लेखक-प्रो अलखदेव प्रसाद अचल
पत्नी यानी पुष्पा जब भी अपने मायके चली जाती तो महीनेभर के अंदर यह कहते हुए सूरज लेने पहुंच जाता कि मां से काम नहीं होता. मां थक चुकी है. खाना बनाना भी मुश्किल लगता है. हम लोगों को हाथ जलाना पड़ता है. उस में भी जैसेतैसे कर के पेट भरना पड़ता है, इसलिए इसे चलना जरूरी है.
सूरज हर तरह से प्रगतिशील सोच रखता था. परंतु वर्तमान सरकार की नाकामियों के खिलाफ कोई बोल देता तो उसे वह बरदाश्त नहीं करता था. जब भी लोकसभा या विधानसभा का चुनाव आता, तो सूरज दिनभर चुनाव पार्टी का झंडा उठाए रहता. जब कभी राजनीतिक बात निकलती, तो अतार्किक रूप से ही सही, पर सरकार की प्रशंसा खूब करता.
इसी तरह दिन गुजरते चले गए, सूरज बीए पार्ट वन से पार्ट टू में और पार्ट टू से पार्ट थ्री में चला गया और परीक्षा में पास भी हो गया.
अब सूरज घर पर ही रह कर किसी कंपटीशन की तैयारी के लिए सोचता, पर संभव होता दिखाई नहीं देता, जबकि उसी दौरान उस ने कंपटीशन की तैयारी के लिए कई प्रतियोगी पत्रिकाएं भी खरीदी थीं. कई प्रतियोगिताओं में वह सम्मिलित भी हुआ था, पर सफलता नहीं मिल सकी थी. वह जानता था कि परिवार के बीच रह कर प्रतियोगिता निकालना टेढ़ी खीर है और शहर में रह कर तैयारी करने के लिए पास में पैसे नहीं हैं.
इधर सूरज के घर की स्थिति ऐसी थी कि बुढ़ापे की अवस्था आ जाने की वजह से मातापिता भी मेहनतमजदूरी करने से लाचार होते जा रहे थे. उसी दौरान सूरज दोदो बच्चियों का बाप बन चुका था. इस में एक ढाई साल की बेटी थी तो दूसरी 6 महीने की.