मैल्कम एक्स की एक कहावत है कि शिक्षा भविष्य का पासपोर्ट है क्योंकि कल उन का है जो आज इस के लिए तैयारी करते हैं. लेकिन क्या यह कहावत आज के संदर्भ में सही साबित हो रही है? आज के युवाओं का एजुकेशन सिस्टम और उस का भविष्य सरकार भरोसे है जो लगातार अंधकार की तरफ जा रहा है.

ऐसा इसलिए है क्योंकि एक तरफ तो हम विश्वगुरु बनने की बात करते हैं और दूसरी तरफ हमारी सरकार एजुकेशन बजट लगातार घटाती ही जा रही है. अपनी देश की बिगड़ती शिक्षा व्यवस्था पर इस का कोई ध्यान नहीं है. एजुकेशन पर खर्च करने के नाम इस के हाथ पैर फूल जाते हैं. अब कोई यह बताए कि बिना एजुकेशन पर खर्च किए हम कैसे विश्वगुरु बन सकते हैं?

सरकार क्या कर रही है

केंद्रीय बजट 2024-25 का जो एजुकेशन बजट आया है उस में एजुकेशन के लिए जो पैसा अलौट किया गया है वह पिछले साल के मुकाबले कम था. यह बजट शिक्षा में सुधार के वादे तो करता है लेकिन उन्हें पूरा करने में विफल नजर आता है.

वैसे भी हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री वादा करने में तो नंबर वन हैं ही. लेकिन वाकई यह बजट शिक्षा के कई ऐसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में कमजोर पड़ता नजर आता है जो इस क्षेत्र की बढ़ती मांगों और अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए जरूरी थीं.

जैसे कि भारत में काफी समय से एजुकेशनिस्ट और स्टूडैंट आर्गेनाइजेशन डिमांड कर रहे हैं कि यहां का एजुकेशन बजट 6 फीसदी से ज्यादा बढ़ाया जाए लेकिन अभी भी एजुकेशन बजट 2-3 फीसदी के आसपास ही है. जितनी डिमांड है, हम उस का आधे से भी कम एजुकेशन पर खर्च कर रहे हैं.

आर्थिक सर्वेक्षण 2023-24 में शिक्षा पर मात्र 2.7 फीसदी आवंटन बताया गया था, जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति या एनईपी 2020 की 6 फीसदी की सिफारिश से काफी कम है. यह कमखर्च सीधे शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित करता है और इस से सार्वजनिक शिक्षा के संस्थानों को गंभीर संसाधन की कमी का सामना करना पड़ेगा. वैश्विक स्तर पर हमारे देश के शीर्ष 200 में केवल 3 विश्वविद्यालय शामिल हैं. पर्याप्त निवेश के बिना भारत के एजुकेशन सिस्टम का अपनी एक अलग पहचान बनाना मुश्किल है.

2024 के अंतरिम बजट में यूजीसी के लिए फंडिंग को पिछले वर्ष के संशोधित अनुमान 6,409 करोड़ रुपए से घटा कर 2,500 करोड़ रुपए कर दिया गया है, जो 60.99 प्रतिशत की गिरावट है. वहीं समग्र शिक्षा अभियान के लिए आवंटन में 2024-25 में 37,453.47 करोड़ रुपए से मामूली वृद्धि हो कर 37,500 करोड़ रुपए हो गई.

भारत में शिक्षा का गिरता स्तर

शिक्षा पर खर्च के मामले में भारत की स्थिति बहुत संतोषजनक नहीं है. इस क्षेत्र में खर्च के मामले में भारत का दुनिया में 136वां स्थान है. जरूरत के मुताबिक कमखर्च और क्वालिटी एजुकेशन की कमी सब से बड़ी चिंता है.

भारत का शिक्षा पर खर्च अन्य देशों की तुलना में काफी कम है. उदाहरण के लिए, ब्रिटेन और अमेरिका 5-6 फीसदी शिक्षा पर खर्च करते हैं. यहां यह भी देखने की जरूरत है कि जनसंख्या अनुपात के हिसाब से वहां की जीडीपी और सरकार का रेवेन्यू भारत के मुकाबले बहुत ज्यादा अच्छा है. यहां तक कि प्रतिव्यक्ति आय में भी ये दोनों देश भारत के मुकाबले बहुत आगे हैं. यह असमानता भारत के लिए सही नहीं है. अगर भारत को आगे बढ़ना है तो उसे एजुकेशन पर खर्च तो करना ही पड़ेगा. यह इसलिए भी जरूरी है कि टैक्नोलौजी के मामले में हमें वैस्टर्न देशों की तरफ देखना पड़ता है क्योंकि यहां रिसर्च पर सही खर्चा नहीं किया जाता.

सरकार को दुनिया के साथ कदम से कदम मिला कर चलने के लिए भारत के एजुकेशन सिस्टम को कक्षाओं, प्रयोगशालाओं, पुस्तकालयों और डिजिटल बुनियादी ढांचे के साथ आधुनिकीकरण करने की सख्त जरूरत है. और, यह शिक्षा पर बजट बढ़ाए जाने से संभव होगा. टीचर्स को नई स्किल्स की ट्रेनिंग देने की जरूरत है. अपर्याप्त वित्त पोषण, शोध और विकास पर धयान न देना, कौशल विकास के बारे में न सोचन आदि भारत के एजुकेशन सिस्टम का हाल और भी बुरा कर देगा.

