लेखिका- पल्लवी यादव, डा. ओम प्रकाश, डा. ब्रह्म प्रकाश एवं डा. कामिनी सिंह

जल कुदरत का मानव जाति को दिया गया अनमोल खजाना है. कृषि जल संरक्षण से मतलब ऐसी कृषि तकनीक से है, जिस में उपलब्ध जल की मात्रा का कृषि में समुचित उपयोग हो, उपयोग से अधिक फसल उत्पादन मिले, कृषि में जरूरत के अनुसार उस का उपयोग हो, बरबादी कम से कम हो, मिट्टी का क्षरण रोकने, कम से कम मात्रा में सिंचाई का जल उपयोग, उचित तौरतरीके और किफायती दर से खेती में उपयोग किया जाना ही कृषि जल संरक्षण या एकीकृत जल प्रबंधन कहा जाता है. भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहां की कुल ग्रामीण आबादी की लगभग आधे से ज्यादा आबादी खेती पर निर्भर है. यह खेती पूरी तरीके से कुदरत पर आधारित है. सारे पानी की मात्रा का लगभग 70 फीसदी खेती के कामों में सिंचाई के रूप में प्रयोग होता है. खाद्यान्न सुरक्षा सुनिश्चित करने, कृषि उत्पादन और उत्पादों की गुणवत्ता बढ़ाने, पर्यावरण संरक्षण और कृषि आधारित उपक्रमों में इस्तेमाल जैसे विभिन्न उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए पानी का उपयोग विभिन्न माध्यमों और रूपों में किया जाता है.

आजकल खेती के पानी के इस्तेमाल का विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि आज इस्तेमाल करने के तौरतरीकों में बहुत ज्यादा बदलाव होने के कारण उपलब्ध पानी का संतुलन बिगड़ चुका है. इन बदलाव के चलते जल आपूर्ति भी प्रभावित होने के संकेत मिल रहे हैं, जो भविष्य में सभी जीवधारियों के लिए अत्यंत कष्टकारी साबित होंगे, इसलिए जल संरक्षण टिकाऊ कृषि उत्पादन के लिए आज के समय की पहली जरूरत है. कृषि में जल संरक्षण का मतलब खेती के कामों में इस्तेमाल में लाया जाने वाला पानी सिंचाई जल के नाम से जाना जाता है. खेती में जल संरक्षण का मतलब है कि पानी का संरक्षण और इकट्ठा करना, ताकि इसे जरूरत के हिसाब से विभिन्न फसलों की सिंचाई के काम में लाया जा सके. कृषि जल में उपलब्ध पानी की मात्रा का सही इस्तेमाल करना, ज्यादा से ज्यादा फसल उत्पादन लेना, खेती में जरूरत के हिसाब से पानी का इस्तेमाल करना, पानी की बरबादी को रोकना, पानी का कम से कम इस्तेमाल करना, सही तरीके से वैज्ञानिक विधियों और किफायती दर से खेती में पानी का इस्तेमाल करना ही कृषि जल संरक्षण या एकीकृत जल प्रबंधन कहलाता है.

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कृषि में जल संरक्षण की जरूरत क्यों?

* कृषि जल की बरबादी को रोकने.

* खाद्यान्न सुरक्षा सुनिश्चित रखने.

* फसलों में पानी की जरूरत और संतुलन बनाए रखने.

* कृषि उत्पादन को लगातार बढ़ाने हेतु.

* कृषि उत्पादों की गुणवत्ता बनाए रखने.

* पर्यावरण संरक्षण. कृषि में जल संरक्षण के लाभ कृषि में जल संरक्षण के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में अनेकों लाभ हैं,

जिस में कुछ खास निम्नलिखित हैं : * सिंचाई और पीने के पानी की उपलब्धता सुनिश्चित होती है.

* भूक्षरण को रोकने में सहायक है.

* प्राकृतिक संसाधनों (पानी, मजदूरी और ऊर्जा) की भी बचत होती है.

* यह जलवायु परिवर्तन के हानिकारक प्रभावों से बचाने में सहायक है.

