लगनी बंद हो गई हैं. जिन परंपरागत स्कूलों के नतीजे अच्छे आते हैं उन में प्रवेश पंक्तियां अब भी लंबी होती जा रही हैं. लेकिन साथ ही, वैकल्पिक स्कूलों की मांग भी बढ़ती जा रही है. मसलन, बेंगलुरु के किनारे पर एक वैकल्पिक स्कूल ‘द वैली स्कूल’ को ही लीजिए, जिस का दर्शन होलिस्टिक (संपूर्ण) अध्ययन में है. उसे 2013 तक कक्षा एक में प्रवेश के लिए केवल 13 या 14 छात्र ही मिल पाते थे, लेकिन इस साल 250 प्रवेशपत्र प्राप्त हुए हैं. अन्य वैकल्पिक स्कूलों की भी यही स्थिति है. इस के अलावा होम स्कूल में भी दिलचस्पी बढ़ती जा रही है. यह अलग बात है कि इग्नू जैसी शिक्षा की वैकल्पिक व्यवस्थाओें को प्रशासनिक तंत्र निरंतर गड्ढे में ढकेल रहा है.

यहां यह बताना आवश्यक है कि जो स्कूल ‘वैकल्पिक’ की श्रेणी में आते हैं उन में किसी एक विशेष दर्शन का पालन नहीं होता है. लेकिन उन में एक साझा बात यह है कि वे बच्चे के विकास के लिए एकेडैमिक प्रदर्शन पर ही निर्भर नहीं करते हैं बल्कि बाल-केंद्रित शिक्षा में विश्वास करते हैं. यह सिद्धांत देश के सभी प्रमुख शहरों में पेरैंट्स को आकर्षित कर रहा है. पिछले एक दशक के दौरान पेरैंट्स में जागृति आई है और वे अपने बच्चों के लिए तनावमुक्त अध्ययन वातावरण की तलाश में हैं. पेरैंट्स की समझ में आ रहा है कि शिक्षा की तलाश में परीक्षाएं तो होती हैं लेकिन ज्ञानी होने का सिलसिला जीवनभर की प्रक्रिया है.

ओरोविले के वैकल्पिक स्कूलों को किंडरगार्टन, प्राइमरी स्कूल व हाईस्कूल में इस तरह से विभाजित किया गया है कि अध्यापक छात्रों की विशिष्ट जरूरतों को समझ सकें. साधारण तौर पर मान्यता यह है कि छोटे क्लासरूम बेहतर व व्यक्तिगत अध्ययन को प्रोत्साहित करते हैं. जहां नियमित स्कूलों में दिमाग को प्रशिक्षित करने पर ज्यादा जोर दिया जाता है, वहीं वैकल्पिक स्कूलों में संपूर्ण व्यक्तित्व के विकास पर बल होता है, जिस में मानसिक, शारीरिक व मनौवैज्ञानिक पहलू शामिल रहते हैं. ओरोविले में हाईस्कूल तक औपचारिक शिक्षा का सिलसिला है. इस के बाद अनौपचारिक शिक्षा है जहां छात्र किसी कला या विषय के मास्टर के शिष्य बन जाते हैं. और जब वे उच्चशिक्षा के लिए किसी विश्वविद्यालय में प्रवेश करते हैं, नियमित छात्रों की तुलना में कहीं बेहतर प्रदर्शन करते हैं.

क्या है अलग

15 वर्ष पहले तक की स्थिति यह थी कि विदेश से लौटने वाले भारतीय ही अपने बच्चों को वैकल्पिक स्कूलों में प्रवेश दिलाया करते थे क्योंकि परंपरागत स्कूल उन्हें फौजी ट्रेनिंग की तरह अधिक अनुशासित प्रतीत होते थे. लेकिन अब भारत में मध्यवर्ग के पेरैंट्स भी वैकल्पिक स्कूलों को अच्छे विकल्प के रूप में देख रहे हैं. मसलन, मुबंई की एक वरिष्ठ पत्रकार स्मृति कोपिकर ने अपनी बेटी को वैकल्पिक स्कूल में प्रवेश दिलाने के बाद अपनी हाउसिंग सोसाइटी के सभी पेरैंट्स से वैकल्पिक स्कूलों को अपनाने का सुझाव दिया ताकि उन के बच्चे बेहतर इंसान और खुले जेहन के व्यक्ति बन सकें. दरअसल, आज के पेरैंट्स अपने बच्चों के लिए एक ऐसा माहौल चाहते हैं जिस में आजादी हो और ज्ञान अर्जित करने के प्रति प्रेम हो जाए.

लेकिन ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो वैकल्पिक स्कूलों में बढ़ती दिलचस्पी के बारे में कहते हैं कि इन का चयन हमेशा सही कारणों से नहीं होता है. इस वर्ग के अनुसार, यकीनन कुछ पेरैंट्स वैकल्पिक व्यवस्था के दर्शन में विश्वास रखते हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो वैकल्पिक स्कूलों में अपने बच्चे को सिर्फ इसलिए भेजते हैं कि समाज में उन का नाम हो जाए, इज्जत बढ़ जाए. ध्यान रहे कि जब किसी वैकल्पिक स्कूल को कोई शिक्षा वैबसाइट ‘भारत में सब से अच्छा स्कूल’ का ‘खिताब’ दे देती है तो फिर आज के नए नवाबोें के लिए अपने बच्चों को उस स्कूल में प्रवेश दिलाना स्टेटस की बात हो जाती है.

बहरहाल, वैकल्पिक स्कूलों और जो स्कूल अध्यापन का वैकल्पिक तरीका अपनाते हैं उन में अंतर करना आवश्यक है. ज्यादातर पेरैंट्स इस फर्क को समझ नहीं पाते. यह भी तथ्य है कि ज्यादातर स्कूल अपनेआप को वैकल्पिक स्कूल नहीं कहलवाना चाहते क्योेंकि उन का फोकस शिक्षा के प्रति पूर्णतया अलग दृष्टिकोण से है. वे अपने तरीके को वैकल्पिक की जगह प्रगतिशील कहलवाना पसंद करते हैं.

आकर्षण का केंद्र

जहां तक पेरैंट्स की बात है तो वे वैकल्पिक स्कूलों को इसलिए भी प्राथमिकता दे रहे हैं कि उन में बच्चे जबरदस्त प्रतिस्पर्धा से बचे रहते हैं और फिर भी अच्छी शिक्षा प्राप्त कर लेते हैं. ज्यादातर वैकल्पिक स्कूल कक्षा 10 व कक्षा 12 के स्तर पर आईसीएसई, नैशनल इंस्टिट्यूट औफ ओपन स्कूलिंग, इंटरनैशनल जनरल सर्टिफिकेट औफ सैकंडरी एजुकेशन आदि के जरिए मुख्यधारा की परीक्षा व्यवस्था में प्रवेश कराते हैं.

लेकिन आज भी वैकल्पिक स्कूल कुलीन वर्गों के लिए ही आकर्षण का केंद्र बन कर रह जाते हैं. वे जो शिक्षादर्शन अपनाते हैं, उस के कारण वे भले ही कुलीन न बन सकें, लेकिन पेरैंट्स की सामाजिक, आर्थिक पृष्ठभूमि के कारण एक्सक्लूसिव अवश्य बन जाते हैं. इस आलोचना से बचने के लिए बहुत से वैकल्पिक स्कूल सभी किस्म की आर्थिक पृष्ठभूमि के छात्रों को अपने यहां प्रवेश देने का प्रयास करते है और साथ ही, शिक्षा के अधिकार के कोटे के तहत गरीब छात्रों को भी प्रवेश देते हैं. कुछ वैकल्पिक स्कूलों में लगभग 25 प्रतिशत छात्रों को मुफ्त शिक्षा दी जाती है तो कुछ में फीस निर्धारित नहीं है, बल्कि परिवार की आर्थिक स्थिति के अनुसार तय की जाती है.

घर पर ही स्कूल

अपने बच्चों को होम स्कूल यानी घर पर ही स्कूल के जरिए शिक्षित करने का जब सीमा मुखर्जी ने फैसला किया तो अनेक लोगों  को आपत्ति हुई, लेकिन उन्होंने पाया कि उन के दोनों बच्चों की जरूरतें इसी तरह से पूरी हो सकती थीं. सीमा बताती हैं, ‘‘मैं ने अपने बच्चों को वह सीखने दिया जो वे सीखना चाहते हैं और वह भी उन की अपनी गति के अनुसार.’’ सीमा के दोनों बेटे राजेश, 10 वर्षीय और कपिल, 5 वर्षीय, घर पर ही शिक्षा ग्रहण करते हैं और वह भी अपनी पसंद के विषयों व प्रदर्शन व मूल्यांकन के दबाव के बिना. दरअसल, सीमा एक ऐसी व्यवस्था का पालन कर रही हैं जिसे ‘अनस्कूलिंग’ कहा जा रहा है, जिस से बच्चों की जो दिलचस्पी व झुकाव होता है वही उन को पढ़ाया जाता है ताकि वे अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें.

हालांकि परंपरागत शिक्षा में विश्वास करने वाले लोग इस तरीके को पसंद नहीं करते, लेकिन महानगरों में होम स्कूल का चलन बढ़ता जा रहा है. इस विकल्प को चुनने वालों की मदद करने के लिए भी अनेक समूह सामने आ रहे हैं. स्वशिक्षण नामक संगठन को लगभग 2 वर्ष पहले बनाया गया था, जो अखिल भारतीय स्तर पर होम स्कूल में विश्वास करने वाले लोगों को आपस में जोड़ता है. इस संगठन की सचिव प्रिया देसीकल बताती हैं, ‘‘होम स्कूल के बारे में हम से बहुत से लोग जानकारी हासिल करते हैं क्योंकि यह तेजी से मुख्यधारा शिक्षा का विकल्प बनता जा रहा है.’’

