हम लोगों की जिंदगी बिना सब्सिडी के सालों चली. पहले सब्सिडी होती कहां थी? यों कहीं होती भी रही हो तो सरकारें जतलाती नहीं थीं. वे चुपचाप दे देती थीं, ले रख स्टाइल में, जैसे सास, बेटी की विदाई के वक्त दामाद के खीसे में जबरदस्ती नोट डाल रही हो. आजकल एकदम उलट हो रहा है. सरकारें डंके बजाए जा रही हैं. सब्सिडी का बोझ न उठाया जाएगा? कम करना हमारी मजबूरी है. कम कर के रहेंगे. हायरमिडिल क्लास के लिए अच्छे दिनों की गिनती शुरू भी न हो पाई थी कि उलटी गिनती शुरू होने के दिन आ गए. लोग कहते हुए याद करेंगे, वे भी दिन थे, सरकार हर थाली में ‘सब्सिडी कृपालु’ के रूप में पसरी हुई थी. बैगन के भुर्ते में, सब्सिडी की खुशबू हुआ करती थी. दाल के तड़के में, सब्सिडी समाई हुई थी. कुकर जब सीटी बजाता था तो लगता था सब्सिडी का शंखनाद हो रहा है.

क्या सस्ते का जमाना था.

एक सिलेंडर में महीनेभर की फैमिली मौज हो जाया करती थी. मिडिल, हायरमिडिल क्लास के ये छोटेछोटे मजे छीन के कोई चैन से भला कैसे रह सकता है? अब पड़ोसिन से मिलने पर बातें यों होने की नौबत है, तुम्हारे ‘वे’ बिना सब्सिडी वाले सिलेंडर अब कहां से जुगाड़ करते हैं, बहनजी? हमें भी बताओ न, बहुत दिनों से गाजर का हलवा नहीं बनाया. टोमैटो का सीजन निकला जा रहा है सौस बनाने की कौन कहे, सिलेंडर चुक जाएगा? इस से अच्छा तो बाजार से खरीद के इस्तेमाल करने में अक्लमंदी है. आप क्या कहती हैं, मिसेज कविता? आप के यहां सिलेंडर के अकाल तो पड़ते नहीं होंगे, भाई साहब फूड विभाग वाले हैं. एक मंगाओ चार आ जाते होंगे. अरे मिसेज शीला, वे दिन अब लद गए. ये कह रहे थे, अब संभाल कर गैस खर्च करो. आधार कार्ड के जरिए सिलेंडर एकएक को गिनगिन कर मिलेंगे. इफरात में जलानेउड़ाने का जमाना अब रहा नहीं, समझ लो.

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