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टाटा ने लौन्च की अपनी नई कार, फीचर्स हैं दमदार

टाटा मोटर्स की नैक्सन का बेसब्री से इंतजार कर रहे लोगों के लिए खुशखबरी है. टाटा ने इसका औटोमैटिक वैरिएंट लौन्च कर दिया है. इसे कंपनी ने हाईपर ड्राइव का नाम दिया है. टाटा ने दिल्ली में पेट्रोल वैरिएंट की एक्स शोरूम कीमत 9.41 लाख रुपए रखी है. वहीं, डीजल वैरिएंट की एक्सशोरूम कीमत 10.3 लाख रुपए तय की गई है. टाटा की सबसे पौपुलर सबकौम्पैक्ट एसयूवी नैक्सन को अब औटोमैटिक गियरबौक्स के साथ लौन्च किया है. टाटा नैक्सन AMT का मुकाबला फोर्ड, मारुति और महिंद्रा की गाड़ियों सो होगा.

औटो एक्सपो में की गई थी पेश

टाटा ने अपनी नैक्सन को औटो एक्सपो 2018 में पेश किया था. अब कंपनी ने इसका औटोमैटिक वर्जन लौन्च कर दिया है. टाटा की पहली सबकौम्पैक्ट एसयूवी को 2017 में उतारा गया था, जिसे काफी पसंद किया गया. लौन्च के बाद से ही नैक्सन की करीब 25000 यूनिट बिकी थीं.

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टौप मौडल में आया AMT वर्जन

टाटा मोटर्स ने औटो एक्सपो में नैक्सन का टौप मौडल नैक्सन XZ को शोकेस किया था. माना जा रहा है कि कंपनी ने सिर्फ इसी मौडल के साथ औटोमैटिक गियरबौक्स दिया है. टाटा नैक्सन AMT में 6-स्पीड ट्रांसमिशन के साथ क्रीप मोड भी दिया गया है. इससे ट्रैफिक में कार चलाने में मदद मिलती है.

हिल असिस्ट सिस्टम से लैस

टाटा नैक्सन का औटोमैटिक वर्जन हिल असिस्ट सिस्टम से लैस है. यह सिस्टम पहाड़ों पर ड्राइविंग के दौरान बेहतर कंट्रोल देने में मदद करेगा. टाटा नैक्सन के नए वैरिएंट में अगर कोई गियर कंट्रोल चाहता है तो कार में औटो मोड से मैनुअल में बदलने का विकल्प भी दिया गया है.

दोनों इंजन में मिलेगा नया वैरिएंट

टाटा नैक्सन में 1.2 लीटर टर्बोचार्ज्ड पेट्रोल और 1.5 लीटर नैचुरली एस्पिरेटेड डीजल इंजन दिया गया है. टाटा नैक्सन AMT में नई पेंट स्कीम और औटोमैटिक गियरबौक्स के अलावा कोई बदलाव नहीं किया गया है. बाजार में उपलब्ध मौडल की तर्ज पर इको, सिटी और स्पोर्ट मोड दिए गए हैं.

इनसे होगा मुकाबला

टाटा नैक्सन AMT का मुकाबला फोर्ड की इकोस्पोर्ट पेट्रोल, महिंद्रा की TUV300 AMT से होगा. साथ ही मारुति भी जल्द ही विटारा ब्रेजा का AMT वैरिटएं लौन्च करने वाली है. ऐसे में औटोमोबाइल मार्केट में कड़ा मुकाबला देखने को मिल सकता है.

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लैपटौप खरीदने की सोच रहे हैं? ये हैं आपके लिए 5 शानदार विकल्प

बाजार में रोज नई तकनीक के साथ नए-नए प्रोडक्ट आ रहे हैं. ऐसे में अगर आप नया लैपटौप खरीदने की सोच रहे हैं, तो उसके स्क्रीन साइज, डिजाइन, रैम, हार्ड डिस्क की क्षमता को बिल्कुल भी अनदेखा न करें. साथ ङी लेपटौप खरीदने से पहले इस बात का खास ख्याल रखें कि लैपटौप में रैम की क्षमता जितनी अधिक होगी, प्रोसेसर उतनी ही तेजी से आपके डाटा को प्रोसेस करता है. प्रोसेसर के बेहतर होने पर ही आप बेहतरीन तरीके से सारे काम कर पाते हैं. इन दिनों बाजार में इन सभी खूबियों से लैस कई लैपटौप मौजूद हैं, तो आइये जानें इनके बारें में.

आसुस जेनबुक फ्लिप S UX370UA

आसुस जेनबुक फ्लिप S UX370UA कन्वर्टिबल लैपटौप में 8वीं जेनरेशन इंटेल कोर i7 प्रोसेसर और 16 जीबी LPDDR3 रैम है. इसका वजन 1.1 किलोग्राम है और यह 11.2mm पतला है. आसुस का यह प्रीमियम लैपटौप मेटल फिनिशिंग वाला और स्टैंडर्ड एल्युमिनियम एलौय की तुलना में 50 फीसदी ज्यादा मजबूत है. इसमें 300 निट्स ब्राइटनेस और फुल एचडी (1920×1080 पिक्सल) रिजोल्यूशन के साथ 13.3 इंच एंटी ग्लेयर, टचस्क्रीन डिस्प्ले दिया गया है. इस विंडोज 10 लैपटौप में 1.8GHz इंटेल कोर i7-8550 प्रोसेसर, इंटेल UHD ग्राफिक्स GPU और 512 जीबी SSD है. वीडियो कौल के लिए वीजीए कैमरा, फिंगरप्रिंट सेंसर और एक 2-सेल लिथियम-आयन बैटरी दी गई है. इसकी कीमत 82,000 रुपये है.

डेल G3 15 और डेल G3 17

डेल ने गेमिंग यूजर्स को ध्यान में रखकर जी सीरीज के चार लैपटौप लौन्च किए हैं. G3 15 अब तक का सबसे पतला लैपटौप है. इसमें 15 इंच का डिस्प्ले है, जबकि G317 में 17 इंच का डिस्प्ले दिया गया है. इन सभी लैपटौप में Nvidia GeForce GTX 1050 और 1060 Max-Q  ग्राफिक्स कार्ड लगे हुए हैं. इनमें 8वीं जेनरेशन का इंटेल कोर i7 प्रोसेसर लगा है. डेल G5 15 और डेल G7 15 में 15 इंच का डिस्प्ले है. दोनों ही लैपटौप में Nvidia GTX 1060 GPUs का ग्राफिक्स है. डेल G5 में 8वीं जेनरेशन तक का इंटेल कोर i7 प्रोसेसर मौजूद है, जबकि डेल G7 में 8वीं जेनरेशन तक का इंटेल कोर i9 प्रोसेसर उपलब्ध है. G7 15 में 4के डिस्प्ले का विकल्प है.

एसर स्विफ्ट 5

यह काफी पतला और हल्का लैपटौप है, जो विंडोज 10 होम पर चलता है. इसमें 14 इंच फुल-एचडी (1920×1080 पिक्सल) IPS-प्रो डिस्प्ले है. इसमें 8 जीबी DDR4 रैम के साथ 8th जेनरेशन इंटेल कोर i7 प्रोसेसर दिया गया है. इसमें 512 जीबी SSD स्टोरेज है और इसकी बैटरी 4670mAh की है. इसकी बौडी मैग्नीशियम-लिथियम अलौय से बनी हुई है. इसके अन्य फीचर्स में विंडोज हैलो फिंगरप्रिंट सेंसर, एक USB Type-C (3.1) पोर्ट, दो USB 3.0 पोर्ट और एक backlit की-बोर्ड दिया गया है. इसकी कीमत 79,999 रुपये है.

एचपी पवेलियन पावर

पवेलियन पावर नोटबुक Nvidia GeForce GTX 1050 ग्राफिक्स कार्ड और लेटेस्ट 7वीं जेनरेशन क्वाड कोर इंटेल प्रोसेसर से लैस है. इसे एचपी ने खास तौर पर क्रिएटिव प्रोफेशनल लोगों के लिए लौंट किया है.  इसमें 15.6-इंच फुल-एचडी (1920×1080 pixels) IPS डिस्प्ले है. इस डिवाइस में फुल-एचडी आईपीएस डिस्प्ले के साथ ‘B&O प्ले’ और एचपी ‘आडियो बूस्ट’ द्वारा आडियो भी दिया गया है. नोटबुक में 128जीबी पेरीफेरल कम्पोनेंट इंटरकनेक्ट एक्सप्रेस (PCIe), सोलिड-स्टेट स्टोरेज डिवाइस (SSD) और 1 टीबी हार्ड डिस्क ड्राइव स्टोरेज जैसी विशेषताएं हैं. इसकी शुरुआती कीमत 77,999 रुपये है.

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पीएफ डाटा लीक: खतरे में है आपका पैसा और जानकारी

कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (EPFO) की वेबसाइट से पीएफधारकों के डाटा चोरी होने की खबरें हैं. हालांकि, संगठन इस बात से साफ इनकार कर रहा है कि कोई डाटा लीक हुआ है. दो दिन में दो बार ईपीएफओ इस मामले में सफाई दे चुका है. लेकिन, खतरा तो है. क्योंकि, बिना किसी गड़बड़ी के वेबसाइट को बंद नहीं किया जाता. सेवाएं नहीं रोकी जाती. ऐसे में 17 करोड़ मेंबर्स की पर्सनल डिटेल्स खतरे में है. साथ ही इन डिटेल्स का गलत इस्तेमाल भी हो सकता है. खतरे में सिर्फ आधार नहीं है बल्कि डिटेल्स के जरिए पीएफ खाते से पैसा भी निकाला जा सकता है. आपके लिए यह जानना जरूरी है कि ईपीएफओ के डाटा बेस में आपकी जो डिटेल्स हैं उनके चोरी होने या लीक होने पर क्या नुकसान हो सकता है.

हैकिंग का खतरा

बैंकिंग एक्सपर्ट्स के मुताबिक, डाटा लीक का सबसे बड़ा खतरा यह होता है कि आपकी पर्सनल डिटेल्स कई तरह के लोगों से शेयर होती है. ऐसे में आपके बैंक खाते और पीएफ खाते को हैक किया जा सकता है. आपके बैंक अकाउंट से पैसा निकाला जा सकता है. इसे एक तरह की फिशिंग कहते हैं. दरअसल, ईपीएफओ से डाटा लीक होने का मतलब है कि आपका पूरा केवाईसी (know your customer) डिटेल लीक हो जाना.

