इन दिनों दुनियाभर में खाद्यान्न उत्पादन को बढ़ाए जाने के साथ ही किसानों की आमदनी को दोगुना किए जाने पर जोर दिया जा रहा है, लेकिन यह तभी मुमकिन है जब किसान उत्पादन बढ़ाने वाले तरीकों को आजमाने के लिए खुद आगे आएं, क्योंकि सरकारों के भरोसे कभी भी किसानों का भला नहीं हो सकता है.
ऐसे दौर में किसानों को उत्पादन के साथ ही अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए उन्नत खाद, बीज और तकनीकी का सहारा लेने की जरूरत है. किसान जब तक किसान के साथ ही एक बनिए के रूप में अपनी सोच नहीं विकसित कर लेगा, तब तक उसे खेती में घाटा उठाना ही पड़ेगा, इसलिए किसानों को चाहिए कि वे व्यावसायिक और नकदी फसलों पर ज्यादा जोर दें.
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ऐसी ही एक नकदी फसल है पंखिया सेम, जो सेम की आम प्रजातियों से अलग हट कर है. इस में पाए जाने वाले पोषक तत्त्व सेहत के लिहाज से भी अच्छे माने जा रहे हैं, इसलिए यह किसानों के लिए आमदनी के एक नए विकल्प के रूप में उभर कर सामने आ सकती है. वैसे, सेम को दलहनी फसल में शामिल किया गया है, लेकिन इस की फलियों को सब्जियों के रूप में ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है.
अगर पंखिया सेम की बात की जाए तो देश में इस प्रजाति की खेती अभी बहुत कम की जाती है, जबकि इस वैरायटी की खासीयत इस के बाजार की संभावनाओं को कई गुना बढ़ा देती है.
देश में पंखिया सेम की वैरायटी को ले कर अभी भी लगातार शोध चल रहे हैं, जिस में से भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान, वाराणसी ने इस की उन्नत प्रजाति को विकसित करने में कामयाबी पाई है.
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पंखिया सेम दूसरी किसानों से अलग हट कर है. फलियों की लंबाई 15 से 20 सैंटीमीटर तक की होती है और इस की फलियां किस्मों के आधार पर हरे, गुलाबी या बैगनी रंग की होती हैं.
पंखिया सेम एक ऐसी उन्नत प्रजाति है, जिस का फल, फूल, पत्ता, तना और बीज के साथ जड़ को भी खाया जाता है. पंखिया सेम कोलैस्ट्रौल घटाने में कारगर होने के साथसाथ प्रोटीन और खनिज का अच्छा स्रोत है. एंटीऔक्सीडैंट के साथ इस में प्रोटीन की भी भरपूर मात्रा उपलब्ध है. इस के अलावा इस में कार्बोहाइड्रेट, वसा, आयरन, गंधक, तांबा, खनिज पदार्थ, पोटैशियम, कैलशियम, मैंगनीशियम, कैलोरी व फाइबर की भरपूर मात्रा उपलब्ध है.
उन्नत किस्में
अभी तक देश में पंखिया सेम की ज्यादा किस्में विकसित नहीं हुई हैं. भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान, वाराणसी इस की नई किस्म पर काम कर रहा है, लेकिन जिस किस्म का प्रचलन देश में सब से ज्यादा है, उस का नाम आरएमबीडब्लूबी-1 है.
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मिट्टी और खेत की तैयारी
पंखिया सेम की बोआई उसी तरह की मिट्टी में की जा सकती है, जैसे सेम की दूसरी किस्मों की बोआई की जाती है. इस के लिए पानी के निकास वाली अच्छे जीवांशयुक्त बलुई दोमट या दोमट मिट्टी सब से सही मानी जाती है. इस की फसल के लिए ज्यादा क्षारीय और ज्यादा अम्लीय जमीन बाधक होती है.
