डिप्रैशन बहुत आम बीमारी हो चली है लेकिन इस का बढ़ना कितना नुकसानदेह होता है, यह हर कोई नहीं समझ पाता. अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत द्वारा की गई आत्महत्या जिस डिप्रैशन की देन बनी उस से निबटना कोई मुश्किल काम नहीं.
सीधेसीधे कहा जाए तो अवसाद यानी डिप्रैशन नकारात्मक विचारों, हताशा और निराशा का एक ऐसा जाल है जिसे सभी, खासतौर से युवा, मकड़ी की तरह अपने इर्दगिर्द बुनते हैं और जब खुद के ही बुने जाल से बाहर निकलने में खुद को असमर्थ पाते हैं तो बिना कुछ सोचेसमझे आत्महत्या कर लेते हैं. पीछे रह जाते हैं रोतेबिलखते कुछ अपने, सगे वाले, दोस्त और रिश्तेदार जिन के मुंह से तो यह निकलता है कि अरे, यह तो ऐसा नहीं था. लेकिन लिहाज के चलते मन की बात मन ही में दब कर रह जाती है कि इस से ऐसी कायरता की उम्मीद नहीं थी.
यही भूल हिंदी फिल्मों के स्मार्ट और प्रतिभाशाली 34 वर्षीय अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने की तो हर कोई हतप्रभ रह गया, क्योंकि यह आम लोगों की उम्मीद से परे बात थी. आमतौर पर धारणा यह है कि शान और सुकून से जिंदा रहने के लिए जो दौलत, इज्जत और शोहरत चाहिए होती है वह सुशांत के पास थी. फिर, ऐसा क्या हो गया कि उसे खुदकुशी करनी पड़ी. कुछ घंटे बाद पता चला कि वह डिप्रैशन में था और कुछ दिनों से एंटीडिप्रैशन दवाएं भी नहीं ले रहा था.
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डिप्रैशन था, तो उस की कोई वजह भी होनी चाहिए. यह वजह फिल्म इंडस्ट्री के कुछ अतिउत्साही कलाकारों ने घर बैठेबैठे खोज भी ली कि, दरअसल, सुशांत इंडस्ट्री की खेमेबाजी का शिकार था, इस के कुछ उदाहरण भी गिनाने वालों ने गिना डाले कि कुछ निर्मातानिर्देशक और कलाकारों ने उस का बहिष्कार कर रखा था, उस के साथ भेदभाव होता था वगैरहवगैरह.
मुमकिन है ऐसा हो लेकिन इसे आत्महत्या कर लेने की मुकम्मल वजह करार नहीं दिया जा सकता. ‘छिछोरे’ और ‘एमएस धोनी : द अंटोल्ड स्टोरी’ सुशांत द्वारा अभिनीत 2 ऐसी फिल्में हैं जिन में हालात से लड़ कर जीतने का सबक खुद उस ने अभिनय के जरिए दर्शकों को सिखाया था. अगर ऐसा कुछ था भी तो सुशांत उस से जूझ क्यों नहीं पाया. जाहिर है उस ने हालात के सामने हथियार डाल दिए थे. यही मनोस्थिति डिप्रैशन कहलाती है, जिस का शिकार कोई भी हो सकता है.
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लड़ते रहे : सुशांत ने हालात से लड़ना छोड़ दिया था, इसलिए वह हार गया. युवाओं के हमारे देश में इन दिनों करोड़ों युवा, एक नहीं बल्कि कई तरह की, समस्याओं से जूझ रहे हैं, लेकिन जिंदा वही हैं जो अपनी संघर्ष क्षमता बनाए हुए हैं. बेरोजगारी इन दिनों देश की बड़ी समस्या है, जिस की गिरफ्त में लौकडाउन के बाद कोई 40 करोड़ युवा आ चुके हैं. इन में से, हालांकि, कई आत्महत्या का शौर्टकट भी चुन रहे हैं, लेकिन इन की संख्या बेहद कम है. इस से सिद्ध होता है कि बाकियों ने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा है और यकीन मानें, यही जज्बा एक दिन इन्हें मनचाहे मुकाम और मंजिल पर ले जाएगा.
