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नौकरीपेशा लोगों की जल्द ही बढ़ सकती है सैलरी, सरकार बना रही योजना

अगर आप भी नौकरीपेशा हैं तो यह खबर आपको खुश कर देगी. सरकार के नए कदम से नौकरी करने वाले करोड़ों लोगों की टेकहोम सैलरी बढ़ सकती है. बढ़ी हुई सैलरी को आप भविष्य की योजनाओं में निवेश कर सकते हैं. दरअसल, सरकार सोशल सिक्योरिटी कंट्रीब्यूशन यानी प्रोविडेंट फंड सैलरी से कंट्रीब्यूशन में कम करने की तैयारी कर रही है. इसके लिए लेबर मिनिस्ट्री की एक समिति काम कर रही है. इससे पहले पीएफ में कंट्रीब्यूशन कंपनी और कर्मचारी की तरफ से 12-12 प्रतिशत था. लेकिन अब सरकार इसे घटाकर 10-10 प्रतिशत करने की तैयारी कर रही है.

सभी पक्षों से बातचीत करेगा श्रम मंत्रालय

सूत्रों के अनुसार इस महीने के अंत तक इस सबंधं में  सिफारिशें तैयार हो जाएंगी. सिफारिश तैयार होने के बाद इन्हें लागू किया जा सकता है. इकोनौमिक टाइम्स में छपी एक खबर के अनुसार कर्मचारी के पीएफ शेयर में 2 प्रतिशत तक की कमी की जा सकती है. इसके तहत एम्पलौयर की तरफ से किए जाने वाले कंट्रीब्यूशन में कमी आएगी. समिति की सिफारिशें आने पर श्रम मंत्रालय की तरफ से इस बारे में सभी पक्षों से चर्चा की जाएगी.

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फिलहाल 24 प्रतिशत है सिक्योरिटी कंट्रीब्यूशन

आपकों बता दें, फिलहाल सोशल सिक्योरिटी कंट्रीब्यूशन कर्मचारी की बेसिक सैलरी की 24 प्रतिशत है. इसमें कर्मचारी का 12 प्रतिशत हिस्सा शामिल है, यह पीएफ अकाउंट में जाता है. कंपनी की तरफ से किया जाने वाला 12 प्रतिशत योगदान पेंशन अकाउंट, पीएफ अकाउंट और डिपौजिट लिंक्ड इंश्योरेंस स्कीम में डिवाइड होता है.

अगस्त के अंत तक लागू होगा नियम

नया नियम लागू होने के बाद कर्मचारी और कंपनी का कंट्रीब्यूशन घटकर 10 प्रतिशत तक हो सकता है. ऐसा होने पर इनहैंड सैलरी बढ़ जाएगी. अभी 20 से कम कर्मचारियों वाली कंपनी में 10 प्रतिशत पीएफ कंट्रीब्यूशन का नियम लागू है. इस बदलाव के बाद सभी कंपनियों में 10 फीसदी कंट्रीब्यूशन का नियम लागू हो जाएगा. नया नियम अगस्त के अंतिम हफ्ते तक लागू होने की उम्मीद है.

मुझे असफलता से कोई समस्या नहीं : जौन अब्राहम

मौडलिंग से अपने करियर की शुरुआत करने वाले अभिनेता जौन अब्राहम पहले कई म्यूजिक वीडियो में दिखाई दिए. इसके बाद उन्होंने एक मीडिया फर्म ज्वाइन कर कुछ दिनों तक काम किया. बाद में आर्थिक तंगी के कारण कम्पनी बंद हो जाने की वजह से उन्होंने मीडिया प्लानर के रूप में दूसरे कंपनी में काम किया. साल 1999 उनके जीवन का टर्निंग प्वाइंट था, जब उन्होंने ग्लैडरैग्स मैनहंट कौंटेस्ट जीता और मैनहंट इंटरनेशनल के लिए फिलिपिन्स गए और सेकेंड रनर अप रहे. यहीं से वे मौडलिंग में प्रसिद्द हुए. देश और विदेश में उन्होंने खूब मौडलिंग की.

फिल्मों में उनका करियर फिल्म ‘जिस्म’ से शुरू हुआ, जिसमें उन्होंने अभिनेत्री बिपाशा बसु के साथ अभिनय किया. उनकी भूमिका को सराहना मिली. इसके बाद फिल्म ‘धूम’ में उन्होंने निगेटिव भूमिका निभायी. फिल्म बौक्स औफिस पर हिट रही और उनका नाम नामचीन एक्टरों की सूची में शामिल हो गया. साल 2012 में उन्होंने फिल्म ‘विकी डोनर’ बनायीं, जो एक सफल फिल्म रही. अभी जौन फिल्म ‘सत्यमेव जयते’ के प्रमोशन पर हैं. उनसे मिलकर बातचीत हुई, पेश है अंश.

इस फिल्म में क्या खास बात है जिससे आप उत्साहित हुए?

ये एक एक्शन फिल्म है. मुझे फिर से इस तरह की फिल्म में काम करने का मौका मिल रहा है. फिल्म परमाणु और मद्रास कैफे के बाद फिर से एक्शन फिल्म में काम करना मेरे लिए बेहद खुशी की बात है, लेकिन इसकी अधिकतर शूटिंग रात को होती थी, जिससे मुझे थोड़ी मुश्किल हो जाया करती थी, पर काफी समय बाद एक कमर्शियल फिल्म बनी है. इसमें रोमांस, एक्शन और ड्रामा सबकुछ है. इसकी कहानी से मैं बहुत प्रेरित हूं. जिस बात को ये फिल्म कहना चाहती है, उससे मैं अपने आपको रिलेट कर सकता हूं. मेरे पिता ने भी न कभी रिश्वत लिया है और न दिया है. एक समय था, जब उनके पार्टनर ने उन्हें धोखा दिया था. उस वक्त भी उन्होंने मुझसे कहा था कि चाहे कुछ भी हो जीवन में हमेशा इमानदार रहना.

फिल्म का कौन सा भाग कठिन था?

मैं हमेशा समय से सोता हूं और समय से उठता हूं, लेकिन इस फिल्म का 80 प्रतिशत सीन्स रात का था. इसे करते हुए तीसरे दिन मैं बीमार पड़ गया और डाक्टर को बुलाना पड़ा. फिर पता चला कि मेरी पूरी बौडी सायकिल औफ हो गई है. मैंने फिल्म साईन की है और मना नहीं कर सकता था. फिर मैं मनोज बाजपेयी के पास गया और उन्हें कुछ कहने को कहा. यही सबसे कठिन भाग था. इसके अलावा निर्धारित समय 47 दिनों में हम सभी ने फिल्म शूट कर डाली.

एक्शन के अलावा आप किस तरह की फिल्में करना पसंद करते हैं?

मुझे कौमेडी बहुत पसंद है. जल्दी मैं फिर से वैसी फिल्म करने वाला हूं. मुझे लोगों को हंसाना पसंद है. फिल्म ‘गरम मसाला’ मेरी पसंदीदा फिल्म है. अक्षय कुमार और मैं साथ में फिर से काम करना चाहते हैं. कौमेडी फिल्म करना सबसे कठिन काम है. टाइमिंग अगर सही हो, तभी मजा आता है.

आपने इतने सालों तक इंडस्ट्री में काम किया है, अपनी जर्नी को कैसे देखते हैं? क्या कुछ मलाल रह गया है?

मैंने सब तरह की फिल्म की है. वाटर, काबुल एक्सप्रेस, गरम मसाला, देसी ब्वायज, हाउसफुल 2 आदि. मैं अभिनेता और प्रोड्यूसर होने के नाते अधिक कंटेंट क्रिएट करना चाहता हूं और सिनेमा में विभिन्नता लाना चाहता हूं. आमिर खान फिल्मों में हमेशा से ही विभिन्नता लाने में समर्थ रहे हैं. मुझे भी वैसी ही फिल्में बनाने की इच्छा है.

पहले की फिल्म और आज की फिल्मों में कितना बदलाव आया है?

बदलाव अधिक नहीं है, आजकल हर तरह की फिल्में बन रही हैं, जो अच्छा दौर है. मेरे हिसाब से प्रोड्यूसर बनने के बाद मुझमें एक आत्मविश्वास आ गया है. मुझे अभी असफलता से कोई परेशानी नहीं, जो पहले होती थी. अभी मेरे जीवन का सबसे अच्छा समय चल रहा है, जब मैं अपने हिसाब से फिल्में बना सकता हूं और जितने भी निर्देशक जो असफल होने के बाद भी मेरे पास आये, मैंने उनकी फिल्में की, क्योंकि मुझे फैल्योर से कोई समस्या नहीं. मैं उन एक्टरों में से नहीं हूं, जो सिर्फ बड़े निर्देशक के साथ काम करना चाहता हो. मैं किसी का ‘पास्ट’ नहीं देखता.

आगे की फिल्में कौन सी है?

अभी मेरी फिल्म रोमियो अकबर वाल्टर, रौ और बाटला हाउस है.

आप बचपन में कैसे थे?

मैं बहुत शरारती था. पिता बहुत स्ट्रिक्ट थे, मां गुस्सा होने पर झाड़ू से हम दोनों भाइयों को मारती थीं. बहुत ड्रामा चलता था.

आप बाइक के बहुत शौकीन हैं कितनी बाइक अभी तक आपने खरीदी है?

मुझे कौलेज लाइफ से ही बाइक का शौक था, मैंने अपने छोटे भाई से पैसे उधार लेकर पहली बाइक खरीदी थी. मेरी सफलता को मैं मोटरसायकल से ही नापता हूं. मैंने बहुत सारे मोटरसायकल बांट दिए हैं. अभी तक मैंने 300 मोटरसायकल खरीदे हैं.

आप फिल्मों में स्टंट करते हैं उसे देखकर यूथ भी ऐसा करते हैं, जिससे कई दुर्घटनाएं हो जाया करती हैं उनके लिए क्या संदेश देना चाहते हैं?

सभी स्टंट एक्सपर्ट की निगरानी में किया जाता है. इसे आप कभी न दोहराएं. ये एक क्रिएटिव आस्पेक्ट है, जिसका प्रयोग फिल्म को बेहतर बनाने कर लिए किया जाता है.

बेरोजगारी के लिए सरकारी नीतियां हैं जिम्मेदार : अक्षय हुंका

क्या रोजगार युवाओं का अधिकार है, इस सवाल से भी ज्यादा कठिन इस सवाल के जवाब का मिलना है कि क्या सभी बेरोजगार युवाओं, खासतौर से शिक्षितों, को रोजगार मुहैया कराना सरकार की ही जिम्मेदारी है. बेरोजगारी हर दौर में समस्या रही है, जिसे दूर करने का वादा आजादी के बाद की कांग्रेसी सरकारों से ले कर मौजूदा एनडीए सरकार अपनी बातों व भाषणों में करती रही है. युवाओं के हिस्से में लज्छेदार बातों और लुभावने वादों के सिवा कुछ नहीं आया.

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र की एनडीए सरकार के साल 2014 के चुनाव में जीतने की एक बड़ी वजह युवा बेरोजगार थे जो तब की यूपीए सरकार से निराश हो चले थे. नरेंद्र मोदी ने एक करोड़ नौकरियां हर साल देने का वादा किया तो बेरोजगार युवाओं ने उन्हें भी मौका देने में हर्ज नहीं समझा. नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री तो बन गए लेकिन उन्होंने वादा नहीं निभाया. नतीजतन, अब बेरोजगारी चरम पर है और सरकार के प्रति युवाओं का गुस्सा फूट रहा है. युवा भड़ास का सामना करने से कतरा रही सरकार कैसेकैसे बहाने बना कर बगलें झांक रही है, यह बात भी अब छिपी नहीं रह गई है.

