बच्चों का उच्छृंखल और मनमाना व्यवहार, उन के द्वारा मातापिता की अनदेखी करना और अपने कर्तव्य के प्रति कतराना, बुढ़ापे में मातापिता की देखभाल करने से बचने की कोशिश करना या उन्हें वृद्धाश्रम में छोड़ देने जैसी शिकायतें आजकल के युवावर्ग पर लगाई जाती हैं. व्हाट्सऐप व फेसबुक जैसी सोशल नैटवर्किंग प्लेटफौर्म पर युवावर्ग को ले कर अनेक प्रकार की निराशाजनक सामग्री रोज ही पढ़ने को मिलती रहती है, जिन्हें पढ़ कर मन युवावर्ग के प्रति कसैला हो उठता है.
पर क्या बच्चों को यों कठघरे में खड़ा करना उचित है? क्या इस के लिए अकेले बच्चे ही जिम्मेदार हैं? क्या बच्चों के बिगड़ते स्वभाव औैर गैरजिम्मेदाराना व्यवहार के लिए हमारा समाज, बदलती परिस्थितियां और मातापिता भी जिम्मेदार नहीं हैं?
हमारी बदलती सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था और मातापिता की जीवनशैली और उन के पालनपोषण का तरीका ही एक पृष्ठभूमि तैयार कर रहा हैं. हम इस तथ्य पर विचार नहीं कर रहे हैं कि हम किस तरह की और कितनी गुणवत्तापूर्ण परवरिश कर रहे हैं अपने बच्चों की?
आज एकल परिवार में पल रहे बच्चों को भरेपूरे परिवार का वह संरक्षण और लाड़दुलार नहीं मिल रहा है जो संयुक्त परिवार में मिलता था. एकल परिवारों के प्रचलन ने बच्चों से दादादादी, ताऊताई, चाचाचाची व बूआफूफा सरीखे रिश्तों को छीन लिया है. जो शादीब्याह आज से कुछ वर्षों पूर्व तक पारिवारिक सौहार्द्र व मेलमिलाप और आपसी सांमजस्य बढ़ाने और मिलजुल कर रहने का अवसर बनते थे, रिश्तों को मजबूती प्रदान करते थे, वे लुप्तप्राय हो कर दिखावे और प्रतियोगिता का क्षेत्र बनते जा रहे हैं.
अभिभावक जन्म लेते ही बच्चों के सिर पर शिक्षा का चाबुक ले कर सवार होते जा रहे हैं, उस शिक्षा का जो हमारे बच्चों को न तो सुशिक्षित कर रही है और न ही सुसंस्कृत कर रही है. केवल अक्षरों के किताबी ज्ञान से परिचित करा रही है. नैतिकता के पाठ से तो आज की शिक्षा का दूरदूर तक कोई नाता नहीं रह गया.
जिस उम्र में बच्चों को अपनों की एक गोदी से दूसरी गोदी में घूमना चहिए, वही बच्चे आज आंखें मलते भारी बैग लाद कर बस स्टौप पर खड़े कर दिए जाते हैं. अब इस बात की ओर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है कि नंबर उन के बेटे के ज्यादा अच्छे आए हैं या पड़ोसी के बच्चे के. फर्राटेदार अंगरेजी बेटा बोल रहा है या पड़ोसी का. बेटे ने लड़खड़ाते दादाजी को सहारा दिया या नहीं या चश्मा ढूंढ़ती दादी को चश्मा ढूंढ कर दिया या मुझे देर हो रही है, कह कर निकल गया. इन सब नैतिक बातों पर तो हमारी नजर नहीं है.
पढ़ाएं जीवन का पाठ
कभी पिता औैर बच्चे दोनों को एकदूसरे के घर में होने का एहसास होता था. पर आज अधिकांश घरों में क्या होता है? औफिस से आ कर पिता क्या करते हैं? घर में घुसते ही बच्चों के साथ कुछ मीठे पल बिताने के बजाय टैलीविजन का रिमोट ढूंढ़ते हैं. अपनेअपने कमरों और अपनेअपने मोबाइल ओर लैपटौप में व्यस्त हो जाते हैं. बच्चों को इस बात की भनक तक नहीं लगती कि उन के पिता औफिस से घर आए हैं या नहीं.
मां के आंचल में विशाल पाठशाला और आरामगाह बसा होता है. मां ही बच्चे की पहली पाठशाला होती है. पर आज बच्चे मां की उस पाठशाला से वंचित होते जा रहे हैं. बच्चों की बाल्यावस्था कै्रच में या फिर बंद घर की खिड़की से मां का रास्ता देखते व्यतीत हो रही है. आज जब मां के पास बच्चे के लिए समय नहीं रह गया है तो समाज में युवावर्ग का भटकना तय है. बच्चों को मातापिता कै्रच में डाल कर उन का मासूम बचपन आहत कर रहे हैं और बाद में जब उन्हें वही बच्चे ‘ओल्डऐज होम’ भेजते हैं तो फिर किस बात का रोना?