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खतरे में आधार

ईपीएफओ डाटा बेस में पीएफधारकों ने अपना आधार नंबर दर्ज कराया हुआ है. दरअसल, 2016 के बाद से औनलाइन पीएफ निकासी और पीएफ ट्रांसफर के लिए आपको अपने यूनीवर्सल अकाउंट नंबर से आधार को जोड़ना होता है. अब अगर मान लिया जाए कि पीएफ डाटा लीक हुआ है तो यह भी पक्का है कि आपका आधार भी सुरक्षित नहीं है. क्योंकि, आपके पीएफ डाटा के साथ आपके अकाउंट की डिटेल्स भी होती हैं, जिन्हें हासिल करने किसी भी हैकर के लिए मुमकिन है.

खतरे में बैंक खाता

ईपीएफओ डाटा बेस में आधार के अलावा आपका बैंक खाता भी दर्ज होता है. पीएफ निकासी के समय ईपीएफओ इसी खाते में आपका पैसा जमा करता है. लेकिन, पीएफ डाटा लीक होने से आपका बैंक भी हैक किया जा सकता है. अगर इसी अकाउंट से आप औनलाइन ट्रांजैक्शन भी करते हैं तो यह और बड़ा खतरा है. क्योंकि, बैंक खाते के हैक होने का चांस ज्यादा होता है. नेट बैंकिंग, मोबाइल बैंकिंग जैसी सर्विस का इस्तेमाल करने पर खतरा बढ़ सकता है.

मोबाइल नंबर से भी खतरा

डिजिटल सर्विस होने के बाद से ईपीएफओ सदस्य अपना सारा काम मोबाइल या औनलाइन ही करते हैं. साथ ही खाता खुलवाते वक्त या बाद में हर किसी ने अपना मोबाइल नंबर भी इसमें दर्ज कराया है. अगर ईपीएफओ में दर्ज मोबाइल नंबर और नेट बैंकिंग के लिए इस्तेमाल होने वाले नंबर एक ही है, तो इससे फ्रौड का खतरा बढ़ सकता है. क्योंकि, ज्यादातर लोग ओटीपी की मदद से ट्रांजैक्शन करते हैं. अगर मोबाइल नंबर हैक होता है तो हैकर ओटीपी का भी इस्तेमाल आसानी से कर सकते हैं.

खतरे में PF अकाउंट

ईपीएफओ से डाटा लीक होने पर सबसे बड़ा खतरा यही है कि आपके पीएफ अकाउंट से पैसा निकाला जा सकता है. दरअसल, डाटा लीक होने पर आपका आधार, मोबाइल नंबर, डेट औफ बर्थ, बैंक अकाउंट नंबर और पीएफ अकाउंट नंबर जैसी जरूरी जानकारी दूसरे के हाथ लग जाती है. इसका इस्तेमाल वह धोखाधड़ी के लिये कर सकता है. सारी डिटेल्स होने से पीएफ अकाउंट से पैसा निकाला जा सकता है. हालांकि, ईपीएफओ निकासी के वक्त कई तरह के वेरिफिकेशन करता है. साथ ही सायबर सिक्योरिटी को लेकर भी कई ठोस कदम उठाए गए हैं.

EPFO ने जारी की सफाई

डाटा लीक और वेबसाइट हैक होने की खबरों के बाद EPFO और श्रम मंत्रालय ने बयान जारी किया कि कोई डाटा लीक नहीं हुआ है. पीएफ खाताधारकों का डाटा पूरी तरह सुरक्षित है. कुछ सेवाएं सुरक्षा के लिहाज से बंद की गई हैं. साथ ही आधार संबंधित जानकारियां भी पूरी तरह सुरक्षित हैं. आधार डाटा लीक होने का सवाल ही पैदा नहीं होता.

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व्यावहारिक और सरल हिंदी है आज की जरूरत

हिंदी के सफर को आगे बढ़ाने में हिंदी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्री महादेवी वर्मा की ‘हाट बाजार’ की भाषा ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है. हाट बाजार ने हिंदी को जनजन तक पहुंचाने का प्रयास किया है. वास्तव में हिंदी एक भाषा होने के साथसाथ एक सफर भी है. एक लंबे सफर में हिंदी कई पड़ावों और मोड़ों से गुजरी है. एक नदी की यात्रा है हिंदी, जिस ने अपने प्रवाह में कई धाराओं को जोड़ा है.

हिंदी ने अपने संपर्क में आई हर बोलीभाषा को अपने में समाया है और इस तरह से हिंदी एक समृद्ध और लोकप्रिय भाषा बनती गई. हिंदी ने असहजता को त्याग कर सहजता को स्वीकारा है, यह हिंदी की विशेषता भी है. ‘रंग महल’ सुनने व बोलने में सहज और स्वाभाविक लगता है, इसीलिए ‘रंग महल’ ने ‘रंग अट्टालिका’ शब्द को स्वीकार नहीं किया है.

सहज अभिव्यक्ति भाषा की विशेषता होती है. इसी सहजता की शृंखला में वर्णमाला में अभूतपूर्व परिवर्तन आते गए हैं, जिस से हिंदी लिखनापढ़ना आसान हो गया, इस के बारे में विस्तृत बातें निम्न पंक्तियों में साफ होती हैं :

पूर्व में ‘ख’ का ‘रव’ लिखा जाता था. इस से कई बार समझने व पढ़ने में भ्रम हो जाता था. इस के लिए कराची में आयोजित हिंदी सम्मेलन में यह निश्चय किया गया कि अगर ‘ख’ में ‘र’ के नीचे के हिस्से को ‘व’ के नीचे मिला कर लिखा जाए तो इस से ‘ख’ के संबंध में उत्पन्न भ्रम दूर हो जाएगा और इस तरह से ‘ख’ अस्तित्व में आ गया जो एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण का परिचायक था. अब ‘रवाना’ और ‘खाना’ में स्पष्ट अंतर नजर आने लगा.

इस सम्मेलन में मौजूद बेढव बनारसी ने हास्य चुटकी लेते हुए कहा था : ‘‘वाकई अब तक हम ‘सखा’ को ‘सरवा’ ही समझते रहे थे.’’ यहां ‘सखा’ का मतलब ‘मित्र’ से है और ‘सरवा’ का अर्थ ‘पत्नी का भाई’ यानी ‘साले’ से है.

इसी प्रकार ‘घ’ और ‘म’ भी काफी समय तक भ्रम पैदा करते रहे. पहले सभी जगह ‘घ’ और ‘म’ का ही उपयोग होता था और वाक्यविन्यास के अनुसार उस के अर्थ ‘ध’ और ‘भ’ के लिए निकाला जाता था. जैसे ‘धन’ को भी ‘घन’ ही लिखा जाता था और ‘भान’ को ‘मान’. काफी विचारविमर्श के बाद इस का हल निकाला गया कि ‘घ’ में घुंडी बना कर ‘ध’ बनाया गया और ‘म’ में घुंडी लगा कर ‘भ’ बनाया गया. अब ‘मान’ और ‘भान’ में स्पष्ट अंतर दिखाई देने लगा तथा ‘घन’ और ‘धन’ अलगअलग हो गए.

पूर्व में ‘झ’ लिखने के लिए ‘भ’ में ‘क’ के आखिरी अर्धांश ‘क्त’ को मिला कर लिखा जाता था, इसे लिखने में समय अधिक लगता था और यह कठिन भी था. इसलिए आगे चल कर इसे ‘झ’ लिखा जाने लगा जो सर्वस्वीकार्य और सरल हो गया.

एक वर्ण ‘रा’ को इस तरह लिखा जाता था जो अवैज्ञानिक तथा भ्रम पैदा करने वाला था. आगे चल कर इसे ‘ण’ के रूप में लिखा जाने लगा, जिस से हिंदी वाक्यांश बनाना, पढ़ना और लिखना आसान व स्पष्ट हो गया.

जटिलता में कमी

पुरानी हिंदी में वर्णमाला के स्वरों में दीर्घ ‘ऋ’ और ‘लृ’ का भी अस्तित्व था जिस में से बाद में लृ को हटा दिया गया और हिंदी का भारीपन कम हो गया. शायद आगे जा कर ‘ऋ’ को भी खत्म किया जा सकता है क्योंकि ‘ऋतु’ और ‘रितु’ के उच्चारण में कोई भेद नहीं रह गया है.

इसी तरह पूर्व में ‘क्ष’ को ‘क्शा’, ‘त्र’ को ‘त्र’ और ‘ज्ञ’ को ‘ज्’ की तरह लिखा जाता था, वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हुए इस में आवश्यक सुधार किए गए और ‘क्ष’ और ‘त्र’ को सर्वसहमति से स्वीकारा गया.

वर्तमान समय में हिंदी को सरल, सुलभ व सर्वसाधारण की भाषा बनाने पर जोर दिया जा रहा है, क्योंकि हिंदी विश्वस्तरीय भाषा बन गई है. इसी क्रम में ऐसी वर्तनी को अपनाना न्यायोचित होगा जिस में स्पष्टता अधिक हो और भ्रम नहीं हो.

इस क्रम में ‘ड़’ अथवा ‘ढ़’ में से एक अक्षर का उपयोग किया जा सकता है क्योंकि लगभग दोनों ही अक्षर एकसा संकेत देते हैं. हम ‘्र’ का उपयोग ‘रकार’ के लिए करते हैं, अब इसे आसान बनाने के लिए ‘प्र’ का उपयोग किया जाना ज्यादा सुविधाजनक होगा जैसे ‘प्रकार’ की जगह ‘प्रकार,’ ‘क्रम और भ्रम’ को ‘करम और भरम’ लिखना आसान रहेगा.

हिंदी को आसान बनाने के लिए इस तरह के प्रयोगों को किया जा सकता है, जो आज के कौर्पोरेट समय में काफी लोकप्रिय होगा. आज फेसबुक और ईमेल पर अंगरेजी वर्णमाला का उपयोग देवनागरी उच्चारण करते हुए हिंदी लिखने में किया जा रहा है, जिसे ‘हिंगलिश’ कहा जा रहा है. आज यह बहुत लोकप्रिय हो रही है और अनेकानेक लोग इस का उपयोग कर रहे हैं. इसी क्रम में हिंदी देवनागरी में भी नए प्रयोग स्वागतयोग्य होने चाहिए. इसी तरह ‘ र्’ का उपयोग जैसे ‘गर्म’, ‘शर्म’ में किया जाता है, उस की जगह ‘गरम’, ‘शरम’ भी लिखा जाने लगा है. यह प्रचलन में भी है. इस से भी हिंदी लिखने व समझने में आसानी होगी.

अब शब्द संबंध को लें, जो हिंदी के जानकार हैं वे तो एक बिंदी ‘ ं’ को ‘म्’ और दूसरी बिंदी ‘ ं’ को ‘न्’ समझ लेंगे लेकिन जब हम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी की बात करते हैं तब ऐसा ‘संबंध’ लिखने में कोई दिक्कत नहीं है और यह सर्वमान्य भी होगा. इसी तरह अन्य शब्दों का भी सरलीकरण किया जा सकता है, जिस से अर्थ स्पष्ट हो और उपयोग में आसानी हो.

