अब यह तो साफ दिख रहा है कि भारत पर कोरोना का कहर लंबा और गहरा ही नहीं, देर तक चलने वाला है. अपने टीवी भाषण में नरेंद्र मोदी ने हांक दिया था कि जैसे महाभारत का युद्ध 17 दिनों में जीत लिया गया था वैसे ही उन के कमाल से कोरोना पर 21 दिनों में जीत हासिल कर ली जाएगी. उस खोखले दावे के पीछे, दरअसल, असलियत यह थी कि तब तक कोरोना कैसेकितना फैलता है, यह पता नहीं था और मोदी की सरकार ने किसी तरह की तैयारी नहीं की थी.
महाभारत का युद्ध न तो प्राकृतिक आपदा से था न विदेशियों से. वह अपनों से था, उन लोगों से था जिन के साथ कृष्ण, युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम साथ खेल कर बड़े हुए थे. कौरवों और पांडवों के पुराने साथी, संबंधी थे. उन के बीच हुए युद्ध को महिमामंडित करना ही गलत है पर यह इस देश की अनूठी परंपरा है कि अपनों के साथ युद्धों या अपनों के साथ विवादों को करने वालों को भगवानों तक का दर्जा दिया जाता है.
कोरोना वायरस का फैलाव, अब तक की जानकारी के अनुसार, चीन से शुरू हुआ था. उस की प्रकृति का हमें पता नहीं था और सारा देश इस बहकावे में आ गया कि यह तो 21 दिनों की बात है. ये तो बीत जाएंगे. फिर जिंदगी पहले की तरह चलनी शुरू हो जाएगी. सरकार ने 21 दिन लोगों को अपने ऊपर ही छोड़ दिया. सारे मंत्री, मुख्यमंत्री, उन के मंत्री, मुख्य सचिव, वरिष्ठ सरकारी अफसर, जज, वकील, व्यापारी, शिक्षक दुबक कर खटियों में जा छिपे कि आने वाला शत्रु उन्हें देख नहीं पाएगा और भाग जाएगा.
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लेकिन, कोरोना तो गंगा के पानी से भी ज्यादा विषैला साबित हुआ जो बाढ़ आने पर कोनेकोने में घुस सकता है, चाहे जितनी गंगा आरतियां की हों, शंख बजाए हों, ढोल पीटे हों. इस मानसिकता का नुकसान यह हुआ कि सरकार ने 21 दिनों के कष्टों और उस के बाद की तैयारी ही नहीं की. जो लाखों मजदूर बड़े शहर छोड़ कर घरों के लिए पैदल निकल पड़े, वे ज्यादा होशियार निकले. उन्हें आभास हो गया कि यह किस्सा 21 दिनों का नहीं, महीनों का है. वे अनपढ़ मजदूर तो प्रधानमंत्री, व्यापारियों, डाक्टरों से ज्यादा सम झदार निकले.
सरकार ने तब महाभारत के युद्ध की तरह अपनों से लड़ाई शुरू कर डाली. पुलिस ने मजदूरों पर डंडे बरसाने शुरू कर दिए. तबलीगी जमात को कठघरे में खड़ा कर के सारा ठीकरा उस के सिर थोपने की कोशिश कर डाली. प्रवचनों को सुन कर बहकने को आमादा अंधविश्वासी लोग उन टीवी चैनलों की सुनने लगे जो अपने ‘आराध्य देवता’ को बचाने के लिए ढूंढ़ढूंढ़ कर तरहतरह के बहाने तब भी ला रहे थे और आज भी ला रहे हैं. नतीजा आज सामने है.
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देश में कोरोना के संक्रमण से प्रभावित होने वालों की संख्या आधा करोड़ यानी 50 लाख से ज्यादा हो चुकी है और लगातार बढ़ती ही जा रही है. जबकि, हमारा जनमानस सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के पीछे छिपे राजों को खोजने में लगा है. कोरोना से लड़ाई तो कब की भुला दी गई है. युद्ध में कृष्ण बने रहें, बस, यही सब की कोशिश रह गई है. कोरोना चाहे फैल जाए, धर्मराज को चोट न पहुंचे.
कोरोना से लड़ाई मैनेजमैंट से की जा सकती है, सरकार के खोखले बयानों से नहीं. कारखानों से ले कर प्रयोगशालाओं तक, दिल्ली, मुंबई शहरों से ले कर दूरदराज गांवों के घरों तक सामान कैसे पहुंचे, उत्पादन कैसे चालू रहे, लोग भूख से कैसे न मरें, कोरोना का शिकार हुए लोगों के परिवारों को ज्यादा तकलीफ न हो, इस का सही प्रबंधन हो. अस्पताल चलें, डाक्टर खुश रहें, नर्सें मिलती रहें, कोरोना से लड़ने के लिए सैनिक तैयार होते रहें, अर्थव्यवस्था चलती रहे, इस का प्रबंधन चांद पर रौकेट भेजने से अधिक मुश्किल है. पर इस का प्रबंधन करने की जगह केंद्र सरकार राजस्थान में सरकार परिवर्तन और राममंदिर के पूजापाठी शिलान्यास में लग गई.
