प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण यह दोहराते अघाते नहीं हैं कि भारत दुनिया की सब से तेज बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था है. जनसंख्या में तेजी से वृद्धि होने की वजह से यह सही हो तो भी यह नहीं भूलना चाहिए कि औसत भारतीय ज्यादातर दूसरे देशों के मुकाबले लगातार पिछड़ रहा है.

वियतनाम से थोड़ी तुलना ही इस फूलते गुब्बारे को पंचर करने के लिए काफी है. वियतनाम वह है जो 1980 तक अमेरिकी सोच का निशाना रहा. भारी संख्या में अमेरिकी सेना, जिस में हवाई जहाज, मिसाइल शामिल थीं, वियतनाम पर हमला कर के जो थोड़ाबहुत वहां बना हुआ था, उसे नष्ट करती रही.

भारत के साथ ऐसा पिछले 400 साल में नहीं हुआ. यहां शहरों के शहर कभी नहीं जलाए गए. हां, 1947 के विभाजन पर गहरा आघात यहां के पंजाब व बंगाल के निवासियों पर पड़ा पर बाकी देश में शांति रही, धार्मिक दंगों में छोटीमोटी हत्याएं हुईं और कुछ मकान व गाडि़यां जलीं. लेकिन वियतनाम की तरह खतरनाक बम नहीं गिरे जिन में मीलों तक आग लग जाती है.

उस वियतनाम की प्रति व्यक्ति डौलरों में आय वर्ष 2000 में 394 थी और उस के मुकाबले भारत की प्रति व्यक्ति आय 447 डौलर थी. भारतीय आम आदमी वियतनामी से अमीर था.

पर उस के बाद जहां भारत मंदिर निर्माण में लग गया, वहां वियतनामी फैक्ट्री निर्माण में लग गए. 2015 तक वियतनामी की औसत आय 2,055 डौलर हो गई और भारतीय पिछड़ कर 1,617 पर रह गया. अच्छे दिनों को लाने, भ्रष्टाचारमुक्त शासन, महान नेतृत्व का दावा करने वाली सरकार के 6 साल बाद 2021 में भारतीय की औसत आय 2,041 डौलर रह गई जबकि वियतनामी की औसत आय 2021 में 3,025 डौलर हो गई.

यह जो अंतर हुआ है, इस का जिम्मेदार कौन है? 2000 में हम से 50 डौलर पीछे रहने वाला वियतनामी 2021 आतेआते हम से 1,000 डौलर आगे हो गया है तो फिर नरेंद्र मोदी का ढोल बजाने का कोई कारण नहीं बनता.

असल में हमें अपना गुणगान करने की आदत पुराणों से मिली है. वही अब इतिहास की पुस्तकों में ठूंसी जा रही है. आदमी तब पढ़ता जब अपनी कमियां निकाल सके. हमें यह नहीं बताया जाता कि 2000 में सिंगापुर की प्रति व्यक्ति आय आम भारतीय से 15 गुना थी जो 2021 आने तक 69,896 डौलर यानी 30 गुना हो गई. यह स्वीकार कर के ही देश आगे बढ़ सकता है. मंदिरों, संसदों में पूजा कर के, दंडवत प्रणाम कर के नहीं.

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