पिछले 4 सालों में बेरोजगार युवाओं के कई संगठन देश के विभिन्न राज्यों में बने हैं. इन्होंने सड़कों पर आ कर सरकार का विरोध करते अपनी बात कही है और अभी भी कह रहे हैं. ऐसा ही एक संगठन है बेरोजगार सेना, जिस के अध्यक्ष भोपाल के एक शिक्षित युवा अक्षय हुंका हैं. गठन के बाद बेरोजगार सेना से लगभग 50 हजार बेरोजगार युवा सक्रिय रूप से जुड़ चुके हैं. मध्य प्रदेश के मंडला जिले के रहने वाले अक्षय ने विदिशा के सम्राट अशोक अभियांत्रिकी संस्थान से एमसीए किया है. पढ़ाई के बाद उन्होंने देशविदेश की कई नामी कंपनियों में अच्छे पैकेज पर नौकरियां कीं और फिर भोपाल में अपनी सौफ्टवेयर कंपनी खोल ली. अपनी कंपनी के जरिए 7 वर्षों में वे एक हजार से भी ज्यादा बेरोजगारों को रोजगार दे चुके हैं. यहां प्रस्तुत हैं अक्षय हुंका से की गई बातचीत के प्रमुख अंश :

क्या नौकरियां देना सिर्फ सरकार की ही जिम्मेदारी है? आज धारणा यह बन गई है कि यह सरकार की जिम्मेदारी नहीं कि वह सभी को नौकरी दे. बड़े जोर से पूछा और कहा यह जाता है कि क्या सबकुछ सरकार ही करेगी, जबकि नौकरी तो योग्यता से मिलती है.

लेकिन यह बेहद गलत धारणा है जिसे मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं. देश में कितनी नौकरियां पैदा होंगी, यह सरकार की नीतियों से तय होता है. कहने को तो हम मिश्रित अर्थव्यवस्था में रहते हैं लेकिन सरकारी नीतियां पूंजीपतियों के हिसाब से बनती हैं. नीतियां ऐसी हों जिन से एक व्यक्ति को बहुत अधिक लाभ की जगह अधिक से अधिक लोगों को रोजगार मिलें. बढ़ते एफडीआई और पूंजीपतियों के दबाव से स्वरोजगार पर खतरा मंडरा रहा है. उदाहरण खिलौनों का लें तो देश में खिलौनों की लाखों दुकानें हैं, लेकिन धीरेधीरे बड़ी विदेशी कंपनियां देश में पैर पसार रही हैं जो आने वाले दिनों में इन दुकानदारों को खत्म कर देंगी. ऐसा लगभग हर सैक्टर में हो रहा है.

पर कहा तो यह जाता है कि बढ़ती जनसंख्या बेरोजगारी की वजह है? हमारे देश का यह कल्चर हो गया है कि विदेश में जो है वही विकास मान लिया जाता है. पश्चिमी देशों के लिए यह ठीक भी है जहां जनसंख्या कम है. इसीलिए वहां कई काम मशीनों से किए जाते हैं, लेकिन हमारे देश में जनसंख्या ज्यादा है, इसलिए मशीनों पर निर्भरता कम होनी चाहिए. बेरोजगार सेना और मैं कोई तकनीक या विकास विरोधी नहीं हैं. लेकिन हम मानते हैं कि मशीनों का उपयोग सिर्फ इसलिए नहीं होना चाहिए क्योंकि उस का आविष्कार हो चुका है. कहा जा सकता है कि बढ़ती जनसंख्या नहीं, बल्कि बढ़ता अंधाधुंध अनुपयोगी मशीनीकरण बेरोजगारी का जिम्मेदार है.

सरकारी नीतियों और जनसंख्या पर बात स्पष्ट करेंगे क्या? देखिए, पहले कहा जाता था कि पढ़ोगेलिखोगे तो बनोगे नवाब, लेकिन अब तो इंजीनियरिंग और एमबीए जैसी पढ़ाई करने वालों को भी नौकरियां नहीं मिल रही हैं. आमतौर पर यह धारणा बना दी गई है कि केवल शिक्षा व्यवस्था ही इस की जिम्मेदार है. यह भी आधा सच है कि बेरोजगारी सिर्फ इसलिए है कि शिक्षित ज्यादा हैं और नौकरियां कम हैं.

यह एक नीतिगत मुद्दा है कि सरकार के ऊपर कोई कानूनी दबाव नहीं है कि वह नौकरियां दे ही, इसलिए कोई भी नीति वह पूंजीपतियों के लिए बनाती है जिस में हल्ला यह मचाया जाता है कि इतने हजार करोड़ रुपयों का निवेश होगा. यह नहीं कहा जाता कि कितने हजार लोगों को नौकरियां मिलेंगी. सरकार देश में मनरेगा की तरह शिक्षित युवा रोजगार गारंटी कानून लाए, तभी बात बनेगी. इस से उस पर दबाव बनेगा और वह रोजगारोन्मुखी नीतियां बनाएगी. राष्ट्रीय स्तर पर बेरोजगारी का परिदृश्य कैसा देखते हैं आप?

लंबे समय से बेरोजगारी देश की बड़ी समस्या रही है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रतिवर्ष एक करोड़ नौकरियां देने का वादा किया था. इस वादे पर ही युवाओं ने न केवल उन्हें वोट दिया था बल्कि उन का प्रचारप्रसार भी किया था. अब वही युवा खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं क्योंकि नई नौकरियां मिलना तो दूर की बात है, पुराने लोगों की भी नौकरियां जा रही हैं. कांग्रेस सरकार में ‘जौबलैस ग्रोथ’ थी पर अब मोदी सरकार में ‘जौबलौस ग्रोथ’ है.

क्या इस बाबत बेरोजगार सेना का कोई राजनीतिक एजेंडा है? नहीं, हमारा कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं है. हां, हम यह जरूर चाहते हैं कि चुनाव धर्म या जाति, जो युवाओं को गुमराह करते हैं, के बजाय बेरोजगारी के मुद्दे पर लड़े जाएं. हम यह भी नहीं कह रहे कि कांग्रेस के जमाने में रोजगार बरसता था लेकिन तब युवा इतना तरसता नहीं था. यह जरूर तय है कि हम रोजगार छीनने वाली सरकार को वोट नहीं देंगे.

पिछले दिनों मध्य प्रदेश सरकार ने रोजगार केंद्र ठेके पर दिए. बेरोजगारों के लिहाज से इस के क्या माने हैं? यह एकदम गलत फैसला है. इस के जरिए सरकार अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है. सीधे कहूं तो यह एक महत्त्वपूर्ण सरकारी संस्था की सुनियोजित हत्या है.

रोजगार कार्यालय पिछले कई सालों से प्रभावी तरीके से काम नहीं कर रहे हैं, लेकिन उन्हें दुरुस्त करने के बजाय सरकार उन्हें निजी हाथों में दे कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने की कोशिश कर रही है. पुणे की यशस्वी नाम की एक संस्था का उदाहरण मैं यहां देना चाहूंगा जिसे एक लाख नौकरियां देने का जिम्मा सौंपा गया है. इस कंपनी को क्वालिटी फंड के नाम पर 19 करोड़ रुपए दिए जाएंगे, लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि अगर वह एक लाख नौकरियां नहीं दे पाई तो उस पर क्या ऐक्शन लिया जाएगा. यह कैसा निजीकरण है जिस में कंपनी काम करे न करे, उसे भुगतान किया ही जाएगा.

मध्य प्रदेश की बात करें तो 52 रोजगार कार्यालयों की जगह कंपनी केवल 15 स्थानों पर ही अपने सैंटर खोलेगी. इस से छोटे जिलों में बहुत समस्या आएगी.

इस का मतलब बेरोजगार युवा दोबारा भाजपा को मौका या वोट नहीं देंगे? आप बताइए क्यों दें हम ऐसी सरकारों को वोट जो युवाओं को रोजगार नहीं दे पा रही हैं. बेरोजगार सेना देशप्रदेश में व्याप्त बेरोजगारी का समाधान ढूंढ़ रही है. हमें कांग्रेस से भी खास उम्मीदें नहीं, और न ही दूसरे किसी राजनीतिक दल से रखते हैं, पर विरोध जताने के लिए बेरोजगार और क्या करें. दरअसल, राजनीतिक स्तर पर देश में असली विपक्ष संसद या विधानसभा में नहीं, बल्कि सड़कों पर आंदोलनरत युवा है.

बेरोजगार दूध के जले हैं, अब वे छाछ भी फूंकफूंक कर पिएंगे और किसी राजनीतिक झांसे में नहीं आने वाले. हम राजनीतिक विकल्प की तलाश में हैं और उम्मीद है कि जल्द उसे ढूंढ़ भी लेंगे. क्या स्वरोजगार के लिए बेरोजगार युवाओं को आसानी से कर्ज मिल रहा है?

बिलकुल नहीं, आसानी से तो क्या, कठिनाई से भी नहीं मिल रहा. स्वरोजगार की सभी योजनाएं मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना, मुख्यमंत्री युवा उद्यमी योजना और वैंचर कैपिटलिस्ट फंड ये सब केवल नाम और झूठे प्रचार के लिए हैं, आंकड़ेबाजी के लिए हैं. कई योजनाओं के लिए सरकार ने घोषणा की है कि बैंक लोन के लिए गारंटी की जरूरत नहीं, लेकिन बिना गारंटी के कोई बैंक कर्ज देने को तैयार नहीं. सरकार चाहे तो मेरी यह चुनौती स्वीकार करे कि वीसी फंड के नाम पर 4 साल में 100 करोड़ रुपए का जो फंड रखा हुआ है, उस से किसी प्रोजैक्ट को पैसे क्यों नहीं मिले.

क्या बेरोजगार सेना का ध्यान गांव, देहातों और कसबों के बेरोजगारों पर भी है? जी हां, बराबर है. वहां तो हालात और भी बदतर हैं. मैं यह नहीं कहता कि गांवदेहातों की बेरोजगारी शहर आ गई है, बल्कि वहां के हालात कुछ उदाहरणों द्वारा बताना चाहूंगा.

अब अच्छी बात यह है कि सभी वर्गों के युवा ज्यादा से ज्यादा पढ़ रहे हैं लेकिन नौकरियों की कमी है. ऐसे में गांवों में परंपरागत और पैतृक व्यवसायों का खत्म होते जाना चिंता की बात है. मोची, धोबी, माली, बढ़ई, कुम्हार वगैरह के काम अब कोई नहीं कर रहा, तो यह स्वाभाविक बात है क्योंकि समाज इन के व्यवसायों को प्रतिष्ठित स्थान नहीं देता, दूसरे, ऊपर जैसे मैं ने कहा, अंधाधुंध मशीनीकरण की मार भी इन व्यवसायों पर पड़ रही है. मिसाल जूतेचप्पलों की लें, तो हर कोई यह जान कर हैरान रह जाता है कि मोचियों की दुकानें अब पहले की तरह हर कहीं नहीं दिखतीं. अब हर कोई महंगे व ब्रैंडेड जूतेचप्पल पहन रहा है जो सालोंसाल नहीं टूटते और जब टूट जाते हैं तो उन्हें फेंक दिया जाता है. यही

बात कपड़ों और बरतनों पर भी लागू होती है. साफ है कि गांवदेहातों के युवा शिक्षित हो कर दोहरी मार झेल रहे हैं. स्किल डैवलपमैंट जैसी योजनाएं इसी वजह से नहीं चल पा रहीं कि पढ़ेलिखे युवाओं को परंपरागत व्यवसायों में अब कोई संभावना नहीं दिखती.