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कोरोना का असर गहरा होगा. यह देश को लंगड़ा बना कर छोड़ेगा. अफसोस यह है कि देश भी खोजबीन में नहीं, धर्म व संस्कृत के मंत्रों में इलाज ढूंढ़ता है.
पुलिस की क्रूरता
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पुलिस अकादमी के आईपीएस प्रोबैशनर्स से हाल ही में अपने लंबे भाषण में यह भी कहा कि उन्हें ‘सिंघम’ फिल्म की तरह पुलिस का भय जनता में पैदा नहीं करना चाहिए, उन में दया व सहृदयता का भाव भी होना चाहिए और उन की छवि उसी तरह की होनी चाहिए.
सिंघम जैसी फिल्मों में पुलिस अफसरों को अकसर ऐसा दिखाया जाता है कि जनता के हितों की रक्षा करने के लिए वे दबंगों का खुल कर मुकाबला करते हैं और इस के लिए नेताओं की धमकियों से नहीं डरते. मजेदार बात यह है कि इन्हीं फिल्मों में अकसर वरिष्ठ अफसरों को नेताओं और मंत्रियों की जीहुजूरी करते भी दिखाया जाता है जो अपने सिंघम अफसरों पर लगाम लगाते रहते हैं.
पुलिस का कहर हमारे देश में ही नहीं है, लगभग पूरी दुनिया में है.
अपराधियों से जू झतेजू झते पुलिस वाले खुद अपराधी बन जाते हैं और वे हर तरह के सम झौते करतेकरते क्रूर व वहशी बन जाते हैं. हाल में रिलीज हुई वैब सीरीज ‘आश्रम’ में पुलिस वाले एकदूसरे से राजनीति करते दिखाए गए हैं, जाति का कहर ढाते दिखाए जाते हैं. और फिर, वे मुख्यमंत्री, मंत्री की चिरौरी करते भी नजर आते हैं.
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भारत के प्रधानमंत्री पुलिस अफसरों से निवेदन करें कि वे सहृदयी हों, यह कुछ जमता नहीं. उन्हें तो आदेश देना चाहिए. वे गुजारिश न कर के नियम बनाएं कि हद से ज्यादा बढ़ने वाले पुलिस वालों से सख्ती से निबटा जाएगा और सिर्फ लाइनहाजिर होने की सजा उन के लिए काफी नहीं होगी.
लेकिन, किसी प्रधानमंत्री के लिए ऐसा आदेश देना संभव नहीं है. पुलिस की सहायता हर प्रधानमंत्री से ज्यादा उस की पार्टी को चाहिए होती है. यदि पुलिस का सहयोग न होता तो 1993 में अयोध्या की बाबरी मसजिद गिरती नहीं. केंद्र सरकार ने पर्याप्त सुरक्षा कर रखी थी पर पुलिस वालों ने उस समय, जो भी कारण रहा हो, उद्दंड हिंदू भीड़ को नियंत्रित नहीं किया.
पिछले 2 दशकों में पुलिस में धर्म और जाति को ले कर एक अजीब भावना बैठ गई है जिस का खुला प्रदर्शन तब देखने को मिला जब भूखे, फटेहाल मजदूर बिना शांति भंग किए बड़े शहरों से अपने गांवों में लौकडाउन के बाद लौट रहे थे. ऐसा आज भी दोहराया जा रहा है, पर चूंकि टीवी मीडिया को रिया चक्रवर्ती के पीछे लगा दिया गया है, असल खबरें छिपा दी जा रही हैं.
अमेरिका में ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन गोरे पुलिसमैनों का हर काले को अपराधी मानने की देन है. पश्चिम एशिया में पुलिस का नाम सुनते ही नागरिकों का दिल कांप जाता है. नाजी जरमनी और कम्युनिस्ट चीन व रूस में पुलिस का मतलब रक्षक नहीं रहा. रक्षा तो वे सत्ता की करते हैं.
पुलिस फोर्स कहने को जनता को अपराधियों से बचाती है पर असल में वह सत्ता को नागरिकों से बचाती है. नागरिक मेहनत कर के पैसे कमा कर टैक्स देते रहें, यह सत्ता का उद्देश्य है और कानून व्यवस्था इसे ही लागू करवाती है.
प्रधानमंत्री ने वल्लभभाई पुलिस अकादमी के प्रोबैशनर्स से जो कहा वह ठीक है परंतु पुलिस की प्रकृति और प्रवृत्ति नहीं बदल सकती.