‘संभवत:’ शब्द को यदि ‘सम्भवतह’ लिखेंगे तब भी अर्थ में अंतर नहीं आएगा, बल्कि यह समझने में आसान होगा. इस तरह के प्रयोगों से लेखन में विस्तार अवश्य होगा और भारत के सभी राज्यों व विदेशों में इसे लिखने व समझने में आसानी भी होगी.

यह जान कर आश्चर्य होगा कि पहले हिंदी वर्णमाला में 63 वर्ण थे. इस में गैरजरूरी ध्वनियों को हटा कर और समान ध्वनि को मिला कर 33 व्यंजन तथा 11 वर्ण चलन में रखे गए हैं. इसी के साथ वर्तमान समय में क वर्ग के आखिरी वर्ण (ङ) को और च वर्ग के आखिरी वर्ण (ञ) को प्रयोग से हटा दिया गया है.

जैसी बोली वैसी लिखावट

हिंदी की विशेषता है कि यह जैसी बोली जाती है, वैसी ही लिखी भी जाती है. इस की वर्तनी में कोई भ्रम पैदा नहीं होता है, जबकि अंगरेजी की वर्तनी और उच्चारण में बहुत अंतर होता है. यह हिंदी की महानता है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक हिंदी अपना स्वरूप बदलती गई है, लेकिन हर हिंदुस्तानी के मुंह में हिंदी जरूर समाई हुई है, अपनी प्रांतीय और स्थानीय भाषा के समावेश से हिंदी में मिठास एवं अपनापन आता गया है. हर 12 किलोमीटर की दूरी पर बदलने वाली भाषाएं भी हिंदी से सराबोर हैं.

आज के उदारीकरण, भूमंडलीकरण तथा बाजारवादी दृष्टिकोण के कारण भाषाएं अपनी सीमाएं लांघ रही हैं और एकदूसरे देश में समाने के लिए लालायित हैं. हाल में चीन ने भारत में अपना बाजार फैलाने के लिए हिंदी की उपयोगिता समझी और वह अपने देश में इस के लिए अपने नागरिकों को प्रेरित कर रहा है, लगभग यही स्थिति यूरोपीय व अफ्रीकी देशों की भी है.

उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में हिंदी और सरल एवं व्यावहारिक बनेगी और इस के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया जाएगा.

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जानिए आखिर कैसा हो नौकर और मालिक का रिश्ता

एक जमाना था जब मालिक और नौकर का रिश्ता वही होता था जो राजा और प्रजा का. तब जीवन बहुत सरल और सादगी वाला था. नौकरों की बेसिक जरूरत खाना, कपड़ा और मकान ही होते थे. वह इन्हीं जरूरतों की पूर्ति के लिए नौकरी करता था.

नौकर अपने मालिक की बहुत इज्जत करता था. वह जमाना ही ऐसा था जब सभी वर्गों के लोग अपने कार्यक्षेत्र से और आमदनी से संतुष्ट रहते थे, कोई किसी से बराबरी नहीं करना चाहता था.

धीरेधीरे समय बदला. नई टैक्नोलौजी के आगमन से भौतिक सुखों की वृद्घि हुई और ये सारे सुख पाने की घरघर में होड़ सी होने लगी. इस के साथ ही इन सुविधाओं की प्राप्ति के लिए नौकरों को मालिक से प्रतिस्पर्धा करने का जैसे अधिकार दे दिया गया है.

यहां तक महसूस किया गया है कि उन को अपने मालिक के ऐशोआराम से ईर्ष्या होने लगी. उन सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए अधिक से अधिक पैसा पाने की लालसा उन की बढ़ती ही चली गई. उन को जो वेतन मिलता है, वह उन चीजों को पाने के लिए पर्याप्त नहीं होता है, इस के लिए वे गलत तरीके से पैसा प्राप्त करने से भी गुरेज नहीं करते हैं.

जब से एकल परिवार का चलन शुरू हुआ है और महिलाओं ने अधिक धन अर्जित करने की लालसा से घर से निकलना आरंभ किया है, मालिक, मालकिन और घरों में कार्य करने वाले नौकरनौकरानियों के बीच पैसे के लालच में अवैध संबंध बनने भी धड़ल्ले से सुनने में आ रहे हैं. इस के कारण उन के बीच गरिमामय रिश्ते तारतार हो रहे हैं और घर की सुखशांति भंग हो रही है.

घर में जवान महिला या पुरुष होेने पर लोग नौकर या नाकरानी रखने में डरने लगे हैं. यहां तक कि छोटे बच्चों की आया रखना भी सुरक्षित नहीं है. मालिक की अनुपस्थिति में अबोध बच्चों से भीख मंगवाने और उन को चुराने की घटनाएं भी खूब हो रही हैं. पैसा इस रिश्ते पर हावी होने लगा है और यह नित्य समाचारों से सिद्ध भी हो रहा है. भौतिक सुखों की आंधी ने मालिक के प्रति नौकर के सम्मानपूर्वक रिश्ते को अस्तित्वहीन ही कर दिया है.

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कुछ घटनाएं

16 अप्रैल, 2018, फरीदाबाद : गाडि़यों की खरीदबिक्री का काम करने वाले व्यवसायी सतविंदर सिंह के औफिस में चोरी व तोड़फोड़ का मामला सामने आया. शिकायत में सतविंदर ने अपने नौकर पर दुकान से मोटा कैश ले कर फरार होने की बात की. इस की तस्दीक सीसी टीवी फुटेज में हो गई. जिस में नौकर को गुल्लक तोड़ कर कैश निकालते व तोड़फोड़ करते देखा गया.

14 अगस्त, 2017, हरिद्वार :  ज्वालापुर कोतवाली क्षेत्र के कटहरा बाजार में ज्वालापुर निवासी अशोक कुमार की हार्डवेयर की दुकान है. दुकान के मालिक ने अहबाबनगर कालोनी में गोदाम बनाया है. दुकान व गोदाम में कर्मचारी काम करते हैं. बताया जाता है कि दुकान के मालिक ने नौकरों को माल चोरी का आरोप लगा कर निकाल दिया था. इसे ले कर नौकरों ने ज्वालापुर पुलिस से शिकायत की जिस में उन्होंने मालिक पर बकाया पैसे न देने का आरोप लगाया था. पुलिस की सूचना पर दुकान के मालिक अशोक कोतवाली पहुंचे जहां मौजूद नौकरों ने हंगामा किया. नौकरों व दुकान के मालिक ने एकदूसरे पर कई आरोप लगाए. बाद में पुलिस ने दोनों को शांत कराया.

22 जुलाई, 2017, रामनगर :  सैलरी के विवाद में नौकर ने मालिक को चाकू मार दिया. बताया गया है कि महल्ला कसेरा लाइन निवासी विशाल अग्रवाल की भारत गैस की एजेंसी है. उस के यहां ग्राम छोई निवासी नरेंद्र कड़ाकोटी गैस वितरित करने का काम करता था. आरोप है कि उसे नौकरी से निकाल दिया गया है. वेतन को ले कर उस का कुछ विवाद चल रहा था. सुबह वह एजेंसी कार्यालय में पहुंचा. वेतन को ले कर उन दोनों के बीच झगड़ा हो गया. इसी दौरान उस ने मालिक के कंधे और पेट पर चाकू से वार कर दिए. इस के बाद वह खुद ही कोतवाली पहुंच गया. मालिक को गंभीर अवस्था में हौस्पिटल ले जाया गया, लेकिन रास्ते में ही उस ने दम तोड़ दिया.

18 जुलाई, 2017, नोएडा :  राष्ट्रीय राजधानी से सटे नोएडा में एक उच्चवर्गीय सोसाइटी में घरेलू नौकर को ले कर उपजे मनमुटाव ने मालिक और मुसलिम घरेलू नौकरानी के बीच दंगे जैसे हालात पैदा कर दिए थे. ये घरेलू नौकरानियां अधिकतर झारखंड, पश्चिम बंगाल और असम जैसे राज्यों के पिछड़े इलाकों से आती हैं. गृह सहायिका के रूप में काम करने वाली इन महिलाओं के साथ गालीगलौज, मानसिक, शारीरिक एवं यौन शोषण सामान्य सी बात है.

2 नवंबर, 2013, नोएडा :  नौकरी से निकाले जाने पर एक अकाउंटैंट की ओर से मालिक से 3 लाख रुपए की रंगदारी मांगने का मामला सामने आया. मूलरूप से आगरा के फतेहाबाद निवासी माधव पाराशर सैक्टर-37 स्थित एक रैस्तरां में अकाउंटैंट था. रैस्तरां मालिक जयप्रकाश चौहान ने गलत व्यवहार के चलते माधव पाराशर को कुछ महीने पहले नौकरी से निकाल दिया था. आरोपी नौकरी छोड़ते वक्त जयप्रकाश चौहान की एक चैकबुक, सेल्स टैक्स और सर्विस बुक की रसीदें चुरा कर ले गया था. माधव ने 15 जुलाई से 29 अक्तूबर, 2013 तक पीडि़त के मोबाइल पर कौल कर 3 लाख रुपए की रंगदारी मांगी. उस के मना करने पर उस ने जयप्रकाश चौहान को जान से मारने की धमकी दी.

चूंकि आरोपी के पास रैस्तरां की रसीदें थीं, इसलिए उस ने रैस्तरां को बरबाद करने की धमकियां भी दी थीं. 3 लाख रुपए अपने खाते में डलवाने के लिए माधव ने केनरा बैंक का एक अकाउंट नंबर भी पीडि़त मालिक के मोबाइल पर मैसेज किया. धमकियों से डर कर जयप्रकाश चौहान ने एक बार अकाउंट में 10 हजार रुपए डाल दिए. पर कुछ दिनों बाद माधव फिर से रुपए मांगने लगा. परेशान हो कर पीडि़त ने 31 अक्तूबर को थाना सैक्टर-39 में माधव पाराशर के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई. इस संबंध में रैस्तरां मालिक की शिकायत पर थाना सैक्टर-39 पुलिस ने आरोपी को अरैस्ट कर लिया है.

24 जून, 2017, हरदोई :  उत्तर प्रदेश के हरदोई में पुलिस ने एक डीजे व्यवसायी की हत्या का खुलासा करते हुए, हत्या में शामिल पत्नी और नौकर को गिरफ्तार किया. पुलिस ने खुलासे में बताया कि नौकर और महिला के बीच अवैध संबंध थे, जिस कारण महिला ने नौकर के साथ मिल कर मालिक की हत्या कर दी.

सितंबर, 2017, पटना :  पूर्णिया का रहने वाला दिलीप चौधरी दुकान चलाता था और उस की दुकान पर रहने वाला नौकर घनश्याम उस के घर आयाजाया करता था. इसी दौरान उस की पत्नी और नौकर के बीच प्रेम हो गया. दोनों शारीरिक संबंध बनाने लगे. एसपी निशांत तिवारी ने बताया, नौकर और मालिक की पत्नी के बीच चल रहे इस अवैध संबंध के कारण मालिक ने नौकर को रंगेहाथ पकड़ा और उस की हत्या कर दी. गिरफ्तारी के बाद सख्ती से पूछे जाने पर आरोपी ने अपना गुनाह कुबूल कर लिया.

