बिचौलियों के खिलाफ लगभग हर देश में हमेशा एक संशय का भाव बना रहता है. चूंकि किराने की दुकान का मालिक ही अंतिम उपभोक्ता के नजदीक होता है और थोक में खरीदने वाला उत्पादक के करीब होता है, इसलिए उपभोक्ता और उत्पादक इन बिचैलियों को बड़ा मुनाफा हड़पने वाला सम झते हैं. यह वैसी ही भावना है जिस के आधार पर देश की नरेंद्र मोदी सरकार ने नोटबंदी लागू की थी कि जनता का बड़ा पैसा कालेधन के रूप में अमीरों के लौकरों में बंद है.

जैसे नोटबंदी पूरी तरह असफल हुई वैसे ही कृषि संशोधन कानून, जिसे मोदी सरकार ने आपातकाल याद दिलाते हुए कोरोनाकाल में संसद से पास करा लिया, असफल होगा. यह ठीक है कि कृषि मंडियों में आढ़तियों का आतंक चलता है और मंडियों के कर्ताधर्ता कृषि उत्पाद पर कब्जा किए हुए हैं. किसानों को महंगे ब्याज पर आढ़तियों से कर्ज लेना पड़ता है और फिर उन्हें सरकारी भाव से भी कम पर उन्हीं आढ़तियों को फसल बेचनी होती है.

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यह भी ठीक है कि आढ़तियों ने मंडी कानूनों के सहारे एक जमींदारी व्यवस्था सी लागू कर रखी है जिस में बहुत से किसान मात्र गुलाम बन कर रह गए हैं. पर, ये आरोप वैसे ही हैं जैसे पुलिस पर आरोप लगाए जाएं कि माफिया तो चलता ही पुलिस थाने से है और पुलिस की मौजूदगी के बावजूद विवाद को माफिया डौनों से सुल झवाने पड़ते हैं. और इसलिए पुलिस व अदालतों को नष्ट कर दिया जाए.

नोटबंदी और जीएसटी की तरह मंडी कानून भी दिखता अच्छा है लेकिन यह सदियों से बने स्ट्रक्चर को तोड़ डालेगा. यह कहना आसान है कि किसान अब उत्पाद चाहे जहां बेचे, पर उसे खरीदार कहां मिलेगा जो 2-3 ट्रौली गेंहू या जौ खरीदेगा. फसल की खरीद तो बहुत किसानों से होगी और हरेक इलाके से हजारों टनों में होगी, तभी तो अन्न देश के दूसरे इलाकों में जा पाएगा.

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