ये ही वे युवा हैं जिन्हें अपनी जिम्मेदारियों का एहसास है, मांबाप और भाईबहनों की फिक्र है. इन की सुबह उदास और निराश नहीं होती, बल्कि हर रोज एक नए संकल्प के साथ होती है कि आज, कल से और ज्यादा कोशिश व मेहनत करेंगे. अपने हिस्से की रोटी और रोजगार जमीन खोद कर निकाल कर ही दम लेंगे. यह जज्बा बहुत अहम और जरूरी है और दरअसल, यही जिंदगी भी है कि लगातार गति में रहा जाए. निष्क्रियता एक ढलान है जो खत्म ही मौत के मुहाने पर होती है.
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1.थिंक पौजिटिव : सुशांत, तय है, लौकडाउन के अकेलेपन के चलते पौजिटिव नहीं सोच पा रहा था. पौजिटिव थिंकिंग हमें व्यर्थ के तनावों और डिप्रैशन नाम की बला से बचाए रखती है. जब हम इस से दूर होने लगते हैं तो जिंदगी बेकार और सूनीसूनी लगने लगती है. जैसे ही आप को लगे कि आप भी इस स्थिति का शिकार हो रहे हैं तो फौरन संभल जाएं और याद रखें इस हालत से कोई अगर आप को बाहर निकाल सकता है तो वह खुद आप ही हैं.
2.इस से पहले इस के कुछ लक्षण समझ लें – काम में मन न लगना, यह सोचना कि इस काम को करने से हासिल क्या होगा, नींद और भूख का अनियमित हो जाना, दिल की बात दूसरों तो क्या अपनों से भी न कह पाना, चुपचाप अकेले बैठे या लेटे रहना अच्छा लगने लगना और सब से अहम बात यह कि अपने ही शौक में दिलचस्पी न रह जाना. इस घुटन से बचना बहुत जरूरी है.
3.पौजिटिव थिंकिंग के लिए अपनी अब तक की उपलब्धियों पर नजर डालें. उन पर गर्व करें. अपने परिजनों के बारे में सोचें जिन के लिए आप का होना ही काफी है. नएपुराने लोगों से मिलेंजुलें. उन से फोन पर लंबी बात करें. अच्छी किताबें और पत्रिकाएं पढ़ें. मनपसंद गाने सुनें. पार्क जा कर खिलते फूलों और खेलते बच्चों को देखें. कोई भार अगर दिलोदिमाग पर है या किसी समस्या से परेशान हैं तो इस की चर्चा भरोसेमंद दोस्तों या मातापिता से करें. आप उस वक्त हैरान रह जाएंगे जब इन्हीं में से कोई आप को बता और समझा देगा कि जिसे आप पहाड़ सा समझ रहे थे वह समस्या राई से भी छोटी है.
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सुशांत जैसे काबिल और कामयाब अभिनेता ने यहीं मात खाई. वह अगर पटना से मुंबई तक का अब तक का अपना सफर याद करता तो पाता कि उस ने एक गैरमामूली कारनामा कर दिखाया है. उस के संघर्ष के दिन आसान नहीं थे और अभी तो और बहुतकुछ उसे करना है. अपने बुजुर्ग पिता के बारे में वह सोचता तो उसे समझ आता कि उन के चेहरे की झुर्रियों में भी उस के नाम और मुकाम को ले कर एक चमक और ठसक है जिस के आगे वे लोग उसे बहुत बौने लगते जो उसे हतोत्साहित कर रहे थे.
5.याद रखें, परेशान हर कोई है. हम में से सभी रोज तरहतरह की परेशानियों से लड़ रहे होते हैं. इस में कोई शक नहीं कि कभीकभी ये परेशानियां सांसों पर भारी पड़ने लगती हैं. लेकिन इन से घबरा कर आत्महत्या कर लेना हल नहीं, बल्कि यह तो अपने और अपनों के साथ ज्यादती है. इस से बचें. नई हिम्मत, हौसले और जज्बे के साथ उठें, इन से लड़ें. फिर देखें, जीत आप के पांव चूम रही होगी.