भावनाओं को ठेस पहुंचना अब इस देश में आम हो गया है. प्रधानमंत्री की पोल खोलने, किसी मूर्ति को अलग तरह से दिखाने, किसी पत्थर पर कटाक्ष करने, सात समंदर पार बनी किसी फिल्म में कैरेक्टर के रूप से देवीदेवता को

देख कर भावना को ठेस पहुंच जाती है क्योंकि, भावना को ठेस पहुंचने पर, बस, पड़ोस के पुलिस स्टेशन में जा कर एक प्राथमिकी यानी एफआईआर लिखानी होती है. न तथ्य पेश करने होते हैं, न मेहनत करनी होती है, न दिखाना होता है कि उस से भावना इतनी आहत हुई कि किसी का हार्ट फेल हो गया और उस की मौत हो गई.

यह भावना धार्मिक मामलों में ही आहत होती है और इन धार्मिक मामलों में धर्म के आज के रक्षक प्रधानमंत्री भी शामिल हैं. पहले पौराणिक धार्मिक देवीदेवताओं की असलियत बताने पर भावना आहत होती थी, अब धर्मसत्ता के प्रतीकों पर भी भावना आहत होने लगी है.

मजेदार बात यह है कि एक औरत को घर से निकाल देने, उस को जलाने की कोशिश करने, मजदूरों के सैकड़ों मील पैदल चल कर घर पहुंचने, नोट बदलने के लिए घंटों व दिनों लाइनों में लगने पर यह भावना आहत नहीं होती. शहरों में कूड़े के ढेर लगे रहने, पानी में बदबू आने पर, शौचालयों की कमी की वजह से दीवारों को शौचालय बनाने, ठूंस कर बस में चलने, बिजली का बिल या टैक्स भरने पर लगी लंबी लाइन पर भी भावना को ठेस नहीं पहुंचती.

किसी लड़की पर गंदे कमैंट देते लड़कों के  झुंड को देख कर किसी की भावना आहत नहीं होती. देह व्यापार में फंसी औरतों की दुर्दशा को देख कर कोई भावना आहत नहीं होती, कड़ाके की ठंड में खुले आसमान के नीचे पतली चादर में सोते लोगों को देख कर भावनाएं आहत नहीं होतीं. थानेदार इन पर एफआईआर लिखने वाले को खुद पुलिस की भावना को ठेस पहुंचाने के लिए गिरफ्तार कर लेगा, ऐक्शन लेना तो दूर.

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