उर्मिला बच्चों को जबतब बताती रहतीं कि उन की दादी उन्हें शुरू से ही सुबह जल्दी उठा देती थीं, रातबिरात कोई आए तो खाना बनाने में लगा देतीं, उन्हें जीवन में सुख मिला ही नहीं. एक दिन उन्हें अजीब लगा जब बड़ी बेटी ने कहा, ‘‘क्या आप को उठा कर दादी सोई रहती थीं?’’
‘‘नहीं, वे भी काम करती थीं.’’
‘‘तो फिर आप को शिकायत क्यों? मम्मी, आप को शादी नहीं करनी चाहिए थी.’’
दूसरी बेटी ने सीधे पापा को तलब किया, ‘‘पापा, आप हमारी मम्मी और अपनी मम्मी का काम में हाथ क्यों नहीं बंटाते थे?’’
‘‘सौरी, बिटिया, तब मैं छोटा था. मुझे इतनी अक्ल नहीं थी.’’
‘‘पर पापा, क्या अब भी आप छोटे हैं?’’
ऐसी स्थितियां घरघर में आम हैं. लोग इस के लिए समय तथा जमाने को दोष देते हैं. दरअसल, आज का बच्चा अपने वातावरण के प्रति पहले से ज्यादा सजग और मुखर है. नई तरह की स्कूली शिक्षा ने उसे स्पष्ट व सधी अभिव्यक्ति की ताकत दी है. टीवी चैनलों ने भी कुछ अलग माहौल बनाया है.
यह बात नई नहीं है
बच्चे मांबाप या बड़ों को अब ही खरीखरी सुनाते या कहते हों, ऐसा नहीं है. सचाई और साफगोई आरंभ से ही अभिव्यक्ति का हिस्सा रही है. हम सब ने ऐसी कई सच्ची कथाएं और घटनाएं सुनी हैं, जैसे जब एक पिता ने बच्चे को गन्ने के खेत से गन्ना चुरा कर लाने को कहा तो उस ने तुरंत कहा कि आप ने ही सिखाया है कि चोरी करना गंदी बात होती है, फिर चोरी करने को क्यों कह रहे हैं. पुराण कथाएं भी बताती हैं कि ध्रुव, प्रह्लाद आदि बच्चों ने मातापिता की गलत बातों का विरोध किया तथा सत्य पर अड़े रहे.
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