लेखक-अमिता सक्सेना 

आज बड़ी उम्र के लोग कहते हैं कि फादर डे और डौटर डे जैसे त्योहार चोंचले हैं, पैसे कमाने के तरीके हैं. पुराने जमाने में यह सब नहीं होता था. यह सही है कि व्यावसायिक रूप से तो यह वाकई नहीं होता था पर भावनात्मक दो सौ प्रतिशत होता था. बस, हम लोगों ने कभी इस तरफ ध्यान नहीं दिया. मैं एक छोटी सी घटना आप को कहानी के रूप में सुनाऊंगी, तब आप सम?ा पाएंगे. मधु ने परीक्षा का रिजल्ट देखा, तो खुशी से उछल पड़ी. पर वह खुशी ज्यादा देर नहीं टिकी. एक घबराहट उस के अंदर समा गई क्योंकि अब उसे ट्रेनिंग के वास्ते 7-8 महीने के लिए दिल्ली जाना था.

मधु कभी घर से अलग नहीं रही थी. घर के लोग भी चिंतित थे, विशेषकर पापा. मधु बचपन से ही नाजुक प्रकृति की थी, जल्दीजल्दी बीमार हो जाती थी. अब वहां उसे कौन देखेगा? यह सोच कर पापा थोड़े उदास हो गए थे पर बेटी के भविष्य को देख वे अपनी चिंता चेहरे पर नहीं ला रहे थे. खैर, वह दिन भी आ गया जब मधु पापा के साथ दिल्ली के लिए निकल पड़ी. ट्रेनिंग सैंटर पर पापा के साथ 2 दिन गैस्ट हाउस में रह कर वह होस्टल में शिफ्ट हो गई और पापा घर लौट गए. अब मधु की असली परीक्षा शुरू हुई. एक दिन बाद सभी कैंडिडेट्स को एक हौल में इकट्ठा किया गया.

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नौकरी में चयन होने के बाद कैंडिडेट्स को कुछ फौर्म पोस्ट किए गए थे जिन में से कुछ को भर कर तुरंत संस्थान को भेजने थे. लेकिन 10-12 पेजेज उन्हें सैंटर में ही प्रबंधन समिति (मैनेजमैंट टीम) के साथ भरने थे. हौल में सब को उन्हीं फौर्म्स के साथ बुलवाया गया. जरूरी कार्यवाही में मोबाइल बाहर रखवा दिए जाते हैं, इसलिए किसी के पास मोबाइल नहीं था और कोई भी हौल से बाहर नहीं जा सकता था जब तक प्रक्रिया पूरी न हो जाए. सभी कैंडिडेट्स 21 वर्ष से कम थे. उस फौर्म में नौकरी और लोन जैसे कई पेचीदे अनुबंध के पन्ने थे जिन को उन्हें तभी भर कर देना था. सभी घबरा गए थे.

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