विश्वगुरु एक मजाक

हम विश्वगुरु बनने की बात करते हैं. हमारी सरकार लगातार यही कहती है हम विश्वगुरु हैं, हम दुनिया को सीख देते हैं. हमारी गुरुशिष्य परंपरा रही है लेकिन फिर ऐसा कैसे हो सकता है कि जरमनी, कनाडा, अमेरिका का एजुकेशन सिस्टम हम से कहीं आगे है. हम अपनी पीठ थपथपाते हैं, अपने मुंह मियां मिट्ठू बनते हैं. लेकिन लिटरेसी रेट में हम 127वें नंबर पर हैं, यह बहुत ही शर्मनाक है.

संस्कृति पर झूठा गौरव

समस्या यह है कि देश में सवाल उठाने वाले देशविरोधी बताए जा रहे हैं और संस्कृति का ढोल पीटने वाले देशभक्त. अतीत पर गर्व करने से क्या वर्तमान ठीक हो जाता है? अतीत का ढोल पीटने से क्या मौजूदा समस्याएं दूर हो जाती हैं?

भारत के विभिन्न वेदों, उपनिषदों एवं पुराणों में यह बताया भी गया है कि ज्ञान मनुष्य का तीसरा नेत्र है और इस से सफलता के सारे रास्ते खुलते हैं. लेकिन इसी ज्ञान को लेने से बहुसंख्यक आबादी को रोका गया.

जब भारत की संस्कृति इतनी महान थी तो अब क्या हो गया? शायद ये सब सोचने का अब आप के पास टाइम ही नहीं है क्योंकि अपना कीमती समय तो आप को सोशल मीडिया पर खर्च करना है, तो फिर इन सरकारों को ही क्या पड़ी है कि आप की शिक्षा के लिए अपना बजट बढ़ाएं. सच तो यही है कि सारी गलती सरकार की भी नहीं है जब युवा ही उस से सवाल नहीं करेंगे तो उसे ही क्या पड़ी है सोचने की.

आज यूनिवर्सिटी में छात्र अपनी आवाज नहीं उठा पा रहे हैं. नीट, नेट में धांधली के उदाहरण हमारे सामने हैं. यह सिस्टम किस तरह के डाक्टर बना रही है. हमारी शिक्षा धर्म के आधार पर बंटी है. मंदिरों और मदरसों में स्कूल खुले हैं. प्राचीन भारत में विदेशों से छात्र भारत पढ़ने आते थे. तक्षशिला, पाटलीपुत्र, कान्यकुब्ज, मिथिला, धारा, तंजोर, काशी, कर्नाटक, नासिक आदि शिक्षा के प्रमुख वैश्विक केंद्र थे जहां विभिन्न देशों से छात्र पढ़ने आते थे.

क्या भारत में शिक्षा व्यवस्था में सुधार कर फिर से विदेशों को भारत में शिक्षा लेने के लिए आकर्षित नहीं किया जाना चाहिए?

हमें अपनी शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन करने होंगे. जो देश ढोल पीटता है कि हमारे पास गुरुकुल है, हमारी परंपरा थी, उसी परंपरा वाले देश में लिटरेसी रेट इतना कम क्यों है?

जहां पहले बाहर के छात्र हमारे यहां पढ़ने आते थे वहीं अब हमारे देश के छात्र बाहर पढ़ने जा रहे हैं. डाक्टर बनने के लिए रशिया, यूक्रेन, कजाकिस्तान जा रहे हैं. एमबीए के लिए अमेरिका जा रहे हैं. इस का बड़ा कारण यह है कि यहां शिक्षण संस्थानों की मोटीमोटी फीस देना हर किसी के लिए संभव नहीं है, इसलिए वे अपने देश में पढ़ने के बजाय बाहर जा कर कम कीमत में पढ़ाई कर आते हैं और फिर वहीं मोटी तनख्वाहें पा कर जौब भी करते हैं, क्योंकि अपने देश में तो उन्हें पढ़लिख कर भी नौकरी नहीं मिलती.

युवा सोशल मीडिया पर मस्त

युवाओं को चाहिए कि वे इन बातों पर अपने एजुकेशन सिस्टम और एजुकेशन बजट से जुड़े सवाल सरकार से पूछें कि वह अपने देश के युवाओं के लिए क्या कर रही है? लेकिन युवा सोशल मीडिया पर मस्त हैं. रील्स देख रहे हैं?

भारत में रोजाना औसतन 4 घंटे 40 मिनट सोशल मीडिया पर यूजर्स समय बिताते हैं और इंस्टाग्राम पर एक आम यूजर दिन में 20 बार आता है. रिसर्च फर्म ‘रेडसियर’ के मुताबिक, इंडियन यूजर्स हर दिन औसतन 7.3 घंटे अपने स्मार्टफोन पर नजरें गड़ाए रहते हैं. सिर्फ यही नहीं, एक भारतीय कम से कम 11 सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर मौजूद है. अब आप खुद ही सोचिए कि इतने सारे प्लेटफौर्म पर टाइम बिताने में कितना समय बरबाद होगा. कुछ आंकड़े बताते हैं कि स्मार्टफोन यूजर्स एक दिन में 120 से अधिक बार अपना फोन औनऔफ करता है.

युवा सोशल मीडिया पर मस्त है तो सरकार को जो करना है वह भी अपनी मनमानी कर के मस्त है. अब यह सोचना युवाओं को है कि वे जो खुद को देश का भविष्य बताते हैं, वे भविष्य व देश को किस दिशा में ले जा रहे हैं.

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