तृप्ति लाहिड़ी की किताब ‘मेड इन इंडिया’ देश में घरेलू नौकरों से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर संवेदनशील तरीके से सोचने को विवश करती है. लाहिड़ी अपनी इस पुस्तक में कहती हैं कि उदारीकरण के वर्तमान दशक में देश में घरेलू नौकरों की संख्या में 120 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है. इस असंगठित क्षेत्र में कार्यक्षेत्र का दोतिहाई हिस्सा महिलाएं भरती हैं और उन में से अधिकतर झारखंड, पश्चिम बंगाल और असम जैसे राज्यों के पिछड़े इलाकों से आती हैं. इन में से अधिकतर अल्पायु में ही काम शुरू कर देती हैं और उन्हें सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन से भी कम वेतन दिया जाता है.

नौकरों के लिए न्याय

इन्हें नौकरी देने वाले लोगों में देश के धनाढ्य वर्ग से ले कर नवधनाढ्य होते हैं, जिन में से अधिकतर अभी भी मालिक और नौकर के बीच के पारंपरिक अंतर में विश्वास करते हैं. डिजिटल मीडिया ‘क्वार्ट्ज’ की एशिया ब्यूरो चीफ लाहिड़ी अपनी पुस्तक में वास्तविक जीवन की कहानियों के जरिए घरेलू नौकरों की दशादिशा को बड़ी ही प्रामाणिकता के साथ पेश करती हैं तथा ब्रोकरों व एजेंटों के कारोबार का विस्तार से ब्योरा पेश करती हैं. लाहिड़ी के अनुसार, भारत में घरेलू नौकरों के लिए न्याय हासिल कर पाना बेहद मुश्किल है.

पुस्तक में लाहिड़ी ने बतौर घरेलू नौकर अपने खुद के अनुभव को भी लिखा है. घरेलू नौकरों का क्षेत्र इतना तेज क्यों विकसित हुआ? पहले औरतें घर में रहती थीं, इसलिए अधिकतर घर के सभी कार्य वे स्वयं ही करती थीं, लेकिन अब ऐसा शहरी आबादी के अमीर होने और शहरों में महिलाओं के अधिक संख्या में काम करने के चलते हुआ. स्कूल जाने वाली लड़कियों की संख्या भी तेजी से बढ़ी. ऐसे में अगर वे उच्चशिक्षा लेना चाहती हैं और शिक्षा हासिल कर नौकरियों में जाती हैं, तो उन्हें घरेलू कामकाज के लिए मदद की जरूरत होती है.

उन का कहना है कि कई संगठनों ने घरेलू नौकरों के इस क्षेत्र को संगठित करने की कोशिशें की हैं, लेकिन इस क्षेत्र के संगठनीकरण की कोशिशें खास सफल नहीं हुईं. इस में 2 सब से बड़ी अड़चनें हैं. लोग अपने आसपास के लोगों द्वारा घरेलू नौकरों को दिए जाने वाले वेतन को ही सही मानते हैं. इसलिए उन्हें घरेलू नौकरों को अधिक वेतन देने के लिए राजी करना बेहद मुश्किल होता है. अगर वे इस के लिए राजी भी होते हैं तो उसी अनुपात में ढेरों काम लेना चाहते हैं.

इस के अलावा गरीबी से परेशान हो कर काम की तलाश में नएनए आए व्यक्तियों द्वारा कम वेतन पर काम करने पर राजी होने के चलते भी सांगठनिक तौर पर अधिक वेतन की मांग करना संभव नहीं हो पा रहा.

मालिक और नौकर के वर्तमान रिश्ते को सुधारने के लिए कानून के साथ लोगों की मानसिकता में बदलाव आना अत्यधिक आवश्यक है. पहले जमाने के विपरीत उन को अब बराबरी का दर्जा देना पड़ेगा. वे अपनी मेहनत के बदले वेतन पाते हैं, हम उन को पैसा दे कर उन पर कोई एहसान नहीं करते. उन को अपने से निम्नस्तर का सोचने का हमें कोई अधिकार नहीं है, तभी वे हमें आदर की दृष्टि से देखेंगे.

कुछ बदलाव जरूरी हैं

  • जितना उन को वेतन महीनेभर में मिलता है, उतना तो हम एक बार किसी रैस्तरां का बिल चुकाने में खर्च कर देते हैं. इसलिए जिस तरह हमारे वेतन की पुनरावृत्ति होती है, उसी प्रकार समय के अनुसार उन के वेतन में भी बढ़ोतरी होनी चाहिए. उन के लिए महीने में नियमित छुट्टी के साथ अन्य सुविधाओं के लिए भी वेतन सहित छुट्टी का प्रावधान अति आवश्यक है.
  • नौकर या नौकरानी रखने से पहले उस की पृष्ठभूमि की जानकारी होनी अति आवश्यक है.
  • घर में किशोर लड़का या लड़की हो तो किसी को भी कार्य करने के लिए रखने के बाद उस की गतिविधियों पर पूरा ध्यान रखना आवश्यक है.
  • अबोध बच्चों को आया के हवाले करना बहुत ही अनुचित है. महिलाओं को तभी नौकरी के लिए बाहर जाना चाहिए जब घर का ही कोई सदस्य उस की घर पर देखभाल करने के लिए हो. किसी बच्चे ने अपनी मां से पूछा कि क्या वह अपना कीमती सामान किसी बाहरी व्यक्ति की देखरेख में छोड़ सकती है. उस के मना करने पर उस बच्चे ने बहुत सही प्रश्न किया कि फिर वह अपने सब से कीमती चीज, अपनी बच्चे को किसी की निगरानी में कैसे छोड़ सकती है?

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निर्वासन का दर्द झेलती औरतों की ये कहानी पढ़ी आपने

कर्मों की कार्यशाला में सदियों पक कर संस्कार तैयार होते हैं, जो धीरेधीरे संस्कृति बन जाते हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो आज भी मिथिला की नारियां सीता के बताए मार्ग पर चलने को शायद प्रतिबद्ध न होतीं.

सीता ने रावण के आचरण का कड़ा विरोध किया था पर राम के अत्याचार का प्रतिवाद न कर सकीं. अगर उस वक्त सीता ने खुद पर राम द्वारा किए गए अत्याचार का विरोध किया होता तो शायद अच्छा होता. बगैर किसी अपराध के निर्वासन के दंड को चुपचाप स्वीकार कर सीता ने जानेअनजाने नारियों को जो संदेश दिया उस का परिपालन आज भी अनेक सीताएं कर रही हैं.

मिथिला समेत कई नगरों में आज भी ऐसी सीताओं की कमी नहीं है जो प्रतिदिन उपेक्षा, अपमान और अवमानना का विष पीती हुई निर्वासन की पीड़ा भोग रही हैं. ये सीताएं भी अपनों के अत्याचार का विरोध नहीं कर पातीं. खास बात यह है कि छोटीछोटी बातों पर छोड़ दी जाने वाली ऐसी निर्दोष स्त्रियों के प्रति परिवार और समाज की कोई सहानुभूति नहीं होती. झूठे आक्षेप, मारपीट और प्रताड़नाओं को चुपचाप सहते हुए हर हाल में ससुराल में बनी रहने वाली स्त्रियों को ही समाज में श्रेष्ठ मान्यता दी जाती है. अपनों की उपेक्षा और निर्वासन की पीड़ा झेल रही कुछ सीताओं की व्यथाकथा से आप भी रूबरू हों.

शक में ठुकराया

3 बहनों और 2 भाइयों में सब से बड़ी नीतू कुमारी 15 सालों से अपने मायके में रह कर छोड़े जाने का कष्ट झेल रही है. 16 साल की उम्र में पास के गांव में महेंद्र सिंह से उस की शादी हुई थी. शादी के बाद उस का पति उसे अपने साथ दिल्ली ले कर गया जहां वह काम करता था. 2 बच्चे भी हुए. घर पर नीतू पूरे दिन अकेली रहती थी. अकेलेपन से ऊब कर वह कभीकभार पड़ोस के मुसलिम परिवार के साथ घूमनेफिरने जाने लगी. महेंद्र को यह पसंद नहीं आया.

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तीसरी बार जब नीतू गर्भवती थी तो उस का पति बहाने से दोनों बच्चों के साथ उसे उस के मायके पहुंचा कर लौट गया. नीतू आज तक वापस लिवा ले जाने की प्रतीक्षा कर रही है. उस के पति को शक था कि यह तीसरा बच्चा उस का नहीं है. बच्चे के जन्म के एक साल बाद वह एक बार आया था और बेटे को देख कर एक ही दिन में चला गया. फिर कभी वापस नहीं आया. नीतू के बारबार फोन कर के वापस ले चलने की मिन्नतों का जवाब था कि इस तीसरे बच्चे की शक्ल पड़ोस के फिरोज से मिलती है.

लदनियां के सरकारी स्कूल के अध्यापक रमाकांत ठाकुर के 2 बच्चों में सोनी छोटी है. उस से बड़ा एक भाई है. देखने में बेहद खूबसूरत सोनी की शादी घर वालों ने उस के मैट्रिक पास करते ही कर दी थी. पति दिल्ली में नौकरी करता था. साधारण कदकाठी और गहरे रंग के आलोक कुमार पर पत्नी की बेदाग खूबसूरती का ऐसा असर हुआ कि वह दिल्ली से नौकरी छोड़ कर घर पर ही आ कर बैठ गया. एक बेटा होने के बाद मातृत्व की गरिमा से सोनी का रूप और निखर गया.

सोनी चाहती थी कि पति कोई कामधंधा करे पर आलोक चौबीसों घंटे घर में मंडराता, पत्नी के हर क्रियाकलाप पर पैनी नजर रखता. पति की बेकारी से तंग आ कर सोनी 1-2 घरों में बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगी जिस से कुछ पैसे आने लगे. पर आलोक उस से सारे पैसे ले कर शराब पी जाता. धीरेधीरे घर में क्लेश होने लगा. एक दिन आलोक ने मारपीट कर सोनी को घर से निकाल दिया. पड़ोस के घर में सोनी ने अपने बच्चे के साथ रात काटी. सुबह घर में घुसने की कोशिश की तो पड़ोसी के साथ अनैतिक संबंध का कलंक लगा कर दोबारा मारापीटा.

लाचार सोनी महल्ले के कुछ लोगों से किराए के पैसे मांग कर मायके वापस आ गई. आज दोचार घरों में ट्यूशन पढ़ा कर वह अपना व अपने बेटे का पेट पाल रही है. ध्यान देने वाली बात यह है कि उस के पिता के हिसाब से इस अलगाव के लिए उस की बेटी ही जिम्मेदार है, उसे वापस नहीं आना चाहिए था.

