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चंबल की पहचान बदलने को बेताब शाह आलम

उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा के बीच स्थित चंबल घाटी सदा से ही लोगों में दिलचस्पी का विषय रही है. इसकी वजह यहां रहने वाले खूंखार डकैत हैं. चंबल केवल डकैतों की वजह से ही मशहूर नहीं है. इसकी और भी खासियत है. चंबल को करीब से देखने समझने और यहां की दशा लोगों तक पहुंचाने के लिये युवा सोशल एक्टिविस्ट शाह आलम ने साइकिल से यहां की लंबी यात्रा की. साइकिल से चंबल की करीब 2300 किलोमीटर से अधिक की यात्रा कर चुके शाह आलम अब चम्बल के बीचों-बीच 25 मई से जन संसद शुरू करने जा रहे हैं. 25, मई 1857 में यहां से शुरू होने वाली जनक्रांति के 160 साल पूरे होने पर शुरू हो रही जनसंसद के दौरान चम्बल घाटी के अवाम, एक्टिविस्ट व जन प्रतिनिधि का जमावड़ा होगा.

जन संसद के दौरान चम्बल की समस्याओं को उजागर किया जाएगा. जनसंसद में उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान राज्यों के लोग शरीक होंगे. कई सत्रों में चलने वाली जन संसद में लोगों के बीच से एक-एक सत्र के लिए अलग-अलग जन सांसद चुना जाएगा, जो अपने इलाके की समस्याएं रखेंगे. इन समस्याओं का दस्तावेजीकरण कर सरकार व प्रशासन के सामने रखा जायेगा. हजारों किलोमीटर यात्रा करने वाले देश के पहले एक्टिविस्ट बने शाह आलम बीहड़ांचल को ‘नर्सरी ऑफ सोल्जर्स’ बताते हैं. वह कहते हैं कि चम्बल डकैतों  के लिए ही जाना गया, लेकिन यह धारणा गलत है. चम्बल ने देश को इतने क्रांतिकारी दिए हैं कि इसे ‘नर्सरी ऑफ सोल्जर्स’ कहना बड़ी बात नहीं होगी.

शाह आलम कहते है कि 25 मई, 1857 को चम्बल की मशहूर पचनदा (पांच नदियों का संगम) से छापामार जंग की शुरुआत हुई थी. 25 मई को इस क्रांति के 160 साल पूरे हो रहे हैं. क्रांतिकारियों ने इसी इलाके में अंग्रेजों के खिलाफ सामूहिक योजनायें बनाई. चम्बल की घाटी के बीहड़ो को क्रांतिकारियों ने तैयारी के लिए सबसे अहम स्थान बनाया. इतिहास खंगालने पर पता चलता है कि जैसी तैयारी यहां क्रांतिकारियों ने की, उत्तर भारत में वैसी तैयारी कहीं और नहीं हुई. यहां सैकड़ों क्रांतिवीरों ने अंग्रेजों सेना से लड़ते हुए शहादत दी थी.

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की फौज में सबसे ज्यादा सिपाही चम्बल की घाटी के थे. शहीद आजम भगत सिंह को चम्बल के जंगल पसंद थे. इसके साथ ही उत्तर भारत के क्रांतिकारियों के द्रोणाचार्य के नाम से विख्यात गेंदालाल दीक्षित, राम प्रसाद बिस्मिल, काशीबाई, जंगली-मंगली बालिमिकी, जन नायक गंगा सिंह, तेजाबाई, शेर अली नूरानी जैसे दर्जनों क्रांतिकारी चम्बल की घाटी को ट्रेनिंग सेंटर बनाया. उन्होंने बताया कि सन 1916 में बने उत्तर भारत के गुप्त क्रांतिकारी दल ‘मातृदेवी’ की सेन्ट्रल कमिटी के 40 सदस्यों में से 30 चम्बल के बागी ही थे. चम्बल में आजादी का बिगुल लगातार बजता रहा.

आजादी के बाद चम्बल की समस्याओं और अत्याचार ने डकैतों को जन्म दे दिया. डकैतों का पनपना आजाद भारत की सरकार की बड़ी खामी थी. देश और दुनिया ने चम्बल को डकैतों के रूप में जान लिया और चम्बल के गौरवशाली इतिहास को भुला दिया गया. शाह आलम ने बताया कि इसी उपेक्षा के कारण चम्बल समस्याओं की खान बन चुका है. चम्बल को उसका हक और पहचान दिलाने के लिए पांच नदियों के संगम पचनदा पर जनसंसद होगी. इसके साथ ही बीहड़ के रहवासियों के साथ जालौन के पचनद, जगम्मनपुर में घाटी की मौजूदा समस्याओं पर मंथन होगा. यहां चुने गए जनसांसद जो अपने इलाके की जन समस्याओं को प्रमुखता से सदन के बीच रखेगा. जनसंसद के दौरान चम्बल घाटी के तीन राज्यों औरैया, इटावा, जालौन, भिन्ड, मुरैना, धौलपुर के बीहड़ों में कठिन जीवनयापन से जूझ रहे ज्वलंत सवालों से पटल को रुबरु करायेंगे.

बस्ती जिले के नकहा गांव में जन्मे शाह आलम अयोध्या के निवासी हैं. अवध यूनिवर्सिटी और  जामिया सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी से पढ़ाई के बाद एक दशक से ज्यादा समय से दस्तावेजी फिल्मों का निर्माण किया. सामाजिक सरोकारों के लिए 2002 में चित्रकूट से अयोध्या तक, 2004 मेहंदीगंज बनारस से सिंहचर तक, 2005 में इंडो-पाक पीस मार्च दिल्ली से मुल्तान तक, 2005 में ही सांप्रदायिक सौहार्द के लिए कन्नौज से अयोध्या, 2007 में कबीर पीस हॉर्मोनी मार्च अयोध्या से मगहर, 2009 में कोसी से गंगा तक बिहार में पुनर्वास का हाल जानने के लिए पैदल यात्रा की. शाह आलम 2006 से ‘अवाम का सिनेमा’ के संस्थापक हैं. ‘अवाम का सिनेमा’ के देश में 17 केन्द्र हैं. जहां कला क विभिन्न माध्यमों को समेटे एक दिन से लेकर हफ्ते भर तक आयोजन अक्सर चलते रहते हैं. अवाम का सिनेमा के जरिये वह नई पीढ़ी को क्रांतिकारियों की विरासत के बारे में बताते हैं. शाह आलम ने बीते साल मई, जून, जूलाई के महीने में 2300 किमी से अधिक दूरी सायकिल से तय करके चंबल के बीहड़ो का दस्तावेजीकरण किया था.

राजनीति में आने को बैचेन रजनीकांत की चिंता

तमिल फिल्मों के सुपर स्टार रजनीकांत राजनीति में आ रहे हैं, यह सवाल अपनी जिज्ञासा खो चुका है, अब सुगबुगाहट यह है कि रजनीकांत कब राजनीति में आ रहे हैं और इससे भी ज्यादा अहम चर्चा इस बात पर हो रही है कि वे भाजपा की डोली में बैठकर दुल्हन बनकर राजनीति के आंगन में पांव रखेंगे या फिर खुद अपनी नई पार्टी बनाकर दूल्हा बनकर बारात निकालेंगे. रजनीकांत जो भी फैसला लें तमिलनाडु की जनता को इससे कोई फर्क नहीं पड़ना, जो पलक पांवड़े बिछाकर अपने इस हीरो के फैसले पर से घूंघट उठने का इंतजार कर रही है और मुंह दिखाई के शगुन में थोक में वोट न्योछावर करने तैयार बैठी है.