सवाल यह है कि क्या होम स्कूल वास्तव में एक विकल्प है, जिस से असल जीवन के महत्त्व को समझा जा सकता है? जिन लोगों का ‘अनस्कूलिंग’ में विश्वास है, कम से कम उन का तो यही कहना है कि यह बहुत लाभदायक है. मसलन, पुणे की उर्मिला सेमसन को ही लीजिए, जिन की 22 वर्षीय लड़की अब लंदन में यूरीथैमी में 4 वर्ष का पाठ्यक्रम कर रही है, बावजूद इस के कि उस ने कभी किसी स्कूल में प्रवेश नहीं लिया और न ही कोई परीक्षा दी, फिर भी उसे लंदन में एक निबंध के आधार पर कार्यक्रम में स्वीकार कर लिया गया. इस स्वीकृति के 2 वर्ष बाद उर्मिला सेमसन को मालूम हुआ कि विश्वविद्यालय ए-लैवल की बुनियादी शिक्षा मांगता है. इस में दोराय नहीं है कि पिछले 5 वर्षों के दौरान अपने देश में होम स्कूल का चलन बढ़ा है. दरअसल, नियमित स्कूल बच्चों को आजादी से विकसित नहीं होने देते. बच्चों की रचनात्मकता, चुनौतियों को स्वीकार करने की क्षमता व उत्साह को अकसर दबा दिया जाता है. इस के अलावा भी पेरैंट्स के पास होम स्कूल अपनाने के अनेक कारण हैं. कुछ लोग होम स्कूल को इसलिए प्राथमिकता देते हैं क्योंकि नियमित स्कूल धर्मप्रेरित नहीं होते. कुछ पेरैंट्स दूरदराज के क्षेत्रों में रहने के कारण होम स्कूल को वरीयता देते हैं, फिर कुछ शिक्षाविद अपने बच्चों को स्वयं शिक्षित करना हते हैं.

लेकिन अगर दोनों पेरैंट्स कामकाजी हों तो दर्शन के रूप में होम स्कूल अव्यहारिक हो जाता है. प्रोफै सर इंद्रनारायण सिंह व उन की पत्नी प्रोफैसर गायत्री सिंह अपनी बेटी के लिए होम स्कूल को पसंद करते थे, लेकिन अपनी व्यस्तता के कारण उन्होंने एक ऐसे केंद्र का चयन किया जो शिक्षा का मौंटेसरी तरीका अपनाता है. चूंकि दोनों शिक्षा के महत्त्व को समझते हैं, इसलिए वे अपनी बच्ची के लिए ऐसा वातावरण चाहते थे जिस में वह ज्ञान हासिल करने की जिज्ञासा विकसित कर सके बजाय इस के कि अध्यापकों की उम्मीदों पर खरी उतरे.

जब होम स्कूल पर बहस होती है तो एक मुद्दा यह भी सामने आता है कि इस तरह से शिक्षित बच्चों में सामाजिक व्यवहार विकसित हो पाता है या नही? यह प्रश्न इसलिए भी प्रासंगिक है क्योंकि होम स्कूल में नियमित स्कूल की तरह बच्चों को अपने समकालीन बच्चों के साथ रहते हुए विकास का अवसर नहीं मिलता. इसलिए कुछ लोग कहते हैं कि घर आधारित शिक्षा अच्छी है, लेकिन टीमवर्क व एकदूसरे का सहयोग कर के चीजों को करना, दूसरे बच्चों के रहते हुए ही सीखा जा सकता है. फिर एक अन्य समस्या होम स्कूल की वैधता को ले कर भी है क्योंकि शिक्षा का अधिकार कानून इस मामले में अस्पष्ट है. बावजूद इस के, होम स्कूल का समर्थन करने वाले पेरैंट्स कहते हैं कि परंपरागत स्कूलों में बच्चों के व्यक्तित्व से समझौता हो जाता है, जिस के लिए वे तैयार नहीं हैं.

शिक्षा व्यवस्था की पोल खोलता बिहार टौपर्स घोटाला

कल तक जिन की बिहार के एजुकेशन सिस्टम में तूती बोलती थी, जिन के इशारे पर मैट्रिक और इंटर के इम्तिहान में गलत को सही और सही को गलत करार दे दिया जाता था, जिन के आगे हर स्कूल के प्रिंसिपल से ले कर चपरासी तक नतमस्तक रहते थे, आज वही दोनों चेहरे अपने मुंह छिपाने को मजबूर हैं. पुलिस ने जब दोनों को गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश किया तो घोटालेबाज मियांबीवी की जोड़ी हर किसी से अपना चेहरा छिपाए चल रही थी.

बिहार के टौपर्स घोटाले के मास्टरमाइंड बंटी और बबली ने राज्य के स्टूडैंट्स के भविष्य के साथ घिनौना खेल तो खेला ही, पूरे एजुकेशन सिस्टम पर कालिख भी पोत डाली है. देश के दूसरे राज्यों में बिहार की डिगरी की पहले ही कोई खास कद्र नहीं थी, टौपर्स घोटाले ने तो बिहार के एजुकेशन सिस्टम को जीरो पर ला कर खड़ा कर दिया है.

टौपर्स घोटाले के किंगपिन लालकेश्वर प्रसाद और उस की बीवी ऊषा सिन्हा आखिर 13 दिनों की लुकाछिपी के बाद 20 जून को पुलिस के हत्थे चढ़ गए. टौपर्स घोटाले का मास्टरमाइंड बिहार स्कूल एग्जामिनेशन बोर्ड का पूर्व अध्यक्ष लालकेश्वर प्रसाद और उस की बीवी का रुपयों के बल पर जाहिलों को टौपर बनाने का खेल खत्म हो गया. 7 जून से फरार घोटालेबाज मियां बीवी को पुलिस ने 20 जून को बनारस की रवींद्रपुरी कालोनी के एक आश्रम के पास दबोच लिया. दोनों बनारस के शराब के बड़े कारोबारी प्रभात जायसवाल के घर में चोरों की तरह छिपे हुए थे. पुलिस की स्पैशल इन्वैस्टिगेशन टीम यानी एसआईटी को गिरफ्तारी के 5 दिनों पहले ही दोनों के बनारस में होने की खबर मिली थी और उन का मोबाइल लोकेशन भी बनारस दिखा रहा था.

पुलिस ने बताया कि लालकेश्वर का अपने बेटे पिक्कू से मोबाइल फोन पर बात करना उस की गिरफ्तारी का माध्यम बना. लंदन में रहने वाला लालकेश्वर का इंजीनियर बेटा पटना पहुंच कर अपने मातापिता की जमानत की कोशिशों में लगा हुआ था और वह बारबार अपने पिता व मां से बातचीत कर रहा था. कोर्ट से अग्रिम जमानत लेने की कोशिश नाकाम रही और दोनों पुलिस के फंदे में फंस गए. लालकेश्वर और ऊषा समेत सारे आरोपियों पर जालसाजी, धोखाधड़ी, ठगी, आपराधिक षड्यंत्र और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत मामले दर्ज किए गए हैं.

पटना विश्वविद्यालय से एमए (भूगोल) में टौपर रहा लालकेश्वर पैसे के बूते टौपर बनाने के खेल खेलने में लगा हुआ था और उसे जरा भी अंदाजा नहीं था कि उस के खेल का भंडाफोड़ हो जाएगा. साल 1971-73 बैच का वह टौपर था. 7 जनवरी, 1976 को पटना विश्वविद्यालय में ही उसे लैक्चरर की नौकरी भी मिल गई. टौपर होने की वजह से कुलपति ने उस की सीधी नियुक्ति की थी. 1 जून, 2009 को वह पटना कालेज का प्रिंसिपल बना. उस की पत्नी ऊषा सिन्हा साल 1977 में मगध विश्वविद्यालय के गया कालेज में लैक्चरर बनी थी. साल 1981 में उस का तबादला पटना के कौमर्स कालेज में हुआ और साल 2009 में वह गंगा देवी महिला कालेज की प्रिंसिपल बनी थी.

इंटर की परीक्षा के टौपर्स घोटाले को ले कर बिहार को एक बार फिर कलंकित करने में बिहार स्कूल एग्जामिनेशन बोर्ड के अध्यक्ष लालकेश्वर प्रसाद और एक प्राइवेट स्कूल के संचालक बच्चा राय के हाथ रहे हैं. इन दोनों ने रुपयों के लालच में ऐसे छात्रों को स्टेट टौपर बना दिया जिन्हें इतना भी पता नहीं था कि किस सब्जैक्ट में किस चीज की पढ़ाई होती है. इंटर आर्ट्स टौपर रूबी राय से पूछा गया कि पौलिटिकल साइंस में किस चीज की पढ़ाई होती है तो उस ने कुछ देर सोचने के बाद जवाब दिया कि पौलिटिकल साइंस में खाना बनाने की पढ़ाई होती है. रूबी को कुल 500 में 444 नंबर मिले थे. जैसेजैसे मामले की जांच आगे बढ़ रही है, वैसेवैसे लालकेश्वर और बच्चा की कलई खुलती जा रही है.