प्रताड़ना का दंश

एक मामला है भागलपुर की सीमा चौधरी के निर्वासन का. समृद्ध परिवार की रूप, गुण और संस्कारों से परिपूर्ण 4 बहनों में सब से बड़ी सीमा की शादी उच्च पद पर आसीन युवक संदीप सुमन से बहुत धूमधाम से की गई थी. पतिपत्नी की आयु में कई सालों का अंतर था. सुहागरात से ही पत्नी को प्रताडि़त करने का जो सिलसिला चला वह कभी अंत न ले सका. गालीगलौज से ले कर हर प्रकार की घरेलू हिंसा का सामना करती सीमा एक बेटे की मां बन गई.

रोजरोज अपमान सहने के बावजूद सीमा ने अपने मायके में यह सब नहीं बताया था. पर एक बार जब वह मायके आई हुई थी तो आदत से मजबूर संदीप ने वहां पर भी उस की पिटाई कर दी. उस दिन घर के लोग वस्तुस्थिति से परिचित हो सके. उन लोगों ने संदीप को समझाने की कोशिश की तो वह पूरे परिवार को बुराभला कहता पत्नी को वहीं छोड़ कर वापस आ गया.

सीमा की बहुत कम उम्र में शादी कर दी गई थी. सो, उस की पढ़ाई पूरी नहीं हो सकी थी. मायके में रह कर बच्चे को पालने के साथ उस ने अपनी पढ़ाई पूरी की. आज वह सरकारी विभाग में एक उच्च अधिकारी है, पर पति के खौफ से बाहर नहीं निकल पाई है. सालों से कोर्ट में तलाक का केस लटका पड़ा है जो उस के पति की तरफ से किया गया था.

कोर्ट में सुनवाई के दौरान जब भी उस का सामना अपने पति से होता है, सीमा हाइपरटैंशन समेत कई व्याधियों से पीडि़त हो जाती है और कई दिनों तक दवाई लेने के बाद ही उस की हालत संभलती है. संदीप चूंकि सरकारी सेवा में है, इसलिए दूसरी शादी तो नहीं कर सका पर उस के अनैतिक संबंधों की दुर्गंध समाज में पसरी हुई है.

इसी तरह झंझारपुर की सुनीता. जब वह 13 साल की थी तभी उस की शादी कर दी गई थी. ससुराल आने के 2 दिनों बाद ही उस का पति काम पर वापस चला गया. दोचार महीने में वह कभी दोचार दिनों के लिए आता और फिर वापस चला जाता. दरअसल, वह ससुराल से पूरा दहेज न मिलने के कारण असंतुष्ट व गुस्से में था. वह सुनीता पर मायके से दहेज मांगने के लिए दबाव बनाता था. मायके की आर्थिक हालत देख कर सुनीता कुछ नहीं कह पाती थी.

कुछ ही समय में सुनीता 3 बेटियों की मां बन गई. जब बच्चे थोड़े बड़े हुए तो सुनीता ने पति से उन की पढ़ाई का खर्च मांगा जिसे देने से उस ने साफ मना कर दिया. लाचार हो कर सुनीता ने आसपास के कई घरों में घरेलू काम कर के उन्हें पढ़ायालिखाया. धीरेधीरे सुनीता के पति ने घर आना ही छोड़ दिया. उस की खुद की मां का खर्च भी सुनीता ही उठाती रही.

एक अच्छा रिश्ता मिलने पर सुनीता ने बड़ी लड़की की शादी कर्ज ले कर कर दी, लेकिन 3 महीने में ही उस के पति ने उसे छोड़ दिया. आज सुनीता और उस की बेटी सुबह से रात तक कई घरों में काम करती हैं, तब जा कर पूरे घर का पेट भरता है.

भागलपुर की ही मोती की कहानी थोड़ी अलहदा है. दूधिया गौर वर्ण की मोती ने 8वीं क्लास में ही महल्ले के एक लड़के हर्ष के झांसे में आ कर घर से भाग कर मंदिर में शादी कर ली. गनीमत यह रही कि ससुराल वालों ने मोती को सहर्ष स्वीकार कर लिया.

8-9 साल बहुत अच्छे कटे पर उस के बाद हर्ष छोटीछोटी बात पर कलह करने लगा. दूसरे बच्चे के जन्म के बाद उस ने दूसरे शहर में बिजनैस जमा लिया और घर आना कम कर दिया. मोती बूढ़े सासससुर की सेवा करने के साथसाथ बच्चों को भी संभालती रही. इधर हर्ष ने वहां छिप कर दूसरी शादी कर ली. मोती ने चूंकि घर से भाग कर शादी की थी, इसलिए मायके का आसरा भी खत्म हो गया. सासससुर की सहानुभूति और प्यार तो बहू के साथ है पर बेटे पर उन का कोई वश नहीं. 7 साल हो गए, हर्ष ने पत्नी की खबर नहीं ली. सोनी से पूछने पर कि अगर उस का पति वापस आता है तो क्या वह उसे पहले की तरह स्वीकार कर पाएगी, उस का जवाब था, उस का घर है, उस के बच्चे हैं वह जब चाहे आ सकता है.

मजे की बात यह है कि ये स्त्रियां बरसों से निर्वासन का दर्द भोग रही हैं पर पति और परिवार की बदनामी न हो जाए, इसलिए इन्होंने अपने असली नाम और तसवीरें छापने की अनुमति नहीं दी.

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102 नौट आउट : नालायक औलाद को बाहर का रास्ता दिखाएं

गुजराती भाषा के नाटकों की बदौलत बौलीवुड में ‘आंखे’ और ‘‘ओह माई गौड’’ सहित कई बेहतरीन व अति उत्कृष्ट फिल्में आयी हैं, मगर सौम्या जोशी लिखित गुजराती भाषा के नाटक ‘‘102 नौट आउट’’ पर बनी फिल्म ‘‘102 नौट आउट’’ को उत्कृष्ट फिल्म नहीं कहा जा सकता.

मूर्खतापूर्ण हंसाने वाले दृश्यों के साथ रुलाने वाली इस फिल्म के बाक्स आफिस पर कमाल दिखाने की बहुत ज्यादा उम्मीद नजर नहीं आती है. जबकि तीन किरदारों वाली इस फिल्म में अमिताभ बच्चन व ऋषि कपूर जैसे महान कलाकारों के संग जिमित त्रिवेदी हैं.

फिल्म की कहानी मुंबई के एक गुजराती परिवार की है. यह कहानी है 102 वर्षीय दत्तात्रय वखारिया (अमिताभ बच्चन) और उनके 75 वर्षीय बेटे बाबूलाल वखारिया (ऋषि कपूर) की. इनके साथ एक दवा की दुकान पर काम करने वाला युवक धीरु (जिमित त्रिवेदी) भी जुड़ा हुआ है,जो कि हर दिन इन्हे दवा आदि देने आता रहता है. दत्तात्रय ने छह माह के लिए धीरु की विशेष सेवाएं ले रखी हैं.

फिल्म शुरू होती है सूत्रधार से, जो कि फिल्म के किरदारों का परिचय करवाता है. बाबूलाल वखारिया उर्फ बाबू 75 वर्ष के हैं और उन्होंने मान लिया है कि वह बूढे़ हो गए हैं. जिसके चलते बुढ़ापा उन पर झलकने लगा है. अब वह कंधा सीधा करके खडे़ भी नहीं होते हैं. दवाओं पर चल रहे हैं. हर दिन डाक्टर मेहता के पास अपना चेकअप कराने जाते हैं. बहुत कम बोलते हैं. गुपचुप रहते हैं. उनकी जिंदगी में खुशी का कोई नामोनिशान नहीं है. उन्हे लगता है कि वह बहुत जल्द सब कुछ भूल जाते हैं. इसलिए हर जगह उन्होंने लिख रखा है कि क्या करना है. मसलन – बाथरूम में लिखा है – गीजर बंद करें.’ पत्नी चंद्रिका की मौत हो चुकी है. अब बाबू इस उम्मीद में जी रहे हैं कि 21 वर्ष से विदेश में बसा, वहीं शादी कर चुका उनका बेटा अमोल एक न एक दिन अपनी पत्नी व बच्चों को लेकर उनके पास आएगा.

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बाबूलाल वखारिया को अपने पोते पोती का चेहरा देखने की हसरत है. इसी हसरत के चलते वह अपने नालायक बेटे अमोल की हर बात को भुला चुके हैं. वह यह भी याद नहीं करना चाहते कि उनकी पत्नी चंद्रिका पूरे 28 दिन तक बीमार रहीं और बेटे अमोल को याद करती रही, पर अमोल  छुट्टी न मिलने की बात कर भारत नहीं आया.

अपने बेटे बाबूलाल वखारिया की इस आदत व स्वभाव से दत्तात्रय परेशान हैं. वह 102 की उम्र में छब्बीस वर्ष के युवक की तरह जिंदगी जीते हैं और वह चाहते हैं कि उनका बेटा बाबू लाल भी अपने नालायक बेटे को भुलाकर अपनी जिंदगी जिए. दतात्रय हमेशा खुश रहते हैं, फन करते रहते हैं. एक दिन दत्तात्रय को अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा सच पता चलता है, तब वह एक बूढ़े चीनी का कटआउट लेकर घर पहुंचते है और बताते हैं कि यह चीनी 114 वर्ष तक जिंदा रहा, तो अब दत्तात्रय इसका रिकार्ड तोड़ेंगे.

उसके बाद वह बाबूलाल को बदलने के लिए एक एक कर छह शर्त रखते हैं. शर्त न मानने पर उसे वृद्धाश्रम भेजने की धमकी देते हैं. अब यह छह शर्ते क्या हैं और बाबू लाल में बदलाव आता है या नहीं, इसके लिए फिल्म देखनी पड़ेगी.

फिल्म गुजराती नाटक पर आधारित है. और इंटरवल से पहले फिल्म जिस ढंग से आगे बढ़ती है, उसे देखते हुए दर्शक यही सोचता रहता है कि नाटक को फिल्म में बदलने की क्या जरुरत थी. इंटरवल से पहले फिल्म प्रभावित नहीं करती है. इंटरवल तक फिल्म मूर्खतापूर्ण हास्य चुटकलों के अलावा कुछ नहीं है. मगर इंटरवल के बाद फिल्म सही मायनों में न सिर्फ गति पकड़ती है, बल्कि अति संवेदनशील व भावुकता वाली फिल्म बन जाती है, जो कि हर इंसान को सिखाती है कि महज संपत्ति के लिए मां बाप से रिश्ता रखने वाले बच्चों को घर से बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए.