बीती 17 मई को चेन्नई में रजनीकांत ने अपने प्रशंसकों के लिए दरबार लगाया, तो पूरे तमिलनाडु में अघोषित अलर्ट हो गया था कि वे आज अपने पत्ते खोल सकते हैं लेकिन रजनीकांत का आठ साल बाद चहेतों का हुजूम जुटाने का मकसद कुछ और था, उन्होंने पहली बार राजनीति में आने की बात टरकाई नहीं, बल्कि उसे हां का आकार देते कहा कि राजनीति में आना कोई बुरी बात नहीं है, अगर भगवान चाहता है तो वे राजनीति में आएंगे  और अगर वे राजनीति में आए तो राजनीति से पैसा बनाने वालों से दूर रहेंगे.

अतीत में झांकते हुए उन्होंने बड़ी मासूमियत से माना कि 21 साल पहले डीएमके गठबंधन का समर्थन कर उन्होंने भूल की  थी. बकौल रजनीकांत, वह एक राजनैतिक दुर्घटना थी. तभी से रजनीकांत के राजनीति में आने की अटकलें लगना शुरू हो गईं थीं पर उन्होने दौबारा ऐसे कोई संकेत नहीं दिये तो उन पर विराम भी लग गया. अम्मा के नाम से मशहूर जयललिता की मौत के बाद उनके उत्तराधिकारी अपनी पार्टी एआईएडीएमके संभाल कर रखने में नाकाम साबित हो चुके हैं और कांग्रेस व भाजपा यहां कहने भर को हैं, ऐसे में सारा फायदा डीएमके के मुखिया  एम करुणानिधि को न मिले, इस बाबत दक्षिण में पैर जमाने की कोशिश में जुटी भाजपा की नजरें और उम्मीदें रजनीकांत पर टिकी हैं तो बात कतई हैरत की नहीं.

पिछले तीन सालों में भाजपा के कई दिग्गज नेताओं और रजनीकांत की मुलाकातों से इन अटकलों को और बल मिला कि रजनीकांत भाजपा में जा सकते हैं. इस बाबत भाजपा के लिए हाड़ तोड़ मेहनत कर रहे आरएसएस को भी एतराज नहीं है जो किसी भी तरह दक्षिण भारत के इस अहम सूबे को भी भगवा रंग में नहला देना चाहता है, क्योंकि एम जी रामचंद्रन और जयललिता के अलावा डीएमके मुखिया करुणानिधि ने भी कभी उसे तमिलनाडु में पसरने का मौका नहीं दिया.

तमिलनाडु में दलित हितों वाला द्रविड़ आंदोलन 60 के दशक में इस तरह परवान चढ़ा था कि उसका असर और धमक जयललिता युग तक बरकरार रहे, फर्क इतना भर आया था कि जयललिता ने दलित की जगह गरीब शब्द का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था और उनकी तमाम कल्याणकारी योजनाएं सिर्फ इन्ही गरीब दलितों को ध्यान में रखते बनाई जाती थीं. गरीबों के लिए सस्ते खाने वाली अम्मा थाली की नकल मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह और उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ यूं ही नहीं कर रहे हैं.  ये दोनों भी अम्मा की तर्ज पर हीरो बन जाना चाहते हैं, यह और बात है कि इन दोनों में ही जयललिता सरीखा जज्बा और प्रशासनिक पकड़ दोनों का अभाव है. तमिलनाडु की राजनीति मे पिछले पांच दशकों से फिल्म स्टार्स भगवान की तरह पुजते आए हैं, उनकी पर्दे की चमत्कारी छवि को ही यहां का वोटर असली मानता है, इस लिहाज से रजनीकांत एक ऐसे इकलोते अभिनेता हैं जो इस पैमाने पर सौ फीसदी खरे उतरते हैं.

सोशल मीडिया पर उनके चमत्कारी किस्से रामायण के एक शक्तिशाली पात्र हनुमान की तरह एक से दूसरे मोबाइल फोन में छलांग लगाते रहते हैं जो किसी भी असंभव को संभव बना देने की कूबत रखता है. फिर दिक्कत क्या है या पेंच कहां उलझा है, जो रजनीकांत भाजपा के जरिये राजनीति में आने पूरी तरह हां अभी नहीं भर रहे, जबकि यह बात किसी सबूत की मोहताज नहीं कि तमिलनाडु के अगले सीएम वे ही प्रोजेक्ट किए जाएंगे और वे अगर अभी केंद्र में मंत्री पद मांगें, तो वह भी भाजपा उन्हें थाल में सजाकर देगी.

यह सवाल दरअसल में एक गुत्थी या पहेली भी है कि क्या रजनीकांत की नजर में भाजपा अभी भी सिर्फ सवर्णों और सामंतों की पार्टी है, जो दिखावे के लिए दलितों को गले लगाकर फिर से वर्ण व्यवस्था लोकतान्त्रिक तरीके से ही सही लागू करना चाहती है और उसके मन में दलित गरीबों के लिए वही जगह है जो हिन्दू धर्म ग्रन्थों में वर्णित है. लाख टके का सवाल यह भी मौजू है कि क्या 66 वर्षीय कम शिक्षित रजनीकांत दलित चिंतक पैरियार (इरोड वेंकट नायकर रामास्वामी) की तरह इतना सोच पा रहे होंगे कि उत्तर और दक्षिण भारत के दलितों की सामाजिक स्थिति में जमीन आसमान का फर्क है और अगर सत्ता उनके जरिये भाजपा की मुट्ठी में आई तो क्या गारंटी है कि तमिल ब्राह्मण फिर से पूरा निजाम अपने कब्जे में नहीं ले लेंगे.

जयललिता खुद ब्राह्मण थीं पर दलितों की वैसी ही पेरोकर थीं जैसे उत्तरप्रदेश में बसपा के संस्थापक कांशीराम हुआ करते  थे. जयलललिता इस वजह से भी  पुजतीं थीं कि वे मूलतया सवर्ण विरोधी मानसिकता वाली महिला हो गईं थीं और पौराणिक वादियों को उनके रहते तमिलनाडु में नो एंट्री का बोर्ड लटका मिलता था, जैसा इन दिनों पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने लटका रखा है, इसीलिए  बंगाल में हिंसा अब कट्टर  हिंदूवादियों और उदार  हिंदूवादियों के बीच होने लगी है. दूसरी दिक्कत रजनीकांत का मराठी मूल का होना भी है. इस मुद्दे पर अंदरूनी तौर पर कई सर्वे और मीटिंग हो चुकी हैं, जिनका निष्कर्ष यह निकला कि यह जन्म कुंडली के आंशिक मंगल जैसी समस्या है जिसकी वक्त रहते ग्रह शांति करा दी जाए तो जातक दोष मुक्त हो जाएगा. लेकिन खुद रजनीकांत इस दोष को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं यह उनके बयानों से झलकता भी है.