क्या आरक्षण का बेरोजगारी से कोई संबंध है? बिलकुल नहीं है. वजह आरक्षण से यह तय नहीं होता कि कितनी नौकरियां आएंगी, बल्कि यह तय होता है कि जो नौकरियां हैं वे कैसे बंटेंगी.

दरअसल, आरक्षण जातिगत भेदभाव मिटाने के लिए बनाया गया था जो खुशी की बात है कि कम से कम शहरी इलाकों में तो कम हो रहा है. हालात अब 70 साल पहले जैसे नहीं रह गए हैं, इसलिए इस गंभीर और संवेदनशील मुद्दे पर दोबारा नए सिरे से सोचे जाने की वकालत मैं करता हूं और यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि बेरोजगारी की मूल समस्या से इस का कोई लेनादेना नहीं है. बेरोजगारी पर मीडिया की भूमिका पर क्या कहेंगे?

मैं मीडिया का आभारी हूं जो हर समय बेरोजगारी का मुद्दा तरहतरह से उठाता रहा है. उसी के दबाव में पकौड़े तलने जैसी सलाह सामने आई और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को चुनावी साल में 80 हजार नौकरियां देने की बात करनी पड़ी. जबकि हर कोई जानता है कि यह चुनावी लौलीपौप है. मीडिया से संबंधित एक बात जरूर मैं आप से साझा करना चाहता हूं कि सभी न्यूज चैनल्स ने बेरोजगार सेना की बात उठाई. पत्रपत्रिकाओं ने भी इसे छापा लेकिन जबरदस्त रिस्पौंस हमें सरस सलिल पत्रिका से मिला. मेरे लिए यह एक दिलचस्प अनुभव था. इस पत्रिका के मुखपृष्ठ पर बेरोजगार सेना के सदस्यों का प्रदर्शन करते एक फोटो छपा था जिस में सदस्य बनने के लिए एक मोबाइल नंबर पर मिस्डकौल देने को दिया गया था.

मेरे पास हजारों फोन आए और अभी भी आते हैं, तब मुझे समझ आया कि इस पत्रिका की अहमियत और पहुंच कितनी अहम है. लेकिन देशभर में हजारों बेरोजगारों के फोन आना गर्व की नहीं, बल्कि शर्म की बात है. देश में इतनी बेरोजगारी आखिर क्यों है.

चुनाव और फेसबुक व्हाट्सऐप

फेसबुक ने भारतीय चुनाव आयोग को भरोसा दिलाया है कि अगले चुनावों से पहले वह फेक यानी झूठी खबरों को रोकने की पूरी कोशिश करेगा. इस तरह के छद्म समाचार को फेसबुक एक खास एल्ग्रोथिम के जरिए अपनेआप रोक देगा, उन्हें फौरवर्ड नहीं होने देगा. सोशल मीडिया के दूसरे अहम माध्यम व्हाट्सऐप ने भी इसी तरह का भरोसा दिलाया है. फेक न्यूज यानी झूठी खबरें या कहें अफवाहें दुनियाभर की चिंता का विषय बन गई हैं. विचारों की स्वतंत्रता पर हमेशा ही झूठी खबरें या झूठे तथ्य देने पर अंकुश रहा है. जो स्वतंत्रता के हामी हैं उन्होंने भी कभी दुर्भावनाभरी बातों को प्रसारित करने का समर्थन नहीं किया.

पहले छपाई की सुविधा आसानी से उपलब्ध नहीं थी. फेक न्यूज केवल अफवाहों के जरिए कानों से कानों तक पहुंचाई जा सकती थी. उस समय छपी सामग्री जिम्मेदार लोगों के हाथों में रहती थी. हर कोई प्रैस या छापाखाना स्थापित कर फेक न्यूज वाला अपना अखबार नहीं निकाल सकता था. अब तो घर में बैठ कर ही पटियाला या प्लानीपट्टम में हुई मारपीट का वीडियो बनाया जा सकता है. लेटिन अमेरिकी फिल्मों के दृश्यों को कई बार आसानी से मार्फिंग और फोटोशौप के जरिए उन्हें भारतीय पृष्ठभूमि में बदल कर मुसलिमों द्वारा हिंदुओं पर किए जा रहे अत्याचार के रूप में दर्शाया जा सकता है.

जो लोग सदियों से पौराणिक झूठी खबरों पर विश्वास कर रहे हैं, जिन में प्रधानमंत्री से ले कर अधिकांश मंत्री शामिल हैं, वे इस तरह की फेक न्यूज पर विश्वास कर लेते हैं. तर्क शब्द तो उन की भाषा में है ही नहीं. वे तो विश्वास करते हैं कि मेढकमेढकी की शादी करा कर बारिश कराई जा सकती है या सर्जरी से हाथी का सिर आदमी पर लगाया जा सकता है और फिर उसे चूहे पर सवारी कराई जा सकती है. उन्हीं लोगों ने फेक न्यूज का जम कर प्रचार किया है क्योंकि वे उस का लाभ उठाना जानते हैं और उठा भी रहे हैं. फेसबुक और व्हाट्सऐप ने अगर इन्हें बंद कर दिया तो जान लीजिए कि ये दोनों सोशल मीडिया के स्तंभ समाप्तप्राय हो जाएंगे.

तर्क की बात सुनने की व सत्य सहने की ताकत और बुद्धि भारतीयों में है ही नहीं. जो थोड़ी बहुत 1950 और 1960 के दशकों में दिखी थी वह अब तक गंगा के पानी की तरह जहरीली हो गई है. ऐसे में यह कहना गलत न होगा कि फेसबुक और व्हाट्सऐप का अंत अब निकट ही है.

मिशन छिपकली : कामयाबी के नए कीर्तिमान रच रहा है

45 साल की ढलती उम्र में हमारी जुड़वां संतानें हुई थीं. मुझे नन्हींमुन्नी गुडि़या का मनचाहा उपहार मिला था और वाइफ को उन का दुलारा गुड्डा, लेकिन वाइफ को बिटिया की भी चाहत थी. वे बिटिया को साइंटिस्ट बनाना चाहती थीं. मुझे बेटे के साथ नुक्कड़ पर क्रिकेट खेलने की तमन्ना थी. हम ने महल्ले में मिठाई बंटवाई. अनाथालय के बच्चों के लिए मिठाईनमकीन के पैकेट और कपड़ों के उपहार भिजवाए. हमारी खुशी का ठिकाना न था.

हम ने अपने बच्चों को भरपूर प्यार दिया. उन की सभी इच्छाएं पूरी कीं. कभी शिकायत का कोई मौका नहीं दिया. मोबाइल, लैपटौप, स्कूटी, बाइक, कार, ब्रैंडेड ड्रैसेज, ट्यूटर सबकुछ उन के पास थे. दोनों अब बड़े हो चुके थे. 9वीं कक्षा की परीक्षा दे चुके थे.

‘‘पापा, एडवांस बुकिंग करानी है,’’ बिटिया ने मुझ से रिक्वैस्ट की.

‘‘हांहां, क्यों नहीं, ‘संजू’ लगी है. यह फिल्म काफी पसंद की जा रही है,’’ मैं ने बिटिया का हौसला बढ़ाया. मैं खुद फिल्म देखने के मामले में आगे रहता हूं.

‘‘पापा, अगले साल हम दोनों 10वीं बोर्ड की परीक्षा देंगे. परीक्षा में हैल्प के लिए मिशन की बुकिंग चल रही है,’’ बिटिया ने मुझे बताया.

‘‘बोर्ड की परीक्षा के लिए बहुत पढ़ाई करनी पड़ती है. सेहत पर बुरा असर पड़ता है. सर्विस प्रोवाइडर एजेंसी में एडवांस बुकिंग कराना सही होगा. अभी औफर चल रहा है,’’ साहबजादे ने मुझे समझाया.

अपनी समझदानी थोड़ी छोटी है. पूरी बात समझ आने में थोड़ी देर लगी. अपनी संतान को 10वीं में नकल करने के लिए विशेषज्ञों द्वारा तैयार की गई स्पैशल चिटों की जरूरत होगी. मुझे इस संबंध में जानकारी कम थी.

‘‘वैज्ञानिक बनाने के लिए अच्छे कालेज में दाखिला दिलाना होगा. 10वीं कक्षा में अच्छे मार्क्स की जरूरत होगी,’’ वाइफ ने चिंता जताई. बच्चों को उन से झिझक नहीं थी. उन को सबकुछ पता था.

औलाद के भविष्य की चिंता मुझे भी थी. वैज्ञानिक बनने के लिए अच्छे कालेज में दाखिले की जरूरत भी थी. अच्छे कालेज में दाखिले के लिए कक्षा 10 में 90 प्रतिशत मार्क्स आने भी जरूरी थे.

परिवार के साथ मैं सर्विस प्रोवाइडर एजेंसी से मिला. उन से रेट्स और औफर्स की जानकारी ली.

‘‘साइंस के एक पेपर और मैथ्स के लिए 8 हजार रुपए तथा दूसरे पेपरों के लिए 5 हजार रुपए. हमारी एजेंसी प्रीमियर एजेंसी है. एडवांस बुकिंग में 25 प्रतिशत की छूट दी जा रही है. ये रेट केवल प्रश्नोत्तर चिट के लिए हैं. और हां, मिशन छिपकली के लिए डबल रेट से रुपए देने होंगे. इस के अलावा दूसरी सेवाएं तथा कौम्बो औफर भी हैं,’’ प्रीमियर एजेंसी के रिसैप्शन पर तैनात मैडम ने जानकारी दी.

‘‘यह मिशन छिपकली क्या बला है?’’ मैं ने पूछ ही लिया. वैसे कुछकुछ अंदाजा हो रहा था.

पिछले महीने मैं ने पाटलीपुत्र सुसंवाद समाचारपत्र में खबर पढ़ी थी कि ईस्टर्न इंडिया के महानगरों के चिडि़याघरों से बहुत ही खास प्रजाति की कुछ छिपकलियों की चोरी हो गई थी. ये प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर थीं. इस इमारत की दीवार पर कई मानव आकृतियां चिपकी थीं. मैं ने बाद में इस न्यूज को चश्मा लगा कर पढ़ा था.

‘‘मिशन छिपकली के अंतर्गत एजेंसी बहुमंजिली इमारतों में परीक्षार्थियों को स्पैशल चिट उपलब्ध कराती है. पुलिस, केंद्र अधीक्षक, न्यूजपेपर रिपोर्टर सब को मैनेज करना मुश्किल जौब है. मिशन छिपकली के लिए औनजौब ट्रेनिंग की जरूरत पड़ती है. भगदड़ में दुर्घटना भी हो जाती है. परीक्षा केंद्र ग्राउंडफ्लोर पर होने की हालत में भुगतान की गई रकम का 50 प्रतिशत लौटा दिया जाता है. अप्रत्याशित और कठिन परिस्थितियों के लिए 2 साल की वारंटी का प्रावधान रखा गया है,’’ रिसैप्शनिस्ट ने मुसकरा कर मिशन छिपकली के टैरिफ वाउचर्स का बखान किया.

हम ने शहर की दूसरी सर्विस प्रोवाइडर एजेंसियों से भी संपर्क किया. गोल्डन सर्विस एजेंसी में बालिकाओं के लिए फीस में 30 प्रतिशत की छूट का औफर था. लेकिन एजेंसी की बहुमंजिली सर्विस काफी महंगी थी.

बैस्ट सर्विस प्रोवाइडर ने रजिस्टर्ड परीक्षार्थियों के लिए शहरी इलाकों से परीक्षा केंद्रों तक ले जाने के लिए वीडियो सुविधायुक्त फ्री बस का औफर दिया था.

