कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

‘‘क्या बुरा लगेगा? मैं उस की मां हूं, तुम उस की पत्नी हो, बुरा तो हमें लगना चाहिए,’’ मैं ने गुस्से में कहा.

विभा तैयार हो कर आ गई, ‘‘आप लोग यहां बैठिए. मैं अभी उन्हें बुला कर लाती हूं.’’

‘‘नहीं, हम भी चलेंगे,’’ मैं उठ खड़ी हुई.

वह अचकचा गई, ‘‘आप क्यों...’’

‘‘चलो कविता,’’ मैं ने उसे भी उठने का इशारा किया. एक बार मैं जो तय कर लेती थी, कर के ही रहती थी. प्रमोद तो जानता ही था कि मैं कितनी जिद्दी हूं.

विभा अस्पताल पहुंच कर कुछ तेज कदमों से चलने लगी. वार्ड के बाहर तख्ती लगी थी, ‘कैंसर के मरीजों के लिए’. वह निसंकोच अंदर चली गई. कुछ मिनटों बाद प्रमोद लगभग दौड़ता हुआ बाहर आया, ‘‘मां, आप यहां?’’

मेरे पीछे खड़ी कविता शायद उसे दिखी नहीं. पर मुझे प्रमोद के पीछे आती एक दुबलीपतली, कंधे तक कटे बालों वाली सांवली, लेकिन अच्छे नैननक्श वाली लड़की दिख ही गई. मैं समझ गई कि यही प्रभा है.

प्रमोद के कुछ कहने से पहले मैं फट पड़ी, ‘‘तुम्हें कुछ खयाल भी है कि तुम्हारा घरबार है, पत्नी है, मां है, और...’’

‘‘मुझे सब पता है, मां. मैं भूलना चाहता हूं तो भी आप भूलने कहां देती हैं? आप जरा धीरे बोलिए, यह अस्पताल है,’’ उस के स्वर में कड़वाहट थी. वह पहली बार मुझ से इस ढंग से बोल रहा था.

अचानक विभा बाहर दौड़ती हुई आई. ‘‘दीदी, जल्दी अंदर चलो. मां को होश आ गया है.’’

प्रभा और प्रमोद तेजी से अंदर भागे. मेरे कदम भी उसी दिशा में बढ़ गए. कविता भी मेरे पीछे चली आई.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...