बड़बोले भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने 15 मई को इस मुद्दे को तूल देने की कोशिश भी यह कहते की थी कि रजनीकांत बेंगलुरु से आए मराठी हैं, वे कोई तमिल नहीं हैं, वे केवल मन बहलाने के लिए हैं और कई दलों से जुड़े रहने के कारण उनकी कोई स्पष्ट विचारधारा नहीं है, यानि वे कट्टर हिन्दुत्व से परहेज करते हैं. हालांकि इस बयान पर लीपापोती करते उन्होंने इसे मज़ाक बताया था. साफ दिख रहा है कि भाजपा और रजनीकांत की कुण्डली पूरी तरह नहीं मिल रही है और दोनों एक दूसरे को लेकर शंकित हैं. ऐसे में भले ही भाजपा अध्यक्ष अमित शाह , केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी और आर एस एस चिंतक एस गुरुमूर्ति रजनीकांत पर डोरे डालते रहें, खुद रजनीकांत को राजनीति में आकर वास्तविक सुपरमेन बनने की अपनी ख्वाहिश पूरी करने से पहले हजार दफा सोचना पड़ेगा कि तमिलनाडु के हित वे कहां सुरक्षित रख पाएंगे, भाजपा में जाकर  या फिर खुद की पार्टी बनाकर.

गोल्ड खरीदने के गोल्डन रूल्स

भारत में गोल्ड को लग्जरी से ज्यादा इन्वैस्टमैंट के रूप में देखा जाता है. फिर सोने की लगातार बढ़ती कीमत ने इस बात को साबित भी कर दिया है कि गोल्ड निवेश का एक अच्छा जरीया है.

फाइनैंस सलाहकार अभिनव गुलेचा कहते हैं, ‘‘गोल्ड में निवेश करने से महिलाओं के दोनों शौक पूरे हो जाते हैं. पहला उन के गोल्ड कलैक्शन में इजाफा हो जाता है और दूसरा उन की इन्वैस्टमैंट की ख्वाहिश भी पूरी हो जाती है.’’

सोने में निवेश के कई विकल्प मौजूद हैं. गहनों के रूप में या फिर सिक्कों के रूप में सोना खरीदने के अलावा भी सोने में और कई तरीकों से पैसे लगाए जा सकते हैं. इन के अलावा सोने में निवेश के लिए म्यूचुअल फंड प्रारूप भी उपलब्ध है. गोल्ड ईटीएफ और गोल्ड फंड भी अच्छे विकल्प हैं. यह निवेशक की अपनी सहूलियत पर निर्भर करता है कि वह इन में से किस विकल्प को चुनता है. आइए, इन विकल्पों पर एक नजर डालते हैं.

गोल्ड ईएमआई स्कीम

गोल्ड में निवेश का यह सब से आसान तरीका है. आजकल हर ज्वैलरी ब्रैंड गोल्ड पर तरहतरह की स्कीमें ला रहा है. जैसे 12 महीनों में 11 किस्तें ग्राहक भरे और 12वीं किस्त ज्वैलरी ब्रैंड खुद भरेगा. यदि आप 1,000 की किस्त हर महीने भरें तो 12वें महीने एक निश्चित तिथि पर आप 12,000 की कोई भी गोल्ड ज्वैलरी ले सकते हैं. लेकिन अभिनव की मानें तो यह ज्यादा फायदे का सौदा नहीं है. वे कहते हैं, ‘‘इस तरह की स्कीम तब फायदेमंद होगी जब आप को अपना ज्वैलरी कलैक्शन बढ़ाना हो, क्योंकि इस स्कीम से आप को जमा की गई किस्तों के मूल्य की ज्वैलरी ही मिलेगी. यदि आप इसे पैसों में कन्वर्ट कराना चाहें तो भी नहीं करा सकतें.’’

गोल्ड फ्यूचर्स

गोल्ड फ्यूचर्स के जरीए सोना खरीदने के लिए पूरी राशि की जरूरत नहीं पड़ती. इस प्रक्रिया में मार्जिन मनी से काम चल जाता है. किसी भी वक्त सौदा किया जा सकता है और समाप्त भी. इस में लिक्विडिटी की समस्या नहीं होती. आप चाहें तो कैश में सौदे का निबटान कर दें या फिर इस की फिजिकल डिलिवरी ले सकते हैं.

आप के पास यह सुविधा भी होती है कि आप अगली ऐक्सपायरी में सौदे को रोलओवर कर लें. लेकिन इस के कुछ नुकसान भी हैं. पहली बात तो यह कि फ्यूचर्स में जोखिम अधिक होता है. इस के अलावा सौदे की ऐक्सपायरी से पहले आप को निर्णय लेना ही होता है. गोल्ड फ्यूचर्स में खरीदारी और बिक्री दोनों ही वक्त ब्रोकरेज देना पड़ता है. इसलिए इस प्लान में इन्वैस्ट करने से पहले किसी अच्छे इन्वैस्टमैंट सलाहकार से राय जरूर ले लें.

गोल्ड फंड

गोल्ड फंड म्यूचुअल फंड का ही एक रूप है, जिस में अंतर्राष्ट्रीय फंडों के जरीए सोने की माइनिंग से संबंधित कंपनियों में निवेश किया जाता है. गोल्ड फंड में निवेश के कई फायदे हैं. यह इलैक्ट्रौनिक फौर्म में रखा होता है, जिस से इस की हिफाजत की चिंता नहीं रहती है. इस तरह की योजनाओं में निवेश करने से निवेशकों को फंड मैनेजर के कौशल और सक्रिय फंड प्रबंधन का फायदा मिलता है.

अभिनव बताते हैं, ‘‘गोल्ड फंड का सब से बड़ा फायदा यह है कि इसे बगैर डीमैट अकाउंट के औपरेट किया जा सकता है और इस में एसआईपी (सिप) सुविधा भी है. सिप के जरीए छोटी रकम से भी निवेश किया जा सकता है. इस प्लान में आप महज कुछ सौ रुपए की राशि से भी सोने में निवेश कर सकते हैं. गोल्ड फंड में सिप से मिलने वाले रिटर्न पर कोई संपत्ति कर भी नहीं लगता. लेकिन इस की कुछ सीमाएं हैं. कौस्ट औफ होल्डिंग के हिसाब से गोल्ड फंड ईटीएफ से थोड़ा महंगा पड़ता है.’’

गोल्ड ईटीएफ

गोल्ड ईटीएफ वे म्यूचुअल फंड होते हैं, जो सोने में निवेश करते हैं और शेयर बाजार में लिस्टेड होते हैं यानी इन के जरीए सोने में निवेश करने के लिए यह जरूरी है कि आप के पास डीमैट और ट्रेडिंग खाता हो. हालांकि यह घरेलू महिलाओं के लिए थोड़ा कठिन है, लेकिन कामकाजी महिलाओं के लिए डीमैट अकाउंट और ट्रेडिंग अकाउंट खुलवाना आजकल कोई मुश्किल काम नहीं है. लेकिन अभिनव की मानें तो गोल्ड ईटीएफ में निवेश करना भले ही आसान है, लेकिन इस की भी अपनी सीमाएं हैं.