इस की बोआई के पहले खेत की जुताई कल्टीवेटर, हैरो से कर के मिट्टी को भुरभुरा बना कर पाटा लगा देना चाहिए. यह ध्यान रखें कि बोआई के समय खेत में सही मात्रा में नमी उपलब्ध हो.
बीज की मात्रा, बोआई का उचित समय व बोआई विधि
सेम की फसल लेने के लिए एक हेक्टेयर खेत में 20 से ले कर 30 किलोग्राम बीज की जरूरत पड़ती है. बीज को खेत में बोने के पहले बीज को कार्बंडाजिम या थिरम 2 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम ले कर शोधित कर लेना चाहिए.
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पंखिया सेम की बोआई साल में 2 बार की जा सकती है. इस की अगेती फसल फरवरीमार्च में बोई जाती है, जबकि वर्षाकालीन फसल जून से ले कर अगस्त तक बोई जा सकती है.
पंखिया सेम की बोआई उठी हुई क्यारियों में होनी चाहिए, जिस की लाइन से लाइन की दूरी 1 मीटर से ले कर डेढ़ मीटर होनी सही रहेगी और पौध की दूरी डेढ़ फुट से ले कर 2 फुट होनी चाहिए. अच्छे जमाव के लिए बीज को 2-3 सैंटीमीटर की गहराई में बोना चाहिए.
पंखिया किस्म की फलियां दूसरी किस्मों के बजाय ज्यादा लंबी और नरम होती हैं. ऐसे में खेत की मिट्टी का इस की फलत पर असर पड़ता है, इसलिए अच्छे उत्पादन के लिए इस के पौधों को सहारा देना ज्यादा मुफीद होता है. इस से पौधों में अच्छी फलत आने के साथ ही पौधों का विकास भी अच्छा होता है, इसलिए पौधे की लताओं को बांस की बल्लियों से सहारा दे कर चढ़ाने से पौधों की अच्छी बढ़वार होती है. ऐसे में पौधों के पास बांस गाड़ कर उस पर रस्सी या तार बांध देना चाहिए. इस से सेम की लता इस के सहारे ऊपर चढ़ कर फलत देती है.
खाद व उर्वरक
बढ़ रही बीमारियों को ध्यान में रख कर खाद्यान्न फसलों में कम से कम रासायनिक खादों का प्रयोग करना चाहिए. रासायनिक खादों की मात्रा में कमी लाने के लिए हमें जैविक खादों के इस्तेमाल पर ज्यादा जोर देने की जरूरत है.
अगर आप जैविक खाद से फसल लेना चाहते हैं तो एक हेक्टेयर खेत में 10 टन से 15 टन गोबर की सड़ी खाद को खेत की तैयारी के समय ही खेत में मिला दें. इस के साथ ही 20 किलोग्राम नीम की खली व 50 किलोग्राम अरंडी की खली की बोआई भी करें.
अगर आप के पास गोबर की खाद या जैविक खाद उपलब्ध नहीं है, तो ऐसी अवस्था में आप बोआई के समय 50 किलोग्राम डीएपी,
50 किलोग्राम म्यूरेट औफ पोटाश प्रति हेक्टेयर के हिसाब से जमीन में मिला देनी चाहिए. इस के बाद बोआई के तकरीबन 20-25 दिन बाद
30 किलोग्राम और 50-55 दिन बाद फसल में यही मात्रा डालें.
सिंचाई व खरपतवार नियंत्रण
अगेती फसल में जरूरत के मुताबिक सिंचाई करते रहना चाहिए, जबकि बरसात के मौसम में सिंचाई की जरूरत नहीं होती है. जब फसल में फूल और फलियां आ रही हों, तो खेत में नमी बनाए रखें. इस के लिए जरूरत पड़े तो सिंचाई करते रहें.
फसल की अच्छी बढ़वार और पैदावार के लिए खरपतवार को निराईगुराई कर के निकाल लेना चाहिए. खरपतवार नियंत्रण के लिए मल्चिंग करना ज्यादा फायदेमंद होता है. इस से न केवल खरपतवार नियंत्रित होता है, बल्कि नमी भी देर तक बनी रहती है. इस से सिंचाई पर आने वाले खर्च पर कमी आती है.