* फसल अवशेषों का मिट्टी में नमी होने पर सड़ना आसान हो जाता है, जिस से मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ने से मिट्टी की उत्पादन करने की शक्ति बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान है.

* मृदा नमी के संरक्षण से फसल द्वारा रासायनिक उर्वरकों की उपयोग क्षमता बढ़ती है और फसल उत्पादन बढ़ाने में मदद मिलती है.

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* सस्य क्रियाओं को करने में आसानी रहती है.

* भूमि के जल स्तर की बढ़ोतरी में भी मददगार है.

* इस से लाभदायक जीवजंतुओं की क्रियाशीलता बढ़ जाती है. कृषि जल संरक्षण को प्रभावित करने वाले कारक कृषि जल संरक्षण में कुछ प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं :

* मिट्टी संबंधी कारक.

* किस्मों के आनुवांशिकीय कारक.

* वातावरणीय/जलवायु संबंधी कारक.

* खेती आधारित सस्य घटक संबंधी कारक.

* असंतुलित मात्रा में रासायनिक उर्वरकों और कृषि रसायनों के इस्तेमाल संबंधी कारक. कृषि जल के प्रमुख स्रोत

* बरसात के पानी को विभिन्न रूपों में देखा जा सकता है जैसे जमीन की सतह पर बहता बरसाती पानी, मकानों की छत से गिरता बारिश का पानी और कुदरती स्रोतों से प्राप्त व बहता पानी.

* जमीन से प्राप्त भूजल.

* कृत्रिम रूप से बनाए गए तालाबों में इकट्ठा पानी.

* नहरों और जलाशयों से प्राप्त पानी. ऐसे करें फसलों में एकीकृत जल प्रबंधन विभिन्न फसलों को पैदा करने में कृषि जल संरक्षण के लिए मुख्य वैज्ञानिक सिफारिशों और तकनीकियों को अपना कर पानी का सही प्रबंधन किया जा सकता है. मुख्य फसलों में कृषि जल संरक्षण के तरीकों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है : धान की फसल में कृषि जल प्रबंधन के उपाय

* श्री (सिस्टम औफ राइस इंटेन्सिफिकस) तकनीक अपना कर धान की खेती करने से तकरीबन 30 से 50 फीसदी सिंचाई के पानी की बचत के साथ कृषि जल संरक्षण भी होता है.

* धान की खेती श्री तकनीक द्वारा करने से जल उपयोग क्षमता, मृदा की पैदावार बढ़ने के साथ फसल उगाने की लागत में भी कमी आती है.

* धान को एरोबिक विधि से उगाने पर अन्य कुदरती प्राकृतिक संसाधनों (पानी, मजदूरी और ऊर्जा) की भी बचत होती है.

* धान को एरोबिक विधि से उगाने पर बालियां निकलते समय 1.0 से 3.0 सैंटीमीटर तक पानी की सतह तक होने पर भी फसल में बालियां निकल आती हैं.

* फसल की सिंचाई गीली और सूखी पद्धति के आधार पर करने से सिंचाई जल की बहुत बचत होती है.

* कम समय में फसल पकने और पानी की अधिक मात्रा के उपयोग के कारण साठी धान की खेती करने से बचना चाहिए. (शेष अगले अंक में…) खेती में जल प्रबंधन के उपाय पिछले अंक में आप ने पढ़ा गेहूं की फसल में जल प्रबंधन

* प्राय: बौने गेहूं से ज्यादा से ज्यादा उपज लेने के लिए हल्की भूमि में पहली सिंचाई क्राउन रूट बुवाई के 22 से 25 दिन बाद (ताजमूल अवस्था), दूसरी सिंचाई बुवाई के 40 से 45 दिन बार किल्ले निकालने की अवस्था पर; तीसरी सिंचाई बुवाई के 60 से 65 दिन पर दीर्घ संधि या गांठे बनते समय; चौथी सिंचाई बुवाई के 80 से 85 दिनों पर फूल आने की अवस्था (पुष्पवस्था) में; पांचवी सिंचाई बुवाई के 100 से 105 दिनों पर बालियों में दूध जैसा पदार्थ बनने की अवस्था (दुग्धावस्था) में तथा छठी व अंतिम सिंचाई बुवाई के 115 से 120 दिनों पर बाली में दाना बनते समय करने से सिंचाई के जल की बचत के साथसाथ भरपूर उपज भी प्राप्त होती है.