सरकारी अंधविश्वास
परिश्रम करने के बाद भी कारोबार ठप रहे या धन आए लेकिन खर्च हो जाए तो यह टोटका काम में लें- चंद्रमा के किसी शुभदिन सुबहसवेरे हरे रंग की छोटी थैली तैयार करें. उस में 7 मूंग, साबुत धनिया, रुद्राक्ष, चांदी का एक रुपया, 2 सुपारी रखें. इस के बाद गणेश की मूर्ति के आगे संकटनाशक गणेशमंत्र का पाठ करें. और फिर थैली को तिजोरी में रख दें. ऐसा करने से आर्थिक स्थिति में शीघ्र सुधार आएगा.
यह उपाय मंत्रतंत्र का प्रचार करने वाले एक औनलाइन स्रोत से मिला है. भारत सरकार भी कुछ ऐसा ही कर रही है, देश की आर्थिक स्थिति देख कर तो लगता यही है. इस में संदेह नहीं है कि भारत सरकार के प्रधानमंत्री, मंत्री, नीतिनिर्धारक, भाजपाशासित राज्यों के मुख्यमंत्री, और यहां तक कि श्रीहरिकोटा स्थित इसरो के प्रमुख तक इस तरह की बातों में अगाध विश्वास करते रहे हैं.
देश की आर्थिक स्थिति अगर डांवांडोल हो रही है तो इन्हीं के कारण. यही सोच है जो सरकार को तार्किक फैसले लेने से रोकती है जबकि नोटबंदी करने, जीएसटी लगाने, लौकडाउन थोपने, कोरोना को 21 दिनों में हरा लेने, राफेल विमान पर सतिया बनाने, बेजान रामलला के आगे लोट जाने, मंदिर बनाने आदि को प्राथमिकता देना सिखाती है. देश की गरीबी अधिक से अधिक उत्पादन करने से दूर होगी, जबकि सत्ताधारी नेता उत्पादन और तकनीक के अलावा सबकुछ कर रहे हैं. उन को तो यह ‘अंधविश्वासी’ उम्मीद है कि पूजापाठ, नारों, यज्ञों, हवनों, तीर्थों से धनधान्य बढ़ता है जैसाकि उन्होंने सैकड़ों प्रवचनों में सुना है.
3 सितंबर को अमेरिकाभारत स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप फोरम की औनलाइन मीटिंग
में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत की 130 करोड़ जनता का हवाला तो दिया पर यह नहीं बताया कि यह जनता बेहद धर्मभीरु और पूजापाठी है जो उम्मीद करती है कि ऊपर वाले टोटकों से आर्थिक प्रगति हो जाती है. प्रधानमंत्री ने लोकतंत्र और विविधता की बात की है, पर यह नहीं बताया कि यहां हर बड़ेछोटे उद्योग में मंदिर अवश्य बनना है (मसजिद और चर्च नहीं) क्योंकि यहां की 35 वर्ष की आयु से कम वाली
65 प्रतिशत युवा वर्कफोर्स भी दकियानूसी बनाई जा रही है, खोजी नहीं.
हमारे नेता थैलियों में इस तरह का विश्वास रखते हैं कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ब्रीफकेस की जगह लाल कपड़े की अभिमंत्रित पोटली में बजट पेश कर के सोचती हैं कि देश का कल्याण तो अपनेआप हो जाएगा. बड़ों को देख कर धार्मिक पाखंडरूपी यह बीमारी घरघर पहुंच सकती है. जब मुकेश अंबानी, अमिताभ बच्चन और नरेंद्र मोदी अंधविश्वासों को चिपकाए रखें और मंदिरों में दर्शन करते समय अपनी तसवीरें खिंचवाएं तो आम जनता ऐसा करने में क्यों पीछे रहेगी?
2014 के बाद लगातार गिरती अर्थव्यवस्था का अप्रैलजून 2020 तिमाही में रिकौर्ड 25 प्रतिशत गिर जाना आश्चर्य नहीं है क्योंकि सरकार तो इस अंधविश्वास में थी कि तालीथाली बजाने से कोरोना गायब हो जाएगा और आर्थिक आंच नहीं आएगी. मोदी के कहने पर लोगों ने खुशीखुशी यह काम किया मानो वैक्सीन खोज ली हो. अब नतीजा सामने है, कोरोना ऊपर है, व्यापार नीचे. ऐसे में कौन भारत आएगा?
हां, लोग भारत में निवेश करेंगे, पर भारत को लूटने के लिए. गरीबों की बस्तियों में भी सूदखोरों का धंधा खूब चलता है. सहारा जैसी कंपनियां वहीं से पैसा बटोरती हैं और महाजन वहीं उधार देते हैं 40 से 100 प्रतिशत ब्याज की दर पर. भोली, कुंठित, अंधी, भक्त जनता सदियों से बहकाई जाती रही है. और ऐसी कल्पना उस जनता की रगों में आज भी बह रही है. हमारे नेता उस का लाभ उठा रहे हैं. उस में सुधार करने की उन की कोई इच्छा नहीं है.