‘जाओ, कैशियर से एडवांस ले लो और एक और साड़ी खरीद लो. मुझे उम्मीद है भविष्य में तुम हर बात का ध्यान रखोगी. मुझे सस्तापन बिलकुल पसंद नहीं,’ और मुझे एडवांस देने के लिए उन्होंने कैशियर को टैलीफोन कर दिया था.
फिर मैं ने उन्हें शिकायत का कभी मौका नहीं दिया था. मैं बड़ी लगन और मेहनत से काम करती थी. वे मेरा काम देखते और मुसकरा देते. इस से मेरा उत्साह बढ़ जाता.
उन का नाम हर्ष था. वे मेरे काम से इतने खुश थे कि अब वे कई कामों में मेरी सलाह भी ले लेते थे. उन के मोबाइल का नंबर सेव रहता था मेरे दिल में. घर में एक ही मोबाइल था जिसे सब इस्तेल करते थे. हमारे बीच चुप्पी की वह दीवार न जाने कब गिर गई थी जो नौकर और मालिक के बीच होती है. कई बार वे हंस कर कहते, ‘अचला, तुम तो अब मेरी सलाहकार हो गई हो, और सलाहकार अच्छे दोस्त भी होते हैं.’
मेरे सुखदुख और जरूरत का वे हमेशा ध्यान रखते थे. एकदो बार मुझे वे अपने घर भी ले गए थे. वहां उन की मम्मी का मुझे भरपूर स्नेह मिला था. वे ब्लडप्रैशर की मरीज थीं, लेकिन बहुत हंसमुख थीं और यह महसूस ही नहीं होने देती थीं कि वे बीमार हैं.
हर्ष ने कभी ऐसी कोई हरकत नहीं की थी जिस से मेरे मन को ठेस लगे, कोई मर्यादा भंग हो या हम किसी के उपहास का पात्र बनें.
एक दिन मेरी तबीयत बहुत खराब थी. दफ्तर का काम निबटाना जरूरी था, इसीलिए मैं चली गई थी. मैं कुछ पत्र टाइप कर रही थी और मुझे महसूस हो रहा था कि हर्ष की निगाहें बराबर मेरा पीछा कर रही हैं. मैं घबराहट से सुन्न होती जा रही थी. तभी उन्होंने पुकारा था, ‘अचला, लगता है आज तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं. तुम्हें नहीं आना चाहिए था. जाओ, घर जाओ. यह काम इतना जरूरी नहीं है, कल भी हो सकता है.’
‘बस, सर, थोड़ा काम और रह गया है, फिर चली जाऊंगी.’
‘जरा इधर आओ. यहां बैठो,’ उन्होंने सामने वाली कुरसी की ओर इशारा किया.
मेरे बैठने पर पहले तो वे कुछ देर चुप रहे, लेकिन थोड़ी देर बाद सधे स्वर में बोले थे, ‘बहुत दिनों से मैं तुम्हें एक बात कहने की सोच रहा था. मैं जो कुछ भी कहूंगा, भावुकता में नहीं कहूंगा और इस का गलत अर्थ भी मत लगाना. मैं ने तुम से शादी करने का निश्चय किया है. तुम से ‘हां’ या ‘न’ में उत्तर नहीं चाहता, बात तुम्हारे पापा से होगी. केवल अपना परिचय देना चाहता था, ताकि तुम उस पर गौर से सोच सको और जब तुम्हारे पापा तुम से शादी के विषय में बात करें तो अपना निर्णय दे सको.
‘यह तो तुम ने देख ही लिया है, मेरा बिजनैस है और परिवार के नाम पर सिर्फ मेरी मां हैं. मां को भी तुम ने देखा है, बीमार रहती हैं. तुम सोच रही होगी कि मैं ने अभी तक शादी क्यों नहीं की. मैं चाहता था, मुझे ऐसी लड़की मिले, जो विनम्र हो, कर्तव्यनिष्ठ हो, जिस में हर काम कर गुजरने की लगन हो, जो विवेकशील हो, तब शादी करूंगा. कभी यह इच्छा नहीं हुई कि संपन्न घराने की लड़की मिले. इतना तो हमारे पास है ही कि सारी उम्र किसी के आगे हाथ पसारने की जरूरत नहीं. इतने दिनों में मैं ने तुम्हें बहुत परखा है. मैं जान गया हूं, तुम्हीं वह लड़की हो, जिस की मुझे तलाश थी. तुम्हारे साथ शादी मैं दयावश नहीं कर रहा हूं. मुझे तुम्हारी जरूरत है. मैं तुम्हारे पापा से जल्दी ही बात करूंगा. ‘हां’ या ‘न’ का फैसला तुम्हें करना है और उस के लिए तुम स्वतंत्र हो.’
