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लेखक-प्रो अलखदेव प्रसाद अचल

अब कर्मियों के सामने सब से बड़ा संकट खड़ा हो गया, क्योंकि भूखेप्यासे हजारों किलोमीटर की दूरियां पैदल तय करना मौत को आमंत्रण देने से कम नहीं लग रहा था.

सूरज इसी लौकडाउन में बुरी तरह फंस चुका था. उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं, क्या न करूं. कई वर्षों से सूरज जिस सरकार की भूरिभूरि प्रशंसा करता आ रहा था, अब वही सरकार उसे काफी बुरी लगने लगी थी. वह रहरह कर गालियां भी बकने लगा था. सोच रहा था कि जब खुद की लापरवाही की वजह से इतने दिनों में नहीं बिगड़ा था, तो 3-4 दिनों में क्या बिगड़ जाता? अगर बिगड़ ही जाता तो हम जैसे लोगों पर ध्यान देने की जवाबदेही तो उठानी चाहिए थी.

अब तो मोबाइल से घर पर बातें भी हो रही थीं, पर बातों से खुशियां पूरी तरह गायब थीं. जब सूरज ने देख लिया कि किसी भी सूरत में गुजरात में रह पाना संभव नहीं है, तो एक दिन पैदल ही घर के लिए निकल पड़ा, जबकि ऐसा भी नहीं था कि रास्ते में पैदल चलने वालों में सूरज सिर्फ अकेला था. उस की तरह सैकड़ों, हजारों लोग सड़कों पर उमड़े दिखाई पड़ रहे थे.

रास्ते में कहीं कोई सुविधा नहीं थी. अगर कहीं होता तो पुलिस वालों के डंडे का शिकार होना पड़ता. न रहने का ठिकाना, न खाने का ठिकाना. दिन में तेज धूप का सामना करना पड़ता, तो रात में ठंड का. धीरेधीरे शरीर का अंग जवाब देना शुरू कर दिया. अब तो घर से कभी बातें होतीं, तो कभी मोबाइल डिस्चार्ज होने की वजह से नहीं भी होतीं. फिर भी दम मारता, पैर घसीटता सूरज आगे बढ़ता चला जा रहा था. उसी बीच एक रात वह पूरी थकावट में सोया था कि उस की जेब से मोबाइल, कुछ नकदी और एटीएम कार्ड गायब हो गए.

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