इन सभी एजेंसियों की शाखाएं राज्य के सभी छोटेबड़े शहरों में होने की भी जानकारी मिली. एजेंसीज ने प्रश्नोत्तर के लिए राजधानी व राज्य के दूसरे शहरों के नामीगिरामी स्कूलों के शिक्षकों व खास कोचिंग संस्थानों के विशेषज्ञों से भी अपने जुड़े होने की बात कही.

इस संपर्क मुहिम के दौरान कई दूसरी सर्विसेज की मौजूदगी के बारे में जाननेसमझने का मौका मिला. उन की सेवाओं की जानकारी मिली. कई खुलासे हुए. ये सुविधाएं परीक्षार्थियों, अभिभावकों के व्यापक हित में हैं, इस का भी ज्ञान हुआ.

मुझे इस उद्योग की पूरी जानकारी नहीं थी. मुझे पता नहीं था कि कभी शिक्षा का केंद्र रहे अपने पुराने शहर में कक्षा-10 स्पैशल चिट सप्लाई के धंधे ने बड़े कारोबार का दर्जा हासिल कर लिया है और इस कारोबार से बड़े घराने भी आकर्षित हो रहे हैं.

परीक्षाएं लंबे समय तक चलती हैं. इस दौरान खेलकूद, मूवी, मौजमस्ती, गेम्स, फेसबुक, चैटिंग, यारदोस्तों से गपें और सभी खिलंदड़ी व मनोरंजक गतिविधियां बंद हो जाती हैं. महीनों किताबों, नोट्स में घुसे रहने से बोरियत होती है. टैंशन से सेहत खराब हो जाती है. ऐसे में परीक्षाओं से जुड़ी सर्विसेज एजेंसियां हमारी आम दिनचर्या के साथसाथ ही कैरियर विकल्पों को आगे बढ़ाने में सहायक होती हैं.

इन सुविधाओं से गुप्तरूप से जुड़े शिक्षकों व सहायक कर्मियों को होने वाली कमाई, उन को कठिन हालात से उबारने में सहायक होती है. राज्य में शिक्षकों व कर्मचारियों के वेतन भुगतान की समस्या हमेशा बनी रहती है. त्योहार के महीनों में भी वेतन भुगतान नहीं हो पाता है. इस तरह सर्विस एजेंसीज उन की वित्तीय समस्याओं का समाधान भी करती हैं.

अभिभावक सर्विस एजेंसीज की बुकिंग के बाद बेफिक्र हो जाते हैं. उन्हें बहुमंजिली इमारतों पर छिपकली बन कर चिपकने से मुक्ति मिल जाती है. अच्छे कालेजों में दाखिले की राह आसान हो जाती है. शिक्षक उत्तरपुस्तिका पर, अपने द्वारा तैयार उत्तर पा कर, मार्क्स लुटाते हैं. एजेंसी विभिन्न कोलेजों व तकनीकी संस्थानों में ऐडमिशन भी दिलवाती है.

‘‘विशिष्ट संस्थानों में ऐडमिशन के लिए आप हमारी एजेंसी से संपर्क कर सकते हैं,’’ ब्राइट सर्विस एजेंसी की सुंदर रिसैप्शनिस्ट ने मुसकरा कर मुझे बताया.

कई स्रोतों से जानकारी मिली कि सर्विस एजेंसीज अपनी सीक्रेट सर्विस के तहत राष्ट्रीय स्तर व राज्य स्तर पर होने वाली प्रतियोगिता परीक्षाओं के प्रश्नपत्र, उत्तर के साथ उपलब्ध कराती हैं. प्रश्नपत्र लीक कराने के लिए कई वैज्ञानिक राजनीतिक हथियारों का इस्तेमाल किया जाता है. एडवांस बुकिंग कराने से पहले ठोकबजा कर पूरी तसल्ली करने की अपनी पुरानी आदत रही है. सो, मैं ने छानबीन की, कई एजेंसियों से जानकारी ली-

‘‘हमारी एजेंसी एक सर्विस एजेंसी है. यह जनसुविधाएं मुहैया कराती है.’’

‘‘अभिभावकों के हितों की सुरक्षा का काम कर रहे हैं. उन के सपने पूरे हों, इस के लिए कोशिश जारी है.’’

‘‘हमारी इंडस्ट्री बेरोजगारों को रोजगार देती है.’’

‘‘लंबे समय तक पूरी रात किताबों से चिपके रहने से गरदन अकड़ जाती है. ओनली बुक्स ऐंड नो प्ले मेक्स पप्पू ए डल बौय इस का हमारे पास कारगर इलाज है.’’

‘‘नाकामी से जूझते हुए बच्चे कई बार गलत फैसले भी ले लेते हैं. हमारी एजेंसी उन्हें कामयाबी दिलाने का काम करती है.’’

अब मुझे पूरी तसल्ली हो चुकी थी. स्पैशल चिट बनाना, बहुमंजिली इमारतों की दीवार से चिपकना मेरे बूते से बाहर की बात थी. लंबी पढ़ाई और अपनी रोजमर्रा से लंबी जुदाई बच्चों के लिए तकरीबन नामुमकिन था. मिशन छिपकली मुझे जंच रही थी.

यह प्यार

यह प्यार कोई गुनाह तो नहीं,
रिश्तों में दरार की वजह तो नहीं.
जाने कितने सालों से
दिल में छिपाए बैठे हैं, नाउम्मीदी के पश्चात भी

अपना बनाए बैठे हैं.
वो कहते हैं हम से कुछ मत छिपाना,
अपना हाल ए दिल
हम को सुनाना. बुरा लग गया

तो तुम्हें बता देंगे, अन्यथा अपनी पलकों में
फूलों की जगह सजा लेंगे.
फिर भी थे शब्द खुल के बता भी न सके,
वर्षों एक दिन मिलन की आस में.

भावनाओं के आवेश में,
तृष्णाओं के दबाव में मर्यादा में से
……. जान सके.
दिल की गहराई से सिर्फ और सिर्फ

उन के प्यार के लिए न करूंगा बात
जिस से हो उन के हृदय को आघात.
यह प्यार है कोई गुनाह नहीं
जीने के लिए इस से बड़ी कोई दवा नहीं.

लव इन सिक्सटीज स्पेशल : सीनियर सिटिजनों में लिवइन

संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष और अंतर्राष्ट्रीय हैल्प पेज ने संयुक्तरूप से 2012 में जो रिपोर्ट जारी की थी उस में अनुमान लगाया था कि 2050 तक भारत व चीन में दुनिया की लगभग 80 प्रतिशत जनसंख्या बुजुर्गों की होगी. वर्तमान में भारत की लगभग 12.7 प्रतिशत जनसंख्या की आयु 60 वर्ष से अधिक है.

स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता में जो सुधार आ रहे हैं उस से मानव के जीवनकाल में वृद्धि हुई है लेकिन साथ ही, सेवानिवृत्ति और अपने जीवनसाथी को खोने के बाद या जवानी में एकल रहने के बाद बुजुर्ग अवस्था में स्त्रीपुरुष के पास समय की तो अधिकता हो जाती है, लेकिन मिलनेजुलने वाले व आपसी दुखदर्द बांटने वालों की कमी रहती है. इस उम्र में यौन संबंधों पर बात करना तो अपराध जैसा है.

अब समय बदल रहा है. 60 साल के बुजुर्ग भी यौन संबंधों में रुचि दिखा रहे हैं. लंदन स्थित कालेज औफ नर्सिंग में बुजुर्गों के स्वास्थ्य सलाहकार डौनी गैरट का कहना है कि शारीरिक स्पर्श और सैक्स मनुष्य की बुनियादी जरूरतें हैं.

लंदन की जानीमानी कलाकार लुई वीबर अपनी कला के माध्यम से बढ़ती उम्र और सैक्स के मसले को उठाती हैं. उन का कहना है, ‘‘31 प्रतिशत उम्रदराज पुरुष और 20 प्रतिशत उम्रदराज महिलाएं अपने साथी को बारबार चूमती हैं या प्यार जताती हैं.’’ वे आगे कहती हैं, ‘‘हो सकता है कि कोई बुजुर्ग लंबे समय से सैक्स से दूर रहा हो, लेकिन वह अभी मरा तो नहीं. उस की कल्पनाएं बची हुई हैं, हास्यबांध बचा हुआ है.’’

लिवइन का चलन

यही कारण है कि अब भारत के बुजुर्गों में भी लिवइन रिलेशनशिप का क्रेज बढ़ता जा रहा है. इस का श्रेय हमारे स्वास्थ्य में हुए तमाम गुणात्मक सुधारों तथा बेहतर हुई आर्थिक स्थितियों को जाता है. शिक्षा और सोच का दायरा भी बढ़ा और उदार हुआ है. अब 60 साल के स्त्रीपुरुष भी अपनी इच्छाओं व आकांक्षाओं के अनुकूल जीवन जीने लगे हैं. इन सीनियर सिटिजनों की इच्छाओं और आकांक्षाओं का सम्मान करते हुए मैचमैकिंग सर्विस नामक संस्था द्वारा सीनियर सिटिजन लिवइन रिलेशनशिप सम्मेलन की शुरुआत की गई. पहला सम्मेलन वर्ष 2011 में किया गया था, जिस में आधा दर्जन जोड़ों ने एकदूसरे का साथ चुना था. दूसरा सम्मेलन 22 नवंबर 2015 को हुआ था जिस में एकदूसरे का साथ चुनने वालों की संख्या 2 दर्जन से अधिक थी.

इसी प्रकार ग्लासगो कैलेडोनियाई यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान में पीएचडी करने वाले टेलरजेन पिलन और उस के सहयोगी एलन जेग्रो का बुजुर्गों पर किया गया एक अध्ययन एज ऐंड एजिंग जर्नल में वर्ष 2015 के अंत में प्रकाशित हुआ था. इस के अनुसार यह प्रमाणित हुआ था कि जो बुजुर्ग यौन गतिविधियों को महत्त्व देते हैं उन का सामाजिक जीवन और मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य बेहतर रहता है. उन के यौन व्यवहार से जुड़ी बातों का उन के बेहतर जीवन स्तर से भी गहरा और सकारात्मक रिश्ता पाया गया.

एम राजेश्वरी, दामोदर राव के लिए पिछले 2 वर्ष से एक उपयुक्त साथी की तलाश कर रही थीं. एम राजेश्वरी ने अध्यापिका के पद से सेवानिवृत्त होेने

के बाद बतौर समाजसेवा एकल या जीवनसाथी खो चुके बुजुर्गों के लिए साथी खोजने के लिए थोडूनीडा नामक एक एजेंसी की शुरुआत की थी. 64 वर्षीय दामोदर राव साथी की तलाश में राजेश्वरी की एजेंसी से मदद ले रहे थे. जब इस सिलसिले में राजेश्वरी ने उन से पूछा कि आप को कैसी साथी चाहिए, तो राव ने उन्हें बताया कि वे स्वतंत्र व उत्साही पार्टनर की तलाश में हैं, जिस की शिक्षा में दिलचस्पी हो.

बातचीत के दौरान एम राजेश्वरी व दामोदर राव की आंखें मिलीं और दोनों को उसी पल एहसास हो गया कि वे दोनों एक ही चीज की तलाश में हैं. दामोदर राव को एम राजेश्वरी जैसी साथी की ही तलाश थी. राजेश्वरी का कहना है, ‘‘दिसंबर 2010 में जब मैं ने यह एजेंसी शुरू की थी तब मुझे यह उम्मीद नहीं थी कि मैं अपने लिए ही साथी तलाश कर बैठूंगी. मैं 50 वर्ष से ऊपर के लगभग 250 लोगों के लिए साथी की तलाश कर चुकी हूं और इन में से लगभग 95 प्रतिशत लोग मेरी तरह लिवइन रिलेशनशिप को प्राथमिकता देते हैं बजाय औपचारिक विवाह के.’’