जब टौपर्स को ले कर सरकार और बोर्ड की छीछालेदर होने लगी तो बोर्ड के अध्यक्ष लालकेश्वर प्रसाद ने खुद ही सारे टौपर्स का टैस्ट लिया और उस के बाद ऐलान कर डाला कि सभी टौपर्स ने सारे सवालों के सही जवाब दिए. सभी बच्चे टेलैंटेड और अप टू मार्क हैं. अध्यक्ष के दावे के उलट इंटर साइंस टौपर सौरभ श्रेष्ठ और थर्ड टौपर राहुल कुमार को नौलेज टैस्ट में जीरो नंबर मिले. सौरभ के गणित में 85 नंबर आए थे. पर कमेटी के टैस्ट में उसे 25 में से 3 नंबर मिले. अंगरेजी के पर्चों में उस के 87 नंबर आए थे, जबकि टैस्ट में उसे जीरो नंबर मिले. भौतिक विज्ञान में 83 नंबर लाने वाले सौरभ को कमेटी के टैस्ट में महज 5 नंबर मिले. थर्ड टौपर राहुल को अंगरेजी में 87 नंबर मिले थे पर टैस्ट में उसे जीरो मिला. 25-25 नंबर के टैस्ट में राहुल को भौतिकी में 2, रसायन विज्ञान में 3, गणित में 2 नंबर मिले.

जांच का खेल

टैस्ट के बाद दोनों का रिजल्ट रद्द कर दिया गया. बिहार स्कूल एग्जामिनेशन बोर्ड के इतिहास में यह पहला मौका है जब टौपर्स के रिजल्ट रद्द कर दूसरे को टौपर घोषित किया गया हो. दोनों ही टौपर विशुन राय कालेज के स्टूडैंट हैं.

बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के पूर्व अध्यक्ष राजमणि प्रसाद का कहना है कि बिहार बोर्ड के रिजल्ट में शिक्षा माफियाओं की जम कर चलती रही है. साल 2014 में जब वे बोर्ड के अध्यक्ष थे तो रिजल्ट आने के पहले ही सभी टौपर्स की कौपियों की दोबारा जांच की गई थी. 40 टौपर्स को पत्र भेज कर बोर्ड के दफ्तर बुलाया गया था पर केवल 5 छात्र ही पहुंच सके थे. साल 2013 में भी ऐसे मामलों का खुलासा हुआ था. शिक्षा माफिया मूल्यांकन केंद्र पर ही अपना सारा खेल खेलते हैं. इस खेल में ज्यादातर एफिलिएटेड कालेजों से जुड़े लोग शामिल होते हैं. कौपी की जांच के दौरान मनमाफिक नंबर तय कर लिए जाते हैं.

वैशाली जिले का विशुन राय कालेज पहले भी विवादों में रह चुका है. इस साल आर्ट्स की टौपर रूबी राय, इंटर साइंस का टौपर सौरभ श्रेष्ठ और तीसरे नंबर पर रहे राहुल राज इसी कालेज के छात्र हैं. साइंस टौपर्स में 7वें नंबर पर रही शिवानी भी इसी कालेज की है. साल 2005 में इस कालेज के 374 छात्रों ने परीक्षा दी थी जिन में सभी छात्र प्रथम श्रेणी से पास हो गए थे. एक ही कालेज से इतने फर्स्ट डिवीजन देख कर तब के बोर्ड अध्यक्ष नागेश्वर शर्मा ने रिजल्ट रोक दिया था. दोबारा उन की कौपियों की जांच की गई तो केवल 4 छात्र ही फर्स्ट डिवीजन से पास हो सके.

इस साल राज्य में साइंस का रिजल्ट 67.07 फीसदी रहा. वहीं, विशुन राय कालेज के इंटर साइंस का रिजल्ट 97.52 फीसदी रहा. परीक्षा में शामिल 646 छात्रों में से 630 पास हुए. 534 छात्रों ने फर्स्ट डिवीजन से पास किया. 96 छात्रों ने सैकंड क्लास से पास किया और 14 छात्र फेल हुए.

मैरिट घोटाले को ले कर सरकार और बोर्ड की फजीहत होने के बाद बोर्ड के चेयरमैन ने 8 जून को इस्तीफा दे दिया और गिरफ्तारी के डर से फरार हो गए थे.

पुलिस की जांच में पता चला है कि पटना का राजेंद्रनगर बौयज हाईस्कूल ही घोटालेबाजों का केंद्र है. इस स्कूल में केवल वैसे ही कालेजों की कौपियां जांच के लिए आती थीं जिन में घोटाले को अंजाम दिया जाता था. फिलहाल, यह स्कूल सैदपुर नहर के पास के गर्ल्स हाईस्कूल कैंपस में चल रहा है. पहले इस स्कूल में मूल्यांकन का काम नहीं होता था पर लालकेश्वर प्रसाद के बोर्ड के अध्यक्ष बनने के बाद ही इसे मूल्यांकन केंद्र बनाया गया था. बोर्ड के अफसर उस केंद्र पर अपने पसंदीदा शिक्षकों को डैप्यूटेशन पर भेज कर कौपियों का मूल्यांकन करवाते थे.

इस साल के इंटर टौपर्स के जाहिलपन के खुलासे के बाद लालकेश्वर अपने ही बुने जाल में फंस गया. उस ने भले ही अपने इस्तीफे में लिखा कि वह नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे रहा है पर जैसेजैसे मैरिट घोटाला परतदरपरत खुल रहा है तो यह पता चल रहा है कि बोर्ड अध्यक्ष रहते हुए उस ने नैतिकता को ताक पर रख दिया था. उस ने पूरे देश और विदेशों में बिहार की शिक्षा व्यवस्था की किरकिरी करवा डाली. लालकेश्वर प्रसाद ने अपने कार्यकाल में रुपयों के लालच में स्कूलों को खूब ‘प्रसाद’ बांटा. उस ने 2 सालों में सारे नियमकायदों को ताक पर रख कर करीब 200 इंटर कालेजों को मान्यता दे दी. मान्यता देने से पहले यह देखा ही नहीं गया कि कालेज का कैंपस कितने क्षेत्रफल में है? भवन कैसा है? लैबोरेटरी है या नहीं? लाइबे्ररी बनी है या नहीं? टीचर कैसे हैं?

26 जून, 2014 को बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के अध्यक्ष बनने वाले लालकेश्वर ने पद संभालने के बाद से ही मनमानी चलानी शुरू कर दी थी.

शातिर खिलाड़ी

लालकेश्वर ने अपने घोटाले तंत्र को चलाने के लिए एक नहीं, बल्कि 3 सचिवों को बहाल कर रखा था और सभी को सरकारी खजाने से ही वेतन दिया जाता था. तीनों सचिवों को उस ने बोर्ड का काम करने के बजाय अपना दलाल बना कर रखा था. बोर्ड के सूत्र ने बताया कि लालकेश्वर ने 3 नहीं, बल्कि 4 सचिवों को बहाल कर रखा था. इस लिहाज से भी उस ने बोर्ड को लाखों रुपए का चूना लगाया. सचिवों से बोर्ड का काम कराने के बदले फर्स्ट डिवीजन से पास कराने और टौपर बनाने की दलाली करवाई. पहला सचिव अनिल कुमार 2-2 जगहों से वेतन लेता था.

हिलसा का प्रखंड प्रमुख रह चुका अनिल मुंगेर के तारापुर में नियोजित टीचर है. पुलिस ने उसे 15 जून को हिलसा से गिरफ्तार किया. दूसरा सचिव विकास चंद्र उर्फ डब्लू था, जो लालकेश्वर के साले का बेटा है. वह पटना के सरिस्ताबाद महल्ले में रहता है और फिलहाल फरार है. तीसरा सचिव देवेंद्र कुमार उर्फ चुन्नू है. वह पटना के लोहानीपुर महल्ले का रहने वाला है और वह भी पुलिस की पकड़ से दूर है.

इंटर टौपर घोटाले के मामले में मुख्य आरोपी विशुन राय कालेज का संचालक बच्चा राय की बेटी शालिनी राय को इंटर में साइंस टौपर बनाने की पूरी तैयारी कर ली गई थी. स्कू्रटनी के बाद बाकायदा इस का ऐलान करने की तैयारी की गई थी. घोटाले के सामने आने के बाद शिक्षा विभाग ने 3 टौपर रूबी राय, सौरभ श्रेष्ठ और राहुल कुमार के साथ शालिनी को भी एफआईआर में अभियुक्त बनाया है. शालिनी साल 2014 में मैट्रिक की टौपर रही है.

शालिनी ने अपने पिता के ही विशुन राय कालेज से इंटर साइंस का परीक्षाफौर्म भरा और उसे ऐडमिट कार्ड भी जारी हुआ था. इस के बाद भी वह परीक्षा में शामिल नहीं हुई. अटेंडैंस शीट में उसे गैरहाजिर दिखाया गया है जबकि बोर्ड के रिजल्ट में उस के नंबर दिखाए गए हैं. बोर्ड ने शालिनी की उत्तरपुस्तिका को तैयार कर रखा था जिस का रोल नंबर — 10106 और रोल कोड — 33014 है. स्क्रूटनी के बाद बोर्ड हर साल रिजल्ट को रिवाइज करता है. रिवाइज रिजल्ट में शालिनी को टौपर घोषित करने की योजना थी. गौरतलब है कि पिछले 3 सालों के दौरान कई बार इंटर टौपर बदले गए हैं. इस खुलासे के बाद अब शालिनी का मैट्रिक का रिजल्ट भी शक के घेरे में आ गया है. उस के रिजल्ट की जांच की जा रही है. उस के मैट्रिक के रिजल्ट को कैंसिल किया जा सकता है.

कई रैकेट हैं शामिल

आमतौर पर हर परीक्षा में हर छात्र का एक रोल नंबर और एक रोल कोड होता है और वही परीक्षा पास करने वालों की पहचान होती है. ऐडमिट कार्ड में वही नंबर दर्ज होता है. पर विशुन राय कालेज के 16 छात्रों के 2-2 रोल नंबर हैं. इस खेल के जरिए छात्र को एक परीक्षा सैंटर पर गैरहाजिर दिखाया जाता था और दूसरे में उसे पास दिखा दिया जाता था. बोर्ड के पास विशुन राय कालेज के 2 रिजल्ट होते थे. पहले रिजल्ट में छात्रों को गैरहाजिर दिखाया जाता और उस के बाद स्कू्रटनी के बाद अपडेट रिजल्ट में उसे पास दिखाया जाता था. इस साल इस कालेज से कुल 650 छात्रों ने इंटर की परीक्षा दी थी.