वे बताते हैं, ‘‘इस के लिए आप को ब्रोकरेज चार्ज और फंड मैनेजमैंट चार्ज देना होता है. गोल्ड ईटीएफ में निवेश करने वाले निवेशकों को फंड मैनेजर के कौशल और सक्रिय फंड प्रबंधन का भी कोई फायदा नहीं मिल पाता.’’

पूरे भारत में लोग दीवाली पर सोने की शौपिंग करते हैं. अगर आप भी इस बार दीवाली पर सोना खरीदने का मूड बना रही हैं, तो कुछ बातों का खयाल जरूर रखें. खासतौर पर गोल्ड की क्वालिटी और प्योरिटी का वरना लेने के देने पड़ सकते हैं. आइए, जानते हैं इन जरूरी बातों को:

कैरेट रेटिंग चैक करें

यह सभी को पता होता है कि गोल्ड की प्योरिटी कैरेट से मापी जाती है. कैरेट के मुताबिक ही गोल्ड की कीमत तय की जाती है. प्योर गोल्ड 24 कैरेट में आता है, लेकिन यह बेहद सौफ्ट होता है, इसलिए ज्वैलरी बनाने के लिए इस में कुछ इंप्योरिटी डाली जाती है, जिस से 24 की जगह 22 कैरेट गोल्ड से ज्वैलरी तैयार होती है.

कई बार ज्वैलरी खरीदते वक्त जौहरी ग्राहक को 24 कैरेट गोल्ड कह कर ज्यादा पैसे ऐंठ लेता है जबकि ज्वैलरी हमेशा 22 कैरेट या 18 कैरेट गोल्ड से ही तैयार की जाती है. गोल्ड में कैरेट के हिसाब से ही ज्वैलरी की कीमत लगाई जाती है. इसलिए ज्वैलरी खरीदते समय इस बात का पूरा खयाल रखें कि आप कितने कैरेट की गोल्ड ज्वैलरी ले रही हैं और फिर उसी हिसाब से पेमैंट करें.

हौलमार्क चार्ज

हौलमार्क के गहने खरीदते वक्त आप को थोड़ी कीमत अधिक देनी होगी. उस में इस परीक्षण की लागत को भी शामिल किया जाता है. कई बार हौलमार्क के गहनों की कीमत भी अलगअलग दुकानों पर अलगअलग हो सकते है. इसलिए कई जगहों पर पता कर के ही सही जगह से हौलमार्क ज्वैलरी खरीदें.

गोल्ड रेट जरूर चैक करें

आप जब गोल्ड खरीदने जाएं तो उस दिन गोल्ड का रेट क्या है, यह जरूर पता कर लें. इस के बाद पेमैंट करते वक्त भी गोल्ड की कीमत जरूर पूछें, क्योंकि गोल्ड की कीमत घटतीबढ़ती रहती है.

मेकिंग चार्ज

मेकिंग चार्ज अलगअलग गहनों के मुताबिक अलगअलग होता है, जिसे ज्वैलर्स सोने के गहने बनाने के मेहनताने के रूप में लेते हैं. ऐसे में ज्वैलरी खरीदते वक्त अलगअलग जगहों के मेकिंग चार्ज की जानकारी जरूर लें ताकि आप के गहनों की कीमत में कम से कम मेकिंग चार्ज हो, क्योंकि जब भी आप गहने बेचेंगी मेकिंग चार्ज की कीमत का नुकसान आप को ही उठाना पड़ेगा. ऐसे में कम मेकिंग चार्ज वाली खरीदारी ही फायदे का सौदा है. हां, ध्यान रखें आप सोने में जितने अधिक नगों और डिजाइनों की मांग करेंगी, उन पर मेकिंग चार्ज भी उतना ही अधिक होगा और फिर सोने की शुद्धता भी उतनी ही कम होगी.

रिटर्न पौलिसी जान लें

ज्वैलर या सेल्समैन से रिटर्न पौलिसी और प्रामाणिकता के सर्टिफिकेट के बारे में जानकारी जरूर ले लें. हो सकता है कल को आप का अपनी ज्वैलरी बेचने का मन बन जाए, तब यह सर्टिफिकेट आप के काम आएगा. दूसरे, इस सर्टिफिकेट से यह भी पता चल जाएगा कि आप ने जो गोल्ड खरीदा है वह असली है. इस बात को याद रखें कि प्योर गोल्ड रिटर्न के दौरान लेबर चार्जेज के अलावा दूसरा कोई चार्ज नहीं काटा जाता.

केकेआर का यह खिलाड़ी बन गया देवदास

कोलकाता नाइट राइडर्स आईपीएल की बेहतरीन टीमों में से एक मानी जाती है. कोलकाता की टीम दो बार आईपीएल ट्रॉफी पर अपना कब्जा जमा चुकी है. और इस सीजन फाइनल में पहुंचने के लिए आज कोलकाता ती टीम बेंगलुरु के चिन्नास्वामी स्टेडियम में मुंबई इंडियंस के खिलाफ दूसरा क्वालीफायर मैच खेलेगी.

इस हार जीत के बीच कोलकाता नाइट राइडर्स ने हाल ही में आईपीएल में अपने दस साल पूरे होने का जश्न मनाया. इस दौरान बॉलीवुड के किंग खान ने गंभीर समेत दूसरे नाइट राइडर्स खिलाड़ियों की तुलना अपने किरदारों से की.

बातचीत के दौरान जब शाहरुख से पूछा गया कि टीम में कौन सा ऐसा खिलाड़ी है जो सबसे ज्यादा शराब पीता है? तो शाहरुख ने क्रिस लिन का नाम लिया. उन्होंने लिन को टीम का ‘देवदास’ बताया.

इसके बाद शाहरुख से पूछा गया कि कौन सा ऐसा खिलाड़ी है जो उनकी फिल्म स्वदेश के ‘मोहन भार्गव’ का किरदार निभा सकता है. जवाब में शाहरुख ने कहा कि, “मोहन भार्गव बहुत शांत, ईमानदार और गंभीर शख्स है जो कभी मुस्कुराता नहीं. गौतम गंभीर को ही ‘मोहन भार्गव’ होना चाहिए.”

शाहरुख ने एक एक करके कोलकाता नाइट राइडर्स के सभी खिलाड़ियों को अपनी फिल्म के किरदार के नाम दिए. शाहरुख ने मनीष पांडे को फिल्म ‘दिल तो पागल है’ का राहुल बताया. उन्होंने कहा, ”दिल तो पागल है का राहुल काफी अच्छा दिखता था. मुझे लगता है कि मनीष पांडे भी काफी अच्छा दिखता है, इसलिए वह राहुल है.”

शाहरुख ने नाइट राइडर्स के ताबड़तोड़ बल्लेबाज यूसुफ पठान को ‘रईस’ बताया. उन्होंने कहा, “रईस तो यूसुफ भाई हो सकते हैं, इस बात में कोई दोराय नहीं है.” वहीं नाइट राइडर्स के कोच जैक्स कैलिस को शाहरुख ने ‘डियर जिंदगी’ का ‘जहांगीर खान’ बताया.

शाहरुख ने कहा, “मेरा मानना है कि कैलिस डॉक्टर जहांगीर खान हो सकता है. मैंने उसे बतौर खिलाड़ी देखा है, बतौर कोच भी मैंने उसे देखा है. वह काफी शांत रहता है और बिना ज्यादा कुछ कहे चीजों पर नियंत्रण रखता हैा. उसके इस व्यवहार से ही पूरी टीम एकजुट रहती है.”

