रामविलास पासवान के पुत्र को जिस बेइज्जती से दिल्ली के घर से निकाला गया है और उन के पिता की तस्वीरों को बाहर गेट पर पटक दिया गया ताकि पूरी जनता टीवी कैमरों के माध्यमों से देख सके, दलितों को उन की सही औकात बताती है. अगर उत्तर प्रदेश में मायावती डटी रहती है और कितने ही दलित नेता सरकारी चरण चूमते नजर आते हैं तो इसलिए कि उन्हें अपनी औकात के बारे में पैदा होते ही बता दिया जाता है.

रामविलास पासवान ने कभी दलितों के लिए कार्य किया था, उन के हितों के लिए लड़े थे पर जल्दी ही उन्हें एहसास हो गया कि इस कौम की जनता अपने हकों के लिए लड़ सकती ही नहीं है. वे भी उसी रास्ते पर चल दिए जिस पर मायावती चलीं और उदित राज चले.

चिराग पासवान ने भारतीय जनता पार्टी ही नहीं, लालूृ यादव की राष्ट्रीय लोकदल का भी साथ न देने का फैसला करा जो उन्हें उन के उन सलाहकारों की देन था जो कौम के बल पर कुछ छोटे लाभों के लालच में आ गए. रामविलास पासवान ने लगातार एक के बाद एक पाॢटयां बदलीं और यह भरोसा ऊंची जातियों को दिला दिया कि दलितों के वोट पाने के लिए उन्हें बराबर के मौके, हक, स्थान आदि देने की जरूरत नहीं, कुछ टुकड़े फेंकने की जरूरत है, बाकी काम वे पाठ पढ़ाने वाले करते रहते हैं जो उन्हें कहते रहते हैं कि उन का जन्म इस कौम में हुआ तो इसलिए कि उन्होंने पिछले जन्मों में पाए किए थे.

रामविलास पासवान या चिराग पासवान या दूसरे सैंकड़ों दलित नेता, अफसर, प्रोफेसर, ङ्क्षचतक, लेखक इस गलतफहमी को दूर करने की जगह अपनी जनता को कुछ टुकड़े दिलाने में लगे रहते हैं. उसी चक्कर में उन्हें अपने लिए कुछ ज्यादा मिल जाता है जिस से वे खुश रहत हैं. रामनिवास पासवान पिछली कई सरकारों में लगातार पाॢटयां बदल कर मंत्री बने रहे और उन का दलितों के लिए काम कब का धुल गया और उस का खामियाजा उस बेइज्जती से हुआ जिस से उन के पुत्र चिराग पासवान के दिल्ली के सरकारी बंगले से निकालने पर हुआ.

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