अकेलेपन का एहसास

एम राजेश्वरी अपनेआप में एक उदाहरण हैं. जब वे 13 वर्ष की थीं तो उन का विवाह 21 वर्षीय युवा के साथ परंपरागत ढंग से कर दिया गया था. लेकिन विवाह के 17 साल बाद उन दोनों का तलाक हो गया था. राजेश्वरी अपने 3 बच्चों के साथ अपने मातापिता के पास लौट आईं. उन्होंने फिर से अपनी शिक्षा आरंभ की और अंत में अध्यापिका की नौकरी हासिल कर ली.

सेवानिवृत्ति के बाद वे अपने बड़े बेटे के साथ रहने लगीं, लेकिन उन्हें अकेलेपन का एहसास होने लगा. इसी कारण वे उन लोगों के बारे में भी सोचने लगीं जिन्हें जीवन के आखिरी पड़ाव पर एक साथी की जरूरत महसूस होती है. वे हैदराबाद लौट आईं और बुजुर्ग लोगों की मुलाकात कराने के लिए थोडूनीडा नामक एजेंसी की शुरुआत की.

एजेंसी के कार्यालय के लिए उन्होंने एक हौल किराए पर लिया. लेकिन उस का किराया चुकाने के लिए उन के पास पैसा नहीं था. उन्होंने किराया चुकाने हेतु प्रत्येक व्यक्ति से 300 रुपए लेने शुरू कर दिए. एक स्थानीय समाचारपत्र ने उन की एजेंसी द्वारा बुजुर्गों की मुलाकात के संदर्भ में खबर प्रकाशित की तो राजेश्वरी आश्चर्यचकित रह गईं. एजेंसी की पहली ही मीटिंग में 80 बुजुर्गों ने भाग लिया. कुछ बुजुर्ग तो 400 किलोमीटर तक का फासला तय कर के आए थे.

पहली मीटिंग में 35 महिलाएं थीं जो लज्जा व शर्म की गठरी बनी हुई थीं, क्योंकि वे इस उम्र में नए सिरे से एक साथी की तलाश कर रही थीं. राजेश्वरी को उन्हें समझाना पड़ा कि साथी का मतलब सिर्फ सैक्स से नहीं है बल्कि भावनात्मक जरूरतों को पूरा करने से भी है. इस मीटिंग में मजदूर से ले कर उद्योगपति तथा चपरासी से ले कर डाक्टर तक मौजूद थे. उन में से कइयों को तो अपनी पसंद का साथी मिल भी गया. जिन्होंने शादी के बजाय साथसाथ रहने का फैसला किया.

इस संबंध में दामोदर राव का कहना था कि बुजुर्गों को भी साथी की जरूरत होती है. इस नए संबंध में खुद को तय करना होता है कि आप के भोजन की प्राथमिकताएं क्या हैं, सोने की आदत कैसी है. एकदूसरे की प्राइवेसी में हस्तक्षेप न किया जाए. वैसे हर जोड़ा साथ रहने के लिए अपने नियम खुद तय कर लेता है.

तालमेल है जरूरी

इस उम्र में जोड़ा बनाते समय भी शारीरिक आकर्षण की अपनी भूमिका होती है, लेकिन अधिकतर लोग मानसिक तालमेल और हमदर्दी को प्राथमिकता देते हैं. इसी प्रकार एक सीनियर सिटिजन हैं, मराठी फिल्मों की नायिका सुहासिनी मुले. इन्होंने अपनी जिंदगी का अधिकतर समय अपने पैशन और कैरियर को समर्पित कर दिया. लेकिन 60 साल की उम्र में ये शादी के बंधन में बंध गईं. इस उम्र में इन्हें एक ऐसा शख्स मिला जिस के साथ अपनी बाकी जिंदगी बिताना सही लगा. इन्होंने 2011 में भौतिक विज्ञान के जानकार

प्रो. अतुल गुरतु से शादी की. इन का कहना है कि इस के पूर्व मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि कोई ऐसा इंसान है जिस के साथ पूरी जिंदगी गुजारी जा सके, लेकिन प्रोफैसर साहब से मिलने के बाद मुझे एहसास हुआ कि इस व्यक्ति के साथ जिंदगी गुजारी जा सकती है और मैं ने शादी का फैसला कर लिया. सुहासिनी को अतुल गुरतु का एक आर्टिकल पढ़ कर उन से लगाव हुआ था. इस के बाद दोस्ती हुई और आखिर में बात शादी तक पहुंच गई.

सुहासिनी मुले एक सशक्त अभिनेत्री तो हैं ही, साथ ही वे एक डौक्यूमैंट्री फिल्म निर्माता भी हैं. वे 4 बार अपनी डौक्यूमैंट्री फिल्मों के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त कर चुकी हैं. सुहासिनी का यह फैसला इस उम्र में एकल जीवन जी रही कवयित्री महिलाओं को प्रेरणा प्रदान करेगा.

मुंबई निवासी कवयित्री जाने भंडारी का कहना है, ‘‘मेरे जीवन के छठे दशक में जब मेरे पति की मृत्यु हुई तो सामाजिक विचाराधारा के अनुसार मुझे अपनी बाकी जिंदगी विधवा बन कर ही गुजारनी थी, लेकिन जब मेरे जीवन में दोबारा जीवनसाथी का प्रवेश हुआ तो वह क्षण मेरे लिए अविश्वसनीय था. हमारे 5 साल के प्रेम संबंधों का अंत आखिरकार भव्य शादी में हुआ जिस में मेरे बच्चे व पोतेपोतियां भी शामिल थे. उस समय मेरी उम्र 68 साल तथा मेरे नए जीवनसाथी कमलेशपुरी की उम्र 69 वर्ष थी.

भारत के प्रसिद्ध यौनरोग व प्रेम संबंधों के सलाहकार डा. महेंद्र वत्स, जोकि 60 के बाद भी जीवनसाथी खोजने का पूरा समर्थन करते हैं, का विचार है कि मानव साहचर्य और यौन अंतरंगता का उम्र से कोई संबंध नहीं है. यह एक इच्छा है जिसे जिंदा रखने की आवश्यकता है या फिर हमें हालात को कुदरत पर छोड़ देना चाहिए जैसा कि विधवा बहू या अन्य गृहिणी को कुदरत के भरोसे छोड़ दिया जाता है और परिवार उन की ओर से आंखें मूंद लेता है.

डा. वत्स एक रोचक तथ्य प्रस्तुत करते हुए कहते हैं, ‘‘उम्र बढ़ने पर यौन इच्छा में भले ही कमी आ सकती है लेकिन यौन कुशलता बेहतर हो जाती है.’’ पुरुष व स्त्री दोनों को दीर्घ अवधि तक मर्दन की आवश्यकता होती है, जोकि यौन संबंधों में अधिक घनिष्ठता व आनंद लाता है. वे ब्रिटिश सर्वेक्षण का हवाला देते हुए कहे हैं कि उम्रदराज व्यक्ति संभोग के  कारक होते हैं क्योंकि उन का शीघ्र शृंखलन नहीं होता. इसी कारण वे जवान व्यक्ति की अपेक्षा स्त्री को अधिक यौन संतुष्ट रखते हैं.

दकियानूसी सोच

अफसोसजनक बात यह है कि हमारे समाज की दकियानूसी विचारधारा बुढ़ापे में यौन संबंधों को पूरी तरह दुत्कार देती है. संयुक्त परिवार में अगर कोई विधवा दादीमां औनलाइन जा कर जीवनसाथी की तलाश करे तो उसे बहुत ही गिरी नजरों से देखा जाता है.

बदलती मानसिकता व नई विचारधारा के साथ डिग्निटी फाउंडेशन भारत के सब से पुराने वरिष्ठ नागरिक सहायता समूहों में से एक है. यह समूह अपने सदस्यों का एकाकीपन दूर करने तथा जीवनसाथी खोजने हेतु हर तरह की सहायता करता है. समूह द्वारा एकदूसरे को जानने व खुली चर्चा हेतु हर वर्ष जीवनसाथी परिचय सम्मेलन का आयोजन भी किया जाता है.

डिग्निटी की सक्रिय कार्यकर्ता भौलु श्रीनिवासन का कहना है कि हमारी संस्था नियमित रूप से वरिष्ठ नागरिकों के जीवनसाथी हेतु विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में वैवाहिक विज्ञापन जारी करती रहती है. हाल ही में हम ने एक कहानी प्रकाशित कराई है जिस में 70 वर्ष की महिला ने 78 वर्ष के सेवानिवृत्त एक वायुसेना अफसर से शादी की है. इस शादी में महत्त्वपूर्ण भूमिका उन के बच्चों ने निभाई है. अगर बच्चे ही खिलाफ हो जाएं तो मातापिता अपनी भावना व मित्रता दोनों ही छिपाने लगते हैं. इसलिए नौजवानों को भी प्रगतिशील मानसिकता अपनाने की जरूरत है.

जहां तक अधिक उम्र में विवाह से लाभहानि का सवाल है, तो निश्चित ही इस के लाभ अधिक और हानि कम है. विवाह से स्त्रीपुरुष दोनों की ही सक्रियता बढ़ जाती है, वे अपने स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान देने लगते हैं तथा उन का एकाकीपन दूर हो जाता है. लेकिन ज्यादा बुजुर्ग जोड़े शादी के बजाय लिवइन रिलेशनशिप को प्रमुखता दे रहे हैं. कुछ जोड़े तो आर्थिक जिम्मेदारी को भी आधाआधा बांट रहे हैं, लेकिन ज्यादातर मामलों में आर्थिक जिम्मेदारी को पुरुष ही निभा रहे हैं. कुछ बुजुर्ग पुरुष परिजनों के साथ समझौता कर लेते हैं जिस से उन की मृत्यु के बाद महिला साथी को काफी हद तक आर्थिक सहयोग मिल जाता है. अधिकतर बच्चे भी अब अपने बुजुर्गों के फैसले का स्वागत करने लगे हैं.

बेटियों को ही नहीं बेटों को भी संभालें

मेरी सहेली ने एक बार मुझे एक वाकेआ सुनाया. जब वह अपनी 8 वर्षीया बेटी रिचा को अकेले में ‘गुड टच’ और ‘बैड टच’ के बारे में बता रही थी, तब बेटी ने उस से कहा था, ‘मम्मी, ये बातें आप भैया को भी बता दो ताकि वह भी किसी के साथ बैड टचिंग न करे.’

सहेली आगे बताती है, ‘‘बेटी की कही इस बात को तब मैं महज बालसुलभ बात समझ कर भूल गई. मगर जब मैं ने टीवी पर देखा कि प्रद्युम्न की हत्या में 12वीं के बच्चे का नाम सामने आया है तो मैं सहम उठी. इस से पहले निर्भया कांड में एक नाबालिग की हरकत दिल दहला देने वाली थी. अब मुझे लगता है कि 8 वर्षीया रिचा ने बालसुलभ जो कुछ भी कहा, आज के बदलते दौर में बिलकुल सही है. आज हमें न सिर्फ लड़कियों के प्रति, बल्कि लड़कों की परवरिश के प्रति भी सजग रहना होगा. 12वीं के उस बच्चे को प्रद्युम्न से कोई दुश्मनी नहीं थी. महज पीटीएम से बचने के लिए उस ने उक्त घटना को अंजाम दिया.’’