इस पार्टी में शाहरुख हमेशा की तरह बेटे अबराम के साथ पहुंचे थे. आम तौर पर गंभीर रहने वाले कप्तान गौतम गंभीर ने भी इस पार्टी में काफी मस्ती की. पार्टी में शाहरुख ने खेलों को लेकर अपने लगाव और केकेआर की टीम के साथ अपने सफर के बारे में भी बात की.

क्रिकेट में नहीं होगी छक्कों की बारिश!

टेस्ट क्रिकेट में अगर कोई बल्लेबाज बिना कोई चौका-छक्का लगाए पूरे दिन बल्लेबाजी करता था तो उसे बेहतरीन खिलाड़ी माना जाता था, लेकिन टी20 क्रिकेट के आने से हालात पूरी तरह से बदल चुके हैं. अगर बल्लेबाज क्रीज पर आने के 5 मिनट के अंदर कोई बड़ा शॉट नहीं लगाता तो दर्शक अपनी कुर्सी छोड़कर जाने के लिए तैयार हो जाते हैं. मतबल ये है कि आजकल क्रिकेट का मतलब सिर्फ चौके-छक्कों से ही है.

इसका काफी श्रेय बल्लों की बनावट में आए बदलाव को भी जाता है. पिछले कुछ सालों में बल्लों को बनाने के तरीकों में कई तरह के बदलाव किए गए हैं जिससे गेंदबाजों पर बल्लेबाज हावी नजर आने लगे हैं.

वहीं क्रिकेट के कई दिग्गज गेंदबाजों के साथ हो रही इस नाइंसाफी की आलोचना कर चुके हैं. सभी का मानना है कि खेल में गेंदबाजों और बल्लेबाजों के लिए बराबरी का मौका होना चाहिए. इस दिशा में जल्द ही एक कदम उठाया जा रहा है.

ब्रिटेन के रहने वाले एक भारतीय सर्जन ने बल्लों की बनावट को बदल कर खेल में संतुलन लाने का काम शूरू किया है. उन्होंने क्रिकेट के बल्ले की डिजाइन पर शोध किया जिसका लक्ष्य गेंद और बल्ले के बीच संतुलन बनाना था और अब इस साल एक अक्तूबर से यह इस्तेमाल में लिया जायेगा.

इंपीरियल कॉलेज लंदन के डिपार्टमेंट ऑफ सर्जरी एंड कैंसर में सीनियर लेक्चर्र डॉ. चिन्मय गुप्ते ने लंदन के इम्पीरिल कालेज की टीम की अगुवाई की जो क्रिकेट के बल्लों पर शोध कर रही थी. एमसीसी यानि मेरिलबोन क्रिकेट क्लब इस शोध के नतीजे को लागू करने जा रहा है.

गुप्ते ने कहा, ‘‘ पिछले 30 साल में क्रिकेट में छक्कों की संख्या बढ गई है. बल्लों के डिजाइन ही इस तरह के हैं कि गेंद की बजाय बल्ले का दबदबा है. यह नया डिजाइन संतुलन लायेगा.’’

नये नियम के तहत बल्ले के किनारे की मोटाई 40 मिलीमीटर से कम होगी और उसकी कुल गहराई 67 मिमी से ज्यादा नहीं हो सकती.

पुणे में जन्में गुप्ते महाराष्ट्र के क्रिकेटर मधुकर शंकर के बेटे हैं और पेशेवर क्रिकेटर हैं जो मिडिलसेक्स और ग्लूसेस्टर के लिये खेल चुके हैं.

हाफ गर्ल फ्रेंड : कमजोर पटकथा व निर्देशन

भाजपा समर्थक मशहूर उपन्यासकार चेतन भगत के कई उपन्यासों पर कई सफल फिल्में बन चुकी हैं, पर इसके यह मायने नहीं होते कि उनके हर उपन्यास पर एक अच्छी फिल्म का निर्माण किया जा सकता है. इस बार चेतन भगत के उपन्यास ‘हाफ गर्ल फ्रेंड’ पर बनी इसी नाम की यह फिल्म इस बात को साबित करती है कि हर कहानी को आप दृश्य श्रव्य माध्यम में नहीं बदल सकते. मजेदार बात यह है कि अपने हर उपन्यास पर बनी सफल फिल्मों से निर्माताओं को कमाई करते देख इस बार इस फिल्म का सह निर्माण कर चेतन भगत अपना हाथ जला बैठे हैं. अब उनकी समझ में आ जाएगा कि हर चमकने वाली पीले रंग की वस्तु सोना नहीं होती.

फिल्म ‘‘हाफ गर्लफ्रेंड’’ यह साबित करती है कि हर किताब पर एक अच्छी फिल्म नहीं बनायी जा सकती. माना कि चेतन भगत के उपन्यास पर ही ‘काई पे चे’, ‘टू स्टेट्स’ व ‘थ्री ईडियट्स’ जैसी सफल फिल्में बनी हैं. पर निर्माण के क्षेत्र में उतरते हुए चेतन भगत यह कैसे भूल गए कि अतीत में भी उनके एक उपन्यास पर बनी फिल्म ‘हेलो’ का क्या हश्र हुआ था.

फिल्म ‘‘हाफ गर्लफ्रेंड’’ की शुरुआत होती है माधव झा (अर्जुन कपूर) से अनबन के बाद रिया सोमानी (श्रद्धा कपूर) का टूटे दिल के साथ पटना छोड़ने से. उसके बाद माधव अतीत में खो जाता है, जब वह पहली बार दिल्ली के सेंट स्टीफन कालेज में रिया सोमानी से मिला था.

बिहार के बक्सर जिले के डुमराव गांव के रहने वाले माधव झा अंग्रेजी की पढ़ाई कर अपने गांव को सुधारने के लिए पहले पटना और फिर दिल्ली के सेंट स्टीफन कालेज पढ़ने पहुंचते हैं. उन्हे बास्केटबाल खिलाड़ी होने के चलते ही कालेज में प्रवेश मिला था. दिल्ली में रिया से मुलाकात होने पर दोनों की दोस्ती खिलाड़ी होने के कारण हो जाती है. रिया भी फुटबाल खिलाड़ी है. वैसे रिया अति अमीर परिवार से है और बड़ी गाड़ी में कालेज आती है. रिया को पहली बारिश में भीगते देख माधव उसे अपना दिल दे बैठता है. यानी कि एक अमीर लड़की और गरीब लड़के के रोमांस की शुरुआत. पता चलता है कि रिया सोमानी अपने घर पर हर दिन अपने पिता द्वारा अपनी मां को पिटते हुए देखती रहती है. इसलिए उसे भोला भाला माधव अच्छा लगता है. पर वह साफ कर देती है कि वह उसकी प्रेमिका नहीं हाफ गर्ल फ्रेंड है. और गिटार बजाती है. उसका सपना न्यूयार्क के क्लब में जैज सिंगर के रूप में काम करना है. उधर माधव अंग्रेजी नही आती की हीनग्रंथि से उबरने का प्रयास कर रहा है. माधव का दोस्त शैलेष (विक्रांत मैसे) उसकी मदद करता रहता है.