* गन्ने के साथ गेहूं की फसल लेने हेतु फर्ब विधि से गेहूं एवं गन्ने की बुवाई करनी चाहिए. इस तरीके को अपनाने से पानी की बचत के साथसाथ दोनों फसलों की पैदावार भी ज्यादा मिलती है. फर्ब विधि से गेहूं एवं गन्ने की बुवाई कृषि जल संरक्षण का किफायती एवं उपयोगी तरीका है. इस तरीके में औसतन 20 से 30 फीसदी सिंचाई के पानी की बचत की जा सकती है. फर्ब विधि से गेहूं एवं गन्ने की गई बुवाई के कई फायदे हैं :

* खास अवस्था में गेहूं में यदि केवल तीन सिंचाई ही कर पा रहे हैं तो यह सिंचाइयां ताजमूल अवस्था, बाली निकलने के पूर्व तथा दुग्धावस्था पर ही करने से गेहूं की भरपूर उपज मिलती है.

* दो सिंचाईयां उपलब्ध होने पर ताजमूल व पुष्पवस्था पर सिंचाई करने ही फायदेमंद रहता है.

* इसी तरह केवल एक सिंचाई उपलब्ध होने पर ताजमूल की क्रांतिक अवस्था पर ही सिंचाई करना चाहिए. गन्ना की फसल में जल प्रबंधन

* गोल गड्ढा बुवाई विधि अपनाकर सिंचाई जल की औसतन 30 से 40 प्रतिशत बचत की जा सकती है. जल बचत के अलावा जल उपयोग क्षमता में 30 से 40 प्रतिशत तथा पोषक तत्व उपयोग क्षमता में 30 से 35 प्रतिशत तक बढ़ती है तथा गन्ने की उपज भी डेढ़ से दो गुना अधिक प्राप्त होती है.

* गन्ने में एकांतर नाली सिंचाई विधि अपनाने से औसतन 30 से 40 प्रतिशत सिंचाई जल की बचत होती है तथा जल उपयोग क्षमता में 60 से 65 प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी हो जाती है.

* एकांतर नाली सिंचाई विधि अपनाने से फसल में खरपतवारनाशी रसायनों का उपयोग कम से कम करना पड़ता है. इसलिए इन के छिड़काव हेतु घोल बनाने के लिए पानी की भी जरूरत कम होने से पानी की बचत होती है. साथ ही गन्ने की पैदावार भी अधिक मिलती है.

* गन्ने की कटाई के बाद गन्ने की सूखी पत्तियों को पेड़ी गन्ने की नालियों के बीच में 6 से 8 से.मी. मोटी परत में बिछाने से औसतन 40 फीसदी सिंचाई जल की बचत की जा सकती है. इस के साथ ही साथ इस से मिट्टी में नमी संरक्षण के साथसाथ वाष्पोत्सर्जन भी कम होता है एवं मिट्टी की पैदावार की ताकत भी बढ़ती है.

* गन्ने की बुवाई नाली विधि से करने के बाद नालियों को पाटा लगा कर बंद करने से मिट्टी के नमी संरक्षण में मददगार साबित होती है.

* गन्ने की बढ़वार की चार अवस्थाओं के अनुसार सिंचाई (कुल 10) करने पर सिंचाई के पानी की औसतन 30-35 फीसदी बचत के साथ ही साथ जल उपयोग क्षमता 35-40 फीसदी बढ़ जाती है.

* सिंचाई के पानी की बचत के लिए गन्ने की सह-फसली खेती को वरीयता देना चाहिए. इस पद्धति से गन्ने की खेती में सिंचाई के पानी की काफी बचत की जा सकती है.

* फर्ब विधि से गेहूं और गन्ने की बुवाई कृषि जल संरक्षण का किफायती एवं उपयोगी तरीका है. इस विधि में औसतन 20 से 30 फीसदी सिंचाई के पानी की बचत की जा सकती है.

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