विशुन राय कालेज समेत कई स्कूल और कालेज जांच के घेरे में आ गए हैं. गड़बड़ी पाए जाने पर इन के साल 2005 से ले कर 2016 तक के रिजल्ट कैंसिल किए जा सकते हैं. विशुन राय कालेज का पूरा इतिहास खंगाला जा रहा है. विशुन राय कालेज के कैंपस में राजदेव राय डिगरी कालेज, राजदेव राय बीएड कालेज और एक स्कूल भी चल रहा है. पुलिस के मुताबिक, बिहार बोर्ड और विशुन राय कालेज के बीच अच्छे रिजल्ट के लिए भारी डील हुई थी. सबकुछ बंद कमरे में हुआ था. एक छात्र को पास कराने के लिए 50 हजार रुपए से ले कर 5 लाख रुपए तक की डील हुई. बोर्ड अध्यक्ष के अलावा कई लोग इस रैकेट में शामिल हैं, जिन के खुलासे हो रहे हैं.

बच्चा के कालेज और घर से कई कागजात समेत मोटी रकम जब्त की गई. उस के घर से बोरों में ठूंस कर रखे गए रुपए बरामद हुए हैं. बच्चा के कालेज के ऊपरी तल्ले पर फाइवस्टार होटल की तरह कमरे बने हुए हैं. जिन में सारी लग्जरी सुविधाएं मौजूद हैं. छापेमारी के दौरान बच्चा राय के घर से 20 लाख रुपए की नकदी, करोड़ों के जेवरात, कीमती घडि़यां और 24 बैंक खाते मिले हैं. इस के अलावा 50 करोड़ रुपए से ज्यादा की जमीन होने का भी खुलासा हुआ है. बच्चा, उस की बीवी और पिता राजदेव राय के नाम से जमीन के कई कागजात भी मिले हैं.

इतना ही नहीं, राजनेताओं से अपनी करीबी और रुपयों की ताकत के बल पर बच्चा ने भगवापुर-मुजफ्फरपुर रोड पर करीब 60 एकड़ खेतिहर जमीन पर गैरकानूनी तरीके से कब्जा जमा रखा है. कोई जमीन मालिक बच्चा की इस हरकत के खिलाफ आवाज उठाता था तो बच्चा उसे बाजार दर से काफी कम कीमत दे कर जमीन को अपने नाम लिखवा लेता था.

अफसरों की मिलीभगत

पटना से उत्तर बिहार की ओर जाने वाले हर दल के कई नेता बच्चा राय के मेहमान बनते थे और बच्चा उन की खातिरदारी में कोई कोरकसर नहीं छोड़ता था. बच्चा के करीबी बताते हैं कि हाजीपुर-मुजफ्फरपुर हाईवे के फोर लेन के बदलने के लिए जब जमीन का अधिग्रहण शुरू हुआ तो बच्चा ने जबरन कब्जा की गई जमीनों के टुकड़ों को सरकारी अफसरों की मिलीभगत से अपने पिता के नाम करवा लिया था और मुआवजे के रूप में 2 करोड़ रुपया भी ऐंठ लिया था.

अब तक की पुलिसिया जांच से पता चला है कि बच्चा राय टौपर घोटाले के 3 मुख्य सूत्रधारों में एक है. लालकेश्वर की बीवी ऊषा सिन्हा ने ही लालकेश्वर से बच्चा राय की जानपहचान कराई थी. बच्चा के मोबाइल फोन और कंप्यूटर की जांच के बाद ही पुलिस इस नतीजे पर पहुंची है. राजेंद्रनगर बौयज हाईस्कूल के प्रिंसिपल विशेश्वर प्रसाद यादव और शैल कुमारी के संपर्क में वह लगातार रहता

था. विशेश्वर पर आरोप है कि उस ने मूल्यांकन के दौरान टौपरों की उत्तरपुस्तिका का मूल्यांकन बिना किसी आदेश के कराया था. इतना ही नहीं, उस ने मार्क्स फाइल में छेड़छाड़ की. मार्क्स फाइल पर व्हाइटनर लगा कर नंबर बदले गए. मूल्यांकन के लिए कौपियां कहांकहां भेजी गई हैं, इस का जिक्र फाइलों में नहीं है. कौपियों की क्रम संख्या को भी व्हाइटनर लगा कर बदला गया.

बोर्ड के चेयरमैन लालकेश्वर प्रसाद की सरकारी गाड़ी से ही टौपर्स घोटाले की कौपियां इधरउधर भेजी गई थीं. वैशाली के बच्चा राय के कालेज से कौपियां लालेश्वर की कार से ही बोर्ड के औफिस में लाई गई थीं. उस के बाद सारी कौपियों को उस की गाड़ी से ही राजेंद्रनगर बौयज हाईस्कूल पहुंचाया गया. इस से ही पता चल जाता है कि घोटाले की सैटिंग कितने टौप लेवल पर और कितनी तगड़ी थी. इस बात की जानकारी इंटर काउंसिल और बोर्ड के कुछ खास मुलाजिमों को ही थी. अब जब टौपर घोटाला सामने आया है और पुलिस ने मुलाजिमों से पूछताछ शुरू की है तो मुलाजिमों ने मुंह खोलना शुरू कर दिया.

पटना के एसएसपी मनु महाराज ने बताया कि लालकेश्वर के खिलाफ तगड़े सुबूत मिले हैं. बच्चा राय अकसर लालकेश्वर के दफ्तर में आ कर मिलता रहता था. लालकेश्वर ने घोटाले में बड़ी चालाकी बरती. इस के बाद भी वह फंस गया. वह हर मुलाजिम को मौखिक आदेश ही देता था. किसी भी गलत काम को करवाने के लिए उस ने कभी कोई लिखित आदेश नहीं दिया. तमाम सावधानियों के बाद भी उस ने सब से बड़ी गलती यह कर दी कि अपनी गाड़ी से घोटाले की कौपियों को ढोने का काम किया और यही उस के गले की फांस बन गई है.

बेपरदा होंगे राज

पुलिस की जांच में साफ हो चुका है कि लालकेश्वर, ऊषा और बच्चा ने मिल कर पास और फेल करने का सिंडिकेट चला रखा था. बच्चों को टौपर बनाने और फर्स्ट डिवीजन में पास कराने के खेल में दोनों ने करोड़ों रुपयों को वारेन्यारे किया है. लालकेश्वर का रिश्तेदार और डीलिंग एजेंट विकास चंद्र पुलिस के जाल में फंस चुका है और पुलिस उस से लालकेश्वर का सारा राज उगलवाने में लगी है.

बच्चा राय ने अपने पास स्कौलरों की टीम बना रखी थी, जिस के भरोसे वह कौपी लिखवाने का पूरा ठेका लेता था. इस के लिए खासी रकम भी खर्च की जाती थी. उस की टीम के अलगअलग सदस्यों को कौपियां सौंप दी जाती थीं और वे अपनेअपने घर ले जा कर आराम से कौपियों पर जवाब लिखते थे. जांच टीम ने जब कौपियों की जांच की तो पता चला कि घोटाले में शामिल सारी कौपियों में सारे सवालों के जवाब बड़े ही सलीके से लिखे गए थे और सारे जवाब सही थे. जांच टीम इस की पड़ताल कर रही है कि लिखावटें किसकिस की थीं.

विशुन राय कालेज का मालिक व सह प्रिंसिपल अमित राय उर्फ बच्चा राय को पुलिस ने 11 जून को बड़े ही फिल्मी अंदाज में दबोचा था. बच्चा राय मीडिया में अपने गुनाहों की सफाई देने के लिए वैशाली के भगवानपुर इलाके में अपने विशुन राय कालेज पहुंचा था कि पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया. बच्चा राय विशुन राय एजुकेशनल ट्रस्ट चलाता है. ट्रस्ट में उस ने अपनी बीवी, बेटा, बेटी समेत कई रिश्तेदारों को शामिल कर रखा है. उसी ट्रस्ट के तहत उस का विशुन राय कालेज भी चलता है. इतना ही नहीं, इस ट्रस्ट के तहत 12 स्कूल और कालेज चलाए जा रहे हैं. पुलिस की दबिश से उसे अपने को सरैंडर करने को मजबूर होना पड़ा.

बिचौलियों की कारस्तानी

एसएसपी मनु महाराज ने बताया कि पूरे घोटाले में ऊषा सिन्हा भी शामिल थी और वह हर तरह से अपने पति लालकेश्वर की मदद कर रही थी. पुलिस को लालकेश्वर के 2 दलालों को दबोचने में भी कामयाबी मिली है. अजीत कुमार उर्फ शक्तिमान और संजीव झा पुलिस के हत्थे चढ़ गए. अजीत पटना कालेज में एडहौक बेसिस पर टीचर है और संजीव संस्कृत बोर्ड का मुलाजिम है. लालकेश्वर के पास ये दोनों ही ‘क्लाइंट’ ले कर आते थे और काम होने के बाद दोनों को मोटा कमीशन मिलता था. अजीत और संजीव के बैंक अकाउंट में लाखों रुपए मिले हैं, जिस का हिसाब वे पुलिस को नहीं दे सके हैं. ये दोनों पिछले 10 सालों से बोर्ड में सैटिंग करने के काम में लगे हुए थे.