रिया व माधव का रिश्ता आगे बढ़ता है, मगर माधव की बेवकूफी के चलते दोनों के रिश्तों में दरार आ जाती है. रिया कहीं दूर चली जाती है. माधव वापस अपने गांव आकर गांव के अपने पारिवारिक स्कूल को विस्तार देने के अलावा लड़कियों को शिक्षा के प्रति प्रेरित करने का काम शुरू करता है. कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. एक बार फिर माधव और रिया की मुलाकात न्यूयार्क में होती है.

फिल्म ‘हाफ गर्लफ्रेंड’ की कमजोर कड़ी इसकी कहानी व पटकथा है. कहानी को जब आप किसी मकसद के अंदर पिरोने की कोशिश करते हैं, तो सब कुछ बिखर जाता है. कहानीकार व पटकथा लेखक ने इस फिल्म में अंग्रेजी व हिंदी भाषा के बीच के भेदभाव, महिला सशक्तिकरण, महिलाओं के साथ हिंसा, सेक्सुल अब्यूज, लड़कियों की शिक्षा सहित कई मुद्दों को फिल्म में पिरोन का प्रयास करते करते पूरी कहानी व फिल्म को तहस नहस कर दिया.

यह फिल्म न मुद्दों पर आधारित फिल्म रही और न ही प्रेम कहानी वाली फिल्म रही. फिल्म में रोमांस है ही नहीं. फिल्म के सभी किरदार बिखरे हुए नजर आते हैं. आखिर यह किरदार कहना क्या चाहते हैं, इसे फिल्मकार ठीक से बता ही नहीं पाता. इंटरवल से पहले की फिल्म और इंटरवल के बाद की फिल्म के बीच सामंजस्य ही नहीं बैठ पाता है. फिल्म का क्लायमेक्स बहुत घटिया है. इस फिल्म की मजेदार बात है कि दर्शक को लगता है कि फिल्म खत्म हो गई, पर पता चलता है कि अभी तक खत्म ही नहीं हुई. यह स्थिति भी पटकथा लेखक व निर्देशक की कमजोरी की ओर इशारा करती है. दर्शक सोचने पर मजबूर हो जाता है कि क्या कई सफल फिल्म दे चुके निर्देशक मोहित सूरी ही इस फिल्म के निर्देशक हैं?

फिल्म में इमोशंस का घोर अभाव है, जिसके चलते दर्शक किरदारों के साथ जुड़ ही नहीं पाता. निर्देशकीय कमजोरी के चलते जब तक दर्शक रिया व माधव की प्रेम कहानी के साथ खुद को जोड़ पाता, तभी दोनों के बीच समस्याएं आती हैं और दोनों अलग हो जाते हैं.

जहां तक अभिनय का सवाल है तो इस फिल्म में अर्जुन कपूर और श्रद्धा कपूर की केमिस्ट्री नहीं जमी. दोनों का अभिनय भी औसत दर्जे का ही रहा है. विक्रांत मैसे भी ठीक ठाक रहे. फिल्म का गीत संगीत भी प्रभावित नहीं करता. फिल्म के संवाद बचकाने हैं.

दो घंटे 15 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘हाफ गर्लफ्रेंड’’ का निर्माण शोभा कपूर, एकता कपूर, मोहित सूरी व चेतन भगत तथा निर्देशन मोहित सूरी ने किया है. फिल्म की संवाद लेखक इशिता मोएत्रा, पटकथा लेखक तुषार हिरानंदानी, संगीतकार मिठुन, तनिष्क बागची, अमि मिश्रा, राहुल मिश्रा, कैमरामैन विष्णु राव व कलाकार हैं – अर्जुन कपूर, श्रद्धा कपूर, विकारंत मैसे, सीमा विश्वास व अन्य.

रेल गांव : गाड़ी बुला रही है..

‘रेलगाड़ी छुक छुक छुक छुक छुक छुक….बीच वाली स्टेशन वोले रूक रूक रूक रूक रूक रूक…’ कई सालों पहले फल्म आशीर्वाद में अशोक कुमार ने यह गाना गाया था. बिहार में एक ऐसा गांव है, जिसके लोगों के जीवन की धड़कन रेलगाड़ी की छुक-छुक से जुड़ी हुई है. रेल और उस गांव के लोगों का लगाव और जुड़ाव ऐसा है कि दोनों एक दूसरे के बगैर अधूरा महसूस करते हैं. साल 1910 से गांव के हर घर का कोई न कोई लोग रेलवे में नौकरी करता आ रहा है. गांव का नाम है तेज पांडेपुर, लेकिन वह ‘रेल गांव’ के नाम से ज्यादा मशहूर है. बिहार के बक्सर जिला के रघुनाथपुर रेलवे स्टेशन से करीब 2 किलोमीटर की दूरी पर बसा है यह अनोखा गांव. इस गांव के लोग न खेती करते हैं, न गाय-भैंस पालते हैं, न ही किसी दूसरे महकमों में नौकरी करते हैं. 4 पीढ़ियों से समूचे गांव के लोगों के दिलों- दिमाग में रेल और सिर्फ रेल ही बसा है. हर नई पीढ़ी का बस एक ही ललक और सपना होता है- रेलवे में नौकरी.

साल 1910 में गांव के रामरेखा पांडे ने रेलवे में चीपफ कंट्रोलर की नौकरी शुरू की तो उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि पीढ़ी दर पीढ़ी पूरा गांव उनके दिखाए राह पर चल पड़ेगा और गांव की पहचान ‘रेल गांव’ के रूप में हो जाएगी. उन्होंने अपने गांव के कई लोगों को रेलवे में नौकरी लगवाई, उसके बाद तो मानो हरेक का जूनून ही बन गया रेलवे की नौकरी पाना. 300 एकड़ जमीन पर बसे इस गांव की आबादी एक हजार के करीब है. इस गांव में ज्यादातर घरों में ताला लटका हुआ रहता है क्योंकि रेलवे में नौकरी मिलने के बाद लोग गांव बाहर ही रहते हैं. रेलवे के सभी 13 जोनों में तेज पांडेपुर का कोई न कोई आदमी पोस्टेड है.

गांव के रहने वाले उमाशंकर दूबे बताते हैं कि पिछले 100 सालों से गांव के लोगों में रेलवे में नौकरी करने की दीवानगी सवार है. सरकार चाहे किसी की हो या रेल मंत्री चाहे कोई भी हो इस गांव के लोगों को रेलवे में नौकरी मिलने में कोई दिक्कतें नहीं आई. रेलवे की बहाली के लिए होने वाले हर ग्रेड के इम्तिहानों में लोग बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं और बाकायदा इसके लिए जी तोड़ तैयारी भी करते हैं. रेलवे की नौकरी की तैयारियों में लगा दिलीप बताता हैं कि गांव के युवा बैंक, यूपीएससी, बीपीएससी आदि के इम्तिहानों में शामिल ही नहीं होते हैं. वह भी रेलवे में नौकरी पाने की तैयारियों में लए हुए हैं और इसके लिए कोचिंग ले रहे हैं.