आखिर उस वक्त उस की मानसिक स्थिति क्या रही होगी? वह किस प्रकार के मानसिक तनाव से गुजर रहा था जहां उसे अच्छेबुरे का भान न रहा. हमारे समाज में ऐसी कौनकौन सी बातें हैं जिन्होंने बच्चों की मासूमियत को छीन लिया है. आज बेहद जरूरी है कि बच्चों की ऊर्जा व क्षमता को सही दिशा दें ताकि उन की ऊर्जा व क्षमता अच्छी आदतों के रूप में उभर कर सामने आ सकें.

आज मीडिया का दायरा इतना बढ़ गया है कि हर वर्ग के लोग इस दायरे में सिमट कर रह गए हैं. ऐसे में यह जरूरी हो गया है कि हम अपने बच्चों को मीडिया की अच्छाई व बुराई दोनों के बारे में बताएं. एक जमाना था जब टैलीविजन पर समाचार पढ़ते हुए न्यूजरीडर का चेहरा भावहीन हुआ करता था. उस की आवाज में भी सिर्फ सूचना देने का भाव होता था. मगर आज समय बदल गया है. आज हर खबर को मीडिया सनसनी और ब्रेकिंग न्यूज बना कर परोस रहा है. खबर सुनाने वाले की डरावनी आवाज और चेहरे की दहशत हमारे रोंगटे खड़े कर देती है.

घटनाओं की सनसनीभरी कवरेज युवाओं पर हिंसात्मक असर डालती है. कुछ के मन में डर पैदा होता है तो कुछ लड़के ऐसे कामों को अंजाम देने में अपनी शान समझने लगते हैं. अफसोस तो इस बात का भी होता है कि मीडिया घटनाओं का विवरण तो विस्तारपूर्वक देती है परंतु उन से निबटने का तरीका नहीं बताती.

कुछ मातापिता हैलिकौप्टर पेरैंट बन कर अपने बच्चों पर हमेशा कड़ी निगाह रखे रहते हैं. हर वक्त हर काम में उन से जवाबतलब करते रहते हैं. इसे आप भले ही अपना कर्तव्य समझते हों परंतु बच्चा इसे बंदिश समझता है. कई शोधों में यह सामने आया है कि बच्चे सब से ज्यादा बातें अपने मातापिता से ही छिपाते हैं, जबकि हमउम्र भाईबहनों या दोस्तों से वे सबकुछ शेयर करते हैं.

आज के बच्चे वर्चुअल वर्ल्ड यानी आभासी दुनिया में जी रहे हैं. वे वास्तविक रिश्तों से ज्यादा अपनी फ्रैंड्सलिस्ट, फौलोअर्स, पोस्ट, लाइक, कमैंट आदि को महत्त्व दे रहे हैं. वे किसी भी परेशानी का हल मातापिता से पूछने के बजाय अपनी आभासी दुनिया के मित्रों से पूछ रहे हैं. वे अंतर्मुखी होते जा रहे हैं, साथ ही, उन का आत्मविश्वास भी वर्चुअल इमेज से ही प्रभावित हो रहा है. बच्चों को यदि सोशल मीडिया तथा साइबर क्राइम से संबंधित सारी जानकारी होगी और अपने मातापिता पर पूर्ण विश्वास होगा, तो शायद वे ऐसी हरकत कभी नहीं करेंगे.

एकल परिवारों में बच्चे सब से ज्यादा अपने मातापिता के ही संपर्क में रहते हैं. ऐसे में वे अपने अभिभावक की नकल करने की कोशिश भी करते हैं. बच्चों में देख कर सीखने का गुण होता है. ऐसे में अभिभावक उन्हें अपनी बातों द्वारा कुछ भी समझाने के बजाय अपने आचरण से समझाएं तो यह उन पर ज्यादा असर डालेगा. उदाहरणस्वरूप, नीता अंबानी अपने छोटे बेटे अनंत को मोटापे से छुटकारा दिलाने के लिए उस के साथसाथ खुद भी व्यायाम तथा डाइटिंग करने लगी थीं.

प्रौढ़ होते मातापिता अपने किशोर बेटों से बात करते समय उन से बिलकुल भी संकोच न करें. मित्रवत उन से लड़कियों के प्रति उन की भावनाओं को पूछें. रेप के बारे में वे क्या सोचते हैं, यह भी जानने की कोशिश करें. यदि कोई लड़की उन्हें ‘भाव’ नहीं दे रही है तो वे इस बात को कैसे स्वीकार करते हैं, यह जानने की अवश्य चेष्टा करें.

आमतौर पर यदि खूबसूरत लड़की किसी लड़के को भाव नहीं देती तो लड़का इसे अपनी बेइज्जती समझता है और इस बारे में जब वह अपने दोस्तों से बात करता है तो वे सब मिल कर उसे रेप या एसिड अटैक द्वारा उक्त लड़की को मजा चखाने की साजिश रचते हैं. एसिड अटैक के मामलों में 90 प्रतिशत यही कारण होता है. इसलिए, ‘लड़कियां लड़कों के लिए चैलेंज हैं’ ऐसी बातें उन के दिमाग में कतई न डालें.

निर्भया कांड में शामिल नाबालिग युवक या प्रद्युम्न हत्याकांड में शामिल 12वीं के छात्र का उदाहरण दे कर बच्चों को समझाने का प्रयास करें कि रेप और हत्या करने वाले को समाज कभी भी अच्छी नजर से नहीं देखता. कानून के शिकंजे में फंसना मतलब पूरा कैरियर समाप्त. सारी उम्र मानसिक प्रताड़ना व सामाजिक बहिष्कार का भी सामना करना पड़ता है.

मातापिता अपने बच्चों को अच्छा व्यक्तित्व अपनाने के लिए कई बार समाज या परिवार की इज्जत की दुहाई देते हुए उन पर एक दबाव सा बना देते हैं, जो बच्चों के मन में बगावत पैदा कर देता है. मनोवैज्ञानिक फ्रायड के अनुसार, ‘‘जब हम किसी को भी डराधमका कर या भावनात्मक दबाव डाल कर अपनी बात मनवाना चाहते हैं तो यह एक प्रकार की हिंसा है.’’

बच्चे में किसी भी तरह की मानसिक कमियां हैं तो अभिभावक उसे छिपाएं नहीं, बल्कि स्वीकार करें और उसी के अनुसार उस की परवरिश करते हुए उस के व्यक्तित्व को संवारें. दिल्ली के निकट गुरुग्राम के रायन इंटरनैशनल स्कूल के प्रद्युम्न की हत्या करने वाला 12वीं का छात्र अपराधी नहीं था, बल्कि एक साइकोपैथ था. यह एक ऐसा बच्चा है जिसे सही मौनिटरिंग व सुपरविजन की जरूरत है यानी उसे परिवार के प्यार व मातापिता के क्वालिटी टाइम की जरूरत है. समय रहते यदि उस की मानसिक समस्याओं का निवारण किया गया होता तो शायद प्रद्युम्न की जान बच सकती थी. जिस तरह शरीर की बीमारियों का इलाज जरूरी है उसी तरह मानसिक बीमारियों की भी उचित इलाज व देखभाल की आवश्यकता होती है. इसे ले कर न ही मातापिता कोई हीनभावना पालें और न ही बच्चों को इस से ग्रसित होने दें.

मौन : जब दो जवां और अजनबी दिल मिले

सर्द मौसम था, हड्डियों को कंपकंपा देने वाली ठंड. शुक्र था औफिस का काम कल ही निबट गया था. दिल्ली से उस का मसूरी आना सार्थक हो गया था. बौस निश्चित ही उस से खुश हो जाएंगे. श्रीनिवास खुद को काफी हलका महसूस कर रहा था. मातापिता की वह इकलौती संतान थी. उस के अलावा 2 छोटी बहनें थीं. पिता नौकरी से रिटायर्ड थे. बेटा होने के नाते घर की जिम्मेदारी उसे ही निभानी थी. वह बचपन से ही महत्त्वाकांक्षी रहा है. मल्टीनैशनल कंपनी में उसे जौब पढ़ाई खत्म करते ही मिल गई थी. आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक तो वह था ही, बोलने में भी उस का जवाब नहीं था. लोग जल्दी ही उस से प्रभावित हो जाते थे. कई लड़कियों ने उस से दोस्ती करने की कोशिश की लेकिन अभी वह इन सब पचड़ों में नहीं पड़ना चाहता था.

श्रीनिवास ने सोचा था मसूरी में उसे 2 दिन लग जाएंगे, लेकिन यहां तो एक दिन में ही काम निबट गया. क्यों न कल मसूरी घूमा जाए. श्रीनिवास मजे से गरम कंबल में सो गया. अगले दिन वह मसूरी के माल रोड पर खड़ा था. लेकिन पता चला आज वहां टैक्सी व बसों की हड़ताल है.

‘ओफ, इस हड़ताल को भी आज ही होना था,’ श्रीनिवास अभी सोच में पड़ा ही था कि एक टैक्सी वाला उस के पास आ कानों में फुसफुसाया, ‘साहब, कहां जाना है.’ ‘अरे भाई, मसूरी घूमना था लेकिन इस हड़ताल को भी आज होना था.’

‘कोई दिक्कत नहीं साहब, अपनी टैक्सी है न. इस हड़ताल के चक्कर में अपनी वाट लग जाती है. सरजी, हम आप को घुमाने ले चलते हैं लेकिन आप को एक मैडम के साथ टैक्सी शेयर करनी होगी. वे भी मसूरी घूमना चाहती हैं. आप को कोई दिक्कत तो नहीं,’ ड्राइवर बोला. ‘कोई चारा भी तो नहीं. चलो, कहां है टैक्सी.’

ड्राइवर ने दूर खड़ी टैक्सी के पास खड़ी लड़की की ओर इशारा किया. श्रीनिवास ड्राइवर के साथ चल पड़ा.

‘हैलो, मैं श्रीनिवास, दिल्ली से.’ ‘हैलो, मैं मनामी, लखनऊ से.’

‘मैडम, आज मसूरी में हम 2 अनजानों को टैक्सी शेयर करना है. आप कंफर्टेबल तो रहेंगी न.’ ‘अ…ह थोड़ा अनकंफर्टेबल लग तो रहा है पर इट्स ओके.’

इतने छोटे से परिचय के साथ गाड़ी में बैठते ही ड्राइवर ने बताया, ‘सर, मसूरी से लगभग 30 किलोमीटर दूर टिहरी जाने वाली रोड पर शांत और खूबसूरत जगह धनौल्टी है. आज सुबह से ही वहां बर्फबारी हो रही है. क्या आप लोग वहां जा कर बर्फ का मजा लेना चाहेंगे?’ मैं ने एक प्रश्नवाचक निगाह मनामी पर डाली तो उस की भी निगाह मेरी तरफ ही थी. दोनों की मौन स्वीकृति से ही मैं ने ड्राइवर को धनौल्टी चलने को हां कह दिया.

गूगल से ही थोड़ाबहुत मसूरी और धनौल्टी  के बारे में जाना था. आज प्रत्यक्षरूप से देखने का पहली बार मौका मिला है. मन बहुत ही कुतूहल से भरा था. खूबसूरत कटावदार पहाड़ी रास्ते पर हमारी टैक्सी दौड़ रही थी. एकएक पहाड़ की चढ़ाई वाला रास्ता बहुत ही रोमांचकारी लग रहा था. बगल में बैठी मनामी को ले कर मेरे मन में कई सवाल उठ रहे थे. मन हो रहा था कि पूछूं कि यहां किस सिलसिले में आई हो, अकेली क्यों हो. लेकिन किसी अनजान लड़की से एकदम से यह सब पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था.