2 बार बाईपास सर्जरी करा चुके लालकेश्वर के अध्यक्ष बनते ही बच्चा उस का खासमखास बन गया था. दोनों का एकदूसरे के घर आनाजाना होने लगा था. दोनों के बीच पैसे के लेनदेन का खेल जम कर होता था. बच्चा ने पुलिस को बताया कि जब भी लालकेश्वर रुपयों की डिमांड करता था तो वह उस के घर रुपयों की थैली पहुंचा देता था.

नियमों से खिलवाड़

लालकेश्वर ने पिछले 6 महीनों के दौरान 200 स्कूल और कालेजों को मान्यता दी. मान्यता देने से पहले न तो स्कूलोंकालेजों की जांच की गई और न ही स्पौट विजिट की गई. बोर्ड से मान्यता पाने के लिए स्कूलकालेज को आवेदन देना होता है और उस के बाद पूरी जांच के बाद ही मान्यता दी जाती है. इस प्रक्रिया में कम से कम 6 महीने लगते हैं.  लेकिन लालकेश्वर ने 26 जुलाई, 2014 को अध्यक्ष का पद संभाला और जुलाई से ले कर अक्तूबर 2015 तक 10 स्कूलकालेज को मान्यता दे दी. उस के बाद तो उस ने खैरात की तरह मान्यता बांटनी चालू कर दी. अक्तूबर 2015 से ले कर मार्च 2016 के बीच 200 स्कूलकालेजों को मान्यता दे दी गई. कुल 200 स्कूल और कालेजों ने मान्यता पाने के लिए आवेदन दिया था और लालकेश्वर ने किसी भी आवेदक का दिल नहीं तोड़ा.

बोर्ड के सूत्रों की मानें तो राज्य के हरेक जिले में लालकेश्वर के एजेंट हैं. इंटर की परीक्षा में फौर्म भरने से ले कर, सैंटर तय करने, कौपियां लिखवाने, मनमानी जगहों पर कौपियों की जांच कराने, मनमाने नंबर दिलाने, टौपर लिस्ट बनाने तक में लालकेश्वर का खेल चलता था. लालकेश्वर नालंदा जिले का है, और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का काफी करीबी माना जाता है.

सब गोलमाल है

लालकेश्वर की बीवी और गंगा देवी महिला कालेज की प्रिंसिपल ऊषा सिन्हा ने 12 साल की उम्र में ही बीए पास कर लिया था. 2010 को चुनावी हलफनामे से यह खुलासा हुआ है. घूस ले कर दूसरों को मनचाहा नंबर और डिगरी दिलाने वाले लालकेश्वर की बीवी की ही डिगरी संदेह के घेरे में आ गई है. साल 2010 के विधानसभा चुनाव में नामांकन के दौरान ऊषा ने जो हलफनामा जमा किया, वह सनसनी फैला चुका है. हलफनामे के भाग-3 में ऊषा सिन्हा ने खुद को 49 साल की आयु का बताया है. इस हिसाब से उस के जन्म का साल 1961 होता है.

हलफनामे के कौलम बी में अपनी शैक्षणिक योग्यता के बारे में उस ने लिखा है कि उस ने साल 1969 से 1971 के बीच उत्तर प्रदेश शिक्षा बोर्ड से मैट्रिक पास किया. साल 1973-74 में गोरखपुर से बीएड और साल 1976 में अवध विश्वविद्यालय से एमए की डिगरी ली. साल 1984 में उस ने मगध विश्वविद्यालय से पीएचडी की डिगरी हासिल की. साल 1961 में जन्मी ऊषा ने 10 साल की उम्र में मैट्रिक, 12 साल की उम्र में बीए और 14 साल की उम्र में एमए पास कर लिया था. टौपर्स घोटाले के साथ ऊषा पर चुनाव आयोग को गलत हलफनामा देने का भी केस दायर किया गया है. जांच के बाद अगर हलफनामा गलत साबित होगा तो उसे पूर्व विधायक के तौर पर मिलने वाली सुविधा और पैंशन से वंचित कर दिया जाएगा.

लालकेश्वर की बीवी ऊषा सिन्हा ने विधायक बनने के बाद भी गंगा देवी कालेज के पिं्रसिपल का पद नहीं छोड़ा था. जदयू के टिकट पर हिलसा विधानसभा चुनाव क्षेत्र से विधायक बनने के बाद कानूनन ऊषा को पद छोड़ देना चाहिए था. 27 जनवरी, 2010 से 15 जून, 2015 तक वह विधायक रही और उस दौरान पिं्रसिपल  भी बनी रही. 2015 में दोबारा चुनाव लड़ने के पहले उस ने छुट्टी ले ली थी. पर टिकट नहीं मिलने के बाद उस ने दोबारा फरवरी 2016 में प्रिंसिपल की कुरसी पर कब्जा जमा लिया. विश्वविद्यालय के नियमों के मुताबिक, कोई व्यक्ति एक वक्त में एक ही पद पर बना रह सकता है. कालेज प्रिंसिपल को विधायक से अधिक वेतन मिलता है. इसलिए ऊषा विधायक का वेतन छोड़ प्रिंसिपल का वेतन उठाती रही. वहीं, विधायक को कालेज प्रिंसिपल से ज्यादा भत्ता मिलता है, इसलिए ऊषा प्रिंसिपल को मिलने वाला भत्ता छोड़ विधायक को मिलने वाला भत्ता लेती रही.

समधी समधन का घोटाला

चोर चोर मौसेरे भाई की कहावत काफी पुरानी है, अब टौपर घोटालेबाजों ने नई कहावत गढ़ी है. यह है ‘चोर चोर समधी भाई’. टौपर घोटाले का किंगपिन लालकेश्वर और मगध विश्वविद्यालय के कुलपति रहे अरुण कुमार रिश्ते में समधी हैं. पुलिस को फिलहाल इस घोटाले में अरुण कुमार के शामिल होने का कोई सुराग नहीं मिला है, पर उन के कुलपति रहते हुए साल 2012 में 22 प्रिंसिपल और साल 2013 में 12 प्रिंसिपलों की बहाली का घोटाला सामने आया था.

अरुण कुमार ने कुलपति रहते हुए अपनी मरजी से प्रिंसिपलों की बहाली की थी और मोटी रकम ले कर शिक्षकों को मनमाने कालेज में प्रिंसिपल बना दिया था. इस मामले को ले कर जब बवाल मचा तो अगस्त 2013 में वी बी लाल कमेटी को जांच का जिम्मा सौंपा गया और कमेटी ने अरुण कुमार को पूरी तरह से दोषी करार दिया था. इस घोटाले में अरुण कुमार  जेल की हवा खा चुके हैं. निगरानी विभाग ने उन्हें साल 2015 में गिरफ्तार किया था और 15 दिनों तक जेल में रहने के बाद जमानत मिली थी.

अरुण कुमार ने अपनी समधन ऊषा सिन्हा को गलत तरीके से गंगा देवी महिला कालेज का प्रिंसिपल बना दिया था. ऊषा का तबादला कौमर्स कालेज से गंगा देवी कालेज में इसलिए कर दिया गया क्योंकि वहां ऊषा से सीनियर कोई नहीं था. इस का फायदा उठाते हुए ऊषा सिन्हा को प्रिंसिपल बना दिया गया.

अब शुरू हुआ औपरेशन क्लीन

सबकुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया…टौपर्स घोटाले में काफी थूथू होने के बाद बिहार सरकार की आंखें खुली हैं और उस ने शिक्षा विभाग में औपरेशन क्लीन शुरू किया है. शिक्षा मंत्री अशोक चौधरी ने बताया कि राज्य के सभी प्राइवेट बीएड कालेजों की जांच होगी. इस के लिए सभी जिलों के डीएम और एसपी को निर्देश दिए गए हैं. औपरेशन क्लीन के तहत बीएड कालेजों, वित्त रहित इंटर और डिगरी कालेजों समेत कोचिंग संस्थानों की जांच की जाएगी. जो भी संस्थान सरकार के द्वारा तय किए गए मानकों पर खरे नहीं उतरेंगे उन के खिलाफ एफआईआर दर्ज की जाएगी और उन की मान्यता रद्द कर दी जाएगी.

औपरेशन क्लीन के तहत इस बात की जांच की जाएगी कि कालेज की इमारत की हालत कैसी है? रैगुलर क्लास होते हैं या नहीं? कालेज के सभी शिक्षक आधार कार्ड से जुड़े हैं या नहीं? हर साल कालेज में ऐडमिशन के लिए कितने बच्चे आते हैं और कितने का ऐडमिशन लिया जाता है? क्लासरूम क्षमतावान हैं या नहीं? कालेज में लाइब्रेरी और लैब की हालत कैसी है आदि. 

माता पिता भी कम दोषी नहीं

यह माता पिता की बच्चों को ले कर अधिक अपेक्षाओं का ही परिणाम है कि आएदिन ऐसे घोटालों की खबरें पढ़ने को मिलती रहती हैं. बच्चों के माध्यम से अपने सपनों को पूरा करने की चाहत रखते ये मातापिता यह क्यों नहीं सोचते कि गलत तरीके से अपने बच्चों को शिक्षा दिलाने के उन के इस नकारात्मक कदम का परिणाम बच्चों को ही भुगतना पड़ता है. गलत तरीके से डिगरी हासिल करते, परीक्षा में टौप कराने का मातापिता का यह कदम बच्चों को कहीं का नहीं रहने देता. ऐसा करने से बच्चे न तो सही शिक्षा हासिल कर पाते हैं, न उन्हें अपने विषय की समझ हो पाती है. इस के चलते वे जीवन में कुछ भी हासिल करने के लिए बिना मेहनत वाला गलत तरीका अपनाने लगते हैं. नतीजतन, वे अपनी राह से भटक कर अपराध की दुनिया की ओर अग्रसर हो जाते हैं.

