बिहार की विधानसभा के लिए हो रहे चुनावों को इस बार नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का टैस्ट बनने देने से रोकने में भारतीय जनता पार्टी पूरा जोर लगा रही है. राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव के बीमार व रांची की जेल में होने के कारण जनता दल यूनाइटेड के मुखिया व प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को कड़ा चैलेंज देने वाला कोई बड़ा नेता मौजूद नहीं है. इस का लाभ वे उठा ले जा सकते हैं लेकिन मतदाताओं का भरोसा नहीं.

जनता अब चुप रहना सीखने लगी है क्योंकि पैसे, पुलिस और पावर के आगे मुंह खोलने की हिम्मत कम ही में है. कोरोना वायरस की महामारी के कारण वैसे भी भीड़ जमा नहीं की जा सकती वरना सरकारी तंत्र विपक्ष पर तुरंत इलजाम थोप देगा.

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दलबदलू और पलटीमार नीतीश कुमार ऊपर से चाहे जितने सौम्य व सक्षम दिखते हों, पर वे 15 वर्षों के अपने शासन में बिहार का कायाकल्प नहीं कर पाए. कुछ पक्की सड़कें बना देनेभर से राज्य का विकास नहीं हो जाता. विकास तो तब होता है जब लोगों को नौकरियां मिल रही हों, कारखाने लग रहे हों और  अनुशासन हो मगर अफरातफरी और गंदगी न हो.

नीतीश कुमार के राज की पोल तो उन एक करोड़ मजदूरों ने खोली जो लौकडाउन के बाद बिहार में अपने घरों में वापस लौटे. नीतीश कुमार ने उन से सौतेला व्यवहार किया. रास्ते में पड़ने वाले भाजपाशासित राज्यों में बिहारी मजदूरों की हुई पिटाई पर नीतीश ने मुंह बंद रखा था. यही नहीं, उन्हें बिहार में रोकने की इच्छा तक नहीं जताई. ये लोग दूसरे शहरों और दूसरे देशों से कमा कर बिहार में अपने घर वालों को पैसा भेजते हैं और बिहार की नीतीश सरकार को उस कमाई में से टैक्सों के रूप में बैठेबिठाए हिस्सा मिल जाता है. बिहार सरकार तो इन मजदूरों को वापस भेजना चाहती है ताकि उन्हें इन की देखभाल न करनी पड़े.

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