मनामी की गहरी, बड़ीबड़ी आंखें उसे और भी खूबसूरत बना रही थीं. न चाहते हुए भी मेरी नजरें बारबार उस की तरफ उठ जातीं. मैं और मनामी बीचबीच में थोड़ा बातें करते हुए मसूरी के अनुपम सौंदर्य को निहार रहे थे. हमारी गाड़ी कब एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर पहुंच गई, पता ही नहीं चल रहा था. कभीकभी जब गाड़ी को हलका सा ब्रेक लगता और हम लोगों की नजरें खिड़की से नीचे जातीं तो गहरी खाई देख कर दोनों की सांसें थम जातीं. लगता कि जरा सी चूक हुई तो बस काम तमाम हो जाएगा.

जिंदगी में आदमी भले कितनी भी ऊंचाई पर क्यों न हो पर नीचे देख कर गिरने का जो डर होता है, उस का पहली बार एहसास हो रहा था. ‘अरे भई, ड्राइवर साहब, धीरे… जरा संभल कर,’ मनामी मौन तोड़ते हुए बोली.

‘मैडम, आप परेशान मत होइए. गाड़ी पर पूरा कंट्रोल है मेरा. अच्छा सरजी, यहां थोड़ी देर के लिए गाड़ी रोकता हूं. यहां से चारों तरफ का काफी सुंदर दृश्य दिखता है.’ बचपन में पढ़ते थे कि मसूरी पहाड़ों की रानी कहलाती है. आज वास्तविकता देखने का मौका मिला.

गाड़ी से बाहर निकलते ही हाड़ कंपा देने वाली ठंड का एहसास हुआ. चारों तरफ से धुएं जैसे उड़ते हुए कोहरे को देखने से लग रहा था मानो हम बादलों के बीच खड़े हो कर आंखमिचौली खेल रहे होें. दूरबीन से चारों तरफ नजर दौड़ाई तो सोचने लगे कहां थे हम और कहां पहुंच गए.

अभी तक शांत सी रहने वाली मनामी धीरे से बोल उठी, ‘इस ठंड में यदि एक कप चाय मिल जाती तो अच्छा रहता.’ ‘चलिए, पास में ही एक चाय का स्टौल दिख रहा है, वहीं चाय पी जाए,’ मैं मनामी से बोला.

हाथ में गरम दस्ताने पहनने के बावजूद चाय के प्याले की थोड़ी सी गरमाहट भी काफी सुकून दे रही थी. मसूरी के अप्रतिम सौंदर्य को अपनेअपने कैमरों में कैद करते हुए जैसे ही हमारी गाड़ी धनौल्टी के नजदीक पहुंचने लगी वैसे ही हमारी बर्फबारी देखने की आकुलता बढ़ने लगी. चारों तरफ देवदार के ऊंचेऊंचे पेड़ दिखने लगे थे जो बर्फ से आच्छादित थे. पहाड़ों पर ऐसा लगता था जैसे किसी ने सफेद चादर ओढ़ा दी हो. पहाड़ एकदम सफेद लग रहे थे.

पहाड़ों की ढलान पर काफी फिसलन होने लगी थी. बर्फ गिरने की वजह से कुछ भी साफसाफ नहीं दिखाई दे रहा था. कुछ ही देर में ऐसा लगने लगा मानो सारे पहाड़ों को प्रकृति ने सफेद रंग से रंग दिया हो. देवदार के वृक्षों के ऊपर बर्फ जमी पड़ी थी, जो मोतियों की तरह अप्रतिम आभा बिखेर रही थी. गाड़ी से नीचे उतर कर मैं और मनामी भी गिरती हुई बर्फ का भरपूर आनंद ले रहे थे. आसपास अन्य पर्यटकों को भी बर्फ में खेलतेकूदते देख बड़ा मजा आ रहा था.

‘सर, आज यहां से वापस लौटना मुमकिन नहीं होगा. आप लोगों को यहीं किसी गैस्टहाउस में रुकना पड़ेगा,’ टैक्सी ड्राइवर ने हमें सलाह दी. ‘चलो, यह भी अच्छा है. यहां के प्राकृतिक सौंदर्य को और अच्छी तरह से एंजौय करेंगे,’ ऐसा सोच कर मैं और मनामी गैस्टहाउस बुक करने चल दिए.

‘सर, गैस्टहाउस में इस वक्त एक ही कमरा खाली है. अचानक बर्फबारी हो जाने से यात्रियों की संख्या बढ़ गई है. आप दोनों को एक ही रूम शेयर करना पड़ेगा,’ ड्राइवर ने कहा. ‘क्या? रूम शेयर?’ दोनों की निगाहें प्रश्नभरी हो कर एकदूसरे पर टिक गईं. कोई और रास्ता न होने से फिर मौन स्वीकृति के साथ अपना सामान गैस्टहाउस के उस रूम में रखने के लिए कह दिया.

गैस्टहाउस का वह कमरा खासा बड़ा था. डबलबैड लगा हुआ था. इसे मेरे संस्कार कह लो या अंदर का डर. मैं ने मनामी से कहा, ‘ऐसा करते हैं, बैड अलगअलग कर बीच में टेबल लगा लेते हैं.’ मनामी ने भी अपनी मौन सहमति दे दी.

हम दोनों अपनेअपने बैड पर बैठे थे. नींद न मेरी आंखों में थी न मनामी की. मनामी के अभी तक के साथ से मेरी उस से बात करने की हिम्मत बढ़ गई थी. अब रहा नहीं जा रहा था, बोल पड़ा, ‘तुम यहां मसूरी क्या करने आई हो.’

मनामी भी शायद अब तक मुझ से सहज हो गई थी. बोली, ‘मैं दिल्ली में रहती हूं.’ ‘अच्छा, दिल्ली में कहां?’

‘सरोजनी नगर.’ ‘अरे, वाट ए कोइनस्टिडैंट. मैं आईएनए में रहता हूं.’

‘मैं ने हाल ही में पढ़ाई कंप्लीट की है. 2 और छोटी बहनें हैं. पापा रहे नहीं. मम्मी के कंधों पर ही हम बहनों का भार है. सोचती थी जैसे ही पढ़ाई पूरी हो जाएगी, मम्मी का भार कम करने की कोशिश करूंगी, लेकिन लगता है अभी वह वक्त नहीं आया. ‘दिल्ली में जौब के लिए इंटरव्यू दिया था. उन्होंने सैकंड इंटरव्यू के लिए मुझे मसूरी भेजा है. वैसे तो मेरा सिलैक्शन हो गया है, लेकिन कंपनी के टर्म्स ऐंड कंडीशंस मुझे ठीक नहीं लग रहीं. समझ नहीं आ रहा क्या करूं?’

‘इस में इतना घबराने या सोचने की क्या बात है. जौब पसंद नहीं आ रही तो मत करो. तुम्हारे अंदर काबिलीयत है तो जौब दूसरी जगह मिल ही जाएगी. वैसे, मेरी कंपनी में अभी न्यू वैकैंसी निकली हैं. तुम कहो तो तुम्हारे लिए कोशिश करूं.’ ‘सच, मैं अपना सीवी तुम्हें मेल कर दूंगी.’

‘शायद, वक्त ने हमें मिलाया इसलिए हो कि मैं तुम्हारे काम आ सकूं,’ श्रीनिवास के मुंह से अचानक निकल गया. मनामी ने एक नजर श्रीकांत की तरफ फेरी, फिर मुसकरा कर निगाहें झुका लीं. श्रीनिवास का मन हुआ कि ठंड से कंपकंपाते हुए मनामी के हाथों को अपने हाथों में ले ले लेकिन मनामी कुछ गलत न समझ ले, यह सोच रुक गया. फिर कुछ सोचता हुआ कमरे से बाहर चला गया.

सर्दभरी रात. बाहर गैस्टहाउस की छत पर गिरते बर्फ से टपकते पानी की आवाज अभी भी आ रही है. मनामी ठंड से सिहर रही थी कि तभी कौफी का मग बढ़ाते हुए श्रीनिवास ने कहा, ‘यह लीजिए, थोड़ी गरम व कड़क कौफी.’

तभी दोनों के हाथों का पहला हलका सा स्पर्श हुआ तो पूरा शरीर सिहर उठा. एक बार फिर दोनों की नजरें टकरा गईं. पूरे सफर के बाद अभी पहली बार पूरी तरह से मनामी की तरफ देखा तो देखता ही रह गया. कब मैं ने मनामी के होंठों पर चुंबन रख दिया, पता ही नहीं चला. फिर मौन स्वीकृति से थोड़ी देर में ही दोनों एकदूसरे की आगोश में समा गए. सांसों की गरमाहट से बाहर की ठंड से राहत महसूस होने लगी. इस बीच मैं और मनामी एकदूसरे को पूरी तरह कब समर्पित हो गए, पता ही नहीं चला. शरीर की कंपकपाहट अब कम हो चुकी थी. दोनों के शरीर थक चुके थे पर गरमाहट बरकरार थी.

रात कब गुजर गई, पता ही नहीं चला. सुबहसुबह जब बाहर पेड़ों, पत्तों पर जमी बर्फ छनछन कर गिरने लगी तो ऐसा लगा मानो पूरे जंगल में किसी ने तराना छेड़ दिया हो. इसी तराने की हलकी आवाज से दोनों जागे तो मन में एक अतिरिक्त आनंद और शरीर में नई ऊर्जा आ चुकी थी. मन में न कोई अपराधबोध, न कुछ जानने की चाह. बस, एक मौन के साथ फिर मैं और मनामी साथसाथ चल दिए.

जातिवाद का जहर और आधुनिक शैली का दिखावा

आधुनिक समाज में जातिवादी बातें बेमानी लगती हैं. लोगों की जीवनशैली और विचारधारा में परिवर्तन आया है. नेताओं की इन बातों और पाठ्यपुस्तकों से ऐसा लगता भी है, लेकिन हकीकत हूबहू ऐसी नहीं है. परदे के पीछे पुरानी तसवीर उभरती नजर आती है.

सरकारी नौकरी और ओहदे आज भी लोगों के आकर्षण का केंद्र हैं. बाहरी समाज से ज्यादा जातिवाद, भाषावाद और भाईभतीजावाद सरकारी कर्मचारियों की सोसाइटी में देखने को मिलता है. सरकारी नौकरी व तबादले के कारण कर्मचारियों की आवासीय कालोनी ही उन का अपना परिवार होती हैं. किंतु जब आप इस सोसाइटी का हिस्सा बनते हैं तो आप के सामने इस के कई विकृत रंग नजर आते हैं. सरकारी आवास ज्यादातर शहरों व गांवों के बाहर बने होते हैं. आवास कर्मचारियों के पदानुसार तय होते हैं. बड़े शहरों में तो ये आवास फ्लैटनुमा होते हैं. एक बिल्डिंग में रहने के कारण लोग नेमप्लेट पर लगे नामों से एकदूसरे को जानते हों किंतु मेलमिलाप बहुत दूर की बात है. घरों के बंद दरवाजे उन के दिलों को भी बंद रखते हैं. महीनों में कभी कोई सीढ़ी पर नजर आ गया तो वह या तो मुसकराएगा या फिर यों ही निकल जाएगा, जैसे कोई अजनबी हो. एक बार ऐसा ही किस्सा देखने को मिला. आसपड़ोस में रहने वाले 2 अफसर दूसरे शहर में किसी कार्यक्रम में मिले और बातचीत के बाद उन्हें मालूम हुआ कि हम दोनों पड़ोसी हैं.

