Uniform Civil Code : हिंदू भक्तों को खुश करने के लिए यूनिफौर्म सिविल कोड को उत्तराखंड में लागू करवा कर केंद्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी प्रयोग कर रही हैं कि यह कदम कितना वोटकैचर है और कितना कानूनी दांवपेंचों से निकल सकता है. असल में इस का उद्देश्य देश में एक कानून लागू करना कतई नहीं है. दरअसल, इस का उद्देश्य अल्पसंख्यकों को यह जताना है कि वे दूसरे दर्जे के नागरिक बन कर रहें. इसी में उन की भलाई है.
जरमनी में नाजी पार्टी ने एडौल्फ हिटलर के 1933 में जीत जाने पर यहूदियों को ले कर कई कानून बनाए थे ताकि यहूदियों को कमजोर किया जा सके जिस का अंत होलोकास्ट में हुआ जिस में 60-70 लाख यहूदियों को गोलियों से, गैस चैंबरों में या भूखा मारा गया. यह प्रयोग दुनिया के दूसरे देशों में बारबार दोहराया जाता है.
विवाह कानूनों में सुधारों की जरूरत होती है, इस पर किसी को आपत्ति नहीं होती. 1955-56 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने हर तरह के विरोध के बावजूद हिंदू व्यक्तिगत कानूनों को अगर न बदला होता तो आज देश की औरतों की स्थिति वह न होती, जो है. मुसलिम औरतें तलाक, बहुपत्नी, हलाला, पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी के सदियों के घिसेपिटे कानूनों में पड़ी रहें, यह कोई नहीं चाहेगा पर जब किसी कानून में संशोधन गलत नीयत से किया जाता है तो उस की अच्छाइयां भी खराब लगने लगती हैं. उत्तराखंड के यूनिफौर्म सिविल कोड में क्या है, क्या नहीं, यह अभी तक चर्चा का विषय नहीं है क्योंकि इस की हर धारा पर अभी अदालती मोहर लगना बाकी है.
अदालतों के फैसले सरकारी रुख के अनुसार होंगे या नहीं, इस पर फिलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता पर जिस तरह राम मंदिर के मामले में अदालत ने कानून की मूल भावना के साथ खिलवाड़ किया था वही इस मामले में मुसलिम औरतों के उद्धार के नाम पर किया जा सकता है. फिर भी तब तक इस कानून पर ज्यादा बहस करना बेकार है क्योंकि असली बहस तो अब अदालतों के चैंबरों में होगी.
इतना अवश्य है कि इस कानून से हिंदू औरतों को कोई लाभ नहीं होना. दहेज, जाति, कुंडली, विधिविधान, रीतिरिवाज, घूंघट, मंगलसूत्र, तलाक में देरी, हिंसक पति जैसे मामलों में उन्हें कोई लाभ मिलेगा, ऐसा नजर नहीं आता. असल में यह यूनिफौर्म सिविल कोड न हो कर मुसलिम विवाह कोड और लिवइन कोड बन कर रह गया है. यह कट्टरपंथी हिंदुओं का अपना एजेंडा है, धार्मिक एजेंडा.