जिस तरह से मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल के 2 वर्ष पूरे होने पर समाचारपत्रों, जिन में अंगरेजी के तो सभी शामिल हैं लेकिन भारतीय भाषाओं के छिटपुट हैं, में विज्ञापन प्रकाशित किए हैं, उस से साफ है कि नरेंद्र मोदी का कहना है कि उन की सफलता महसूस न करो, उसे सिर्फ अखबारों और टीवीस्क्रीनों पर देखो. सही बात है. सदियों से हम हिंदू धर्म का गुणगान उस की जमीनी हकीकत से नहीं, उस के ग्रंथों, वेदों, पुराणों, स्मृतियों, उपनिषदों, महाकाव्यों आदि से ही तो करते रहे हैं.
नरेंद्र मोदी सरकार के 2 वर्ष मनमोहन सिंह-सोनिया सरकार के 15 वर्षों से कुछ अलग हैं, ऐसा महसूस नहीं होता. भ्रष्टाचार के बड़े मामले तो सामने नहीं आए पर नरेंद्र मोदी के सामने ही विजय माल्या 9,000 करोड़ ले कर भाग गया और उन्हीं की पार्टी की एक केंद्रीय मंत्री और एक मुख्यमंत्री दूसरे भगोडे़ ललित मोदी की सहायता कर उसे शराफत का प्रमाणपत्र देते दिखे. नरेंद्र मोदी की सरकार ने उन अमिताभ बच्चन को सिरआंखों पर लिया है जो कभी राजीवसोनिया के निजी मित्र थे और जिन का नाम पनामा पेपर्स में संदिग्ध व्यक्तियों की सूची में शामिल है. भ्रष्टाचार के मामलों के खुलासे विनोद राय, भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने किए थे और चूंकि अब उन्हें पद्म पुरस्कार मिला है और मौजूदा सरकार ने उन्हें बैंक बोर्ड ब्यूरो का अध्यक्ष भी नियुक्त किया है. ऐसे में उन के दिए गए आंकड़े, जो अब तक साबित नहीं हुए हैं, सही हैं या नहीं, अब संदेह के दायरे में हैं.
भ्रष्टाचार के अलावा किसी और क्षेत्र में कुछ ऐसा हुआ हो, जिस से भाजपा के कट्टर भक्तों के अलावा कोई आतिशबाजी छोड़े, ऐसा नजर नहीं आता. डौलर का मूल्य बढ़ गया जबकि कच्चा तेल सस्ता हो गया. पैट्रोलडीजल महंगे हुए. व्यापारउद्योगों में कोई विशेष प्रगति नहीं है. समाज सुधार के कानून नहीं बने. देश में डर का माहौल बन गया है. कोई भी किसी को भी गोहत्या का आरोपी या देशद्रोही कह कर पकड़वा सकता है. सरकार ने जिस कालेधन को वापस लाने की बात की थी, वह अंशभर भी पूरी नहीं हुई है. विदेशों में भारतीय मूल के अंधविश्वासी हिंदुओं के बल पर विदेशों में पहचान बनी है पर कोई खास विदेशी सहायता मिली हो या नरेंद्र मोदी के बीसियों विदेशी दौरों का लाभ भारत को हुआ है, दिखता नहीं, सिवा विज्ञापनों में.
2 वर्ष एक सरकार को अपना कामकाज दिखाने के लिए काफी होते हैं पर भारत ऐसा धीमा रेंगता देश है कि यहां 2 साल में अढ़ाई कोस तो वैसे भी कोई नहीं चल सकता. नरेंद्र मोदी ने अपने प्रयासों में चाहे कोई कमी न छोड़ी हो पर उन्हें जो अपनी पार्टी के साथी मिले हैं या विरासत में जो नौकरशाही मिली है, उसे तो वे बदल नहीं सकते. जो फैसले नरसिंह राव और मनमोहन सिंह ने 1991 में आते ही लिए थे, उस तरह से याद रखने वाले फैसले नहीं हुए हैं. जो दिख रहा है वह सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का स्पष्ट उल्लंघन कर जारी करने वाले विज्ञापनों में दिख रहा है. उसी पर बधाई दी जा सकती है कि अब ऐसी सरकार है जो आलोचना की परवा किए बिना चल रही है और अपनी पीठ खुद थपथपा कर महानता का गुणगान कर रही है.