इतना ही नहीं फिल्म में एक खूबसूरत संवाद है-‘‘औलाद नालायक निकले, तो उसे भूल जाना चाहिए. सिर्फ उसका बचपन याद रखना चाहिए.’’फिल्म की कमजोर कड़ी है बेतुके दृश्यों से भरी पटकथा. फिल्म में एक सीन है, जहां दत्तात्रय अपने बेटे बाबू को हर दिन डाक्टर से मिलने पर रोक लगाने के लिए डाक्टर पर 250 रूपए से भरा बटुआ चुराने का आरोप लगाने की सलाह देता है. यह पटकथा लेखक के खाली दिमाग का परिचायक है. इसी तरह कई जगह पटकथा लेखक की कमजोरी उजागर होती है.

फिल्मकार उमेश शुक्ला यह साबित करने के लिए संघर्ष करते नजर आते हैं कि तीन पुरुष पात्रों के साथ, बिना हीरोईन के भी बेहतर फिल्म बन सकती है. इंटरवल से पहले तो निर्देशक के तौर पर वह काफी निराश करते हैं, मगर इंटरवल के बाद वह फिल्म पर अपनी पकड़ बनाने में कामयाब होते हैं. फिल्म में पिता पुत्र के बीच के आत्मीय व भावुक संबंध बड़ी खूबसूरती के साथ उकेरे गए हैं.

जहां तक अभिनय का सवाल है तो अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर दोनों ही अभिनय के महारथी हैं. अमिताभ बच्चन अपने अभिनय से भावनाओं का ऐसा सैलाब उकेरते हैं कि दर्शक हंसने के साथ साथ रोता भी है. मगर उनकी सभी धारणात्मक अति उत्साही प्रकृति एक सीमा के बाद असहनीय हो जाती हैं. इतना ही नहीं अमिताभ बच्चन इस फिल्म में खुद को बार बार दोहराते हुए नजर आए हैं. उन्हे देख दर्शकों को अमिताभ बच्चन की कुछ पुरानी फिल्मों की याद आती रहती है.

बाबूलाल के किरदार को निभाने में ऋषि कपूर को कड़ी मेहनत करने की जरुरत नहीं पड़ी. वह बिना संवादों के, महज अपने चेहरे के भाव से बहुत कुछ कह जाते हैं. अमिताभ बच्चन व ऋषि कपूर बड़ी सहजता से पिता पुत्र के किरदारों में लोगों के दिलों में समा जाते हैं. इन दो महान कलाकारों के साथ ही धीरू का किरदार निभाने वाले अभिनेता जिमित त्रिवेदी ने ठीक ठाक अभिनय किया है. फिल्म में यह तीसरा किरदार भी काफी अहम है, क्योंकि पिता पुत्र के किरदार और उनके बीच हो रही बातचीत को अंतःदृष्टि देने का काम तो धीरू ही करता है, पर जिमित त्रिवेदी घर की बैठक में नाटक करते हुए लगते हैं.

फिल्म में पुराने लोकप्रिय गीतों की कुछ पंक्तियों को नजरंदाज कर दें, तो फिल्म का गीत संगीत साधारण है. कैमरामैन लक्ष्मण उटेकर ने  प्रशंसा बटोरने वाला काम किया है.

एक घंटा 42 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘102 नौट आउट’’ का निर्माण ट्रीटौप इंटरटेनमेंट, बेंचमार्क पिक्चर्स, सोनी पिक्चर्स इंटरटेनमेंट फिल्मस ने मिलकर किया है. फिल्म के निर्देशक उमेश शुक्ला, लेखक सौम्या जोशी, पटकथा लेखक विकास पाटिल,  कैमरामैन लक्ष्मण उटेकर,संगीतकार सलीम सुलेमान और पार्श्व संगीतकार जौर्ज जोसेफ  तथा फिल्म के कलाकार हैं – अमिताभ बच्चन, ऋषि कपूर, जिमित त्रिवेदी, धर्मेंद्र गोहिल व अन्य.

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चुरा लिया है तुम ने जो डाटा… : डिजिटल मीडिया के सफेदपोश चोर

यह हमारा साइकोलौजिकल डाटा था. सारे का सारा उन्होंने चुरा लिया. सिर्फ चुराया ही नहीं, उस का राजनीतिक इस्तेमाल भी किया. वो भारत आएं, तो हम उन से पूछेंगे कि क्या मिला उन्हें हमारा डाटा उड़ा कर? इस डाटा में यों समझिए कि हमारी जिंदगी की पूरी कहानी दर्ज थी. आप को भी इस डाटाचोरी के दर्द का एहसास हो सके, इस के लिए शब्द दर शब्द यहां पेश हैं (इसे छिपाने का अब कोई फायदा नहीं, पहले से ही उड़ाया जा चुका है) :

लड़की ने पूछा, ‘‘डू यू लव मी?’’ हम ने कहा, ‘‘औफ्कोर्स नौट…’’

उधर से जवाब आया, ‘‘चल झूठ…ठे.’’ यह डाटा उड़ा लिया गया, इस का पता हमें चुनावों में चला.

अगले दिन उस ने नया अकाउंट बना कर फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजी. हम ने रिक्वैस्ट को मनाने से इनकार कर दिया. उस के पहले वाले अकाउंट पर लिखा, ‘‘आलिया का चेहरा लगाने से कोई फायदा नहीं. हम ने पहचान लिया है. कहीं और मुंह मारो.’’ जवाब आया, ‘‘चोट…टे…कमीने.’’

अहा, हम प्रफुल्लित हुए कि हम ने चोरी पकड़ ली. हम ने पहचान लिया था कि उधर कौन था. बाद में पता चला कि चोरी तो हमारे डाटा की हुई थी. महल्ले के चुनावों के वक्त हमारे पास सीधा संदेश पहुंचाया गया कि वोट गज्जू भैया को ही देना है वरना अपना डाटा कहीं दिखाने लायक नहीं रहोगे. हम ने डरना कहां सीखा था, लेकिन मुंह पर जवाब नहीं दिया. वोट जिसे देना था, उसे ही दिया और उस के अकाउंट पर आ कर लिख दिया, ‘‘देखना, इस दफा टुल्लूजी जीतेंगे.’’

उस ने पूछा, ‘‘काहे?’’ हम ने लिखा, ‘‘हम ने उन्हें वोट जो दिया है.’’

शाम होतेहोते हम पीट दिए गए. पीटते समय तमाम गालियों में सब से ज्यादा जोर कमीने पर था. ‘‘अपनी चलाएगा…कमीने.’’

‘‘जिसे चाहेगा, उसे वोट देना… कमीने.’’ ‘‘महल्ले का दादा है तू… कमीने.’’

‘‘और हां, घर की बहूबेटियों से सोशल मीडिया पर चैट करता है…क्यों बे, कमीने.’’ साफ था कि हमारा डाटा किसी ने चोरी कर लिया था. उन्हें पता चल गया था कि गज्जू भैया अगर हारे हैं, तो इस में हमारा भी कम योगदान न था.

इत्ता होने के बाद भी हम ने नया डाटा रिलीज किया, ‘‘ये डैमोक्रेसी है. मारमार कर मुंह सुजा दो, एक आंख फोड़ दो, लेकिन वोट उन्हें हरगिज न देंगे, जिन का तुम ने इशारा किया है.’’ इस डाटा पर भी हाथ साफ कर के हमारी दोनों मंशाएं अगले रोज पूरी कर दी गईं. सूजा मुंह और फूटी आंख देख कर डाक्टर ने पूछा, ‘‘तुम्हारा डाटा भी चोरी हुआ है क्या?’’ हम चौंके, ‘‘आप को कैसे पता चला?’’

‘‘इस हालत में तुम 15वें हो,’’ डाक्टर ने बताया. यह तो हद है. एक तो डाटा चोरी, ऊपर से सीनाजोरी. हम ने शपथ ली कि इस जोरजुल्म की टक्कर में सारा डाटा हमारा है. आखिरी बात हम जोर से बोल गए. डाक्टर ने आंखें तरेर कर हमारी बेशर्मी पर लानत फेंकी, ‘‘अपना डाटा संभाला नहीं जाता. दूसरों का डाटा लेने चले हैं.’’

हम ने उस दिन को कोसा जिस दिन हमारी जैसी पीढ़ी को चैट की चाट लगी थी. तब लगा न था कि एक दिन ऐसा भी आएगा कि हमें परम और दूसरों को तुच्छ लगने वाली बातें दूसरों को परम और हमें तुच्छ लगने लगेंगी. हालत यह हो जाएगी कि हमारे तुच्छ को परम मान कर वे उस से प्रेम करने लगेंगे, उस से अपना रैम भरने लगेंगे और हम अगर उन के प्रेम को समझ कर भी न समझने का नाटक करेंगे, तो हमारा रैमनेम सत्य कर दिया जाएगा. इतना सब हो चुकने के बाद बोलचाल फिर शुरू हुई.

नया मैसेज आया, ‘‘एक चुनाव और है. जल्दी ही होगा. तब तक अपनी टांग जुड़वा लो…’’ हम ने हैरानी प्रकट की, ‘‘टांग को क्या हुआ, फूटी तो आंख थी?’’

‘‘नहीं जैसा एटिट्यूड है, उस में अगला नंबर टांग का है,’’ साफ धमकी दी गई. हम ने अकाउंट ही बंद करने की सोची. इस बारे में सिर्फ सोचा ही था, जनाब. लेकिन दूसरी धमकी आई, ‘‘खबरदार, जो अपना अकाउंट बंद किया. तुम्हारी सारी फ्रैंडलिस्ट देख रखी है हम ने. उन के डाटा में तुम्हारी सारी कारस्तानियां दर्ज हैं. सब ओपन हो जाएंगी. कहीं मुंह, आंख, टांग इत्यादि दिखाने लायक न रहोगे.’’

मरता क्या न करता. अकाउंट चालू रख कर कुछ दिनों के लिए चैट ही बंद कर दी. हफ्तेभर में नया संदेश प्रकट हुआ, ‘‘मर गए क्या? क्योंकि मरने के बाद भी इधर लोगों का अकाउंट चालू रहता है.’’

हम ने जवाब न देना बेहतर समझा. रात में ढाबे से लौटते वक्त 2 साए अगलबगल हो कर चलने लगे. एक कह रहा था, ‘पड़ोसी मुल्क में तो लोग इंसान का गोश्त भी खा जाते हैं.’

दूसरे ने कहा, ‘अपने यहां भी कहां पता चल रहा आजकल कि गोश्त किस का है? मीट है कि बीफ है?’

मैंकांप उठा. सोचने लगा कि डाटा चुराने वाले यह सब भी करने लगे हैं. धमकीवमकी तक ठीक था. एकाध बार पीट लेने में भी हर्ज न था, लेकिन अब तो बात जान पर बन आई है. यह आत्मज्ञान का दौर था. हमारी डाटेंद्रियां जाग उठीं और रैम कुलबुलाने लगा. मोबाइल औन किया तो ऐसा प्रकाश फूटा मानो साक्षात प्रकृति के दर्शन कर लिए हों. स्क्रीन पर हमारी उंगलियां सरपट दौड़ने लगीं.

