दलहन की खेती को बढ़ावा देने के लिए साल 2016 को अंतर्राष्ट्रीय दलहन साल के तौर पर मनाने का ऐलान किया गया है. अपने देश में दालों की कीमतें तेजी से बढ़ रही हैं. लिहाजा दलहन की ज्यादा पैदावार के बावजूद आम आदमी के लिए दाल खाना मुश्किल हो गया है. कहने को भारत दुनिया भर में सब से बड़ा दाल पैदा करने वाला देश है, लेकिन आम आदमी की थाली दाल से खाली है. दूसरे देशों को दालें भेजने की जगह, हम वहां से दालें मंगवाते हैं. दरअसल, भारत में दालों की पैदावार, मांग से बहुत कम है. आजादी के बाद बीते 69 सालों में दलहनी फसलों की खेती को बढ़ावा देने के नाम पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, जिस से हमारा देश दालों के उत्पादन में आगे होता. ऊपर से कालाबाजारिए दालों की जमाखोरी से कीमतें बढ़ा कर खूब पैसे बनाते हैं.
दलहन फंसी दलदल में
अपने देश में दालों की सालाना खपत लगभग 225 लाख टन है, जबकि दालों का उत्पादन 175 लाख टन से नीचे है. मजबूरन लाखों टन दालें हर साल दूसरे देशों से मंगवानी पड़ती हैं. लिहाजा दलहनी फसलों का रकबा और पैदावार बढ़ाने की जरूरत है. दलहनी फसलों की किसानों को मिलने वाली कीमत में कम बढ़ोतरी होने से भी ज्यादातर किसान इन की खेती नहीं करना चाहते हैं. साल 2013-14 में अरहर, मूंग व उड़द के न्यूनतम समर्थन मूल्य क्रमश: 4300, 4500 व 4300 रुपए प्रति क्विंटल थे, जो साल 2014-15 में बढ़ कर क्रमश: 4350, 4600 व 4350 रुपए प्रति क्विंटल हो गए थे. यह 100 से 50 रुपए प्रति क्विंटल की बढ़त कम है. दलहन की पैदावार में मध्य प्रदेश पहले, महाराष्ट्र दूसरे व राजस्थान तीसरे नंबर पर है. देश में हो रहे दालों के कुल उत्पादन में इन राज्यों की हिस्सेदारी क्रमश: 25, 16 व 12 फीसदी है. दलहन की खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकारी महकमे दिनरात एक करने का नाटक करते हैं, जबकि असल में दलहन की बढ़त के लिए सरकारी विभाग कुछ नहीं कर रहे हैं.