कीट पर नियंत्रण
कृषि विज्ञान केंद्र, बस्ती में वैज्ञानिक फसल सुरक्षा डा. प्रेम शंकर के अनुसार, सब्जियों को कीटों और बीमारियों से बचाने के लिए जैवनाशियों का इस्तेमाल करना चाहिए. अंतिम समय में रासायनिक कीटनाशकों और फफूंदीनाशकों का इस्तेमाल करना चाहिए, लेकिन इस के छिड़काव के एक हफ्ते बाद ही सब्जियों का इस्तेमाल करना चाहिए.
बीन का बीटल
डा. प्रेम शंकर के मुताबिक, यह कीट सेम के पौधे के कोमल भागों को खाता है. इस के चलते सेम के पौधे विकास नहीं कर पाते और सूख जाते हैं. इस कीट का रंग तांबे जैसा होता है. शरीर के कठोर आवरण पर 16 निशान होते हैं.
इस कीट का असर फसल पर न होने पाए, इस के लिए नीमारिन का इस्तेमाल 1 लिटर पानी में 10 मिलीलिटर की मात्रा के हिसाब से करना चाहिए. इस की ढाई लिटर मात्रा का इस्तेमाल 1 हेक्टेयर में करना चाहिए.
अगर फसल में बीन बीटल का प्रकोप हो गया हो, तो ऐसी अवस्था में फिवोनिल की 2 मिलीग्राम मात्रा प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें. एक हेक्टेयर के लिए इस की एक से सवा लिटर मात्रा का प्रयोग किया जाता है.
माहू
ये कीड़े पौधे के पूरे भाग में फैल कर पौधों का रस चूसते हैं, जिस से नमी की कमी के चलते पौधा अंत में सूख जाता है.
इस कीट की रोकथाम के लिए एजाडिरेक्टिन 5 फीसदी की आधा मिलीलिटर मात्रा प्रति लिटर पानी में घोल कर 10 दिन
के अंतराल पर 2 से ढाई लिटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से सेम की खड़ी फसल पर छिड़काव करें.
फली छेदक
यह कीट सेम की फली में छेद कर के घुस जाता है और पौधे के कोमल भागों को खाता है, जिस से फलियां खोखली हो जाती हैं.
इस की रोकथाम के लिए बैसिलस थियुरिनजिनेसिस यानी बीटी प्रति हेक्टेयर 500 से 1,000 ग्राम मात्रा को 600 से 800 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें. फसलों में यह सूंडि़यों के नियंत्रण की सब से अच्छी दवा है.
पत्ती में सुरंग बनाने वाला कीड़ा या लीफ माइनर
यह कीट हरी पत्तियों को खा कर नष्ट कर देता है. इस के नियंत्रण के लिए नीम तेल का नीमारिन का इस्तेमाल 1 लिटर पानी में 10 मिलीलिटर की मात्रा का प्रयोग करें. 1 हेक्टेयर में ढाई लिटर का इस्तेमाल करना चाहिए.
बीमारियों का नियंत्रण
कालर रौट : इस रोग के प्रभाव में आ कर पौधों में जमीन की सतह से सड़न आ जाती है और पौधे नष्ट हो जाते हैं. इस रोग के जीवाणु मिट्टी में जीवित रहते हैं और सही वातावरण मिलने पर दोबारा सक्रिय हो जाते हैं.
इस बीमारी से बचने के लिए बीज का उपचार ट्राइकोडर्मा से किया जा सकता है. ट्राइकोडर्मा एक जैव फफूंदीनाशक दवा है. इस को भूमि शोधन में प्रति हेक्टेयर ढाई किलोग्राम को 50 किलोग्राम से 60 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद में मिला कर प्रयोग करना चाहिए.