पहला शब्द हम ने लिखा, ‘‘सरैंडर.’’ जवाब फौरन आया, ‘‘अक्ल आ गई.’’

हम ने लिखा, ‘‘नहीं, बात आत्मज्ञान की है. हमें संसार की, संसार के सारे डाटा की तुच्छता का एहसास हो गया है.’’ वहां से रिप्लाई आया, ‘‘हम ने पहले ही कहा था, क्या करोगे अपना डाटा छिपा कर. यों, हम से तुम्हारा कुछ छिपा थोड़े ही है.’’

‘‘सत्य वचन,’’ हम ने लिखा, फिर पूछा, ‘‘क्या आज कहीं मिलने का प्रोग्राम बन सकता है?’’ उधर से जवाब आया, ‘‘मिल तो लेंगे पर गज्जू भैय्या से मिल कर करोगे क्या. तुम्हारा वोट ही काफी है हमारे लिए.’’

हम सदमे में हैं तब से. भरोसा उठ गया है डाटागीरी से. भला कोई फेक अकाउंट बना कर उस का डाटा भी चोरी करता है क्या..

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एक और अलगाववाद : धर्म के दुकानदारों को देश की चिंता नहीं

कांजीवरम नटराजन अन्नादुरई के मुख्यमंत्रित्वकाल में तमिलनाडु से पृथक तमिलनाडु बनाने की आवाज तो पिछले 4-5 दशकों में खो गई लेकिन अब कर्नाटक में कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने अलग द्राविड़नाडु की मांग कर के देश के विभाजन की बात कर दी है. जब यूरोप के कई देशों, पश्चिम एशिया के देशों, श्रीलंका, दक्षिण अमेरिका के कुछ देशों में ऐसी मांगें उठ रही हों तो इस मांग को हलके में नहीं लेना चाहिए.

मूलतया एक देश की सफलता के पीछे एक बड़े भूभाग में एक अर्थव्यवस्था, एक मुद्रा, एकजैसे कानून, एक जगह से दूसरी जगह जाने की स्वतंत्रता, अलगअलग तरह के लोगों को एक झंडे के नीचे रहना शामिल होता है. लेकिन जब केंद्र सरकार एक तरह के लोगों के लिए काम करने लगे और कुछ इलाकों को लगने लगे कि उन के साथ लगातार भेदभाव हो रहा है, तो अलगाव की आवाज स्वाभाविक तौर पर उठ खड़ी होती है.

ऐसा हम आंध्र प्रदेश के विभाजन में देख चुके हैं जो एक तरह से सीमित था हालांकि वहां भी बीज देश से अलग हो जाने के थे. यह तो तत्कालीन केंद्र सरकार की चतुराई थी कि उस ने सिर्फ राज्यविभाजन से काम चला लिया.

तमिल तो पहले से ही अलग होना चाहते थे. उन का सपना तो भारत के तमिलनाडु और श्रीलंका के जाफना के इलाके को मिला कर नया देश बनाने की है. अब मलयाली, कन्नडि़गा और आंध्री भी ऐसी ही मांग को दोहराने की कोशिश में लगे हैं. कटट्रपंथी जिसे आर्यावर्त्त कहते हैं उस में इस इलाके को हमेशा नीचा सा समझा गया है जहां से केवल गुलाम या दास लाए जाते थे.

भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस अभी इस मांग को गंभीरता से नहीं ले रहीं पर जिस तरह से देश में छटपटाहट का वातावरण बन रहा है और ऊंचनीच की भावना को सरकारी संरक्षण मिल रहा है, यह मांग हिंसक हो सकती है. यह नहीं भूलना चाहिए कि जब खालिस्तान की मांग ने तूल पकड़ा था तो केंद्र सरकार के हौसले पस्त हो गए थे. यह तो कांग्रेस व भाजपा की दूरदर्शिता थी कि राजीव गांधी ने हरचरण सिंह लोंगोवाल से समझौता कर लिया जबकि अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रकाश सिंह बादल से और संकट को सदा के लिए समाप्त कर डाला.

दक्षिण में यह समस्या उग्र हो सकती है क्योंकि भाजपा कट्टर हिंदू मठों के सहारे जीत का सपना देख रही है. वह जातियों की राजनीति के तहत वर्णव्यवस्था के आधार पर एकदूसरे को लड़वाने में लगी है. कैंब्रिज एनालिटिका ने स्पष्ट किया है कि देश की पार्टियां उस से फेसबुक पर जमा डेटा के आधार पर जाति का विश्लेषण मांगती हैं क्योंकि जाति के नाम पर वोट मांगना आसान होता है. यही अलगाव बाद में अलग देश की मांग बन जाता है जो यूरोप के यूगोस्लाविया में दिखा और इराक में कुर्दों के साथ दिख रहा है.

चुनाव जीतने के लिए जाति का उपयोग पैट्रोल व माचिस से खेलने के बराबर है. इस बारे में कठिनाई यह है कि गलीगली में मौजूद धर्म के दुकानदारों को देश की नहीं, अपनी दुकानदारी की चिंता रहती है. उन्होंने पहले सदियों तक देश को गुलाम बनवाए रखा, 1947 में टुकड़े करवाए और अब पूरे समाज में ऊंचनीच की खाइयां गहरी पर गहरी करते जा रहे हैं. उन पर न मोहन भागवत का नियंत्रण है न नरेंद्र मोदी का.

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आर्थिक मजबूती आलसी बना देती है : पंकज त्रिपाठी

बौलीवुड में अपनी पहचान बनाने के लिए 14 वर्षों से संघर्ष करते आए अभिनेता पंकज त्रिपाठी ने ‘निल बटे सन्नाटा’, ‘अनारकली औफ आरा’, ‘न्यूटन’ और ‘फुकरे’ सीरीज जैसी फिल्मों में दमदार अभिनय की बदौलत बौलीवुड में अपनी अलग पहचान बना ली है. गत वर्ष राजकुमार राव व पंकज त्रिपाठी के अभिनय वाली फिल्म ‘न्यूटन’ को भारतीय प्रतिनिधि फिल्म के रूप में औस्कर के लिए भी भेजा गया था. इस फिल्म के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार के लिए भी चुना गया है. पंकज त्रिपाठी की अभिनय प्रतिभा जिस तरह से निखर कर लोगों के सामने आ रही है, उसी के परिणामस्वरूप उन्हें रजनीकांत, नाना पाटेकर व हुमा कुरैशी के साथ तमिल फिल्म ‘काला’ करने का अवसर मिला, जिस में उन्होंने पुलिस औफिसर का ग्रे किरदार निभाया है.

इस फिल्म का निर्माण धनुष ने किया है. उन की अंतर्राष्ट्रीय फिल्म ‘मैंगो ड्रीम’ नेटफ्लिक्स पर आने वाली है. लंबे संघर्ष के बाद अब आप की गाड़ी ट्रैक पर कैसे आई, इस पर वे कहते हैं, ‘‘हां, ऐसा आप कह सकते हैं. यों तो मैं पिछले 14 वर्षों से बौलीवुड में ईमानदारी से काम करता आया हूं, लेकिन गत वर्ष प्रदर्शित मेरी फिल्मों ‘निल बटे सन्नाटा’, ‘अनारकली औफ आरा’ और ‘न्यूटन’ की वजह से बौलीवुड से जुड़े हर इंसान को मेरा क्राफ्ट व मेरी प्रतिभा समझ में आई. लंबे समय बाद लोगों को मेरा अभिनय पसंद आया है. ‘अनारकली औफ आरा’ में एक और्क्रेस्ट्रा का मालिक नाचता भी है तो ‘फुकरे रिटर्न्स’ में भी यह आदमी मनोरंजन करता है. ‘न्यूटन’ का बीएसफ औफिसर भी पसंद आया. तीनों ही किरदारों में लगता है कि ये किरदार पंकज त्रिपाठी के लिए लिखे गए हैं.

‘‘मुझे लगता है कि मेरी जो क्राफ्ट है, वह आम जनता के साथ फिल्मों से जुड़े लोगों तक भी पहुंची है. जब मैं सड़क से गुजरता हूं तो लोग पहचानते हैं. अभी जब मैं आप का इंतजार कर रहा था तो 3-4 लोग आ कर मेरे साथ सैल्फी ले कर गए. उन में से 2-3 लोग तो वे थे जो यह बोल कर गए कि हम आप के काम से इंस्पायर होते हैं. हर किरदार को देखने के बाद ऐसा लगता है कि हां, यार, अभिनय ऐसा ही होना चाहिए, लोगों को मेरी अभिनय प्रतिभा का एहसास पूरे 12 वर्षों बाद हुआ है.’’ सफलता से मिली स्टारडम को ले कर उन का मानना है, ‘‘मैं खद को स्टार नहीं समझता और स्टार बनने की इच्छा भी नहीं है. मैं तो अपनी पहचान एक अदाकार के रूप में ही चाहता हूं. व्यस्तता बढ़ गई है. अब आलम यह है कि पिछले 4 महीनों के अंदर मैं ने

30 फिल्मों के औफर ठुकराए. अब मुझे अपनी पसंदीदी फिल्में चुनने का अवसर मिल रहा है. पर यह भी सच है कि कुछ अच्छी फिल्में शूटिंग की तारीखों की समस्या के चलते छोड़नी पड़ीं.’’ वे आगे कहते हैं, ‘‘अब विज्ञापन फिल्मों के भी औफर आ रहे हैं. अब फिल्मकार मेरी तलाश करने लगे हैं. 2018 ऐसा पहला साल है जब मैं दिसंबर तक किसी नई फिल्म की शूटिंग के लिए तारीख नहीं दे सकता. मेरी प्रतिभा को आंक कर ही मुझे रजनीकांत के साथ तमिल फिल्म ‘काला’ में अभिनय करने का मौका मिला.’’

