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मेरा चिड़चिड़ापन बढ़ता गया था. बच्चों पर गुस्सा निकालती थी. नौकर की जरा सी लापरवाही पर उसे फटकार देती. हर्ष देर से आते तो तकरार करने लग जाती. एक दिन मैं ने कितने अविश्वास से उन से बात की थी. आज सोचती हूं तो लज्जित हो उठती हूं. कितनी नीचता थी मेरे शब्दों में. शायद उस दिन हर्षजी को कुछ ज्यादा देर हो गई थी. मैं ने उन से कहा था, ‘आज नई कंप्यूटर औपरेटर के साथ कोई प्रोग्राम था?’

‘क्या कहना चाहती हो?’ वे कठोरता से बोले थे.

‘यही कि इतनी देर फिर तुम्हें कहां हो जाती है?’

‘मैं नहीं समझता था, तुम इतनी नीच भी हो सकती हो. देर क्यों होती है. सब सुनना चाहती हो? इस घर में आने की बात दूर, इस घर की याद भी जाए, अब यह भी मुझ से बरदाश्त नहीं होता. मैं ने क्या सोचा था, क्या हो गया. मेरे सपनों को तुम ने चूरचूर कर दिया है,’ वे तड़प कर बोले थे.

कभीकभी मुझे अपने व्यवहार पर बहुत पछतावा होता. मैं सोचती, ‘ये सब लोग क्या कहते होंगे? आखिर है तो छोटे घर की. स्वभाव कैसे बदलेगी,’ लेकिन यह विचार बहुत थोड़ी देर रहता.

बच्चों को हर्ष ने होस्टल में डाल दिया था. अब वे मेरी ओर से और भी लापरवाह हो गए थे. मैं अब कितना अकेलापन महसूस करने लगी थी. एक दिन मैं ने उन से कहा था, ‘तुम दिनभर औफिस में रहते हो. बच्चों को तुम ने होस्टल में डाल दिया है. दिनभर अकेली मैं बोर होती रहती हूं. इस तरह मैं पागल हो जाऊंगी.’

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