राष्ट्र और राष्ट्रवाद

राज्यसभा टैलीविजन चैनल पर एक अजीब स्टोरी दिखाई जा रही थी. यह स्टोरी आरएसएस यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक हेडगेवार पर आधारित थी. बीचबीच में बारबार डा. हेडगेवार और डा. भीमराव अंबेडकर के चित्र दिखाए जा रहे थे. स्टोरी में डा. हेडगेवार और डा. अंबेडकर के बीच अनेक समानताओं को बताया जा रहा था, जैसे वे दोनों गरीब घर से थे.

नागपुर के जिस घर में डा. हेडगेवार रहते थे, वह मिट्टी का बना हुआ था. एक बरसात में उस घर की दीवार ढह गई थी पर तब भी वे उसी स्थिति में उस में रह रहे थे. जब उन से दीवार बनवाने को कहा गया तो वे बोले कि देश में लाखों गरीबों के पास घर नहीं है. मैं उन की चिंता करूं या अपनी? इसी गरीबी से डा. अंबेडकर भी निकले थे. उन्हें भी लाखों वंचितों की चिंता थी. वे दोनों ही राष्ट्रवादी थे और महान देशभक्त थे.

यह सब सुन कर मैं सन्न रह गया. डा. अंबेडकर महान देशभक्त थे, इस में कोई

संदेह नहीं पर वे राष्ट्रवादी भी थे, यह उन का गलत मूल्यांकन है. राष्ट्रवाद एक

अलग अवधारणा है, जिस के बारे में डा. अंबेडकर के विचार हिंदू महासभा और आरएसएस किसी के भी नेता से, चाहे वे डा. हेडगेवार हों या वीर सावरकर, बिलकुल मेल नहीं खाते थे.

भेदभावपूर्ण जाति व्यवस्था

वर्तमान में आरएसएस और भाजपा दलित जातियों को हिंदू राजनीति से जोड़ने के लिए डा. अंबेडकर को राष्ट्रवाद के बहाने हिंदूवादी बनाने का कार्यक्रम चला रहे हैं. आरएसएस के नेताओं का यह प्रचार कि ‘डा. अंबेडकर ने डा. हेडगेवार के ही सामाजिक समरसता कार्यक्रम को आगे बढ़ाया है,’ न केवल डा. अंबेडकर के दर्शन की गलत व्याख्या है, बल्कि उन्हें, उन की असल जड़ों से उखाड़ कर, हिंदूत्वादी बना कर, उन की विचारधारा को गंगा किनारे जला देने का उपक्रम भी है.

राष्ट्रवाद और भारतीय जनता पार्टी का हिंदूवाद एकसाथ नहीं चल सकते. कोई भी व्यक्ति या तो विशुद्ध राष्ट्रवादी होगा या फिर हिंदूवादी होगा, वह दोनों एकसाथ नहीं हो सकता. सैद्धांतिक रूप से सब एक हैं कि सोचविचार की धारा भी हिंदूमुसलमान और हिंदूईसाई में भेद नहीं करती, जबकि आरएसएस का हिंदुत्व

यह भेद करता है. मतलब यह है कि आरएसएस की ‘हम एक हैं’ की व्याख्या कुछ दूसरी है. आइए, देखते हैं कि उस की यह व्याख्या क्या है. हमें उस के लिए यह देखना होगा कि भाजपा ने यह नारा कब दिया था?

भारत में 1990 का दशक और उस के बाद का समय मंडल और कमंडल की राजनीति का काल है. यही समय पिछड़ी जातियों के उभार का है, और यही दौर इस के विपरीत आक्रामक हिंदू आंदोलन का भी है. इसी काल में मुसलमानों को बंधक बना कर मसजिद ध्वस्त की गई और इसी काल में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू की थीं, जिस के विरोध में परांपरावादियों की करतूतों से पूरा देश जल उठा था. संयोग से 1990 में ही डा. अंबेडकर की 100वीं जयंती मनाई गई थी, जिस में सभी राजनीतिक दलों ने अपनेअपने अंबेडकर गढ़े थे. उसी राजनीतिक अभियान में, कांशीराम ने सामाजिक परिवर्तन, विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सामाजिक न्याय और आरएसएस ने सामाजिक समरसता के शब्द डा. अंबेडकर के साथ जोड़े थे. कांशीराम के सामाजिक परिवर्तन के नारे के प्रतिरोध में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सामाजिक न्याय का नारा दिया था, जिस का अर्थ था मौजूदा समाज व्यवस्था में ही न्याय की बात करना. किंतु आरएसएस को सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक न्याय के ये दोनों नारे रास नहीं आए क्योंकि उस की दृष्टि में ये दोनों नारे समाज में मौजूद विघटन को साबित करने वाले थे. इसलिए, उस ने उन के समानांतर सामाजिक समरसता का नया नारा गढ़ा, जिसे उस ने दीनदयाल उपाध्याय का मानव एकात्मवाद कहा.

सामाजिक समरसता की व्याख्या में आरएसएस ने कहा कि जिस तरह हाथ की पांचों उंगलियां समान नहीं होतीं पर उन के बीच समरसता होती है, उसी तरह समाज में भी सब समान नहीं हो सकते पर उन के बीच समरसता होनी चाहिए. यही सामाजिक समरसता है, जिस का अर्थ है, जो जैसा है, वह वैसा ही बना रहे. यानी चमार चमार बना रहे, भंगी भंगी बना रहे, नाई नाई बना रहे, धोबी धोबी बना रहे, ब्राह्मण ब्राह्मण बना रहे, ठाकुर ठाकुर बना रहे और बनिया बनिया बना रहे. बस, उन के बीच समरसता रहनी चाहिए. वे अपनी स्थिति को ढोएं या उस का लाभ उठाएं, कोई आपत्ति न करें.

वास्तव में यह सामाजिक समरसता निम्न जातियों को यथास्थिति में रखने का दर्शन है. इसलिए आरएसएस इस बात की गारंटी नहीं देता कि यदि निम्न जातियां अपना पुश्तैनी धंधा छोड़ कर विकास की मुख्यधारा में आना चाहेंगी, तो उच्च जातियां उन से संघर्ष नहीं करेंगी. अभी तक का अनुभव यही बताता है कि ऐसे मामलों में जातीय संघर्ष को भगवाई तत्त्वों ने रोका नहीं है, बल्कि तेज ही किया है. ऐसी स्थिति में सामाजिक समरसता कैसे बनी रह सकती है? क्या निम्न जातियों के लिए हिंदू धर्मगुरु और धर्मशास्त्र समरसता की बात करते हैं या उन के विरुद्ध विषवमन करते हैं और उन की गरिमा तथा प्रतिष्ठा को नकारते हैं? इन सवालों पर विचार किए बिना, आरएसएस संगठनों के द्वारा डा. अंबेडकर की 125वीं जयंती को सामाजिक समरसता वर्ष के रूप में मनाने का कोई औचित्य नहीं है.

इंडियन ऐक्सप्रैस में आरएसएस चिंतक और भाजपा के महासचिव राम माधव का लेख ‘व्हाट दलित्स वांट’ प्रकाशित हुआ है. वे लिखते हैं कि दलित 4 चीजें चाहते हैं- सम्मान, सहभागिता, समृद्धि और सत्ता. पहली 2 की जिम्मेदारी वे समाज पर डाल देते हैं. और अंतिम 2 के बारे में कहते हैं कि उसे सरकार पूरा कर सकती है. वे जोर दे कर कहते हैं कि दलितों की सम्मान और सहभागिता की ‘भूख’ (वे अधिकार को भूख कहते हैं) के लिए सामाजिक और धार्मिक संगठनों को काम करना चाहिए, तभी सामाजिक समानता आएगी. किंतु अंतिम 2 के लिए उन की खुद की केंद्र व राज्य सरकारें क्या काम कर रही हैं, उस पर उन्होंने कोई प्रकाश नहीं डाला है.

सामाजिक संगठनों की बात तो समझ में आती है परंतु धार्मिक संगठनों से उन का क्या अभिप्राय है? भारत के अधिकांश हिंदू धार्मिक संगठन जातिव्यवस्था में अटूट विश्वास करते हैं. ऐसे धार्मिक संगठनों से, जो आज भी दलितों के मंदिर प्रवेश के विरोधी हैं और स्त्रियों को भी समान अधिकार देने को तैयार नहीं हैं, क्या यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे दलितों को सम्मान और सहभागिता का अधिकार देंगे? सच यह है कि कोई भी हिंदू धार्मिक संगठन जातिव्यवस्था को समाप्त करना नहीं चाहता है, बल्कि उसे और मजबूत करना चाहता है. शंकराचार्य जैसे अनेक धर्मगुरु तो खुल कर जातिव्यवस्था का पक्ष लेते हैं.

राम माधव ने अपने लेख में स्वीकार किया है कि डा. अंबेडकर को स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व की प्रेरणा बुद्ध से मिली थी. सवाल यह गौरतलब है कि उन्हें यह प्रेरणा 2,500 वर्ष पूर्व हिंदूधर्म से क्यों नहीं मिली थी? क्या कोई भी यह मानने से इनकार करेगा कि समानता की शिक्षा हिंदूधर्म देता ही नहीं है, और स्वतंत्रता तथा भ्रातृत्व के शब्द तो उस के शब्दकोश में हैं ही नहीं? लेकिन आरएसएस के विचारक इस सत्य को पूरी तरह नकारते हैं. राम माधव लिखते हैं, जो भ्रामक और सत्य से दूर है, कि किसी भी हिंदू धर्मशास्त्र में विघटनकारी व भेदभावपूर्ण शिक्षा नहीं मिलती है.

