मासूम किसानों पर बिजली,पानी या बैंक कर्ज का बकाया होने पर कुर्की, वारंट, जेल जाने व जमीन बिकने तक की नौबत आ जाती है. वहीं दूसरी ओर अगर किसानों की उपज के अरबों रुपए धन्नासेठ दबा लें तो उन का बाल तक बांका नहीं होता. इस से जाहिर होता है कि हमारे मुल्क में खेती की प्रधानता व किसानों की अहमियत सिर्फ कहने की बातें हैं. चीनी मिलों के बेजा रवैए से मीठे गन्ने की खेती किसानों के लिए कड़वाहट की वजह बन चुकी है. कहने को गन्ना, देश की खास व नकदी फसल है, लेकिन ज्यादातर चीनी मिलें गन्ने की कीमत किसानों को वक्त पर नहीं देतीं. लिहाजा हर साल गन्ना कीमत के करोड़ों रुपए चीनी मिलों पर  बकाया पड़े रहते हैं. गन्ना उपज बेचने के बाद 2-3 सालों तक भी पैसा नहीं मिलता, लिहाजा ज्यादातर गन्ना किसानों की माली जरूरतें पूरी नहीं होतीं. वे अपना कर्ज नहीं चुका पाते. पैसे की तंगी से खासकर छोटे किसान तो बहुत ज्यादा परेशान रहते हैं.

उत्तर प्रदेश में चल रही 117 चीनी मिलों ने चालू सीजन में 16 फरवरी 2017 तक कुल 165 अरब 72 करोड़ 95 लाख रुपए का गन्ना खरीदा था. इस में से सिर्फ 108 अरब 12 करोड़ 95 लाख रुपए का ही भुगतान किया गया. 57 अरब 59 करोड़ 80 लाख रुपए का भुगतान बकाया है. इतना ही नहीं, साल 2015-16 के 3 अरब 2 करोड़ 32 लाख रुपए व साल 2014-15 के 99  करोड़ 78 लाख रुपए भी अभी तक चीनी मिलों पर बकाया हैं.

नुकसान किसानों का

यह तसवीर अकेले उत्तर प्रदेश की है. पूरे देश की चीनी मिलों पर बकाया रकम और भी बड़ी है. हालांकि गन्ने की कीमत किसानों को जल्द दिलाने के कायदेकानून हैं. मसलन टैगिंग आदेश के तहत मिलों को अपनी चीनी बेचने से मिली रकम का 85 फीसदी हिस्सा किसानों को गन्ने की कीमत अदा करने के लिए देना लाजिम है, लेकिन ऐसा नहीं होता. बकाएदार चीनी मिलों को नोटिस देने, उन की चीनी के गोदाम, शीरा व खोई आदि अटैच करने, वसूली के लिए आरसी जारी करने व एफआईआर लिखाने तक की रस्म अदायगी की जाती है, लेकिन इस सब के बावजूद ज्यादातर चीनी मिलें नियमों को ताक पर रख देती हैं. मिल मालिक सब का तोड़ निकाल लेते हैं, लिहाजा फायदा उन का व नुकसान किसानों का होता है.

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