अब जबकि पूरी दुनिया कोरोना के करीब करीब पहले चक्र के कहर को झेल चुकी है और बुरी तरह से अस्त व्यस्त हो गई है, तब यह सच्चाई सामने आ रही है कि कोरोना के शिकंजे से किशोर मुक्त नहीं हैं बल्कि बड़ी तादाद में किशोर इसके जानलेवा शिकंजे में फंस गये हैं. कम उम्र होने के नाते सीधे सीधे इनमें कोरोना संक्रमण के लक्षण भले कम हों, वयस्कों और बूढ़ों के मुकाबले इनका डेथ रेट भले कम हो लेकिन इन्हें कई दूसरे तरह के संकटों से जूझना पड़ रहा है, जो समाज के दूसरे आयुवर्गों के मुकाबले ज्यादा कठिन है.
यूनिसेफ की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक बच्चों विशेषकर किशोरों पर कोरोना का एक भयावह संकट उभरकर सामने आया है. यूनिसेफ का कहना है कि अगर युद्धस्तर पर बचाव की सजग तैयारी नहीं की गईं तो अगले छह सात महीने में यानी दिसंबर-जनवरी 2020-2021 तक 12 से 14 करोड़ बच्चे अकेले दक्षिण एशिया के कोविड-19 के संकट का शिकार हो जाएंगे. हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि इन सब बच्चों को कोरोना हो जायेगा. लेकिन कोरोना जैसी भयावह आपदा का सबसे बुरा साइड इफेक्ट इन्हें झेलना पड़ेगा. दरअसल मार्च 2020 से ही हिंदुस्तान के ज्यादातर स्कूल बंद हैं. बच्चे घरों में हैं और भावनात्मक तौरपर बोर हो रहे हैं.
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लेकिन असली संकट भावनाओं के पार है. पिछले 3 से ज्यादा महीने से घर में बैठे करीब 40 फीसदी बच्चों के सामने अब यह संकट खड़ा हो गया है कि जब स्कूल खुलेंगे तो क्या वे रेगुलर स्कूल जा सकेंगे? दरअसल भारत में गरीब बच्चों के लिए पढ़ना कभी भी आसान नहीं होता और जब एक बार चलती हुई पढ़ाई छूट जाए तब तो कोई संकट न हो, तब भी 40 फीसदी बच्चे कभी लौटकर दोबारा पढ़ने की तरफ नहीं आते. लेकिन अब जिस तरह के हालात हैं, अब यह आशंका बहुत ज्यादा बढ़ गई है. दरअसल लाॅकडाउन के चलते देश की अर्थव्यवस्था तहस नहस हो गई है. 50 फीसदी से ज्यादा सरकारी अध्यापकों को या तो इस बीच तनख्वाह नहीं मिली या उनकी जितनी तनख्वाह बनती है, उसमें आधा या दो तिहाई मिली है.