भारत में राष्ट्रपति केवल संवैधानिक प्रतीक है कि वह शासक है. सरकार उसी के नाम पर चलती है और 1950 से ही राष्ट्रपति के पास न्यायालय के अधिकार रहे है. भारत में अब तक ऐसा मौका नहीं आया जब राष्ट्रपति को शासन की असली बागडोर संभालनी हो. इसलिए द्रौपदी मुर्मू के निर्वाचन को किसी लोकतांत्रिक क्रांति का नाम देना गलत ही होगा.

भारतीय जनता पार्टी के नेता दौपदी मुर्मू के सफल चुनाव पर जो कसीदे पढ़ रहे हैं असल में नरेंद्र मोदी का मुंह देख कर उसी धुन पर बांसुरी बजा रहे हैं. द्रौपदी मुर्मू जैसी कोई आदिवासी महिला नेता बिना किसी बड़ी पार्टी के सहयोग से अगर किसी राज्य की मुख्यमंत्री भी बनती तो एक छोटीमोटी क्रांति कहा जा सकता था जैसा मायावती, जयललिता या ममता बनर्जी ने कर दिखाया.

भारतीय समाज प्रतीकों में बहुत विश्वास करता है और इतना करता है कि प्रतीक की मौजूदगी को वास्तव में ठोस मानने लगता है. चमत्कारों में विश्वास पैदा करना हर धर्म का मुख्य हथकंडा है पर जब इसे राष्ट्रीय राजनीति में ले आया जाए तो इस का खोखलापन स्पष्ट हो जाता है.

भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रपति मनोनीत द्रौपदी मुर्मू और कांग्रेस की मनोनीत प्रतिभा पाटिल में कोई खास फर्क नहीं है. दोनों योग्यता और सौभाग के कारण बहुमत के मतों वाली पार्टी की देन हैं पर न प्रतिभा पाटिल से आशा थी कि वे देश को बदलेंगी न द्रौपदी मुर्मू से की जानी चाहिए. हां, कोई अप्रत्याशित घटना घट जाए और यूक्रेन के ऐक्टर कौमेडियन वोलोदोमीर जेलेंस्की की तरह संकट के दौरान देश का नेतृत्व करने का मौका मिल जाए, तो बात दूसरी होगी.

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