वैसे तो वे उस दिन से ही पार्टी में घुटन महसूस कर रहे थे जिस दिन चुनाव में लाखों गंवा चुकने के बाद सांसद बन कर दिल्ली को कूच किया था. सोचा था सूद समेत पाईपाई महीनेभर में वसूल कर लेंगे और उस के बाद...बेचारों ने दिल्ली जातेजाते पता नहीं क्याक्या सपने देखे होंगे, वे जानें या फिर उन की आंखें. छोटे बेटे का ये करूंगा तो दामाद को वो. बड़े बेटे को यहां फिट करवा दूंगा तो साले को वहां. भांजे को दिल्ली में कहीं सैटल करवा जीजा का कर्ज भी उतार दूंगा. पर सब सपने धरे के धरे रह गए. कम्बख्त कहीं दांव ही नहीं लग रहा.

अब ऊपर से एक और नया पंगा. कोई गांव गोद लो और फिर उस का विकास करो. प्रकृति भी न, जब देती है तो चोट पर चोट ही देती है. भैयाजी को लगा कि अब तो ये सांसदी सुविधा कम, दुविधा अधिक होती जा रही है. पता नहीं किस घड़ी में चुनाव लड़ने को उठे थे. अगर ऐसे ही चलता रहा तो एक दिन त्यागपत्र दे, घर ही न जाना पड़े. हम ने जवानी में जब मन में कुछ करने का जज्बा था तब जनसेवा के नाम पर घास का तिनका तक न तोड़ा तो अब बुढ़ापे में क्या खाक करेंगे? भैयाजी दुविधा में कि कौन सा गांव गोद लें अपने कार्यकर्ताओं से महीन सर्वे करवाने के बाद भी वे अपने चुनाव क्षेत्र के किसी भी गांव को गोद लेने को फाइनल नहीं कर सके. दूसरी ओर उन के विरोधी थे कि 4-4 गांव तो छोडि़ए वहां की सारी गांववालियों तक को गोद ले अखबारों की सुर्खियां बटोर रहे थे.

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