अपनी सुविधा के लिए मातापिता स्वयं ही अपने बच्चों को रिश्तों में घुलनेमिलने का अवसर नहीं प्रदान करते हैं. जिन बच्चों को रिश्तों के बीच समय व्यतीत करने का अवसर कम मिलता है, वे रिश्ते निभाने की कला भी नहीं सिख पाते हैं और भविष्य में यह मातापिता के लिए मुश्किलें खड़ी करता है. हर समय अच्छे अंक, हौबी क्लासेस और कोचिंग क्लासेस की अंधी रेस में अपने बच्चों को दौड़ाने के बजाय उन में आत्मसम्मान और आत्मविश्वास की ज्योति जलाने की कोशिश करनी चाहिए. बच्चों को बड़ा आदमी बनाने के चक्कर में अच्छा आदमी बनाने पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है, जबकि बच्चों को जीवन का पाठ पढ़ाना बहुत आवश्यक है. इस का ज्ञान विद्यालयों में नहीं दिया जाता.
बच्चों को यह बताना भी जरूरी है कि जितने महत्त्वपूर्ण आज हम एकदूसरे के लिए हैं, उतने ही महत्त्वपूर्ण जीवनपर्यंत रहेंगे. उन्हें सहीगलत का जो पाठ हम पढ़ा सकते हैं वह आज का इंटरनैट नहीं सिखा सकता. पहले बच्चे एक सवाल का जवाब पूछने मातापिता के पास जाते थे तो उन्हें उस सवाल के जवाब के साथ ही 10 अन्य सहीगलत बातों का ज्ञान दे दिया जाता था. पर आज बच्चे गूंगेबहरे की तरह हर सवाल का जवाब इंटरनैट पर ढूंढ़ लेते हैं. साथ में 10 गलत बातें सीख लेते हैं अलग.
बच्चों को संवेदनहीन बनाने और उन्हें रिश्तेनातों से दूर कर देने में आज के विद्यालय भी अपनी अहम भूमिका निभा रहे हैं. विद्यालय अपनी अच्छी छवि बनाने और मोटी कमाई की होड़ में किस विद्यालय का परिणाम 100 प्रतिशत गया, किस विद्यालय के सब से अधिक बच्चों ने 90 प्रतिशत से अधिक अंक पाए, किस विद्यालय के बच्चों का बड़ी संख्या में आईआईटी और पीएमटी में चयन हुआ, यह विद्यालयों की रेटिंग के मापदंड बन गए हैं इस का खामियाजा बच्चों और समाज को भुगतना पड़ रहा हैं.
गुणवत्तापूर्ण परवरिश
विद्यालय प्रशासन का एकमात्र उद्देश्य यह रह गया है कि उन के विद्यार्थी इतनी पढ़ाई करें कि परिणाम घोषित होने पर शहर में नंबर वन पर उन के विद्यालय का नाम आए. इस के लिए वे अपने विद्यार्थिंयों की क्षमता की अनदेखी कर उन्हें पढ़ने में झोंक रहे हैं. त्योहारों की छुट्टियां या तो रद्द कर देते है या अतिरिक्त कक्षा के बहाने खोज लेते हैं. शादीब्याह या किसी पारिवारिक आयोजन पर छुट्टी के लिए अवकाश पत्र दिए जाने पर उसे स्वीकार नहीं किया जाता है. छात्रों के जीवन से सुकून छीन कर बचपन से उन के मन में केवल प्रतियोगिता की भावना भरते जा रहे हैं.
जब बेटे की विदेश में नौकरी लगती है तब मातापिता बहुत गौरवान्वित महसूस करते हैं. बड़े गर्व के साथ लोगों को बताते हैं कि मेरा बेटा विदेश में हैं किंतु उस समय वे यह भूल जाते है कि विदेश में रचबस चुके उन के ये बच्चे जरूरत पड़ने पर उन की सेवा के लिए हाजिर नहीं हो पाएंगे. बच्चों के लिए अपनी बसीबसाई गृहस्थी और नौकरी छोड़ कर वापस आना इतना आसान नहीं होता. ऐसे में बच्चे मातापिता की देखभाल के लिए वहीं बैठे अन्य विकल्प तलाशना शुरू कर देते हैं. तब मातापिता के हाथ उन के उच्च शिक्षा प्राप्त उच्च पदासीन बेटों का संरक्षण नहीं आता, बल्कि सिर्फ पछतावा आता हैं.
युवा तो कल्पनाशील होते हैं. ऊंचे सपने देखना औैर ऊंची उड़ान भरना ही उन का स्वभाव होता है. पर मातापिता का जीवन तो अनुभवों पर आधारित होता है. उन्हें अपने बच्चों को सीख देनी चाहिए कि अपनी धरती अपना देश ही हमें सब कुछ देता है.
बच्चों की गुणवत्तापूर्ण परवरिश अत्यंत आवश्यक है. यदि बच्चे के जीवन में इस का अभाव रह जाता है तो उस का खामियाजा बुढ़ापे में मातापिता को ही भुगतना पड़ता है. यदि मातापिता अपने व्यवहार से अपने बच्चों के समक्ष आदर्श स्थापित करते हैं तो वे मूल्य अपनेआप ही बच्चों में स्थांनातरित हो जाते हैं. इसलिए यह आवश्यक है कि जिन मूल्यों की तलाश हम अपने बच्चों में करना चाहते हैं वह अपने अंदर अवश्य रोपित करें. कहने का तात्पर्य यह है कि यदि आज बच्चों ओर युवाओं के व्यवहार में परिवर्तन आया है तो उस के लिए हमारी बदली सामाजिक और पारिवारिक परिस्थितियां भी जिम्मेदार हैं. हमें चाहिए कि इन बातों के लिए युवाओं को दोषी ठहराने के बजाय पारिवारिक जीवन को खुशहाल रखने और सामाजिक असंतोष को कम करने के अपने कर्तव्यों को भी समझें.