अदालतों में जो करोड़ों मामले पैंडिंग पड़े हैं उन पर हर न्यायाधीश, मुख्य न्यायाधीश और कानून गंभीर चिंता जताता है, कुछ सुझाव देता है और फिर अपनी सीट पर बैठ वही काम करने लगता है जिन से बकाया केसों की गिनती बढ़ती जाती है. सुप्रीम कोर्ट से ले कर मुंसिफ की अदालत में हर रोज एक जज या जजों की बैंच पर 30-40 मामले लगे होते हैं जबकि व्यावहारिक बात यह है कि कोई अदालत दिन में 2 या 3 से ज्यादा मामले सुन ही नहीं सकती.

मामलों का बकाया होना असल में जनता को लूटने का नायाब तरीका बन गया है जो चिटफंड कंपनियों, बाबाओं के आश्रमों, माफिया गैंगों और चंबल के डाकुओं से भी ज्यादा चतुराई व गहराई वाला है. इस तरीके का ओरछोर पता ही नहीं चलता. किस ने बनाया, कौन चला रहा है, कैसे चल रहा है किसी को नहीं मालूम, पर लाभ सब उठा रहे हैं. सब का मतलब, जिन के पास अधिकार हैं, जिन्होंने दूसरों का पैसा दबा रखा है या जो दबंग हैं.

पहली अदालत में जब मामला पहुंचता है तब से खेल शुरू हो जाता है. आपराधिक मामलों के लिए सरकार ने इतने कानून बना रखे हैं कि हर रोज सैकड़ों नहीं, लाखों चालान, समन, वारंट जारी कर दिए जाते हैं बिना दिमाग लगाए और बिना सोचे. जब दूसरा पक्ष हांफताकलपता अदालत पहुंचता है, वकील को मोटी फीस देता है तब पता चलता है कि उस का मामला तो घोंघे की तरह चलेगा, हर पेशी पर 2-3 मिलीमीटर. क्यों, यह किसी को पता नहीं. क्यों नहीं पहले ही दिन दोनों पक्षों, दोनों के गवाहों, दोनों के सुबूतों और दोनों के वकीलों को आमनेसामने खड़ा कर फैसला कर दिया जाता, जैसा कि फिल्मी अदालतों में दिखाया जाता है. इसलिए कि फिर ज्यूडीशियल सिस्टम से पैसा कैसे बनेगा, न वकीलों को मिलेगा, न पुलिस वालों, न वाद दाखिल करने वालों को, न गवाहों को. देरी ही तो वह चाबी है जिस से अदालत में पहुंचे लोगों की सेफों को खोला जाता है और खाली किया जाता है.

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