उन का कहना है कि ‘जन्मना जातिव्यवस्था’ की जड़ें भले ही प्राचीन समय की वर्णाश्रमव्यवस्था में हैं परंतु वर्णाश्रमव्यवस्था ने कभी भी जातिभेद को मान्यता नहीं दी थी. उन के अनुसार, जातिव्यवस्था उस के बाद आरंभ हुई. इस के समर्थन में वे ऋग्वेद के एक मंत्र (मंडल 5, सूक्त 60, मंत्र 5) का संदर्भ देते हैं- ‘कोई छोटाबड़ा नहीं है, सभी भाईभाई हैं, हमें सब की भलाई के लिए मिल कर कार्य करना चाहिए.’ अगर शिक्षा यह थी तो फिर विघटनकारी और भेदभावपूर्ण जातिव्यवस्था कैसे आरंभ हो गई? लेकिन इस का वे कोई खुलासा अपने लेख में नहीं करते हैं. यह व्यवस्था किन ‘सभी’ के लिए है, इस की चर्चा नहीं की जाती. असल में ‘सभी’ में केवल ब्राह्मण व क्षत्रिय ही शामिल हैं, और कोई नहीं.

समरसता का आडंबर

सभी आरएसएस विचारक ऋग्वेद के हवाले से जातिव्यवस्था को नकारते हैं, और उसे मुगलों की देन बताते हैं. इस तरह वे न केवल अपने हिंदूधर्म का गलत पाठ करते हैं, बल्कि इतिहास का भी कुपाठ करते हैं. राम माधव जिस ऋग्वेद के मंत्र का हवाला देते हैं, वह रुद्रपुत्र मरुतों के संदर्भ में कहा गया है. उस मंत्र का सही अर्थ इस प्रकार है– ‘समान शक्ति वाले मरुतगण आपस में छोटे या बड़े नहीं हैं, वे सौभाग्य के लिए भ्रातप्रेम के साथ बड़े हुए हैं. मरुतों के पिता रुद्र नित्य युवा एवं शोभन कर्मों वाले हैं. इन की माता पृश्नि गाय के समान दुहने योग्य हैं. ये दोनों कल्याणकारी हों.’

(देखिए ऋग्वेद, अनुवादक : डा. गंगासहाय शर्मा)

हैरानी की बात है कि राम माधव को ऋग्वेद में असुरों और दासों के विवरण नहीं मिले, जिन्हें मारने का खुला आह्वान उस में किया गया है. जब ये तथ्य सामने लाए जाते हैं तो हिंदू पौराणिकवादी मरनेमारने को तैयार हो जाते हैं. मुकदमे करने शुरू कर देते हैं कि धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंची है.

सवाल है कि दलित क्या चाहते हैं? लेकिन, क्या पहले यह नहीं जान लेना चाहिए कि आरएसएस क्या चाहता है? और ऊंची जातियों के हिंदू क्या चाहते हैं? आरएसएस और उस से जुड़े तमाम हिंदू अस्पृश्यता को जरूर नकारते हैं और यह दिखाने के लिए वे दलितों के बीच कभीकभार सहभोज के आयोजन भी करते हैं लेकिन वे हिंदूसमाज की विघटन करने वाली जातिव्यवस्था को फिर भी नहीं नकारते. क्या जातिव्यवस्था का समूल नाश किए बिना अस्पृश्यता को मिटा सकते हैं? क्या जातिव्यवस्था का समूल नाश किए बिना हिंदू समाज में एकता लाई जा सकती है? कोई भी इन प्रश्नों का उत्तर ‘हां’ में नहीं दे सकता. फिर सामाजिक समरसता एक आडंबर नहीं है, तो क्या है?

छद्म राष्ट्रवाद

भारत के दलित निश्चितरूप से स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व चाहते हैं. सम्मान, सहभागिता, समृद्धि और सत्ता इसी के अंग हैं. किंतु आरएसएस ने कभी उन के पक्ष में यह आवाज नहीं उठाई. इस के उलट, उस ने हमेशा दलितों के स्वतंत्र विकास को रोकने के लिए अपनी भाजपा सरकार पर राजनीतिक दबाव बनाया. उसी के दबाव में दलितों को उच्चशिक्षा से वंचित करने के लिए उन्हें मिलने वाली फैलोशिप यानी छात्रवृत्ति कई जगह रोकी गई है. यह प्रचार किया जाता है कि ऊंची जातियां दलितों को पाल रही हैं. स्पष्ट है कि आरएसएस का मकसद दलितों का विकास करना नहीं है, बल्कि उन को अपने हिंदूवादी राष्ट्रवाद से जोड़ना है, यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक घातक विचारधारा है.

भारत में राष्ट्र और राष्ट्रवाद की अवधारणा पर डा. अंबेडकर ने काफी विस्तार से चर्चा की है. उन के अनुसार, राष्ट्रीयता के बिना न राष्ट्र संभव है और न ही राष्ट्रवाद. राष्ट्रीयता एक सामाजिक भावना है, जो लोगों में यह भाव जगाती है कि वे एक हैं और परस्पर सजातीय हैं. लेकिन यह राष्ट्रीय अनुभूति दोधारी तलवार की तरह है जो एक तरफ अपने लोगों के प्रति अपनत्त्व दिखाती है तो दूसरी तरफ उन लोगों के प्रति नफरत का भाव पैदा करती है जो उन की जाति के नहीं हैं.

इस प्रकार यह वह जातीय चेतना है जो लोगों को भावनात्मक रूप से इतनी मजबूती से बांधे रखती है कि सामाजिक व आर्थिक विषमता की समस्याओं को भी भूल कर वे अपने से भिन्न समुदायों के प्रति घोर शत्रुता दिखाते हुए उन का कत्ल करने तक को तैयार हो जाते हैं. राष्ट्र और राष्ट्रीयता असल में यही है.

इसलिए डा. अंबेडकर का स्पष्ट मत है कि राष्ट्रवाद की यह दोधारी चेतना भारत को कभी एक राष्ट्र नहीं बना सकती. भारत एक राष्ट्र उन्हीं परिस्थितियों में बन सकता है, जब या तो भारतीय समाज गतिविहीन हो या एक ही जातिसमुदाय का हो अथवा वे सभी भारतवासी एक भारतीयता के भाव से मजबूती से बंधे हों.

डा. अंबेडकर के अनुसार, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद में भी अंतर है. वे कहते हैं कि यह सच है कि राष्ट्रीयता के बिना राष्ट्रवाद का निर्माण नहीं हो सकता परंतु यह कहना हमेशा सच नहीं होता. लोगों में राष्ट्रीयता की भावना उपस्थित हो सकती है पर जरूरी नहीं है कि उन में राष्ट्रवाद भी उपस्थित हो.

वे कहते हैं कि राष्ट्रीयता को राष्ट्रवाद में बदलने के लिए 2 शर्तें जरूरी हैं. पहली, लोगों में एक राष्ट्र के रूप में रहने की इच्छा जाग्रत होना क्योंकि राष्ट्रवाद इसी इच्छा की गतिशील अभिव्यक्ति है और दूसरी यह है कि एक ऐसे क्षेत्र का अस्तित्व में होना जो एक राष्ट्र का सांस्कृतिक घर बन सके. स्पष्ट है कि भारत वह क्षेत्र नहीं है क्योंकि यहां विभिन्न संस्कृतियां निवास करती हैं.

क्या डा. अंबेडकर के इन विचारों के प्रकाश में उन्हें राष्ट्रवादी और हिंदूवादी प्रचारित करना भाजपा और आरएसएस का खतरनाक षड्यंत्र नहीं है?       

राजनीति में उलझा कैराना

उत्तर प्रदेश के कैराना की कहानी तो चुनावी बिसात पर सुनी और सुनाई जा रही है. कहानी का जो एंगल अपने मुनाफे के हिसाब से जिस को लाभकारी लगता है वह उसी को सुना रहा है. सचाई यह है कि कैराना जैसे कसबे धार्मिक दूरियों से बनते हैं. इस में नया कुछ नहीं है. ऐसे कसबे सालोंसाल से समाज में बनते हैं. धार्मिक दूरियों से लोग एकदूसरे से दूर रहना पसंद करते हैं. गांव से ले कर शहर तक ऐसी बस्तियां देखी जा सकती हैं जहां केवल एक ही जाति और धर्म के लोग रहते हैं. दूसरी जाति और धर्म के लोग उन बस्तियों में रहना नहीं चाहते. ऐसी बस्तियों का वजूद मनुवाद से जुड़ा है. गांव में सवर्णों के घरों से दूर दलितों और पिछड़ों की बस्तियां बसाई जाती थीं. शहरों में भी बहुत सारे महल्ले एक ही जाति के बसे हुए होते थे. इन महल्लों का नाम इन में रहने वाले लोगों की जाति के नाम पर रखा जाता था. मनुवादी सोच यह थी कि गांव, बस्ती और महल्ले के नाम से ही पता चल जाए कि रहने वाला किस जाति या धर्म का है.

यह सोच आगे भी बढ़ती रही. देश की आजादी के बाद जाति और धर्म के नाम पर राजनीति शुरू हुई तो यह सोच और भी गहरी होती चली गई. मनुवाद ने जहां समाज को जाति के नाम पर बांटा, वहीं राजनीति ने धर्म के नाम पर पूरे समाज को बांट दिया. कई ऐसे शहर और महल्ले बस गए जो एक ही धर्म के लोगों के थे. पश्चिम उत्तर प्रदेश के कुछ जिले तो इस के लिए मशहूर थे. मुसलिम बाहुल्य इन जिलों में बहुत पहले एक ही धर्म के 2 वर्गों के बीच झगडे़ होते थे. अयोध्या में राममंदिर आंदोलन के बाद शुरू हुई राजनीति ने धार्मिक दंगों को हवा देने का काम किया. आपस में दूरियां बढ़ीं तो दंगे होने लगे. यह वह समय था जब हिंदू और मुसलिम 2 अलगअलग खेमों में बंट गए. सही मानो में देखा जाए तो सामाजिक सामंजस्य का तानाबाना वहीं से टूटने लगा. ऐसे हालात से बचने के लिए 2 धर्मों के लोग एकसाथ खडे़ होने के बजाय एकदूसरे से दूर होने लगे. उन महल्लों में अपने मकान और दुकान बेच कर लोग नई जगह में अपनी आबादी के बीच बसने लगे. दंगे और तनाव असुरक्षा की भावना को लगातार बढ़ाते गए.