फसल को रोग से बचाने के लिए बोआई के 20 दिन बाद ट्राइकोडर्मा के घोल से 10 ग्राम प्रति लिटर पानी को जड़ों में छिड़काव करना चाहिए. यह ढाई किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से प्रयोग किया जाता है.
अगर फसल में रोग का असर दिखाई पड़ रहा है, तो इस के नियंत्रण के लिए शाम के समय जड़ के समीप कौपर औक्सीक्लोराइड
4 ग्राम प्रति लिटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए. एक हेक्टेयर में इस की 2.5 किलोग्राम मात्रा की जरूरत पड़ती है.
रस्ट : यह फफूंद से होने वाला रोग है, जो पौधों के सभी ऊपरी भाग पर छोटे, हलके उभरे हुए धब्बे के रूप में दिखाई देता है. तने पर आमतौर पर लंबे उभरे हुए धब्बे बनते हैं.
इस रोग का असर दिखाई देने पर फ्लूसिलाजोल या हैक्साकोनाजोल या बीटरटेनौल या ट्राईआडीमेफौन 1 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी की दर से 1 हेक्टेयर में 5 से 7 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए. इसे 125 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से प्रयोग किया जाता है.
विषाणु रोग (गोल्डन मोजैक) : यह विषाणु से होने वाला रोग है जो सफेद मक्खी द्वारा फैलता है. इस रोग से संक्रमित पौधों की पत्तियां सिकुड़ जाती हैं और पौधों की वृद्धि रुक जाती है. इस बीमारी के रोकथाम के लिए इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यूएस पाउडर 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज थायोमेथाजाम
70 डब्ल्यूएस का 2.5 से 3.0 ग्राम प्रति किलोग्राम से बीज शोधन करना चाहिए.
फसल को इस बीमारी से बचाने के लिए बोई गई फसल के खेत के चारों तरफ मक्का, ज्वार और बाजरा लगाना चाहिए, जिस से सफेद मक्खी का प्रकोप फसल में न हो सके.
फिर भी फसल में रोग का प्रकोप दिखाई पड़ने पर इमिडाक्लोप्रिड 200 एसएल का 1 मिलीलिटर प्रति 1 लिटर पानी के घोल से पौधों की जड़ों में छिड़क कर फसल को बचाया जा सकता है. इस के अलावा डाईमेथोएट 30 ईसी 2 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में मिला कर जरूरत के मुताबिक छिड़काव करना चाहिए. इसे 325 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से प्रयोग किया जाता है.
तना सड़न : इस रोग में संक्रमित पौधों के तनों में सड़न पैदा हो जाती है. अगर इस रोग का प्रकोप दिखाई पड़े, तो प्रभावित पौधे हटा कर फसल में फूल आने की दशा में कार्बंडाजिम 12 प्रतिशत व मैंकोजेब 63 प्रतिशत 1 ग्राम प्रति लिटर छिड़काव किया जाना उचित होता है. एक हेक्टेयर में इस की 1 किलोग्राम मात्रा की जरूरत पड़ती है.
बैक्टीरियल ब्लाइट्स : यह पंखिया सेम की फसल में लगने वाला एक जीवाणुजनित रोग है, जिस में बड़े धब्बे के समान लक्षण पत्तियों पर दिखते हैं. बरसात में फलियों पर भी छोटे धब्बे बनते हैं. इस बीमारी से फसल को बचाने के लिए बोआई के पहले ही बीज को स्ट्रेप्टोसाइक्लीन घोल में 30 मिनट के लिए डुबोने के बाद बोआई करें.
फलियों की तुड़ाई व उत्पादन
पंखिया सेम की फलियों की तुड़ाई कोमल अवस्था में ही कर लेनी चाहिए, क्योंकि तुड़ाई देर से करने पर फलियां कठोर हो जाती हैं और रेशे आ जाते हैं, जिस के कारण बाजार मूल्य उचित नहीं मिल पाता है.
पंखिया सेम की फसल 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर फली, 40 क्विंटल बीज व 80 क्विंटल तक जड़ की उपज हासिल होती है.