साल 1930 में आरपी दूबे रेलवे में केबिन मैन के पद पर बहाल हुए थे आज उनकी तीसरी पीढ़ी भी रेलवे में नौकरी कर रही है. दूबे के भाई अवधेश ने भी रेलवे सुरक्षा बल में नौकरी की. उनके बेटे तारकेश्वर और वेंकटेश आरपीएफ में इंस्पेक्टर बने. उस परिवार की तीसरी पीढ़ी के कृष्ण कुमार भी गार्ड के पद पर बहाल होकर रेलवे की सेवा में लगे हुए हैं. कैलाश पांडे की भी तीसरी पीढ़ी रेलगाड़ियों की छुक छुक को रफ्तार देने में लगी हुई है. गांव के लोगों को पूरा भरोसा है कि आगे भी इस गांव के लोगों को रेलगाड़ी बुलाती रहेंगी और उसकी सीटियां उन्हें लुभाती रहेंगी.

                               

          

दूसरों की भूल से लें सबक

जयपुर, राजस्थान के मालवीय नगर में रहने वाली 20 साला निधि कोचिंग के लिए टोंक फाटक जाती थी और वहां से ही अपने बौयफ्रैंड के साथ नारायण सिंह सर्किल के पास बने सैंट्रल पार्क की झाडि़यों में जिस्मानी संबंध बना कर उस से बाजार में खूब खरीदारी कराती थी. यही हाल कुछ समय पहले तक उस की बड़ी बहन कीर्ति का था. उस के भी कई बौयफ्रैंड थे. एक बार जब वह एक बौयफ्रैंड के साथ एक पार्क में संबंध बना रही थी कि तभी वहां 5-6 कालेज के दादा किस्म के लड़के आ गए.

उन लड़कों को देख कीर्ति का बौयफ्रैंड वहां से भाग गया, मगर उन लड़कों ने कीर्ति को दबोच लिया और 3-4 घंटे तक उस का बलात्कार किया. जब कीर्ति को होश आया, तो वह गिरतेपड़ते अपने घर पहुंची. उस के बाद उस ने अपने सभी बौयफ्रैंडों से दोस्ती खत्म कर ली और अपना ध्यान पढ़ाई पर लगा दिया. वह आज एक बड़ी सरकारी अफसर है. कई साल पहले राजस्थान के धौलपुर जिले के बसेड़ी कसबे में जाटव जाति का एक गरीब परिवार का लड़का चंद्रपाल जब पटवारी की नौकरी पर लगा था, तब उस के मांबाप ने उसे समझाया था कि वह अपनी नौकरी ईमानदारी से करे. अपने मांबाप की इन बातों को सुन कर चंद्रपाल ने अपना काम ईमानदारी से करना शुरू कर दिया था. पटवारी की नौकरी करते हुए वह कुछ सालों बाद भूअभिलेख निरीक्षक बन गया और उस के बाद नायब तहसीलदार और अब तहसीलदार बन कर ईमानदारी से अपना काम कर रहा है.

30 साला मनोज एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क है. कमाऊ महकमे में होने के चलते वह हजार दो हजार रुपए रोजाना ऊपर की कमाई कर लेता है. वह जयपुर के प्रताप नगर हाउसिंग बोर्ड में अपनी 23 साला बीवी सुप्रिया के साथ रहता है. जब मनोज की बीवी 3 बच्चों की मां बन गई, तो उस का झुकाव अपनी 20 साला कालेज में पढ़ने वाली साली नेहा की ओर हो गया. वह उसे अपने पास ही रखने लगा. उस ने अपनी साली को पैसे और महंगेमहंगे तोहफे दे कर पटा लिया था. बीवी के सो जाने पर वह अपनी साली के कमरे में चला जाता था.

एक रात को अचानक नींद खुल जाने से जब मनोज की बीवी सुप्रिया ने उसे अपने बैड पर नहीं देखा, तो वह अपनी छोटी बहन नेहा के कमरे में चली गई. वहां पर उन दोनों को साथ देख वह गुस्से में आगबबूला हो उठी. कुछ दिनों तक तो वे दोनों एकदूसरे से दूर रहे, मगर फिर होटल में मिलने लगे. एक दिन जब वे होटल में पुलिस द्वारा पकड़े गए, तो उन के मांबाप को बहुत दुख हुआ. वे दोनों जीजासाली सोच रहे थे कि अगर सुप्रिया उन के बीच रोड़ा नहीं बनती, तो उन्हें होटल में जाने की जरूरत ही नहीं पड़ती. लिहाजा, उन्होंने सुप्रिया की गला घोंट कर हत्या कर दी.

हत्या के बाद वे दोनों वहां से फरार हो गए. दूसरे दिन जब पड़ोस के लोगों को मालूम हुआ, तो उन्होंने पुलिस को बुला लिया. कई दिनों के बाद सुप्रिया की हत्या के जुर्म में मनोज और नेहा को गिरफ्तार कर लिया गया.

दूसरों की ऐसी भूल से सबक ले कर जो लोग इन्हें अपनी जिंदगी में शामिल नहीं करते हैं, वे सुख भरी जिंदगी बिताते हैं.                       

गिवअप के लिए खुद को राजी नहीं कर पाई : जूही चावला

1984 की मिस इंडिया जूही चावला 16 साल की बेटी जाह्नवी और 14 साल के बेटे अर्जुन की मां होने के बावजूद आज भी बेहद खूबसूरत और जवां नजर आती हैं और इस की सब से बड़ी वजह है उन की मुसकान. यह तब भी थी और अब भी है. अपनी इसी मुसकान की वजह से जूही फिल्म इंडस्ट्री की चुलबुली अभिनेत्री का खिताब भी पा चुकी हैं.

मौडल से ऐक्ट्रैस और ऐक्ट्रैस से प्रोड्यूसर बनीं जूही उम्र के इस पड़ाव में भी अपने स्टारडम को संभालने के साथसाथ पर्सनल लाइफ में भी अपनी भूमिकाएं कैसे निभा रही हैं, चलिए जानते हैं उन्हीं से:

अपनी पर्सनल और प्रोफैशनल लाइफ को एकसाथ कैसे मैनेज करती हैं?

इस के लिए मैं तहेदिल से अपने परिवार की आभारी हूं. अगर परिवार का साथ न होता, तो मेरे लिए प्रोफैशनल लाइफ में आगे बढ़ना मुश्किल हो जाता. मुझे याद है जब बच्चे छोटे थे, तब उन्हें मेरे इनलाज संभालते थे और मैं शूट पर जाती थी, तो कई बार मेरे बीमार पड़ने पर भी परिवार वाले ही मेरी देखभाल करते थे. मैं हमेशा से परिवार पर आश्रित रही हूं. घर वालों के सहयोग के बिना ये सब मुमकिन नहीं था. मेरा मानना है कि आप अपने जीवन में अपने प्रिय और करीबी लोगों की सहायता से ही आगे बढ़ पाते हैं. मैं ने अकेले सब कुछ मैनेज नहीं किया है, परिवार के सहयोग से किया है, जिस के लिए मैं उन का आभार भी प्रकट करती आई हूं. मुझे हमेशा मेरे परिवार का सहयोग मिला है.

किन पेरैंटिंग रूल्स को ध्यान में रख कर आप ने अपने बच्चों की परवरिश की?

