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वसुंधरा अपार्टमैंट की बात निराली थी. उस में रहने वालों के सांझे के चूल्हे भले ही नहीं थे पर सांझे के दुखसुख अवश्य थे. एकदूसरे की आवश्यकता को पलक झपकते ही बांट लिया करते थे. वहां सभी धर्मों के त्योहार बड़े ही हर्ष से मनाए जाते थे. प्रेमप्यार के सागर के साथ मानमनुहार के कलश भी कहींकहीं छलकते ही रहते थे.

हंसी और खिलखिलाहटों की गूंज पूरे भवन में रहती थी. किसी भी उम्र की दहलीज क्यों न हो, मन की सूनी घाटियों पर अकेलेपन के बादल कभी नहीं मंडराते थे. अतीत के गलियारों से संयुक्त परिवार के परिवर्तित रूप को लाने का प्रयास था, जिस की अनगिनत सहूलियतों से सभी सुखी व सुरक्षित थे.

उसी बिल्ंिडग के एक फ्लैट में नए दंपती सरिता और विनय का आना हुआ. उन का सामान वगैरह कई दिनों से आता रहा. रहने के लिए वे दोनों जिस दिन आए, नियमानुसार बिल्ंिडग की कुछ महिलाएं मदद के लिए गईं.

जब वे वहां पहुंचीं तो किसी बात पर नए दंपती आपस में उलझ रहे थे. फिर भी उन्हीं के फ्लोर पर रहने वाली नीतू ने कहा, ‘‘हैलो, नमस्ते अंकल व आंटी. मैं नीतू, आप के सामने वाले फ्लैट में रहती हूं. आप का घर अभी ठीक नहीं हुआ है. इतनी गरमी में कहां खाने जाइएगा. आज लंच हमारे साथ लें और रात का डिनर इस अंजू के यहां रहा. यह आप के फ्लैट के ठीक ऊपर रहती है,’’ कहते हुए नीतू ने अंजू का परिचय दिया.

अंजू ने खुश होते हुए कहा, ‘‘आंटी, हम दोनों के यहां एक ही बाई काम करती है, उस से कह दूंगी, लगेहाथ आप के यहां भी काम कर देगी.’’

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