‘अजगर करे न चाकरी पंक्षी करे न काज’ की तर्ज पर देश में हर जाति अब आरक्षण की हलवा खाना चाहती है. जनता की इस कमजोरी का लाभ उठा कर नेताओं ने आरक्षण को वोटबैंक बना दिया है. नेता आरक्षण को समाज के सुधार के लिये नहीं, बल्कि कुर्सी पर बने रहने के लिये कर रहे है. यह कारण है कि आरक्षण का लाभ 70 साल के बाद भी अंतिम व्यक्ति तक नहीं पहुंच सका है. भारतीय जनता पार्टी की केन्द्र  सरकार ने अपने मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ की आरक्षण नीति को नकार दिया है. वित्त मंत्री अरूण जेटली ने कहा कि आरक्षण के मौजूदा प्रारूप से कोई छेडछाड नहीं की जायेगी.

बीमारू समाज को सेहतमंद करने का जो इलाज आरक्षण की दवा के रूप में 70 साल पहले खोजा गया आज खुद बीमारी बन कर समाज के सामने खडा है. 21 प्रतिशत दलित आरक्षण के साथ शुरू हुआ सफर 50 फीसदी तक पहुंच गया है. अगर सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50 फीसदी तय न की होती, तो शायद आरक्षण का प्रतिशत कहीं का कहीं पहुंच गया होता. आरक्षण का लाभ दलित और पिछडे समाज में मुठ्ठी भर लोगों तक ही सीमित रह गया है. जिसकी वजह से दलित और पिछडों का बडा वर्ग अभी भी जस का तस बना हुआ है.

आरक्षण से समाजिक समरसता की कल्पना अब जातीय विवाद तक पहुंच गई है. गुजरात में पटेल, हरियाणा में जाट बिरादरी ने अपने लिये आरक्षण की मांग करते हुये जो रोष दिखाया उससे आने वाले दिनों में वर्ग संघर्ष का संकेत साफ साफ दिख रहा है. आरक्षण को नेताओं ने अपनी कुर्सी को बचाने का हथियार बना लिया. आरक्षण की समीक्षा को इसके खत्म करने की साजिश बता कर आरक्षण का लाभ पा चुके लोग अपनी ही बिरादरी के लोगों को इसके लाभ से वंचित रखना चाहते है. दलित और पिछडी जातियों में आरक्षण का लाभ केवल उन जातियों केा ही मिल सका है जिनके नेता सरकार में रहे है. बाकी समाज की हालत वैसी ही है. तमिलनाडु में दलित युवक की हत्या इसलिये कर दी गई क्योकि उसने ऊंची जाति की लडकी से शादी की थी. आगरा में गलती से दलित के छू जाने से उसको सजा दी गई.

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