आज पूरा विश्व ही एक अवसादी दौर से गुजर रहा है. कहीं कारोबार के खत्म होने का अवसाद  है तो कहीं कैरियर के रुक जाने का अवसाद. रिपोर्ट्स की मानें तो अवसाद में 27 प्रतिशत का इजाफा हुआ है. कई बार तो यह अवसाद इतना हावी हो जाता है कि एक इंसान को अपनी जिंदगी से इतर मौत को गले लगाना अच्छा विकल्प लगता है. जिसमें से एक हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का चमकता हुआ सितारा सुशांत सिंह राजपूत भी अस्त हो गया.

आत्महत्या एक पलायनवादी प्रवृत्ति और एक कायरतापूर्ण कृत्य है, पर क्या हमें पता है कि दुनियाभर में हर साठवां व्यक्ति इसके बारे में कभी न कभी जरूर सोचता है. मानसिक अवसाद का यह पल हमारी आधी आबादी के भी हिस्से आता है और कहीं ज्यादा आता है.

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पहली बार मां बनने जा रही मीता से जब जोधपुर की एक नामचीन स्त्री रोग विशेषज्ञ ने पूछा, "क्या तुम वाकई इस बच्चे को जन्म देना चाहती हो? कहीं इस प्रेग्नेंसी के लिए खुद को जिम्मेदार तो नही ठहराती हो?"

इस सवाल से थोड़ी कसमसाती मीता ने थोड़ा रूखा ही पर जवाब दे दिया, पर तब उसे इस बात का जरा भी इल्म नहीं था कि ऐसे सवाल की जड़ किसी बीमारी से जुड़ी हुई है और उस बीमारी का नाम है पोस्टपार्टम डिप्रैशन या प्रसवोत्तर अवसाद.

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प्रसवोत्तर अवसाद, अवसाद का वह रूप है जो अमूमन पहले बच्चे के जन्म के बाद आए मानसिक तनाव से होता है, पर कभी कभी यह दूसरे या अगले बच्चों के जन्म तक होता है. यह लक्षण माता पिता दोनो में पाया जाता है, पर इसकी शिकार ज्यादातर महिलाएं होती हैं. एक ऐसा सामान्य अवसाद जो लगभग हर 10 महिलाओं में से एक महिला को होता है.

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