फिल्म ‘काला’ में अपने किरदार व काम करने की वजह को ले कर पंकज बताते हैं, ‘‘इस में मेरा पंकज पाटिल नामक ग्रे शेड्स वाले पुलिस का किरदार है. फिल्म में रजनीकांत के साथ मेरे काफी सीन हैं. फिल्म अच्छी बनी है. मैं ने इस फिल्म को सिर्फ रजनीकांत के साथ कुछ समय बिताने के लिए किया है. रजनीकांत का जो औरा है, उन को ले कर जो चर्चाएं होती हैं, उस से मैं भी प्रभावित हूं. आखिर वे क्या हैं? मैं उन्हें नजदीक से जानना चाहता था. वैसे रजनीकांत के साथ 5 मिनट की कई छोटी मुलाकातें हुई हैं पर मेरे दिमाग में था कि हम कुछ दिन साथ रह कर काम करेंगे, तो उन्हें बेहतर ढंग से जान सकेंगे, इसलिए मुझे रजनीकांत से मिलना था. ‘‘मैं उन से बहुत ज्यादा प्रभावित था. वे सिनेमा के परदे पर बहुत अलग नजर आते हैं, जबकि निजी जीवन में वे जिस तरह से हैं, उसी तरह से नजर आते हैं. उन में कभी कोई बनावटीपन नजर नहीं आया. मुझे हमेशा लगता है कि अभिनेता ही क्यों, किसी भी इंसान, फिर चाहे वह जिस पेशे में हो, को अपने मूल स्वरूप को नहीं भूलना चाहिए.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘एक बार किसी पत्रकार ने मुझ से पूछा कि आप तो जमीनी आदमी हो? तो मैं ने उन से कहा कि जमीनी आदमी होना गलत है क्या? दुनिया में हर इंसान जमीन पर खड़ा है, जिस ने जमीन को छोड़ दिया, उस के लिए खड़ा रहना मुश्किल है. बिना आधार के इंसान कैसे रहेगा.’’ फिल्म ‘न्यूटन’ के औस्कर में रिजैक्ट होने को ले कर पंकज बताते हैं, ‘‘औस्कर बहुत बड़ा गेम है. कई वजहों से ‘न्यूटन’ पिछड़ गई. भारत ने अपनी इस फिल्म को भेजने का निर्णय भी देर से लिया. दूसरी बात, वह फिल्म भी अच्छी थी जिस को औस्कर मिला है. हम ने उस फिल्म को वहां देखा था. ‘शेप औफ वाटर’ भी हम ने देखी थी. विदेशी भाषा के तहत जिसे पुरस्कृत किया गया निसंदेह वह बेहतरीन फिल्म थी.’’

पकंज के मुताबिक, ‘‘मुझे लगता है कि यह सब मार्केटिंग का खेल है. विदेशी भाषा के तहत जिसे पुरस्कृत किया गया वह सोनी पिक्चर्स की फिल्म थी. सोनी पिक्चर्स बहुत बड़ी कंपनी है. अमेरिका में उस का अपना आधार है. दूसरी बात यह है कि तकनीकी स्तर पर हम लोग थोड़ा पीछे हैं. हमारी फिल्म इंडस्ट्री भी ग्रो कर रही है. ‘न्यूटन’ आज से 10 साल पहले नहीं बन सकती थी. वैसे इतने शुष्क व नीरस विषय पर फिल्म बनाने के लिए हिम्मत चाहिए, कथ्य के स्तर पर मुझे हमेशा ऐसा लगता है. पुरस्कार मिलना कोई मापदंड नहीं है. औस्कर एक देश का अवार्ड है. जैसे उन का पैप्सीकोला पूरे देश में बिकता है, वैसे ही औस्कर भी उन का एक अवार्ड है. आप ने हमारे देश में आ कर हमारी लस्सी, सत्तू और नीबूपानी को दबा दिया है. तो क्या हमारा लस्सी, नीबूपानी, कोकाकोला के मुकाबले खराब है? नहीं, हकीकत में कोकाकोला ने बाजारवाद के दौर में नीबूपानी को पछाड़ दिया है. लेकिन मैं यह भी मानता हूं कि फिल्ममेकिंग कोल्डडिं्रक नहीं है, फिर भी अवार्ड न मिलना कोई समस्या नहीं है. हमारे देश की जनता ने ‘न्यूटन’ देखी, पसंद की. हमारे लिए यही उपलब्धि है. ‘न्यूटन’ से किसी को नुकसान नहीं हुआ. अच्छी कमाई हुई है.’’

‘काला’ के अलावा आने वाली अन्य फिल्मों को ले कर वे बताते हैं, ‘‘ ‘काला’ के अलावा हिंदी में ‘अंगरेजी में कहते हैं’ व ‘ड्राइव’ सहित 6-7 फिल्में आने वाली हैं. फिल्म ‘अंगरेजी में कहते हैं’ में मेरा रोल छोटा मगर जबरदस्त किरदार है. फिल्म भी जबरदस्त है. जिन लोगों ने भी इस फिल्म को देखा है, वे तारीफ कर रहे हैं. जयपुर फिल्म फैस्टिवल में इसे पुरस्कृत किया गया था. कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में यह पुरस्कृत हो चुकी है. इस में अंशुमन झा और संजय मिश्रा भी हैं. एक अंगरेजी भाषा की फिल्म ‘मैंगो ड्रीम्स’ की है, जो कि नेटफ्लिक्स पर आएगी. इस के लिए पिछले दिनों मुझे केपटाउन में पुरस्कृत किया गया था. इस के अलावा श्रद्धा कपूर और राजकुमार राव के साथ हौरर थ्रिलर फिल्म ‘स्त्री’ कर रहा हूं. एक वैब सीरीज ‘मिर्जापुर’ की है, इसे एक्सेल इंटरटेनमैंट ने बनाया है. यह जुलाई में प्रसारित होगी. यह उत्तर प्रदेश पर आधारित अपराध कथा है. पर काफी रोचक है. इस की शूटिंग पूरी हो गई है. अभी पोस्ट प्रोडक्शन का काम चल रहा है.’’

वैब सीरीज के बढ़ते बाजार व उस के भविष्य पर पंकज सोचते हैं, ‘‘वैब सीरीज को अभी 2 साल का समय देना पड़ेगा, तभी इस के भविष्य को ले कर कुछ स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है. फिलहाल वैब सीरीज बन बहुत अच्छी रही हैं. धीरेधीरे प्रसारित भी हो रही हैं. लगभग हर बड़ा प्रोडक्शन हाउस वैब सीरीज बना रहा है. ‘‘मैं स्वयं इस साल तकरीबन 4 वैब सीरीज करने वाला हूं. 2 वर्षों में जब ये सारी वैब सीरीज प्रसारित होंगी, तब भविष्य पता चलेगा. मैं आप को बता दूं कि मैं ने एक सीरियल ‘पाउडर’ किया था, जोकि 2010 में सोनी टीवी पर प्रसारित हुआ था. उस वक्त इसे दर्शक नहीं मिले थे. 15 दिनों पहले नेटफ्लिक्स ने उसे खरीद कर प्रसारित करना शुरू किया. अब सोशल मीडिया पर ‘पाउडर’ को ले कर मुझे कई तरह के संदेश मिल रहे हैं. लोग ‘पाउडर’ में मेरे काम की तारीफ भी कर रहे हैं. फायदा यह हुआ कि डिजिटल प्लेटफौर्म की वजह से ‘पाउडर’ खोया नहीं.’’

वे आगे बताते हैं, ‘‘वैब सीरीज एक ऐसा डिजिटल प्लेटफौर्म है जिसे आप सब्सक्राइब कर घर बैठ कर देख सकते हैं. मोबाइल, टीवी या कंप्यूटर पर देख सकते हैं. जब आप के पास वक्त हो, तब देख सकते हैं. इस तरह कंटैंट आप की जेब में पहुंच गया है. सिनेमा देखने के लिए आप को तय समय पर टिकट खरीद कर सिनेमाघर के अंदर जाना पड़ता है. इंटरनैट की दुनिया बढ़ रही है, गति बढ़ रही है. इस से लगता है कि आने वाला वक्त डिजिटल मीडिया का है. इस से सिनेमा की गुणवत्ता भी अच्छी होगी. इस के अलावा वैब सीरीज पर कोई सैंसरशिप नहीं है. कुछ कहानियों में बेवजह सैंसर अड़ंगा लगाता है. कलात्मक प्रतिबंध लग जाते हैं. यदि कहानी में अपराधी किस्म के किरदार हैं तो वे अच्छी भाषा में बात नहीं करेंगे, गालीगलौज ही तो करेंगे.’’ वैब सीरीज में सैक्स के ओवर एक्सपोजर पर वे कहते हैं, ‘‘कुछ लोग सनसनी फैलाने के लिए ऐसा कर रहे हैं पर यह सफल नहीं है. पिछले वर्ष प्रदर्शित सभी एडल्ट सैक्स कौमेडी की फिल्में असफल हुईं. देखिए, इंटरनैट की वजह से लोगों के हाथ में पोर्नोग्राफी पहुंच गई है. ऐसे में वे फिल्म या वैब सीरीज सैक्स के लिए नहीं देखना चाहते. अब लोगों को कंटैंट चाहिए, अच्छी परफौर्मेंस चाहिए.’’

निजी जिंदगी में आए बदलाव को ले कर पंकज बताते हैं, ‘‘सच कहूं तो बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है. एक बड़ी गाड़ी ले ली है, क्योंकि घर में कुत्ता आ गया है, तो गाड़ी की जरूरत थी. आर्थिक रूप से थोड़ा सुरक्षित हूं. अब मुझे कोई फिल्म महज पैसे के लिए करने की जरूरत नहीं रही. अब मैं अपनी कला पर ज्यादा ध्यान दे पा रहा हूं. हां, एक बदलाव यह हुआ कि पहले मैं बिजली का बिल भरने, टिकट खरीदने, इनकम टैक्स व जीएसटी भरने, निर्माता को शूटिंग के लिए तारीख देने जैसे हर काम किया करता था, वह सब अब मुझ से नहीं हो पा रहा है. इस के लिए मैं ने प्रोफैशनल लोगों को रख लिया है. इंसान के तौर पर मुझ में कोई बदलाव नहीं हुआ.’’ वे बताते हैं, ‘‘आर्थिक मजबूती आने के बाद कलाकार मकान व गाड़ी की ईएमआई भरने व हर माह घरखर्च की चिंता से मुक्त हो जाता है. इस से वह अपने अभिनय पर ज्यादा ध्यान दे पाता है. हालांकि, अभाव व तकलीफों में कला ज्यादा बेहद रची जाती है. दुनिया में जहांजहां अच्छा लिटरेचर कायम हुआ है, वह तभी हुआ, जब देश संकट में था. जब आदमी अभावग्रस्त होता है तो वह कुछ बेहतर रचनात्मक काम करने का संघर्ष करता है. उस वक्त वह ज्यादा जागरूक रहता है. उस के अंदर कुछ करने की बेचैनी होती है. अमूमन पैसा या आर्थिक मजबूती आने पर हम थोड़ा आलसी हो जाते हैं. पर मैं जागरूक हूं कि यह जो दौर मेरे जीवन में आया है, यदि मैं इस का सही उपयोग करने के बजाय आलस्य दिखा कर, बड़े होटलों में बैठ कर महंगी शराब पीने लगा, तो गलत हो जाएगा. मेरा मानना है कि कलाकार का कला के प्रति फोकस विचलित नहीं होना चाहिए. कलाकार के लिए धन सिर्फ भौतिक सुखसुविधा दे सकता है, संतुष्टि तो अभिनय में ही मिलेगी.’’

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