कैराना तो बहाना है

कैराना उत्तर प्रदेश के शामली जिले का एक कसबा है. शामली जिला पहले मुजफ्फरनगर का हिस्सा होता था. कैराना मुजफ्फरनगर से करीब 50 किलोमीटर दूर है. यह उत्तर प्रदेश व हरियाणा की सीमा पर स्थित है. कैराना शामली मुख्यालय से 10 किलोमीटर दूर पानीपत-खटीमा मार्ग पर पड़ता है. करीब 90 हजार की आबादी वाला कैराना बहुत पुरानी बस्ती है. यहां पढ़ाई और स्वास्थ्य सुविधाओं का बुरा हाल है. पहले इस को कर्णपुरी के नाम से जाना जाता था. इस के बाद किराना होते हुए यह कैराना बन गया. किराना के नाम से संगीत घराना भी है. यह बात और है कि अब इस घराने के लोग कैराना में नहीं रहते. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, कैराना में 72 हजार की आबादी मुसलिम और करीब 18 हजार हिंदू आबादी है. कैराना कसबे में 44 गांव आते हैं. इन में से 32 गांव गुर्जर बाहुल्य हैं. गुर्जर जाति की खास बात यह है कि यह हिंदू और मुसलिम दोनों समुदायों में आती है.

कामकाज और कारोबार करने वाली जातियों को देखें तो बडे़ कारोबारी हिंदू बिरादरी के हैं. ये छोटीबड़ी तमाम तरह की दुकानें और दूसरे काम करते हैं. साल 2014 में 3 हिंदू कारोबारियों की हत्या के बाद कैराना में दहशत का माहौल बन गया. मुजफ्फरनगर के दंगे का प्रभाव यहां के लोगों पर पड़ा और लोग धीरेधीरे यहां से दूर कहीं दूसरी जगहों पर बसने की योजना बनाने लगे. यह शुद्ध रूप से कानून व्यवस्था का मसला था. कैराना में रंगदारी, लूट, फिरौती, अपहरण और हत्या की घटनाओं ने वहां के सामाजिक  तानेबाने को नुकसान पहुंचाया. अब मुसलिम बाहुल्य इलाके में हिंदू रहना नहीं चाहते थे. यही हालात अलगअलग जगहों पर मुसलिम बिरादरी की भी है. वे लोग भी हिंदू आबादी से दूर अलग रहना पसंद करते हैं. 

चुनावी फायदा

गांव से शहर की तरफ पलायन हर जिले में हो रहा है. रोजगार, शिक्षा, अस्पताल और अच्छी जीवनशैली के लिए लोग गांव से शहर की तरफ आते हैं. मुंबई, दिल्ली और पंजाब के तमाम शहर उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों से भरे पडे़ हैं. कभी किसी ने पलायन को चुनावी रंग देने की कोशिश नहीं की. भाजपा सांसद हुकुम सिंह ने कैराना से पलायन को राजनीतिक रंग दे कर चुनावी लाभ लेने की कोशिश की. हुकुम सिंह ने

346 लोगों के नाम वाली सूची को पेश करते कहा कि इन लोगों ने कैराना से पलायन किया है. कैराना के पलायन को राजनीतिक रंग देने वाले हुकुम सिंह और भारतीय जनता पार्टी को जल्द ही इस बात का एहसास हो गया कि यह मुद्दा ज्यादा दिन तक चलेगा नहीं. ऐसे में वे इस मामले को ले कर नरम पड़ गए. हुकुम सिंह ने बाद में कहा कि प्रदेश में कानून व्यवस्था ठीक नहीं है. कैराना में ही नहीं, दूसरी जगहों पर भी अपराध बढ़ रहे हैं. इस क्षेत्र में तमाम अपराध करने वाले गैंग मुसलिम अपराधी चला रहे हैं.

कैराना के रहने वाले और वहां से पलायन करने वाले इस का कारण खराब कानून व्यवस्था को मानते हैं. यहां रहने वाले लोग शाम होते ही घरों में कैद हो जाते हैं. अपराधियों के खिलाफ पुलिस कोई कडे़ कदम नहीं उठाती, इसलिए उन के हौसले बढ़ जाते हैं. मजेदार बात यह है कि कैराना में आज तक कोई दंगा नहीं हुआ. यहां हिंदू, मुसलिम और सिख हर तरह के लोग रहते हैं. यह बात सच है कि कैराना के आसपास के इलाकों में अपराध बढ़ा है. इस की वजह से कारोबारी

वर्ग मुसीबत में हैं. कई कारोबारी अपना कारोबार छोड़ कर भाग चुके हैं. कुछ लोग अभी इस मौके की तलाश में हैं कि यहां रहना छोड़ दें. कैराना से पलायन के मुद्दे को राजनीतिक रंग दे कर भाजपा चुनावी लाभ लेने की जुगत में है.

कैराना से जुडे़ मुद्दे को उठाने के बाद खुद भाजपा नेता एकमत नहीं रह गए. सरधना से भाजपा के विधायक संगीत सोम ने सरधना से कैराना के बीच ‘निर्भय यात्रा’ निकालने की योजना बनाई तो इस मुददे को उठाने वाले भाजपा सांसद हुकुम सिंह इस से सहमत नहीं दिखे. संगीत सोम ने 40 किलोमीटर लंबी निर्भय यात्रा की शुरुआत की तो जिला प्रशासन ने उन को मना कर दिया. बाद में प्रदेश नेतृत्व भी निर्भय यात्रा के खिलाफ हो गया. इस कारण संगीत सोम यात्रा को रोकने के लिए राजी हो गए.

राजनीति के जानकार मानते हैं कि भाजपा ने कैराना मुद्दा चुनावी लाभ के लिए उठाया था. लोकसभा चुनावों के पहले भाजपा को मुजफ्फरनगर दंगों की वजह से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लाभ हुआ था. इस के बल पर वह उत्तर प्रदेश से 73 लोकसभा क्षेत्रों में जीत हासिल करने में सफल रही थी. उत्तर प्रदेश में 2017 में विधानसभा के चुनाव होने हैं. ऐसे में भाजपा इस बार कैराना को धार्मिक मुद्दा बनानेकी योजना में थी. लेकिन जैसेजैसे यह मुद्दा गरम होने लगा, प्याज की तरह इस के छिलके उतरने लगे. ऐसे में बहुत दिनों तक इस मुददे का चलना संभव नहीं दिख रहा था. तब भाजपा ने संगीत सोम की ‘निर्भय यात्रा’ को समर्थन न दे कर कैराना मुद्दे से हाथ वापस खींच लिया. केवल भाजपा ही नहीं, समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी भी इस मुद्दे को भुनाने में जुट गईं.

भाजपा हर मुद्दे को राजनीतिक रंग देती है

(अखिलेश यादव, मुख्यमंत्री, उत्तर प्रदेश)

उत्तर प्रदेश की सरकार विकास के काम कर रही है. प्रदेश की जनता में उस की अच्छी छवि बनी है. यह बात विरोधी दलों को हजम नहीं हो रही है. भाजपा ने पहले मथुरा को बाद में कैराना को राजनीति का हथियार बनाने की कोशिश की. भाजपा हमेशा झूठे प्रचार का सहारा ले कर प्रचार करती है. लोकसभा चुनाव में जिनजिन मुद्दों को भाजपा ने उठाया आज 2 साल बाद वह उन मुद्दों को छोड़ चुकी है. भाजपा ने अपना एक भी वादा पूरा नहीं किया है. भाजपा अपने चुनावी मुददों को भूल चुकी है. जनता उस के सच को जान चुकी है. अब भाजपा अपनी गिरती छवि से परेशान हो कर तनाव फैलाने वाले मुददे उठाने लगी है.

‘निर्भय यात्रा’ से चमके संगीत सोम

साल 2013 में संगीत सोम मुजफ्फरनगर दंगों की वजह से चर्चा में आए थे. मुजफ्फरनगर दंगों पर बनी फिल्म ‘शोरगुल’ में भी उन के किरदार को दिखाया गया है. संगीत सोम सरधना विधानसभा के विधायक है. संगीत सोम की अपने क्षेत्र पर अच्छी पकड़ है. वे पार्टीलाइन से अलग रह कर भी कई काम करते हैं. संगीत सोम की बढ़ती लोकप्रियता से भाजपा के कई नेता परेशान हैं. वे उन को समर्थन भी नहीं देते. इस के बाद भी संगीत सोम का राजनीतिक कद बढ़ता जा रहा है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में संगीत सोम हिंदुत्व का प्रखर चेहरा माने जाते हैं. ‘निर्भय यात्रा’ निकालने का फैसला करने के बाद पार्टी स्तर पर उन को किसी का समर्थन नहीं मिला. इस के बाद भी वे यात्रा निकालने में सफल हुए. जब उन को लगा कि वे कानून का उल्लंघन कर रहे हैं तो उन्होंने यात्रा स्थगित कर दी. संगीत सोम कहते हैं, ‘‘मैं पार्टी के साथ और उस के अनुसार काम करता हूं. मेरी प्राथमिकता मेरे क्षेत्र की जनता है. मैं अकेला कुछ भी नहीं हूं.’’ 

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