अच्छी परवरिश के लिए कई पेरैंटिंग रूल्स जरूरी हैं, लेकिन जब मुझे किसी खास रूल की जरूरत होती है तब वह मेरे दिमाग से निकल जाता है. ऐसे में मैं बस एक बात का ध्यान रखती हूं कि मुझे कभी बच्चों पर अपने विचार नहीं थोपने हैं, उन पर कभी हावी नहीं होना है, खासकर तब जब बात कैरियर की हो. मैं अपने बच्चों से कभी नहीं कहती कि तुम्हें अभिनेत्री या अभिनेता ही बनना है. वे जो चाहें बन सकते हैं.

अपनी मां की कौन सी खूबी खुद में चाहती हैं?

मेरी मां वर्किंग वूमन थीं. उन की ड्रैसिंग सैंस कमाल की थी. वे बहुत ही खूबसूरत थीं. घर और बाहर दोनों को सहजता से मैनेज कर लेती थीं. उन्हें देख कर मैं हमेशा सोचती थी कि बड़ी हो कर मैं भी उन की तरह बनूंगी. मुझे अफसोस है कि आज वे हमारे बीच नहीं हैं.

चूंकि आप के बच्चे स्टार किड हैं. ऐसे में आप उन्हें किस बात का एहसास दिलाती रहती हैं?

मैं जानती हूं मेरे बच्चों का दिल सच्चा है. वे कभी ऐसा काम नहीं करते जिस से मुझे तकलीफ हो. हां, लेकिन जहां जरूरत होती है मैं उन्हें गाइड करती रहती हूं जैसे मैं उन्हें हमेशा छोटीबड़ी हर चीज की कद्र करने को कहती हूं.

अपने परिवार के साथ क्वालिटी टाइम किस तरह बिताती हैं?

मेरे लिए जब भी संभव होता है अपने परिवार और बच्चों के साथ समय बिताने की कोशिश करती हूं. जब मैं घर पर होती हूं बच्चे भी आसपास होते हैं, तो काफी अच्छी लगता है. मुझे उम्मीद है बच्चों को भी मेरी मौजूदगी खुशी का एहसास दिलाती है. मैं ने अपने घर में एक रूल बना रखा है कि जब भी हम सब एकसाथ डाइनिंग टेबल पर लंच या डिनर के लिए इकट्ठा  होंगे हमारे आसपास न तो मोबाइल फोन होगा और न ही कोई किताब. जब कभी मेरा या जय (पति) का फोन डाइनिंग टेबल के पास होता है, तो बच्चे हमें तुरंत टोकते हैं. यह देख कर अच्छा लगता है.

मां बनने के बाद प्रोफैशन को अलविदा कहने वाली महिलाओं से क्या कहेंगी?

मैं उन की हिम्मत की दाद दूंगी कि उन्होंने यह फैसला लिया, क्योंकि मैं चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाई. मैं ने हमेशा अपने काम को जारी रखना चाहा. मैं गिवअप के लिए खुद को राजी नहीं कर पाई.                        

‘मेवा’ खा कर फरार मेवालाल

बिहार कृषि विश्वविद्यालय में हुए बहाली घोटाले में कुलपति रह चुके और जनता दल (यू) से बाहर निकाले गए विधायक मेवालाल चौधरी पर एफआईआर दर्ज होने के बाद रोज नएनए खुलासे हो रहे हैं. पटना हाईकोर्ट के जस्टिस रह चुके एसएम आलम की एकल जांच कमेटी के सामने मेवालाल चौधरी को दोषी पाया गया.

जांच रिपोर्ट के मुताबिक, मेवालाल चौधरी ने माना कि पावर प्रैजेंटेशन के अलावा रीमार्क्स, इंटरव्यू और एग्रीमैंट कालम उस ने खुद भरे थे. इस से यह बात साफ हो गई कि ऐक्सपर्टों ने उम्मीदवारों को जो नंबर दिए थे, उन के लिफाफों को खोला भी नहीं गया. असिस्टैंट प्रोफैसरों की बहाली में चहेतों को दिल खोल कर नंबर दिए गए. नियमों को ताक पर रख कर बाहर से ऐक्सपर्टों को बुलाया गया.

नैट में फेल

40 उम्मीदवारों को चुना गया. बहाल हुए प्रोफैसरों में से ज्यादातर का संबंध पश्चिम बंगाल के कृषि विश्वविद्यालय से रहा है. रिपोर्ट में पक्षपात, जोड़तोड़ और घपले करने का जिक्र किया गया है.

कई नाकाबिल उम्मीदवारों से टैस्ट लिए बगैर ही अच्छे नंबर दे दिए गए, वहीं काबिल उम्मीदवारों को 10 में से 0.1 नंबर दिए गए.

22 फरवरी, 2017 को सबौर थाने में मेवालाल चौधरी के खिलाफ दर्ज एफआईआर में कहा गया है कि साल 2011 में सबौर के बिहार कृषि विश्वविद्यालय में तकरीबन 161 प्रोफैसरों व जूनियर साइंटिस्टों की बहाली में जम कर हेराफेरी की गई.

कृषि विश्वविद्यालय के कुलसचिव अशोक कुमार की अर्जी पर मेवालाल चौधरी को आरोपी बनाया गया. नौकरी देने के लिए 15 से 20 लाख रुपए तक की बोली लगाई गई थी.

जनता दल (यूनाइटेड) के राष्ट्रीय अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मेवालाल चौधरी को पार्टी से निकाल दिया है. बिहार कृषि विश्वविद्यालय से रिटायर होने के बाद साल 2015 में मेवालाल चौधरी ने जद (यू) के टिकट पर मुंगेर जिले की तारापुर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा और जीत गया था. मेवालाल चौधरी का कहना है कि उसे राजनीतिक साजिश के तहत फंसाया गया है. जिस ऐक्सपर्ट कमेटी ने बहाली की थी, वह उस कमेटी का अध्यक्ष तो था, लेकिन बहाली में उस का कोई लेनादेना नहीं था, इसलिए उसे कोई जानकारी नहीं है.

भागलपुर के एसएसपी मनोज कुमार ने बताया कि मेवालाल चौधरी का पासपोर्ट जब्त करने की कार्यवाही शुरू की गई है. कोर्ट के बारबार बुलाने के बाद भी वह हाजिर नहीं हो रहा है. पुलिस ने धारा-164 के तहत 5 गवाहों के बयान दर्ज किए और मेवालाल चौधरी को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस को पुख्ता सुबूत मिल चुके हैं. रिटायर्ड जज और पुलिस की जांच रिपोर्ट, केस डायरी और गवाहों के बयान पूरी तरह से मेवालाल चौधरी के खिलाफ हैं. सभी गवाहों के बयान फर्स्ट क्लास ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज किए जा चुके हैं.

साल 2010 में जब भागलपुर कृषि कालेज को नीतीश कुमार की सरकार ने विश्वविद्यालय का दर्जा दिया था, तो मेवालाल चौधरी को ही उस का पहला कुलपति बनाया गया था.

मेवालाल चौधरी नीतीश कुमार का इतना भरोसेमंद था कि जब वह रिटायर हुआ, तो उसे विधानसभा चुनाव में तारापुर सीट से चुनाव लड़ने के लिए जद (यू) का टिकट दे दिया. उस से पहले जब वह कुलपति था, तो साल 2010 के चुनाव में उस की बीवी नीता चौधरी तारापुर से विधायक बनी थी 

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