हालांकि, चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के परिवारों में थोड़ाबहुत मेलजोल दिखाई देता है. ऐसे परिवेश में प्यारमुहब्बत तो ठीक है लेकिन ज्यादातर महिलाएं या परिवार ताकझांक के काम में लिप्त रहते हैं. किस के यहां कौन आया, कौन गया. परिवार में कौनकौन हैं, क्या हो रहा है. कब अवकाश लिया और क्या किया. जब तक सामने वाले का छिलका न उतार दें, चैन ही नहीं मिलता. अलगअलग लोगों की भिन्नभिन्न मानसिकता का स्वरूप यहां देखने को मिलता है.

एकदूसरे से बचना, प्राइवेसी को संभालना मुख्य मुद्दा होता है. अफसरों का मनमुटाव उन के परिवार में भी साफ झलकता है. एकदूसरे से निश्चित दूरी बनाए रखना आम बात है. एक समस्या ऐसी है जिस का सामना सोसाइटी में रहने आए हर नए परिवार को करना पड़ता है. नई जगह रोजमर्रा की चीजें दूध, पेपर, पानी, बाई जैसी आम जरूरतों के लिए स्वयं खोजखबर लेनी पड़ती है. पड़ोस में रहने वाले यह जानकारी देना तो दूर की बात है वे पानी के लिए भी पूछने से बचते हैं.

कानाफूसी की लत सरकारी कर्मचारियों के परिवारों में इस तरह की मानसिकता सर्वोपरि होती है. औफिस में सहकर्मियों के साथ संबंधों का असर उन के परिवारों पर भी पड़ता है. सहकर्मी का यदि किसी सहकर्मी से मेलमिलाप न हुआ तो उस के पारिवारिक संबंध बनते हुए भी बिगड़ जाते हैं. इन की पत्नियों के साधारणतया वार्त्तालाप के विषय ही यही होते हैं – ‘हमारे साहब ने यह काम किया,’ ‘हमारे साहब बहुत काम करते हैं,’ ‘ऐसा काम आया,’ ‘औफिस में किस ने क्या कहा’, ‘कहां क्या आया’ वगैरह. जैसे सिर्फ उन के पति ही काम करते हैं, बाकी तो आरामतलबी के लिए दफ्तर जाते हैं.

सरकारी अफसरों की पत्नियां अपने खुद के व्यक्तित्व पर नहीं बल्कि अपने पति के पदों को जीती हैं. उन में एकदूसरे से बड़ा दिखने की होड़ लगी रहती है. जिन के पति ओहदे में बड़े हैं, वे अपने पति के मातहत व सहकर्मियों के परिवारों से आवभगत व चमचागीरी की उम्मीद करती हैं. खुद को ऊंचा बता कर दूसरों को छोटा दर्शाना ऐसी महिलाओं की आदत होती है. पुरुषों के पदों व स्तर के अनुसार महिलाएं भी अपनाअपना दल तैयार करती हैं. यदि किसी नए परिवार ने किसी एक दल से वार्त्ता या मेलमिलाप किया तो अन्य दल के लोग उन से दूरी बना लेते हैं. जिसे समझना नए परिवारों के लिए मुश्किल होता है कि आखिर उन से क्या हो गया. कुछ ऐसे परिवार भी होते हैं कि जिन का मतलब सिर्फ कुरसी से होता है. जो आगे बढ़ने की सीढ़ी बने, उस की चमचागीरी करो.

सरकारी सोसाइटियों में जातिवाद व भाईभतीजावाद का बोलबाला होता है. बच्चों का बचपन इसी परिवेश में रह कर कहीं खो सा जाता है. वे जो देखते हैं, उसे ही आगे बढ़ाते हैं. ऐसे में भविष्य में उन के सामाजिक होने में दिक्कत आती है. यहां विजातीय परिवारों को मनमुटाव का सामना सब से ज्यादा करना पड़ता है. सजातीय परिवारों में यदि कोई कार्यक्रम होता है तो भाईबंधु बढ़चढ़ कर पैसा जमा कर बड़ा गिफ्ट देते हैं. भले ही किसी विजातीय का उन से संबंध न हो, पर बुलाए जाने पर भी विनम्र और विजातीय परिवार को सामाजिक मजबूरी के कारण शामिल होना पड़ता है. जातिवाद का संस्कार

हमारे एक हिंदीभाषी मित्र हैं. उन के ज्यादातर साथी मराठीभाषी थे. एक जगह वे 3 वर्ष रहे. उन के एक सहकर्मी की बेटी की शादी थी. सभी औफिस वालों ने मिल कर हारमोनियम व वाशिंग मशीन गिफ्ट की. परिवार की महिलाओं ने भी पैसे जमा कर साड़ी सैट दिए. हालांकि उन में कुछ परिवार जातिभाई थे लेकिन हमारे मित्र सब से हमेशा मीठी बातें करते व सभी परिवारों को अपना समझते रहे. प्रतिवर्ष होने वाले तबादले में पुरुष व महिलावर्ग ने उन्हें अलगअलग सैंड औफ दिया. उन का अच्छे से सत्कार किया. किंतु जब एक बार प्रमोशन पर उन का तबादला आया तो लोगों ने पल्ला झाड़ लिया. 10 दिनों बाद जब उन के किसी अपने का तबादला हुआ तो वही प्रथा फिर कायम हो गई. यहां तात्पर्य सैंड औफ या गिफ्ट से नहीं है, बल्कि लोगों की मानसिकता से है, जो भेदभाव को बढ़ावा देती है. ऐसे परिवेश में विजातीय व विभाषी लोग कट कर रहना ही पसंद करते हैं. जातिवाद व भाषावाद का जहर धीरेधीरे मन को ग्रसित करने लगता है. अपनी मेहनत व काबिलीयत के दम पर उच्च पद पर आसीन होने वाले प्रकाश चंद्र तबादले के बाद जलगांव पहुंचे. हिंदीभाषी प्रकाश चंद्र के अन्य सहकर्मी मराठी, मराठी ब्राह्मण, मराठा, एकदो अन्य जाति के थे. सभी के आवास एक ही सोसाइटी में थे. छलकपट से परे प्रकाश चंद्र से सहकर्मियों का अच्छा व्यवहार था, जो क्षणभंगुर निकला. हुआ यों कि जिले के जिलाधीश तबादले के बाद वहां आए. प्रकाश चंद्र के गुरु व ट्रेनर होने के कारण उन का व्यवहार उन के साथ स्नेहभरा था. उन्होंने उन की काबिलीयत देखते हुए उन्हें प्रमुख कार्यक्रम के कार्य प्रबंधन का कार्य सौंप दिया जो अन्य लोगों को नागवार गुजरा.

साम, दाम, दंड, भेद की नीति तोड़ो और जोड़ो की नीति पर कार्य करने लगे. लोगों ने अपनी जाति व भाषानुसार दंभ दिखाना व तिरस्कार करना शुरू कर दिया. औफिस में किसी तरह काम में अड़ंगा लगाना, परिवार की महिलाओं द्वारा सार्वजनिक कार्यक्रमों में उन के परिवार को नजरअंदाज करना व तंज कसना आदि शुरू कर दिया. अपने जातिभाई लोगों को अच्छा बना कर प्रमुख के सामने प्रस्तुत करना जैसी ओछी हरकतों का असर मनमुटाव का सब से बड़ा कारण होता है. एक सहकर्मी, जो रिटायर होने वाले थे लेकिन अपने सेवाकाल में कभी प्रमोशन नहीं पा सके, सार्वजनिक वार्त्ता में बोले कि हमारे देश में बाहर के लोग नौकरियों में कटोरा ले कर आ गए. देश से उन का मतलब प्रदेश ही था.

ऐसी विकृत मानसिकता को क्या कहें. मानसिक प्रताड़ना की हदें तब पार होती हैं जब बच्चों का भी मेलजोल बंद कराया जाता है. अच्छे संबंध भी जातिवाद व भाषावाद के कारण मनमुटाव में बदल जाते हैं. दूषित सोच

हाल ही में महेंद्र अपने बेटेबेटी को उच्चशिक्षा दिलाने के लिए मुंबई तबादला ले कर आए. इत्तफाक से वहां कुछ सहकर्मी उन के ही डिपार्टमैंट के निकले. सोचा, पुरानी पहचान है, अच्छी जमेगी. घर में आते ही सब से पहले लोगों की नजर इस बात पर थी कि उन के घर में क्याक्या सामान आया है. कभी कोई डोरबैल बजती तो पड़ोसियों की निगाहें परदे के पीछे से खिड़कीदरवाजे पर चिपकी मिलतीं, कौन, क्या, कैसे. ‘अरे, इन के यहां कितना सामान है,’ एक ही पगार वाले होने के बावजूद इस तरह की वार्त्ता गरमाती रहती है.

कालेज जाने में असुविधा होने से महेंद्र को बेटी को होस्टल में रखने का निर्णय लेना पड़ा. लेकिन यह बात किसी को जाहिर नहीं की. पारिवारिक समस्या से वे खुद ही जूझ रहे थे. लोगों ने सच जानने के लिए उन का जीना दूभर कर दिया. जातिवाद का प्रचंडस्वरूप तब देखने को मिलता है जब वही कार्य उन के अपने लोग करते हैं. विजातीय लोगों को इस का खमियाजा भुगतना पड़ता है, जिस का सरोकार उन के कार्य से भी नहीं होता है, लेकिन बातों की गरमाहट का बाजार व राजनीतिकरण होता रहता है.

तबादले और शारीरिक व मानसिक थकान के कारण कुछ दिनों के लिए महेंद्र ने दफ्तर से पूर्ण अवकाश ले लिया कि घर पर ही आराम करेंगे, गांव नहीं जाएंगे. चूंकि दीवाली की भी छुट्टियां थीं, दफ्तर का हर एक दिन का चार्ज किसी न किसी के पास रहता था. महेंद्र का चार्ज उन के तथाकथित मित्र पूरन के पास चला गया. पूरन को कुलबुलाहट होने लगी. शाम को तिलमिलाते हुए वे महेंद्र के घर पर टपक गए, क्यों छुट्टी ली. छुट्टी ले कर घर पर बैठे हो. हमारे ऊपर कितना काम है. वे बाल की खाल निकालने लगे. अवकाश के बाद दफ्तर में जातिवाद ने अपना जहर उगल दिया. साथ ही परिजनों का मनमुटाव भी प्रखर होने लगा. मिसेज महेंद्र ने कई प्रयत्न किए किंतु मिसेस पूरन की गर्मजोशी गायब थी.

सरकारी सोसाइटी में त्योहार भी सरकारी नजर आते हैं. सजातीय भाईबंधु फिर भी थोड़ाबहुत मेलमिलाप कर लेते हैं, किंतु दूसरे लोगों के साथ उन की गर्मजोशी कम ही नजर आती है. बड़े शहरों में जहां फ्लैटनुमा आवास होते हैं वहां त्योहारों की रौनक ज्यादा गायब रहती है. कुछ लोग दीवाली के

4-5 दिनों के अवकाश में बाहर चले जाते हैं. जो शेष रहते हैं, वे जगमगाते फ्लैटों में कैद ही रहते हैं. शहरों में जहां हर जगह रौनक होती है वहीं दूसरी ओर इन सोसाइटीज में चहलपहल भी नहीं होती है. एक ही जगह साथ रहने वाले लोगों का एकदूसरे से अपरिचित सा व्यवहार सोसाइटी को हृदयविहीन बनाता है. यहां भाषावाद, जातिवाद का राजनीतिकरण चरमोत्कर्ष पर होता है. यह ऐसा जहर है जो धीरेधीरे सामाजिक व्यवस्था को अंदर से खोखला कर रहा है.

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