पापा से उन्होंने बाद में बात की थी. मैं ने पहले ही सबकुछ बता दिया था, क्योंकि मैं पापा से कभी कोई बात नहीं छिपाती थी.
पापा ने उन की आयु का सवाल उठाया था. लेकिन मां ने यही कहा था, ‘आयु तो गौण बात है. जीनामरना किसी के हाथ में थोड़े ही है.’
जब हर्ष ने बाबा से बात की तो बाबा ने बस यही कहा था, ‘मेरी परिस्थिति से आप परिचित हैं. इस के बाद भी आप अचला का हाथ मांग रहे हैं तो मुझे इनकार नहीं है. कौन मांबाप अपनी संतान को सुखी नहीं देखना चाहता?’
हमारी शादी हो गई थी. एक साल कैसे निकल गया, पता ही नहीं लगा. मैं ने घर की सारी जिम्मेदारियां संभाल लीं. हर्ष और मां मेरे व्यवहार से बहुत खुश थे. मेरे पापा हमेशा कहते, ‘बेटी, तू बड़े घर ब्याही गई है, लेकिन बाप की हालत को मत भूलना. पुराने दिन याद रहें तो आदमी भटकन से बचा रहता है. अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक रहोगी तो सब से प्यार और सम्मान मिलता रहेगा.’
मेरा पहला बेटा जब हुआ था तब तक तो सब ठीक था. लेकिन दूसरे बेटे के पैदा होने पर न जाने मुझे क्या हो गया था कि मैं बीमार रहने लग गई थी. तबीयत की वजह से मेरा किसी काम में मन नहीं लगता था. हर्ष के और मां के जिस काम को करने से मुझे हार्दिक संतोष मिलता था, अब मैं उस से भी कतराने लग गई थी.
कभी हर्ष कहते, ‘यह तुम्हें क्या होता जा रहा है? तुम पहले तो ऐसी नहीं थीं?’ तो बजाय सीधी बात करने के, मैं गुस्सा करने लगती.
कितने ही डाक्टरों को दिखाया गया. सब का एक ही उत्तर होता, ‘शरीर तो बिलकुल स्वस्थ है, कोई बीमारी नजर ही नहीं आती, क्या इलाज किया जाए? हां, इन्हें अपनेआप को व्यस्त रखना चाहिए.’
जब यही बात हर्ष मुझ से कहते तो मैं बिगड़ उठती, ‘मैं और कैसे व्यस्त रहूं? जितना काम हो सकता है, करती हूं. तुम सोचते हो, मैं झूठ बोलती हूं. तुम्हारे पास तो इतना भी वक्त नहीं, जो आराम से पलभर मेरे पास बैठ कर मेरा सुखदुख जान सको.’
‘तुम क्या चाहती हो, दफ्तर का काम छोड़ कर तुम्हारे दुख में आंसू बहाया करूं? पहले क्या मैं सारा दिन तुम्हारे पास बैठा करता था, जो अब तुम्हें शिकायत है कि मैं बैठता नहीं? मेरे लिए मेरा काम पहला फर्ज है, बाकी सबकुछ बात में, इसे तुम अच्छी तरह जानती हो,’ वे सख्त आवाज में बोले थे, ‘और फिर तुम्हें बीमारी क्या है?’
‘बस, अमीर लोगों के यही तो चोंचले होते है. गरीब की लड़की ले आना ताकि ईमानदार नौकरानी बनी रहे. गरीब की सांस भी उखड़ने लगे तो अमीर समझता है, तमाशा कर रहा है,’ मैं सुबक पड़ी थी.
‘अचला, इस से पहले कि मैं कोई सख्त बात कहूं, तुम यह याद रखना आज के बाद तुम्हारे मुंह से कोई गलत बात न निकले. तुम जानती हो बदतमीजी मुझे बिलकुल पसंद नहीं है,’ और वे गुस्से में चले गए थे.
हर्ष ने मुझ से बोलना कम कर दिया था. मैं और कुढ़ने लग गई थी. बदतमीजी भी मैं ही करती थी और उन से शिकायत भी मुझे ही रहती थी. यह तो मैं आज सोचती हूं न. तब किसे जानने की फुरसत थी? पापा के समझाने पर उन से भी तो मैं ने अनापशनाप कह दिया था.